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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ प्रथमोऽध्यायः ॥ मैत्रेय उवाच
नृपाणां कथितःसर्वो भवता वंशविस्तरः । वंशानुचरितं चैव यथावदनुवर्णितम् ॥ १ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-भगवन् ! आपने राजाओंके सम्पूर्ण वंशोंका विस्तार तथा उनके चरित्रोंका क्रमशः यथावत् वर्णन किया ॥ १ ॥ अंशावतारो ब्रह्मर्षे योऽयं यदुकुलोद्भवः ।
विष्णोस्तं विस्तरेणाहं श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ २ ॥ अब, हे ब्रह्मर्षे ! यदुकुलमें जो भगवान् विष्णुका अंशावतार हुआ था, उसे मैं तत्त्वतः और विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ चकार यानि कर्माणि भगवान् पुरुषोत्तमः ।
अंशांशेनावतीर्योर्व्यां तत्र तानि मुने वद ॥ ३ ॥ हे मुने ! भगवान् पुरुषोत्तमने अपने अंशांशसे पृथिवीपर अवतीर्ण होकर जो-जो कर्म किये थे, उन सबका आप मुझसे वर्णन कीजिये ॥ ३ ॥ श्रीपारशर उवाच
मैत्रेय श्रूयतामेतद्यत्पृष्टोऽहमिह त्वया । विष्णोरंशांशसम्भूतिचरितं जगतो हितम् ॥ ४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! तुमने मुझसे जो पूछा है वह संसारमें परम मंगलकारी भगवान् विष्णुके अंशावतारका चरित्र सुनो ॥ ४ ॥ देवकस्य सुतां पूर्वं वसुदेवो महामुने ।
उपयेमे महाभागां देवकीं देवतोपमाम् ॥ ५ ॥ हे महामुने ! पूर्वकालमें देवककी महाभाग्यशालिनी पुत्री देवीस्वरूपा देवकीके साथ वसुदेवजीने विवाह किया ॥ ५ ॥ कंसस्तयोर्वररथं चोदयामास सारथिः ।
वसुदेवस्य देवक्या संयोगे भोजनन्दनः ॥ ६ ॥ वसुदेव और देवकीके वैवाहिक सम्बन्ध होनेके अनन्तर [विदा होते समय] भोजनन्दन कंस सारथि बनकर उन दोनोंका माङ्गलिक रथ हाँकने लगा ॥ ६ ॥ आथान्तरिक्षे वागुच्चैः कंसमाभाष्य सादरम् ।
मेघगम्भीरनिर्घोषं समाभाष्येदमब्रवीत् ॥ ७ ॥ उसी समय मेघके समान गम्भीर घोष करती हुई आकाशवाणी कंसको ऊँचे स्वरसे सम्बोधन करके यों बोली- ॥ ७ ॥ यामेतां वहसे मूढ सह भर्त्रा रथे स्थिताम् ।
अस्यास्तवाष्टमो गर्भः प्राणानपहरिष्यति ॥ ८ ॥ "अरे मूढ ! पतिके साथ रथपर बैठी हुई जिस देवकीको तू लिये जा रहा है इसका आठवाँ गर्भ तेरे प्राण हर लेगा" ॥ ८ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्याकर्ण्य समुत्पाट्य खड्गं कंसो महाबलः । देवकीं हन्तुमारब्धो वसुदेवोऽब्रवीदिदम् ॥ ९ ॥ श्रीपराशरजी बोले- यह सुनते ही महाबली कंस [म्यानसे] खड्ग निकालकर देवकीको मारनेके लिये उद्यत हुआ । तब वसुदेवजी यों कहने लगे- ॥ ९ ॥ न हन्तव्या महाभाग देवकी भवतानघ ।
समर्पयिष्ये सकलान्गर्भानस्योदरोद्भवान् ॥ १० ॥ "हे महाभाग ! हे अनघ ! आप देवकीका वध न करें; मैं इसके गर्भसे उत्पन्न हुए सभी बालक आपको सौंप दूंगा" ॥ १० ॥ श्रीपराशर उवाच
तथेत्याह ततः कंसो वसुदेवं द्विजोत्तम । न घातयामास च तां देवकीं सत्यगौरवात् ॥ ११ ॥ श्रीपराशरजी बोले-है द्विजोत्तम ! तव सत्यके गौरवसे कंसने वसुदेवजीसे बहुत अच्छा' कह देवकीका वध नहीं किया ॥ ११ ॥ एतस्मिन्नेवकाले तु भूरिभारावपीडिता ।
