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॥ विष्णुपुराणम् ॥ चतुर्थः अंशः ॥ नवमोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
रजोस्तु पञ्च पुत्र शतानि अतुलबलपराक्रम साराण्यासन् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-रजिके अतुलित बलपराक्रमशाली पाँच सौ पुत्र थे ॥ १ ॥ देवासुरसङ्ग्रामारम्भे च परस्परवधेप्सवो देवाश्चासुराश्च ब्रह्मणामुपेत्य पप्रच्छुः ॥ २ ॥
भगवन्नस्माकमत्र विरोधे कतरः पक्षो जेता भविष्यतीति ॥ ३ ॥ एक बार देवासुर संग्रामके आरम्भमें एक-दूसरेको मारनेकी इच्छावाले देवता और दैत्योंने ब्रह्माजीके पास जाकर पूछा-"भगवन् ! हम दोनोंके पारस्परिक कलहमें कौन-सा पक्ष जीतेगा ?" ॥ २-३ ॥ अथाह भगवान् ॥ ४ ॥
येषामर्थे रजिरात्मात्तायुधो योत्स्यति तत्पक्षो जेतेति ॥ ५ ॥ तब भगवान् ब्रह्माजी बोले-"जिस पक्षकी ओरसे राजा रजि शस्त्र धारणकर युद्ध करेगा उसी पक्षको विजय होगी" ॥ ४-५ ॥ अथ दैत्यैरुपेत्य रजिरात्मसाहाय्यदानायाभ्यर्थितः प्राह ॥ ६ ॥
तब दैत्योंने जाकर रजिसे अपनी सहायताके लिये प्रार्थना की, इसपर रजि बोले- ॥ ६ ॥ योत्स्योऽहं भवतामर्थे यद्यहममरजयाद्भवतामिन्द्रो भविष्यामि इत्याकर्ण्यैतत्तैरभिहितम् ॥ ७ ॥
"यदि देवताओंको जीतनेपर मैं आपलोगोंका इन्द्र हो सकूँ तो आपके पक्षमें लड़ सकता हूँ ॥ ७ ॥ न वयमन्यथा वदिष्यामोऽन्यथा करिष्यामो अस्माकमिन्द्रः प्रह्लादस्तदर्थमेवायमुद्यम इत्युक्त्वा गतेष्वसुरेषु देवैरप्यसौ अवनिपतिरेवमेवोक्तस्तेनापि च तथैवोक्ते देवैरिन्द्रस्त्वं भविष्यसीति समन्विप्सितम् ॥ ८ ॥
यह सुनकर दैत्योंने कहा-"हमलोग एक बात कहकर उसके विरुद्ध दूसरी तरहका आचरण नहीं करते । हमारे इन्द्र तो प्रह्लादजी हैं और उन्हींके लिये हमारा यह सम्पूर्ण उद्योग है", ऐसा कहकर जब दैत्यगण चले गये तो देवताओंने भी आकर राजासे उसी प्रकार प्रार्थना की और उनसे भी उसने वही बात कही । तब देवताओंने यह कहकर कि 'आप ही हमारे इन्द्र होंगे' उसकी बात स्वीकार कर ली ॥ ८ ॥ रजिनापि देवसैन्यसहायेन अनेकैर्महास्त्रैस्तदशेष महासुरबलं निषूदितम् ॥ ९ ॥
अतः रजिने देव-सेनाकी सहायता करते हुए अनेक महान् अस्त्रोंसे दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना नष्ट कर दी ॥ ९ ॥ अथ जितारिपक्षश्च देवेन्द्रो रजिचरमयुगलमात्मनः शिरसा निपीड्याह ॥ १० ॥
तदनन्तर शत्रु-पक्षको जीत चुकनेपर देवराज इन्द्रने रजिके दोनों चरणोंको अपने मस्तकपर रखकर कहा- ॥ १० ॥ भयत्राणाद् अन्नदानाद् भवानस्मत्पिताऽशेषलोकानां उत्तमोत्तमो भवान् यस्याहं पुत्रस्त्रिलोकेन्द्रः ॥ ११ ॥
'भयसे रक्षा करने और अन्न-दान देनेके कारण आप हमारे पिता हैं, आप सम्पूर्ण लोकोंमें सर्वोत्तम हैं; क्योंकि मैं त्रिलोकेन्द्र आपका पुत्र हूँ' ॥ ११ ॥ स चापि राजा प्रहस्याह ॥ १२ ॥
एवमस्त्वेवं अस्त्वनतिक्रमणीया हि वैरिक्षादप्यनेकविध चाटुवाक्यगर्भा प्रणतिरित्युक्त्वा स्वपुरं जगाम ॥ १३ ॥ इसपर राजाने हँसकर कहा-'अच्छा, ऐसा ही सही । शत्रुपक्षकी भी नाना प्रकारकी चाटुवाक्ययुक्त अनुनय-विनयका अतिक्रमण करना उचित नहीं होता [फिर स्वपक्षकी तो बात ही क्या है] । ' ऐसा कहकर वे अपनी राजधानीको चले गये ॥ १२-१३ ॥ शतक्रतुरपीन्द्रत्वं चकार ॥ १४ ॥
