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॥ विष्णुपुराणम् ॥

चतुर्थः अंशः

॥ विंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
परीक्षितश्च जनमेजय श्रुतसेनोग्रसेन भीमसेनाश्चत्वारः पुत्राः ॥ १ ॥
जह्नोस्तु सुरथोनामात्मजो बभूव ॥ २ ॥
श्रीपराशरजी बोले-[कुरुपुत्र] परीक्षित्के जनमेजय, श्रुतसेन, उग्रसेन और भीमसेन नामक चार पुत्र हुए, तथा जलुके सुरथ नामक एक पुत्र हुआ ॥ १-२ ॥

तस्यापि विदूरथः ॥ ३ ॥
तस्मात्सार्वभोमः सार्वभौमाज्जयत्सेनः तस्मादाराधितस्ततश्चायुत अयुरयुतायोरक्रोधनः ॥ ४ ॥
तस्माद्देवातिथिः ॥ ५ ॥
ततश्च ऋक्षोऽन्योभवत् ॥ ६ ॥
सुरथके विदूरथका जन्म हुआ । विदूरथके सार्वभौम, सार्वभौमके जयत्सेन, जयत्सेनके आराधित, आराधितके अयुतायु, अयुतायुके अक्रोधन, अक्रोधनके देवातिथि तथा देवातिथिके [अजमीढके पुत्र ऋक्षसे भिन्न] दूसरे ऋक्षका जन्म हुआ ॥ ३-६ ॥

ऋक्षाद्‍भीमसेनस्ततश्च दिलीपः ॥ ७ ॥
दिलीपात् प्रतीपः ॥ ८ ॥
ऋक्षसे भीमसेन, भीमसेनसे दिलीप और दिलीपसे प्रतीप नामक पुत्र हुआ ॥ ७-८ ॥

तस्यापि देवापि शान्तनु बाह्लीक संज्ञास्त्रयः पुत्रा बभूवुः ॥ ९ ॥
प्रतीपके देवापि, शान्तनु और बाहीक नामक तीन पुत्र हुए ॥ ९ ॥

देवापिर्बाल एवारण्यं विवेश ॥ १० ॥
शान्तनुस्तु महीपालोऽभूत् ॥ ११ ॥
इनमेंसे देवापि बाल्यावस्थामें ही बनमें चला गया था अतः शान्तनु ही राजा हुआ ॥ १०-११ ॥

अयं च तस्य श्लोकः पृथिव्यां गीयते ॥ १२ ॥
उसके विषयमें पृथिवीतलपर यह श्लोक कहा जाता है- ॥ १२ ॥

यं यं कराभ्यां स्पृशति जीर्णं यौवनमेति सः ।
शान्तिं चाप्नोति येनाग्र्यां कर्मणा तेन शान्तनुः ॥ १३ ॥
"[राजा शान्तनु] जिसको-जिसको अपने हाथसे स्पर्श कर देते थे वे वृद्ध पुरुष भी युवावस्था प्राप्त कर लेते थे तथा उनके स्पर्शसे सम्पूर्ण जीव अत्युत्तम शान्तिलाभ करते थे, इसलिये वे शान्तनु कहलाते थे" ॥ १३ ॥

तस्य च शान्तनो राष्ट्रे द्वादशवर्षाणि देवो न ववर्ष ॥ १४ ॥
एक बार महाराज शान्तनुके राज्यमें बारह वर्षतक वर्षा न हुई ॥ १४ ॥

ततश्चाशेषराष्ट्रविनाशमवेक्ष्यासौ राजा ब्राह्मणानपृच्छत् कस्मादस्माकं राष्ट्रे देवो न वर्षति को ममापराध इति ॥ १५ ॥
उस समय सम्पूर्ण देशको नष्ट होता देखकर राजाने ब्राह्मणोंसे पूछा-'हमारे राज्यमें वर्षा क्यों नहीं हुई ? इसमें मेरा क्या अपराध है ?' ॥ १५ ॥

ततश्च तमूचुर्ब्राह्मणाः ॥ १६ ॥
अग्रजस्य ते हीयमवनिस्त्वया सम्भुज्यते अतः परिवेत्ता त्वमित्युक्तः स राजा पुनस्तानपृच्छत् ॥ १७ ॥
किं मयात्र विधेयमिति ॥ १८ ॥
। तब ब्राह्मणोंने उससे कहा-'यह राज्य तुम्हारे बड़े भाईका है किन्तु इसे तुम भोग रहे हो; इसलिये तुम परिवेत्ता हो । ' उनके ऐसा कहनेपर राजा शान्तनुने उनसे फिर पूछा-'तो इस सम्बन्धमें मुझे अब क्या करना चाहिये ?' ॥ १६-१८ ॥

ततस्ते पुनरप्यूचुः ॥ १९ ॥
यावद्देवापिर्न पतनादिभिर्दोषैरभिभूयते तावदेतत्तस्यार्हं राज्यम् ॥ २० ॥
इसपर वे ब्राह्मण फिर बोले-'जबतक तुम्हारा बड़ा भाई देवापि किसी प्रकार पतित न हो तबतक यह राज्य उसीके योग्य है ॥ १९-२० ॥

तदलमेतेन तु तस्मै दीयतामित्युक्ते तस्य मन्त्रिप्रवरेणाश्मसारिणा तत्रारण्ये तपस्विनो वेदवादविरोधवक्तारः प्रयुक्ताः ॥ २१ ॥
अत: तुम इसे उसीको दे डालो, तुम्हारा इससे कोई प्रयोजन नहीं । ' ब्राह्मणोंके ऐसा कहनेपर शान्तनुके मन्त्री अश्मसारीने वेदवादके विरुद्ध बोलनेवाले तपस्वियोंको वनमें नियुक्त किया ॥ २१ ॥

तैरस्याप्यतिऋजुमतेर्महीपतिपुत्रस्य बुद्धिर्वेदवाद विरोधमार्गानुसारिण्यक्रियत ॥ २२ ॥
उन्होंने अतिशय सरलमति राजकुमार देवापिकी बुद्धिको वेदवादके विरुद्ध मार्गमें प्रवृत्त कर दिया ॥ २२ ॥

राजा च शान्तनुर्द्विजवचनोत्पन्न परिदेवनशोकस्तान् ब्राह्मणानग्रतः कृत्वाग्रजस्य प्रदानायारण्यं जगाम ॥ २३ ॥
उधर राजा शान्तनु ब्राह्मणोंके कथनानुसार दुःख और शोकयुक्त होकर ब्राह्मणों को आगे कर अपने बड़े भाईको राज्य देनेके लिये वनमें गये ॥ २३ ॥

तदाश्रममुपगताश्च तमवनतमवनीपतिपुत्रं देवापिमुपतस्थुः ॥ २४ ॥
ते ब्राह्मणा वेदवादानुबन्धीनि वचांसि राज्यमग्रजेन कर्तव्यमित्यर्थवन्ति तमूचुः ॥ २५ ॥
वनमें पहुँचनेपर वे ब्राह्मणगण परम विनीत राजकुमार देवापिके आश्रमपर उपस्थित हुए; और उससे 'ज्येष्ठ भ्राताको ही राज्य करना चाहिये'-इस अर्थके समर्थक अनेक वेदानुकूल वाक्य कहने लगे ॥ २४-२५ ॥

असावपि देवापिर्वेदवाद विरोधयुक्तिदूषितं अनेकप्रकारं तानाह ॥ २६ ॥
किन्तु उस समय देवापिने वेदवादके विरुद्ध नाना प्रकारको युक्तियोंसे दूषित बातें कीं ॥ २६ ॥

ततस्ते ब्राह्मणाः शान्तनुमूचुः ॥ २७ ॥
तव उन ब्राह्मणोंने शान्तनुसे कहा- ॥ २७ ॥

आगच्छ हे राजन् अलमत्रातिनिर्बन्धेन प्रशान्त एवासावना वृष्टिदोषः पतितोयं अनादिकालं अभिहितवेदवचन दूषणोच्चरणात् ॥ २८ ॥
"हेराजन् ! चलो, अब यहाँ अधिक आग्रह करनेकी आवश्यकता नहीं । अब अनावृष्टिका दोष शान्त हो गया । अनादिकालसे पूजित वेदवाक्योंमें दोष बतलानेके कारण देवापि पतित हो गया है ॥ २८ ॥

पतिते चाग्रजे नैव ते परिवेतृत्वं भवतीत्युक्तः शान्तनुःस्वपुरमागम्य राज्यमकरोत् ॥ २९ ॥
ज्येष्ठ भ्राताके पतित हो जानेसे अब तुम परिवेत्ता नहीं रहे । " उनके ऐसा कहनेपर शान्तनु अपनी राजधानीको चले आये और राज्यशासन करने लगे ॥ २९ ॥

वेदवादविरोध वचनोच्चारणदूषिते च शा तिष्ठत्यपि ज्येष्ठभ्रातर्यखिल सस्यनिष्पत्तये ववर्ष भगवान्पर्जन्यः ॥ ३० ॥
वेदवादके विरुद्धवचन बोलनेके कारण देवापिके पतित हो जानेसे, बड़े भाईके रहते हुए भी सम्पूर्ण धान्योंकी उत्पत्तिके लिये पर्जन्यदेव (मेघ) बरसने लगे ॥ ३० ॥

बाह्लीकात्सोमदत्तः पुत्रोऽभूत् ॥ ३१ ॥
सोमदत्तस्यापि भूरिभूरिश्रवशल्यसंज्ञास्त्रयः पुत्रा बभूवुः ॥ ३२ ॥
बाहीकके सोमदत्त नामक पुत्र हुआ तथा सोमदत्तके भूरि, भूरिश्रवा और शल्य नामक तीन पुत्र हुए ॥ ३१-३२ ॥

न्तनोरप्यमरनद्यां जाह्नव्यां उदारकीर्तिः अशेषशास्त्रर्थविद्‍भीष्मः पुत्रोऽभूत् ॥ ३३ ॥
शान्तनुके गंगाजीसे अतिशय कीर्तिमान् तथा सम्पूर्ण शास्त्रोंका जाननेवाला भीष्म नामक पत्र हुआ ॥ ३३ ॥

सत्यवत्यां च चित्राङ्‍गद विचित्रवीर्यौ द्वौ पुत्रावुत्पादयामास शान्तनुः ॥ ३४ ॥
शान्तनुने सत्यवतीसे चित्रांगद और विचित्रवीर्य नामक दो पुत्र और भी उत्पन्न किये ॥ ३४ ॥

चित्राङ्‍गदस्तु बाल एव चित्राङ्‍गदेनैव गन्धर्वोणाहवे निहतः ॥ ३५ ॥
उनमेंसे चित्रांगदको तो बाल्यावस्थामें ही चित्रांगद नामक गन्धर्वने - युद्धमें मार डाला ॥ ३५ ॥

विचित्रवीर्योऽपि काशीराजतनये अम्बिकाम्बालिके उपयेमे ॥ ३६ ॥
विचित्रवीर्यने काशिराजकी पुत्री अम्बिका और अम्बालिकासे विवाह किया ॥ ३६ ॥

तदुपभोगातिखेदाच्च यक्ष्मणा गृहीतः स पञ्चत्वमगमत् ॥ ३७ ॥
उनमें अत्यन्त भोगासक्त रहनेके कारण अतिशय खिन्न रहनेसे वह यक्ष्माके वशीभूत होकर [अकालहीमें] मर गया ॥ ३७ ॥

सत्यवतीनियोगाच्च मत्पुत्रः कृष्णद्वैपायनो मातुर्वचनमनतिक्रमणीयमिति कृत्वा विचित्रवीर्यक्षेत्रे धृतराष्ट्रपाण्डु तत्प्रहितभुजिष्यायां विदुरं चोत्पादयामास ॥ ३८ ॥
तदनन्तर मेरे पुत्र कृष्णद्वैपायनने सत्यवतीके नियुक्त करनेसे माताका वचन टालना उचित न जान विचित्रवीर्यकी पत्नियोंसे धृतराष्ट्र और पाण्डु नामक दो पुत्र उत्पन्न किये और उनकी भेजी हुई दासीसे विदुर नामक एक पुत्र उत्पन्न किया । ॥ ३८ ॥

धतराष्ट्रोपि गान्धार्यां दुर्योधन दुःशासनप्रधानं पुत्रशतमुत्पादयामास ॥ ३९ ॥
धृतराष्ट्रने भी गान्धारीसे दुर्योधन और दुःशासन आदि सौ पुत्रोंको जन्म दिया ॥ ३९ ॥

पाण्डोरप्यरण्ये मृगयायां ऋषिशापोपहत प्रजाजननसामर्थ्यस्य धर्म वायु शक्रैर् युधिष्ठिर भीमसेनार्जुनाः कुन्त्यां नकुलसहदेवौ चाश्विभ्यां माद्रयां पञ्चपुत्राःसमुत्पादिताः ॥ ४० ॥
पाण्डु बनमें आखेट करते समय ऋषिके शापसे सन्तानोत्पादनमें असमर्थ हो गये थे अतः उनकी स्त्री कुन्तीसे धर्म, वायु और इन्द्रने क्रमशः युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन नामक तीन पुत्र तथा माद्रीसे दोनों अश्विनीकुमारोंने नकुल और सहदेव नामक दो पुत्र उत्पन्न किये । इस प्रकार उनके पाँच पुत्र हुए ॥ ४० ॥