जगाम धरणी मेरौ समाजं त्रिदिवौकसाम् ॥ १२ ॥ इसी समय अत्यन्त भारसे पीडित होकर पृथिवी [गौका रूप धारणकर] सुमेरुपर्वतपर देवताओंके दलमें गयी ॥ १२ ॥ स ब्रह्मकान्सुरान्सर्वान्प्रणिपत्याथ मेदिनि ।
कथयामास तत्सर्वं खेदात्करुणभाषिणी ॥ १३ ॥ वहाँ उसने ब्रह्माजीके सहित समस्त देवताओंको प्रणामकर खेदपूर्वक करुणस्वरसे बोलती हुई अपना सारा वृत्तान्त कहा ॥ १३ ॥ भूमिरुवाच
अग्निःसुवर्णस्य गुरुर्गवां सूर्यः परो गुरुः । ममाप्यखिललोकानां गुरुर्नारायणो गरुः ॥ १४ ॥ पृथिवी बोली-जिस प्रकार अग्नि सुवर्णका तथा सूर्य गो (किरण)-समूहका परमगुरु है, उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकोंके गुरु श्रीनारायण मेरे गुरु हैं ॥ १४ ॥ प्रजापतिपतिर्ब्रह्म पूर्वेषामपि पूर्वजः ।
कलाकाष्ठानिमेषात्मा कालश्चाव्यक्तमूर्तिमान् ॥ १५ ॥ तदंशभूतःसर्वैषां समूहो वः सुरोत्तमाः ॥ १६ ॥ वे प्रजापतियोंके पति और पूर्वजोंके पूर्वज ब्रह्माजी हैं तथा वे ही कला-काष्ठा-निमेष-स्वरूप अव्यक्त मूर्तिमान् काल हैं । हे देवश्रेष्ठगण ! आप सब लोगोंका समूह भी उन्हींका अंशस्वरूप है ॥ १५-१६ ॥ आदित्या मरुतःसाध्या रुद्रा वस्वश्विवह्नयः ।
पितरो ये च लोकानां स्रष्टारोऽत्रिपुरोगमाः ॥ १७ ॥ एते तस्याप्रमेयस्य विष्णो रूपं महात्मनः ॥ १८ ॥ आदित्य, मरुद्गण, साध्यगण, रुद्र, वसु, अग्नि, पितृगण और अत्रि आदि प्रजापतिगण-ये सब अप्रमेय महात्मा विष्णुके ही रूप हैं ॥ १७-१८ ॥ यक्षराक्षसदैतेयपिशाचोरगदानवाः ।
गन्धर्वाप्सरसश्चैव रूपं विष्णोर्महात्मनः ॥ १९ ॥ यक्ष, राक्षस, दैत्य, पिशाच, सर्प, दानव, गन्धर्व और अप्सरा आदि भी महात्मा विष्णुके ही रूप हैं ॥ १९ ॥ ग्रहर्क्षतारकाचित्रगगनाग्निजलानिलाः ।
अहं च विषयाश्चैव सर्व विष्णुमयं जगत् ॥ २० ॥ ग्रह, नक्षत्र तथा तारागणोंसे चित्रित आकाश, अग्नि, जल, वायु, मैं और इन्द्रियोंके सम्पूर्ण विषय-यह सारा जगत् विष्णुमय ही है ॥ २० ॥ तथा चानेकरूपस्य तस्य रूपाण्यहर्निशम् ।
बाध्यबाधकतां यान्ति कल्लोला इव सागरे ॥ २१ ॥ तथापि उन अनेक रूपधारी विष्णुके ये रूप समुद्रकी तरंगोंके समान रात-दिन एक-दूसरेके बाध्य-बाधक होते रहते हैं ॥ २१ ॥ तत्साम्प्रतममी दैत्याः कालनेमिपुरोगमाः ।
मर्त्यलोकं समाक्रम्य बाधन्तेऽहर्निशं प्रजाः ॥ २२ ॥ इस समय कालनेमि आदि दैत्यगण मर्त्यलोकपर अधिकार जमाकर अहर्निश जनताको क्लेशित कर रहे हैं ॥ २२ ॥ कालनेमिर्हतो योऽसौ विष्णुना प्रभविष्णुना ।
उग्रसेनसुतः कंसःसम्भूतःस महासुरः ॥ २३ ॥ जिस कालनेमिको सामर्थ्यवान् भगवान् विष्णुने मारा था, इस समय वही उग्रसेनके पुत्र महान् असुर कंसके रूपमें उत्पन्न हुआ है ॥ २३ ॥ अरिष्टो धेनुकः केशी प्रलम्बो नरकस्तथा ।
सुन्दोऽसुरस्तथात्युग्रो बाणश्चापि बलेःसुतः ॥ २४ ॥ तथान्ये च महावीर्या नृपाणां भवनेषु ये । समुत्पन्ना दुरात्मानस्तान्न संख्यातुमुत्सहे ॥ २५ ॥ अरिष्ट, धेनुक, केशी, प्रलम्ब, नरक, सुन्द, बलिका पुत्र अति भयंकर बाणासुर तथा और भी जो महाबलवान् दुरात्मा राक्षस राजाओंके घरमें उत्पन्न हो गये हैं उनकी मैं गणना नहीं कर सकती ॥ २४-२५ ॥ अक्षोहिण्योत्र बहुला दिव्यमूर्तिधराःसुराः ।
महाबलानां दृप्तानां दैत्येन्द्राणां ममोपरि ॥ २६ ॥ हे दिव्यमूर्तिधारी देवगण ! इस समय मेरे ऊपर महाबलवान् और गर्वीले दैत्यराजोंकी अनेक अक्षौहिणी सेनाएँ हैं । ॥ २६ ॥ तद्भूरिभारपीडार्ता न शक्नोम्यमरेश्वराः ।
बिभर्तुमात्मानमहमिति विज्ञापयामि वः ॥ २७ ॥ हे अमरेश्वरो ! मैं आपलोगोंको यह बतलाये देती हूँ कि अब मैं उनके अत्यन्त भारसे पीडित होकर अपनेको धारण करने में सर्वथा असमर्थ हूँ ॥ २७ ॥ क्रियतां तन्महाभागा मम भारावतारणम् ।
यथा रसातलं नाहं गच्छेयमतिविह्वला ॥ २८ ॥ अतः हे महाभागगण ! आपलोग मेरे भार उतारनेका अब कोई ऐसा उपाय कीजिये जिससे मैं अत्यन्त व्याकुल होकर रसातलको न चली जाऊँ ॥ २८ ॥ इत्याकर्ण्य धरावाक्यमशेषैस्त्रिदशेश्वरैः ।
भुवो भारावतारार्थं ब्रह्मा प्राह प्रचोदितः ॥ २९ ॥ पृथिवीके इन वाक्योंको सुनकर उसके भार उतारनेके विषयमें समस्त देवताओंकी प्रेरणासे भगवान् ब्रह्माजीने कहना आरम्भ किया ॥ २९ ॥ ब्रह्मोवाच
यथाह वसुधा सर्वं सत्यमेव दिवौकसः । अहं भवो भवन्तश्च सर्वे नारायणात्मकाः ॥ ३० ॥ ब्रह्माजी बोले-हे देवगण ! पृथिवीने जो कुछ कहा है वह सर्वथा सत्य ही है, वास्तवमें मैं, शंकर और आप सब लोग नारायणस्वरूप ही हैं ॥ ३० ॥ विभूतयश्च यास्तस्य तासामेव परस्परम् ।
आधिक्यं न्यूनता बाध्यबाधकत्वेन वर्तते ॥ ३१ ॥ उनकी जो-जो विभूतियाँ हैं, उनकी परस्पर न्यूनता और अधिकता ही बाध्य तथा बाधकरूपसे रहा करती है ॥ ३१ ॥ तदागच्छत गच्छामः क्षीराब्धेस्तटमुत्तमम् ।
तत्राराध्य हरिं तस्मै सर्वं विज्ञापयाम वै ॥ ३२ ॥ इसलिये आओ, अब हमलोग क्षीरसागरके पवित्र तटपर चलें, वहाँ श्रीहरिकी आराधना कर यह सम्पूर्ण वृत्तान्त उनसे निवेदन कर दें ॥ ३२ ॥ सर्वथैव जगत्यर्थे स सर्वात्मा जगन्मयः ।
सत्त्वांशेनावतीर्योर्व्यां धर्मस्य कुरुते स्थितिम् ॥ ३३ ॥ वे विश्वरूप सर्वात्मा सर्वथा संसारके हितके लिये ही अपने शुद्ध सत्त्वांशसे अवतीर्ण होकर पृथिवीमें धर्मकी स्थापना करते हैं । ३३ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा प्रययो तत्र सह देवैः पितामहः । समाहितमनाश्चैवं तुष्टाव गरुडध्वजम् ॥ ३४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कहकर देवताओंके सहित पितामह ब्रह्माजी वहाँ गये और एकाग्रचित्तसे श्रीगरुडध्वज भगवान्की इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ ३४ ॥ ब्रह्मोवाच
द्वे विद्ये त्वमनाम्नाय परा चैवापरा तथा । त एव भवतो रूपे मूर्तामूर्तात्मिके प्रभो ॥ ३५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे वेदवाणीके अगोचर प्रभो ! परा और अपरा-ये दोनों विद्याएँ आप ही हैं । हे नाथ ! वे दोनों आपहीके मूर्त और अमूर्त रूप हैं ॥ ३५ ॥ द्वे ब्रह्मणी त्वणीयोऽतिस्थूलात्मन्सर्व सर्ववित् ।