स्वर्याते तु रजौ नारदर्षिचोदिता रजिपुत्राः शतक्रतुमात्मपितृपुत्रं समाचाराद्राज्यं याचितवन्तः ॥ १५ ॥ इस प्रकार शतक्रतु ही इन्द्र-पदपर स्थित हुआ । पीछे, रजिके स्वर्गवासी होनेपर देवर्षि नारदजीकी प्रेरणासे रजिके पुत्रोंने अपने पिताके पुत्रभावको प्राप्त हुए शतक्रतुसे व्यवहारके अनुसार अपने पिताका राज्य मांगा ॥ १४-१५ ॥ अप्रदानेन च विजित्येन्द्रमतिबलिनः स्वयमिन्द्रत्वं चक्रुः ॥ १६ ॥
किन्तु जब उसने न दिया, तो उन महाबलवान् रजि-पुत्रोंने इन्द्रको जीतकर स्वयं ही इन्द्रपदका भोग किया ॥ १६ ॥ ततश्च बहुतिथे काले ह्यतीते बृहस्पतिमेकान्ते दृष्ट्वा अपहृतत्रैलोक्ययज्ञभागः शतक्रतुरुवाच ॥ १७ ॥
फिर बहुत-सा समय बीत जानेपर एक दिन बृहस्पतिजीको एकान्तमें बैठे देख त्रिलोकीके यज्ञभागसे वंचित हुए शतक्रतुने उनसे कहा- ॥ १७ ॥ बदरीफलमात्रमप्यर्हसि ममाप्यायनाय पुरोडाशखण्डं दातुमित्युक्तो बृहस्पतिरुवाच ॥ १८ ॥
क्या 'आप मेरी तृप्तिके लिये एक बेरके बराबर भी पुरोडाशखण्ड मुझे दे सकते हैं ?' उनके ऐसा कहनेपर बृहस्पतिजी बोले- ॥ १८ ॥ यद्येवं त्वयाहं पूर्वमेव चोदितःस्यां तन्मया त्वदर्थं किमकर्तव्यमिति अल्पैरेवाहोभिस्त्वां निजं पदं प्रपयिष्यामीत्यभिधाय तेषामनुदिनमाभिचारकं बुद्धिमोहाय शक्रस्य तेजोभिवृद्धये जुहाव ॥ १९ ॥
'यदि ऐसा है, तो पहले ही तुमने मुझसे क्यों नहीं कहा ? तुम्हारे लिये भला मैं क्या नहीं कर सकता ? अच्छा, अब थोड़े ही दिनोंमें मैं तुम्हें अपने पदपर स्थित कर दूंगा । ' ऐसा कह बृहस्पतिजी रजि-पुत्रोंकी बुद्धिको मोहित करनेके लिये अभिचार और इन्द्रकी तेजोवृद्धिके लिये हवन करने लगे ॥ १९ ॥ ते चापि तेन बुद्धिमोहेनाभिभूयमाना ब्रह्मद्विषो धर्मत्यागिनो वेदवादपराङ्मुखा बभुवूः ॥ २० ॥
बुद्धिको मोहित करनेवाले उस अभिचार-कर्मसे अभिभूत हो जानेके कारण रजि-पुत्र ब्राह्मण-विरोधी, धर्म-त्यागी और वेद-विमुख हो गये ॥ २० ॥ ततस्तानपेतधर्माचारानिन्द्रो जघान ॥ २१ ॥
तब धर्माचारहीन हो जानेसे इन्द्रने उन्हें मार डाला ॥ २१ ॥ पुरोहिताप्यायिततेजाश्च शक्रो दिवमाक्रमत् ॥ २२ ॥
और पुरोहितजीके द्वारा तेजोवृद्ध होकर स्वर्गपर अपना अधिकार जमा लिया ॥ २२ ॥ एतदिन्द्रस्य स्वपदच्यवनादारोहणं श्रुत्वा पुरुषः स्वपदभ्रंशं दौरात्मयं च नाप्नोति ॥ २३ ॥
इस प्रकार इन्द्रके अपने पदसे गिरकर उसपर फिर आरूढ़ होनेके इस प्रसंगको सुननेसे पुरुष अपने पदसे पतित नहीं होता और उसमें कभी दुष्टता नहीं आती ॥ २३ ॥ रम्भस्त्वपत्त्योऽभवत् ॥ २४ ॥
[आयुका दूसरा पुत्र] रम्भ सन्तानहीन हुआ ॥ २४ ॥ क्षत्रवृद्धसुतः प्रतिक्षत्रोऽभवत् ॥ २५ ॥
तत्पुत्रः संजयस्तस्यापि जयस्तस्यापि विजयस्तस्माच्च जज्ञे कृतः ॥ २६ ॥ तस्य च हर्यधनः हर्यधनसुतःसहदेवः तस्माददीनस्तस्य जयत्सेनस्ततश्च संकृतिस्तत्पुत्रः क्षत्रधर्मा इत्येते क्षत्रवृद्धस्य वंश्याः ॥ २७ ॥ क्षत्रवृद्धका पुत्र प्रतिक्षत्र हुआ, प्रतिक्षत्रका संजय, संजयका जय, जयका विजय, विजयका कृत, कृतका हर्यधन, हबंधनका सहदेव, सहदेवका अदीन, अदीनका जयत्सेन, जयत्सेनका संस्कृति और संस्कृतिका पुत्र क्षत्रधर्मा हुआ । ये सब क्षत्रवृद्धके वंशज हुए ॥ २५-२७ ॥ ततो नहुषवंशं प्रवक्ष्यामि ॥ २८ ॥
अब मैं नहुषवंशका वर्णन करूँगा ॥ २८ ॥ इति श्रीविष्णुमाहापुराणे चतुर्थांशे नवमोऽध्यायः (९)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ |