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॥ विष्णुपुराणम् ॥

चतुर्थः अंशः

॥ दशमोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
यतिययातिसंयात्या यातिवियातिकृतिसंज्ञा नहुषस्य षट् पुत्रा महाबलपराक्रमा बभूवुः ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-नहुपके यति, ययाति, संयाति, आयाति, वियाति और कृति नामक छ: महाबलविक्रमशाली पुत्र हुए ॥ १ ॥

यतिस्तु राज्यं नैच्छत् ॥ २ ॥
ययातिस्तु भूभृदभवत् ॥ ३ ॥
यतिने राज्यकी इच्छा नहीं की, इसलिये ययाति ही राजा हुआ ॥ २-३ ॥

उशनसश्च दुहितरं देवयानीं वार्षपर्वणीं शर्मिष्ठामुपयेमे ॥ ४ ॥
ययातिने शुक्राचार्यजीकी पुत्री देवयानी और वृषपर्वाकी कन्या शर्मिष्ठासे विवाह किया था ॥ ४ ॥

अत्रानुवंशश्लोको भवति ॥ ५ ॥
उनके वंशके सम्बन्धमें यह श्लोक प्रसिद्ध है- ॥ ५ ॥

यदुं च दुर्वसुं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ॥ ६ ॥
'देवयानीने यदु और तुर्वसुको जन्म दिया तथा वृषपर्वाकी पुत्री शर्मिष्ठाने द्रुा, अनु और पूरुको उत्पन्न किया' ॥ ६ ॥

काव्यशापाच्च कालेनैव ययातिर्जरामवाप ॥ ७ ॥
ययातिको शुक्राचार्यजीके शापसे असमय ही वृद्धावस्थाने घेर लिया था ॥ ७ ॥

प्रसन्नशुक्रवचनाच्च स्वजरां संक्रामयितुं ज्येष्ठं पुत्रं यदुमुवाच ॥ ८ ॥
पीछे शुक्रजीके प्रसन्न होकर कहनेपर उन्होंने अपनी वृद्धावस्थाको ग्रहण करनेके लिये बड़े पुत्र यदुसे कहा- ॥ ८ ॥

वत्स त्वन्मातामहशापादि यमकालेनैव जरा ममोपस्थिता तामहं तस्यै वानुग्रहाद् भवतःसञ्चारयामि ॥ ९ ॥
'वत्स ! तुम्हारे नानाजीके शापसे मुझे असमयमें ही वृद्धावस्थाने घेर लिया है, अब उन्हींकी कृपासे मैं उसे तुमको देना चाहता हूँ ॥ ९ ॥

एकं वर्षसहस्रमतृप्तोऽस्मि विषयेषु त्वद्वयसा विषयानहं भोक्तुमिच्छमि ॥ १० ॥
मैं अभी विषय-भोगोंसे तृप्त नहीं हुआ हूँ, इसलिये एक सहस्र वर्षतक मैं तुम्हारी युवावस्थासे उन्हें भोगना चाहता हूँ ॥ १० ॥

नात्र भवता प्रत्याख्यानं कर्तव्यमित्युक्तःस यदुर्नैच्छत्तां जरामादातुम् ॥ ११ ॥
इस विषयमें तुम्हें किसी प्रकारको आनाकानी नहीं करनी चाहिये । ' किन्तु पिताके ऐसा कहनेपर भी यदुने वृद्धावस्थाको ग्रहण करना न चाहा ॥ ११ ॥

तं च पिता शशाप त्वत्प्रसूतिर्न राज्यार्हा भविष्यतीति ॥ १२ ॥
तब पिताने उसे शाप दिया कि तेरी सन्तान राज्य-पदके योग्य न होगी ॥ १२ ॥

अनन्तरं च तुर्वसुं द्रुह्यमनुं च पृतिवीपतिर्जराग्रहणार्थं स्वयौवनप्रदानाय चाभ्यर्थयामास ॥ १३ ॥
तैर् अप्येकैकेन प्रत्याख्यातस्ताञ्छशाप ॥ १४ ॥
फिर राजा ययातिने तुर्वसु, दूा और अनुसे भी अपना यौवन देकर वृद्धावस्था ग्रहण करनेके लिये कहा; तथा उनमेंसे प्रत्येकके अस्वीकार करनेपर उन्होंने उन सभीको शाप दे दिया ॥ १३-१४ ॥

अथ शर्मिष्ठातनयं अशेषकनीयांसं पुरुं तथैवाह ॥ १५ ॥
स चातिप्रवणमतिः सबहुमानं पितरं प्रणम्य महाप्रसादोयं अस्माकमित्युदारं अभिधायजरां जग्राह ॥ १६ ॥
स्वकीयं च यौवनं स्वपित्रे ददौ ॥ १७ ॥
अन्तमें सबसे छोटे शर्मिष्ठाके पुत्र पूरुसे भी वही बात कही तो उसने अति नम्रता और आदरके साथ पिताको प्रणाम करके उदारतापूर्वक कहा-'यह तो हमारे ऊपर आपका महान् अनुग्रह है । ' ऐसा कहकर पूरुने अपने पिताकी वृद्धावस्था ग्रहण कर उन्हें अपना यौवन दे दिया ॥ १५-१७ ॥

सोऽपि पौरवं यौवनमासाद्य धर्माविरोधेन यथाकामं यथाकालोपपन्नं यथोत्साहं विषयांश्चचार ॥ १८ ॥
सम्यक् च प्रजापालनमकरोत् ॥ १९ ॥
राजा ययातिने पूरुका यौवन लेकर समयानुसार प्राप्त हुए यथेच्छ विषयोंको अपने उत्साहके अनुसार धर्मपूर्वक भोगा और अपनी प्रजाका भली प्रकार पालन किया ॥ १८-१९ ॥

विश्वाच्या देवयान्या च सहोपभोगं भुक्त्वा कामानामन्तं प्राप्स्यामीत्यनुदिनं तन्मनस्को बभूव ॥ २० ॥
फिर विश्वाची और देवयानीके साथ विविध भोगोंको भोगते हुए'मैं कामनाओंका अन्त कर दूंगा'-ऐसे सोचते-सोचते वे प्रतिदिन [भोगोंके लिये] उत्कण्ठित रहने लगे ॥ २० ॥

अनुदिनं चोपभोगतः कामानतिरम्यान्मेने ॥ २१ ॥
ततश्चैनमगायत ॥ २२ ॥
और निरन्तर भोगते रहनेसे उन कामनाओंको अत्यन्त प्रिय मानने लगे; तदुपरान्त उन्होंने इस प्रकार अपना उद्‌गार प्रकट किया ॥ २१-२२ ॥

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ २३ ॥
'भोगोंकी तृष्णा उनके भोगनेसे कभी शान्त नहीं होती, बल्कि घृताहुतिसे अग्निके समान वह बढ़ती ही जाती है । ॥ २३ ॥

यत्पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः ।
एकस्यापि न पर्याप्तं तस्मात्तृष्णां परित्यजेत् ॥ २४ ॥
सम्पूर्ण पृथिवीमें जितने भी धान्य, यव, सुवर्ण, पशु और स्त्रियाँ हैंवेसब एक मनुष्यके लिये भी सन्तोषजनक नहीं हैं, इसलिये तृष्णाको सर्वथा त्याग देना चाहिये ॥ २४ ॥

यदा न कुरुते भावं सर्वभूतेषु पापकम् ।
समदृष्टोस्तदा पुंसः सर्वाःसुखमया दिशः ॥ २५ ॥
जिस समय कोई पुरुष किसी भी प्राणीके लिये पापमयी भावना नहीं करता, उस समय उस समदर्शीकलिये सभी दिशाएँ सुखमयी हो जाती हैं ॥ २५ ॥

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः ।
तां तृष्णां सन्त्यजेत्प्राज्ञःसुखेनैवाभिपूर्यते ॥ २६ ॥
दुर्मतियोंके लिये जो अत्यन्त दुस्त्यज है तथा वृद्धावस्था में भी जो शिथिल नहीं होती, बुद्धिमान् पुरुष उस तृष्णाको त्यागकर सुखसे परिपूर्ण हो जाता है ॥ २६ ॥

जीर्यन्ति जीर्यतः केशा दन्ता जीर्यन्ति जीर्यतः ।
धनाशा जीविताशा च जीर्यतोऽपि न जीर्यतः ॥ २७ ॥
अवस्थाके जीर्ण होनेपर केश और दाँत तो जीर्ण हो जाते हैं किन्तु जीवन और धनकी आशाएँ उसके जीर्ण होनेपर भी नहीं जीर्ण होती ॥ २७ ॥

पूर्णं वर्षसहस्रं मे विषयासक्तचेतसः ।
तथाप्यनुदिनं तृष्णा मम देषूपजायते ॥ २८ ॥
विषयोंमें आसक्त रहते हुए मुझे एक सहस्र वर्ष बीत गये, फिर भी नित्य ही उनमें मेरी कामना होती है ॥ २८ ॥

तस्मादेतामहं त्यक्त्वा ब्रह्मण्याधाय मानसम् ।
निर्द्वन्द्वो निर्ममो भूत्वा चरिष्यामि मृगैः सह ॥ २९ ॥
अतः अब मैं इसे छोड़कर और अपने चित्तको भगवान्में ही स्थिरकर निर्द्वन्द्व और निर्मम होकर [वनमें] मृगोंके साथ विचरूँगा ॥ २९ ॥

श्रीपराशर उवाच
पुरोःसकाशादादाय जरां दत्त्वा च यौवनम् ।
राज्येभिषिच्च पूरुं च प्रययौ तपसे वनम् ॥ ३० ॥
श्रीपराशरजी बोले- तदनन्तर राजा ययातिने पूरुसे अपनी वृद्धावस्था लेकर उसका यौवन दे दिया और उसे राज्य-पदपर अभिषिक्त कर वनको चले गये ॥ ३० ॥

दिशि दक्षिणपूर्वस्यां दुर्वसुं च समादिशत् ।
प्रतीच्यां च तथा द्रुह्युं दक्षिणायां ततो यदुम् ॥ ३१ ॥
उदीच्यां च तथैवानुं कृत्वा मण्डलिनो नृपान् ।
सर्वपृथ्वीपतिं पूरुं सोभिषिच्य वनं ययौ ॥ ३२ ॥
उन्होंने दक्षिणपूर्व दिशामें तुर्वसुको, पश्चिममें द्रुाको, दक्षिणमें यदुको और उत्तरमें अनुको माण्डलिकपदपर नियुक्त किया; तथा पूरुको सम्पूर्ण भूमण्डलके राज्यपर अभिषिक्तकर स्वयं वनको चले गये ॥ ३१-३२ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे चतुर्थांशे दशमोऽध्यायः (१०)
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥



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