शब्दब्रह्मपरं चैव ब्रह्म ब्रह्ममयस्य यत् ॥ ३६ ॥ हे अत्यन्त सूक्ष्म ! हे विराट्स्वरूप ! हे सर्व ! हे सर्वज्ञ ! शब्दब्रह्म और परब्रह्म-ये दोनों आप ब्रह्ममयके ही रूप हैं ॥ ३६ ॥ ऋग्वेदस्त्वं यजुर्वेदःसामवेदस्त्वथर्वणः ।
शिक्षाकल्पो निरुक्तं च च्छन्दो ज्योतिषमेव च ॥ ३७ ॥ आप ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद हैं तथा आप ही शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष शास्त्र हैं ॥ ३७ ॥ इतिहासपुराणे च तथा व्याकरणं प्रभो ।
मीमांसा न्यायशास्त्रं च धर्मशास्त्राण्यधोक्षज ॥ ३८ ॥ हे प्रभो ! हे अधोक्षज ! इतिहास, पुराण, व्याकरण, मीमांसा, न्याय और धर्मशास्त्र-ये सब भी आप ही हैं ॥ ३८ ॥ आत्मात्मदेहगुणवद्विचाराचारि यद्वच ।
तदप्याद्यपते नान्यदध्यात्मात्मस्वरूपवत् ॥ ३९ ॥ हे आद्यपते ! जीवात्मा, परमात्मा, स्थूल-सूक्ष्म-देह तथा उनका कारण अव्यक्त इन सबके विचारसे युक्त जो अन्तरात्मा और परमात्माके स्वरूपका बोधक [तत्त्वमसि] वाक्य है, वह भी आपसे भिन्न नहीं है ॥ ३९ ॥ त्वमव्यक्तमनिर्देश्यमचिन्त्यानामवर्मवत् ।
अपाणिपादरूपं च शुद्धं नित्यं परात्परम् ॥ ४० ॥ आप अव्यक्त, अनिर्वाच्य, अचिन्त्य, नामवर्णसे रहित, हाथ-पाँव तथा रूपसे हीन, शुद्ध, सनातन और परसे भी पर हैं ॥ ४० ॥ शृणोष्यकर्णः परिपश्यसि त्व-
मचक्षुरेको बहुरूपरूपः । अपादहस्तो जवनो ग्रहीता त्वं वेत्सि सर्वं न च सर्ववेद्यः ॥ ४१ ॥ आप कर्णहीन होकर भी सुनते हैं, नेत्रहीन होकर भी देखते हैं, एक होकर भी अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं, हस्तपादादिसे रहित होकर भी बड़े वेगशाली और ग्रहण करनेवाले हैं तथा सबके अवेद्य होकर भी सबको जाननेवाले हैं ॥ ४१ ॥ अणोरणीयां समसत्स्वरूपं
त्वां पश्यतो ज्ञाननिवृत्तिरग्र्या । धीरस्य धीरस्य बिभर्ति नान्य- द्वरेण्यरूपात्परतः परात्मन् ॥ ४२ ॥ हे परात्मन् ! जिस धीर पुरुषकी बुद्धि आपके श्रेष्ठतम रूपसे पृथक् और कुछ भी नहीं देखती, आपके अणुसे भी अणु और दृश्य-स्वरूपको देखनेवाले उस पुरुषकी आत्यन्तिक अज्ञाननिवृत्ति हो जाती है ॥ ४२ ॥ त्वं विश्वनाभिर्भुवनस्य गोप्ता
सर्वाणि भूतानि तवान्तराणि । यद्भूतभव्यं यदणोरणीयः पुमांस्त्वम् एकः प्रकृतेः परस्तात् ॥ ४३ ॥ आप विश्वके केन्द्र और त्रिभुवनके रक्षक हैं; सम्पूर्ण भूत आपहीमें स्थित हैं तथा जो कुछ भूत, भविष्यत् और अणुसे भी अणु है वह सब आप प्रकृतिसे परे एकमात्र परमपुरुष ही हैं ॥ ४३ ॥ एकश्चतुर्धा भगवान्हुताशो
वर्चोविभूतं जगतो ददासि । त्वं विश्वतश्चक्षुरनन्तमूर्ते त्रेधा पदं त्वं निदधासि धातः ॥ ४४ ॥ आप ही चार प्रकारका अग्नि होकर संसारको तेज और विभूति दान करते हैं । हे अनन्तमूर्ते ! आपके नेत्र सब ओर हैं । हे धातः ! आप ही [त्रिविक्रमावतारमें] तीनों लोकमें अपने तीन पग रखते हैं ॥ ४४ ॥ यथाग्निरेको बहुधा समिध्यते