तेषां च द्रौपद्यां पञ्चैव पुत्रा बभूवुः ॥ ४१ ॥
उन पाँचोंके द्रौपदीसे पाँच ही पुत्र हुए ॥ ४१ ॥

युधिष्ठिरात्प्रतिविन्ध्यः भीमसेनाच्छुतसेनः श्रुतकीर्तिरर्जुनाच्छुतानीको नकुलाच्छुतकर्मा सहदेवात् ॥ ४२ ॥
उनमेंसे युधिष्ठिरसे प्रतिविन्ध्य, भीमसेनसे श्रुतसेन, अर्जुनसे श्रुतकीर्ति, नकुलसे श्रुतानीक तथा सहदेवसे श्रुतकर्माका जन्म हुआ था ॥ ४२ ॥

अन्ये च पाण्डवानामात्मजास्तद्यथा ॥ ४३ ॥
इनके अतिरिक्त पाण्डवोंके और भी कई पुत्र हुए ॥ ४३ ॥

यौधेयी युधिष्ठिराद्देवकं पुत्रमवाप ॥ ४४ ॥
हिडिम्बा घटोत्कचं भीमसेनात्पुत्रं लेभे ॥ ४५ ॥
काशी च भीमसेनादेव सर्वगं सुतमवाप ॥ ४६ ॥
सहदेवाच्च विजयी सुहोत्रं पुत्रमवाप ॥ ४७ ॥
रेणुमत्यां च नकुलोपि निरमित्रमजीजनत् ॥ ४८ ॥
जैसे-बुधिष्ठिरसे यौधेयीके देवक नामक पुत्र हुआ, भीमसेनसे हिडिम्बाके घटोत्कच और काशीसे सर्वग नामक पुत्र हुआ, सहदेवसे विजयाके सुहोत्रका जन्म हुआ, नकुलने रेणुमतीसे निरमित्रको उत्पन्न किया ॥ ४४-४८ ॥

अर्जुनस्याप्युलूप्यां नागकन्यायामिरावान्नाम पुत्रोऽभवत् ॥ ४९ ॥
अर्जुनके नागकन्या उलूपीसे इरावान् नामक पुत्र हुआ ॥ ४९ ॥

मणीपुरपतिपुत्र्यां पुत्रिकाधर्मेण बभ्रुवाहनं नाम पुत्रमर्जुनोऽजनयत् ॥ ५० ॥
मणिपुर नरेशकी पुत्रीसे अर्जुनने 'पुत्रिका-धर्मानुसार बभ्रुवाहन नामक एक पुत्र उत्पन्न किया ॥ ५० ॥

सुभद्रायां चार्भकत्वेपि योऽसावतिबलपराक्रमः समस्तारातिरथजेता सोऽभिमन्युरजायत ॥ ५१ ॥
तथा उसके सुभद्रासे अभिमन्युका जन्म हुआ जो कि बाल्यावस्थामें ही बड़ा बल-पराक्रमसम्पन्न तथा अपने सम्पूर्ण शत्रुओंको जीतनेवाला था ॥ ५१ ॥

अभिमन्योरुत्तरायां परिक्षीणेषु कुरुष्वश्वत्थामप्रयुक्तब्रह्मास्त्रेण गर्भ एव भस्मीकृतो भगवतः सकलसुरासुर वन्दितचरणयुगलस्य आत्मेच्छया कारण मानुषरूपधारीणोनुभावात् पुनर्जीवितमवाप्य परीक्षिज्जज्ञे ॥ ५२ ॥
योऽयं साम्प्रतमेतद्‍ भूमण्डलमखण्डितायतिधर्मेण पालयतीति ॥ ५३ ॥
तदनन्तर कुरुकुलके क्षीण हो जानेपर जो अश्वत्थामाके प्रहार किये हुए ब्रह्मास्त्रद्वारा गर्भमें ही भस्मीभूत हो चुका था किन्तु फिर, जिन्होंने अपनी इच्छासे ही माया-मानव-देह धारण किया है उन सकल सुरासुरवन्दितचरणारविन्द श्रीकृष्णचन्द्रके प्रभावसे पुनः जीवित हो गया; उस परीक्षित्ने अभिमन्युके द्वारा उत्तराके गर्भसे जन्म लिया जो कि इस समय इस प्रकार धर्मपूर्वक सम्पूर्ण भूमण्डलका शासन कर रहा है कि जिससे भविष्यमें भी उसकी सम्पत्ति क्षीण न हो ॥ ५२-५३ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे चतुर्थांशे विंशोऽध्यायः (२० )
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥


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