विकारभेदैरविकाररूपः । तथा भवान्सर्वगतैकरूपी रूपाण्यशेषाण्यनुपुष्यतीश ॥ ४५ ॥ हे ईश ! जिस प्रकार एक ही अविकारी अग्नि विकृत होकर नाना प्रकारसे प्रज्वलित होता है, उसी प्रकार सर्वगतरूप एक आप ही अनन्त रूप धारण कर लेते हैं ॥ ४५ ॥ एकं तवाग्र्यं परमं पदं य
त्पश्यन्ति त्वां सूरयो ज्ञानदृश्यम् । त्वत्तो नान्यत्किञ्चिदस्ति स्वरूपं यद्वा भूतं यच्च भव्यं परात्मन् ॥ ४६ ॥ एकमात्र जो श्रेष्ठ परमपद है; वह आप ही हैं, ज्ञानी पुरुष ज्ञानदृष्टिसे देखे जानेयोग्य आपको ही देखा करते हैं । हे परात्मन् ! भूत और भविष्यत् जो कुछ स्वरूप है वह आपसे अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है ॥ ४६ ॥ व्यक्ताव्यक्तस्वरूपस्त्वं समष्टिव्यष्टिरूपवान् ।
सर्वज्ञःसर्वनित्सर्वशक्तिज्ञानबलर्धिमान् ॥ ४७ ॥ आप व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, समष्टि और व्यष्टिरूप हैं तथा आप ही सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, सर्वशक्तिमान् एवं सम्पूर्ण ज्ञान, बल और ऐश्वर्यसे युक्त हैं ॥ ४७ ॥ अन्यूनश्चाप्यवृद्धिश्च स्वाधीनो नादिमान्वशी ।
क्लमतन्द्री भयक्रोधकामादिभिरसंयुतः ॥ ४८ ॥ आप ास और वृद्धिसे रहित, स्वाधीन, अनादि और जितेन्द्रिय हैं तथा आपके अन्दर श्रम, तन्द्रा, भय, क्रोध और काम आदि नहीं हैं ॥ ४८ ॥ निरवद्यः परः प्राप्तेर्निरधिष्ठोऽक्षरः क्रमः ।
सर्वेश्वरः पराधारो धाम्नां धामात्मकोऽक्षयः ॥ ४९ ॥ आप अनिन्द्य, अप्राप्य, निराधार और अव्याहत गति हैं, आप सबके स्वामी, अन्य ब्रह्मादिके आत्रय तथा सूर्यादि तेजोंके तेज एवं अविनाशी हैं ॥ ४९ ॥ सकलावरणानीतनिरालम्बनभावन ।
महाविभूतिसंस्थान नमस्ते पुरुषोत्तम ॥ ५० ॥ आप समस्त आवरणशून्य, असहायोंके पालक और सम्पूर्ण महाविभूतियोंके आधार हैं, हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है ॥ ५० ॥ नाकारणात्कारणाद्वा कारणाकारणान्न च ।
शरीरग्रहणं वापि धर्मत्राणाय केवलम् ॥ ५१ ॥ आप किसी कारण, अकारण अथवा कारणाकारणसे शरीर-ग्रहण नहीं करते, बल्कि केवल धर्म-रक्षाके लिये ही करते हैं ॥ ५१ ॥ श्रीपराशर उवाच
ब्रह्माणमाह प्रीतेन विश्वरूपं प्रकाशयन् ॥ ५२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-इस प्रकार स्तुति सुनकर भगवान् अज अपना विश्वरूप प्रकट करते हुए ब्रह्माजीसे प्रसन्नचित्तसे कहने लगे ॥ ५२ ॥ श्रीभगवानुवाच
भोभो ब्रह्मंस्त्वया मत्तःसह देवैर्यदिष्यते । तदुच्यतामशेषं च सिद्धमेवावधार्यताम् ॥ ५३ ॥ श्रीभगवान् बोले-हे ब्रह्मन् ! देवताओंके सहित तुमको मुझसे जिस वस्तुकी इच्छा हो वह सब कहो और उसे सिद्ध हुआ ही समझो ॥ ५३ ॥ श्रीपराशर उवाच
ततो ब्रह्मा हरेर्दिव्य विश्विरूपमवेक्ष्य तत् । तुष्टाव भूयो देवेषु साध्वसावनतात्मसु ॥ ५४ ॥ श्रीपराशरजी बोले- तब श्रीहरिके उस दिव्य विश्वरूपको देखकर समस्त देवताओंके भयसे विनीत हो जानेपर ब्रह्माजी पुनः स्तुति करने लगे ॥ ५४ ॥ ब्रह्मोवाच
नमो नमस्तेस्तु सहस्रकृत्वः सहस्रबाहो बहुवक्त्रपाद । नमोनमस्ते जगतः प्रवृत्ति- विनाशसंस्थानकराप्रमेय ॥ ५५ ॥ ब्रह्माजी बोले-हे सहस्रबाहो ! हे अनन्तमुख एवं चरणवाले ! आपको हजारों बार नमस्कार हो । हे जगत्की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करनेवाले ! हे अप्रमेय ! आपको बारम्बार नमस्कार हो ॥ ५५ ॥ सूक्ष्मातिसूक्ष्मातिबृहत्प्रमाण
गरीयसामप्यतिगौरवात्मन् । प्रधानबुद्धीन्द्रियवत्प्रधान- मूलात्परात्मन्भगवन्प्रसीद ॥ ५६ ॥ हे भगवन् ! आप सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, गुरुसे भी गुरु और अति बृहत् प्रमाण हैं, तथा प्रधान (प्रकृति) महत्तत्त्व और अहंकारादिमें प्रधानभूत मूल पुरुषसे भी परे हैं; हे भगवन् ! आप हमपर प्रसन्न होइये ॥ ५६ ॥ एषा मही देव महीप्रसूतै-
र्महासुरैः पीडितशैलबन्धा । परायणं त्वां जगतामुपैति भारावतारार्थमपारसार ॥ ५७ ॥ हे देव ! इस पृथिवीके पर्वतरूपी मूलबन्ध इसपर उत्पन्न हुए महान् असुरोंके उत्पातसे शिथिल हो गये हैं । अतः हे अपरिमितवीर्य ! यह संसारका भार उतारनेके लिये आपकी शरणमें आयी है ॥ ५७ ॥ एते वयं वृत्ररिपुस्तथायं
नासत्यदस्त्रौ वरुणस्तथैव । इमे च रुद्रा वसवःससूर्याः- समीरणाग्निप्रसुखास्तथान्ये ॥ ५८ ॥ सुराःसमस्ताःसुरनाथकार्य- मेभिर्मया यच्च तदीश सर्वम् । आज्ञापयाज्ञां परिपालयन्त- स्तवैव तिष्ठाम सदास्तदोषाः ॥ ५९ ॥ हे सुरनाथ ! हम और यह इन्द्र, अश्विनीकुमार तथा वरुण, ये रुद्रगण, वसुगण, सूर्य, वायु और अग्नि आदि अन्य समस्त देवगण यहाँ उपस्थित हैं, इन्हें अथवा मुझे जो कुछ करना उचित हो उन सब बातोंके लिये आज्ञा कीजिये । हे ईश ! आपहीकी आज्ञाका पालन करते हुए हम सम्पूर्ण दोषोंसे मुक्त हो सकेंगे ॥ ५८-५९ ॥ श्रीपराशर उवाच
एवं संस्तूयमानस्तु भगवान्परमेश्वरः । उज्जहारात्मनः केशौ सितकृष्णौ महामुने ॥ ६० ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे महामुने ! इस प्रकार स्तुति किये जानेपर भगवान् परमेश्वरने अपने श्याम और श्वेत दो केश उखाड़े ॥ ६० ॥ उवाच च सुरानेतौ मत्केशौ वसुधातले ।
अवतीर्य भुवो भारक्लेशहानिं करिष्यतः ॥ ६१ ॥ और देवताओंसे बोले-'मेरे ये दोनों केश पृथिवीपर अवतार लेकर पृथिवीके भाररूप कष्टको दूर करेंगे ॥ ६१ ॥ सुराश्च सकलाःस्वांशैरवतीर्य महीतले ।
कुर्वन्तु युद्धमुन्मत्तैः पूर्वोत्पन्नैर्महासुरैः ॥ ६२ ॥ सब देवगण अपने-अपने अंशोंसे पृथिवीपर अवतार लेकर अपनेसे पूर्व उत्पन्न हुए उन्मत्त दैत्योंके साथ युद्ध करें ॥ ६२ ॥ ततः क्षयमशेषास्ते दैतेया धरणीतले ।
प्रयास्यन्ति न सन्देहो मद्दृपातविचूर्णिताः ॥ ६३ ॥ तब निःसन्देह पृथिवीतलपर सम्पूर्ण दैत्यगण मेरे दृष्टिपातसे दलित होकर क्षीण हो जायगे ॥ ६३ ॥ वसुदेवस्य या पत्नी देवकी देवतोपमा ।
तत्रायमष्टमो गर्भो मत्केशो भविता सुराः ॥ ६४ ॥ वसुदेवजीको जो देवीके समान देवकी नामकी भार्या है उसके आठवें गर्भसे मेरा यह (श्याम) केश अवतार लेगा ॥ ६४ ॥ अवतीर्य च तत्रायं कंसं घातयिता भुवि ।
कालनेमीं समुद्भूतमित्युक्त्वान्तर्दधे हरिः ॥ ६५ ॥ और इस प्रकार यहाँ अवतार लेकर यह कालनेमिके अवतार कंसका वध करेगा । ' ऐसा कहकर श्रीहरि अन्तर्धान हो गये ॥ ६५ ॥ अदृश्याय ततस्तस्मै प्रणिपत्य महामुने ।
मेरुपृष्ठं सुरा जग्मुरवतेरुश्च भूतले ॥ ६६ ॥ हे महामुने ! भगवान्के अदृश्य हो जानेपर उन्हें प्रणाम करके देवगण सुमेरुपर्वतपर चले गये और फिर पृथिवीपर अवतीर्ण हुए ॥ ६६ ॥ कंसाय चाष्टमो गर्भो देवक्या धरणीधरः ।
भविष्यतीत्याचचक्षे भगवान्नारदो मुनिः ॥ ६७ ॥ इसी समय भगवान् नारदजीने कंससे आकर कहा कि देवकीके आठवें गर्भमें भगवान् धरणीधर जन्म लेंगे ॥ ६७ ॥ कंसोऽपि तदुपश्रुत्य नारदात्कुपितस्ततः ।
देवकीं वसुदेवं च गृहे गुप्तावधारयत् ॥ ६८ ॥ नारदजीसे यह समाचार पाकर कंसने कुपित होकर वसुदेव और देवकीको कारागृहमें बन्द कर दिया ॥ ६८ ॥ वसुदेवेन कंसाय तेनैवोक्तं यथा पुरा ।
तथैव वसुदेवोऽपि पुत्रमर्पितवान् द्विज ॥ ६९ ॥ हे द्विज ! वसुदेवजी भी, जैसा कि उन्होंने पहले कह दिया था, अपने प्रत्येक पुत्रको कंसको सौंपते रहे ॥ ६९ ॥ हिरण्यकशिपोः पुत्राः षड्गर्भा इति विश्रुताः ।
विष्णुप्रयुक्ता स्तान्निद्रा क्रमाद्गर्भानयोजयत् ॥ ७० ॥ ऐसा सुना जाता है कि पहले छ; गर्भ हिरण्यकशिपुके पुत्र थे । भगवान् विष्णुकी प्रेरणासे योगनिद्रा उन्हें क्रमशः गर्भमें स्थित करती रही * ॥ ७० ॥ योगनिद्रा महामाया वैष्णवी मोहितं यया ।
अविद्यया जगत्सर्वं तामाह भगवान्हरिः ॥ ७१ ॥ जिस अविद्या-रूपिणीसे सम्पूर्ण जगत् मोहित हो रहा है, वह योगनिद्रा भगवान् विष्णुकी महामाया है उससे भगवान् श्रीहरिने कहा- ॥ ७१ ॥ श्रीभगवानुवाच
निद्रे गच्छ ममादेशात्पातालातलसंश्रयान् । एकैकत्वेन षड्गर्भान्देवकीजठरं नय ॥ ७२ ॥ श्रीभगवान् बोले-हे निद्रे ! जा, मेरी आज्ञासे तू पातालमें स्थित छः गर्भीको एक-एक करके देवकीकी कुक्षिमें स्थापित कर दे ॥ ७२ ॥ हतेषु तेषु कंसेन शेषाख्योंऽशस्सतो मम ।
अंशांशेनोदरे तस्याःसप्तमः सम्भविष्यति ॥ ७३ ॥ कंसद्वारा उन सबके मारे जानेपर शेष नामक मेरा अंश अपने अंशांशसे देवकीके सातवें गर्भमें स्थित होगा ॥ ७३ ॥ गोकुले वसुदेवस्य भार्यान्या रोहिणी स्थिता ।
तस्याःस सम्भूतिसमं देवि नेयस्त्वयोदरम् ॥ ७४ ॥ हे देवि ! गोकलमें वसुदेवजीकी जो रोहिणी नामकी दूसरी भार्या रहती है उसके उदरमें उस सातवें गर्भको ले जाकर तू इस प्रकार स्थापित कर देना जिससे वह उसीके जठरसे उत्पन्न हुएके समान जान पड़े ॥ ७४ ॥ सप्तमो भोजराजस्य भयाद्रोधोपरोधतः ।
देवक्याः पतितो गर्भ इति लोको वदिष्यति ॥ ७५ ॥ उसके विषय में संसार यही कहेगा कि कारागारमें बन्द होनेके कारण भोजराज कंसके भयसे देवकीका सातवाँ गर्भ गिर गया ॥ ७५ ॥ गर्भसंकर्षणात्सोऽथ लोके संकर्षणेति वै ।
संज्ञामवाप्स्यते वीरः श्वेताद्रिशिखरोपमः ॥ ७६ ॥ बह श्वेत शैलशिखरके समान वीर पुरुष गर्भसे आकर्षण किये जानेके कारण संसारमें 'संकर्षण' नामसे प्रसिद्ध होगा ॥ ७६ ॥ ततोऽहं सम्भविष्यामि देवकीजठरे शुभे ।
भर्गं त्वया यशोदाया गन्तव्यमविलम्बितम् ॥ ७७ ॥ तदनन्तर, हे शुभे ! देवकीके आठवें गर्भमें मैं स्थित होऊँगा । उस समय तू भी तुरंत ही यशोदाके गर्भमें चली जाना ॥ ७७ ॥ प्रावृट्काले च नभसि कृष्णाष्टम्यामहं निशि ।
उत्पत्स्यामि नवम्यां तु प्रसूतिं त्वमवाप्स्यसि ॥ ७८ ॥ वर्षा ऋतु में भाद्रपद कृष्ण अष्टमीको रात्रिके समय मैं जन्म लूँगा और तू नवमीको उत्पन्न होगी ॥ ७८ ॥ यशोदाशयने मां तु देवक्यास्त्वामनिन्दिते ।
मच्छक्तिप्रोरितमतिर्वसुदेवो नयिष्यति ॥ ७९ ॥ हे अनिन्दिते ! उस समय मेरी शक्तिसे अपनी मति फिर जानेके कारण वसुदेवजी मुझे तो यशोदाके और तुझे देवकीके शयनगृहमें ले जायेंगे ॥ ७९ ॥ कंसश्च त्वामुपादाय देवि शैलशिलातले ।
प्रक्षेप्स्यत्यन्तारिक्षे च संस्थानं त्वमवाप्स्यसि ॥ ८० ॥ तब हे देवि ! कंस तुझे पकड़कर पर्वत-शिलापर पटक देगा; उसके पटकते ही तू आकाशमें स्थित हो जायगी ॥ ८० ॥ ततस्त्वां शतदृक्छक्रः प्रणम्य मम गौरवात् ।
प्रणिपातानतशिरा भगिनीत्वे ग्रहीष्यति ॥ ८१ ॥ उस समय मेरे गौरवसे सहस्रनयन इन्द्र सिर झुकाकर प्रणाम करनेके अनन्तर तुझे भगिनीरूपसे स्वीकार करेगा ॥ ८१ ॥ त्वं च शुम्भनिशुम्भादीन्हत्वा दैत्यान्सहस्रशः ।
स्थानैरनेकैः पृथिवीमशेषां मण्डयिष्यसि ॥ ८२ ॥ तू भी शुम्भ, निशुम्भ आदि सहस्रों दैत्योंको मारकर अपने अनेक स्थानोंसे समस्त पृथिवीको सुशोभित करेगी ॥ ८२ ॥ त्वं भूतिः सन्नतिः क्षान्तिः कान्तिर्द्यौः पृथिवी धृतिः ।
लज्जा पुष्टीरुषा या तु काचिदन्या त्वमेव सा ॥ ८३ ॥ तू ही भूति, सन्नत्ति, क्षान्ति और कान्ति है तू ही आकाश, पृथिवी, धृति, लज्जा, पुष्टि और उषा है; इनके अतिरिक्त संसारमें और भी जो कोई शक्ति है वह सब तू ही है ॥ ८३ ॥ ये त्वामार्येति दुर्गेति वेदगर्भाम्बिकेति च ।
भद्रेति भद्रकालीति क्षेमदा भग्यदेति च ॥ ८४ ॥ प्रातश्चैवापराह्ने च स्तोष्यन्त्यानम्रमूर्तयः । तेषां हि प्रार्थितं सर्वं मत्प्रसादाद्भविष्यति ॥ ८५ ॥ जो लोग प्रात:काल और सायंकालमें अत्यन्त नम्रतापूर्वक तुझे आर्या, दुर्गा, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा और भाग्यदा आदि कहकर तेरी स्तुति करेंगे, उनकी समस्त कामनाएँ मेरी कृपासे पूर्ण हो जायँगी ॥ ८४-८५ ॥ सुरामांसोपहारैश्च भक्ष्यभोज्यैश्च पूजिता ।
नृणामशेषकामांस्त्वं प्रसन्ना सम्प्रदास्यसि ॥ ८६ ॥ मदिरा और मांसकी भेंट चढ़ानेसे तथा भक्ष्य और भोज्य पदार्थोद्वारा पूजा करनेसे प्रसन्न होकर तू मनुष्योंकी सम्पूर्ण कामनाओंको पूर्ण कर देगी ॥ ८६ ॥ ते सर्वे सर्वदा भद्रे मत्प्रसादादसंशयम् ।
असन्दिग्धा भविष्यन्ति गच्छ देवि यथोदितम् ॥ ८७ ॥ तेरे द्वारा दी हुई वे समस्त कामनाएँ मेरी कृपासे निस्सन्देह पूर्ण होंगी । हे देवि ! अब तू मेरे बतलाये हुए स्थानको जा ॥ ८७ ॥ इति विष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे प्रथमोऽध्यायः (१)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ |