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॥ विष्णुपुराणम् ॥

चतुर्थः अंशः

॥ चतुर्विंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
योऽयं रिपुञ्जयो नाम बार्हद्रथोऽन्त्यस्तस्यामात्यो मुनिको नाम भविष्यति ॥ १ ॥
स चैनं स्वामिनं हत्वा स्वुपुत्रं प्रद्योतनामानमभिषेक्ष्यति ॥ २ ॥
तस्यापि बलाकनामा पुत्रो भविता ॥ ३ ॥
ततश्च विशाखयूपः ॥ ४ ॥
तत्पुत्रो जनकः ॥ ५ ॥
तस्य च नन्दिवर्धनः ॥ ६ ॥
ततो नन्दी ॥ ७ ॥
इत्येतेऽष्टित्रिंशदुत्तरमष्टशतं पञ्च प्रद्योताः पृथिवीं भोक्ष्यन्ति ॥ ८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-बृहद्रथवंशका रिपुंजय नामक जो अन्तिम राजा होगा उसका सुनिक नामक एक मन्त्री होगा । वह अपने स्वामी रिपुंजयको मारकर अपने पुत्र प्रद्योतका राज्याभिषेक करेगा । उसका पुत्र बलाक होगा, बलाकका विशाखयूप, विशाखयूपका जनक, जनकका नन्दिवर्द्धन तथा नन्दिवर्द्धनका पुत्र नन्दी होगा । ये पाँच प्रद्योतवंशीय नृपतिगण एक सौ अड़तीस वर्ष पृथिवीका पालन करेंगे ॥ १-८ ॥

ततश्च शिशुनाभः ॥ ९ ॥
तत्पुत्रः काकवर्णो भविता ॥ १० ॥
तस्य च पुत्रः क्षेमधर्मा ॥ ११ ॥
तस्यापि क्षतौजाः ॥ १२ ॥
तत्पुत्रो विधिसारः ॥ १३ ॥
ततश्चाजातशत्रुः ॥ १४ ॥
तस्मादर्भकः ॥ १५ ॥
तस्माच्चोदयनः ॥ १६ ॥
तस्मादपि नन्दिवर्धनः ॥ १७ ॥
ततो महानन्दी ॥ १८ ॥
इत्येते शैशुनाभा भूपालास्त्रीणि वर्षशतानि द्विषष्ट्यधिकानि भविष्यन्ति ॥ १९ ॥
नन्दीका पुत्र शिशुनाभ होगा, शिशुनाभका काकवर्ण, काकवर्णका क्षेमधर्मा, क्षेमधर्माका क्षतौजा, क्षतीजाका विधिसार, विधिसारका अजातशत्रु, अजातशत्रुका अर्भक, अर्भकका उदयन, उदयनका नन्दिवर्द्धन और नन्दिवर्द्धनका पुत्र महानन्दी होगा । ये शिशुनाभवंशीय नृपतिगण तीन सौ बासठ वर्ष पृथिवीका शासन करेंगे ॥ ९-१९ ॥

महानन्दिनस्ततः शूद्रगर्भोद्‍भवोति लुब्धोतिबलो महापद्मनामा नन्दः परशुराम इवापरोऽखिलक्षत्रान्तकरी भविष्यति ॥ २० ॥
ततः प्रभृति शुद्रा भूपाला भविष्यन्ति ॥ २१ ॥
स चैकच्छत्रामनुल्लङ्‍घितशासनो महापद्मः पृथिवीं भोक्ष्यते ॥ २२ ॥
तस्याप्यष्टौ सुताःसुमाल्याद्य भवितारः ॥ २३ ॥
तस्य महापद्मस्यानुपृथिवीं भोक्ष्यन्ति ॥ २४ ॥
महानन्दीके शूद्राके गर्भसे उत्पन्न महापा नामक नन्द दूसरे परशुरामके समान सम्पूर्ण क्षत्रियोंका नाश करनेवाला होगा । तबसे शूद्रजातीय राजा राज्य करेंगे । राजा महापद्म सम्पूर्ण पृथिवीका एकच्छत्र और अनुल्लंधित राज्य-शासन करेगा । उसके सुमाली आदि आठ पुत्र होंगे जो महापद्मके पीछे पृथिवीका राज्य भोगेंगे ॥ २०-२४ ॥

महापद्मपुत्राश्चैकं वर्षशतमवनीपतयो भविष्यन्ति ॥ २५ ॥
ततश्च नवचैतान्नन्दान् कौटिल्यो ब्राह्मणः समुद्धरिष्यति ॥ २६ ॥
तेषामभावे मौर्व्याः पृथिवीं भोक्ष्यन्ति ॥ २७ ॥
कौटिल्य एव चन्द्रगुप्तमुत्पन्नं राज्येऽभिषेक्ष्यति ॥ २८ ॥
महापद्म और उसके पुत्र सौं वर्षतक पृथिवीका शासन करेंगे । तदनन्तर इन नवों नन्दोंको कौटिल्य नामक एक ब्राह्मण नष्ट करेगा, उनका अन्त होनेपर मौर्य नृपतिगण पृथिवीको भोगेंगे । कौटिल्य ही [मुरा नामकी दासीसे नन्दद्वारा] उत्पन्न हुए चन्द्रगुप्तको राज्याभिषिक्त करेगा ॥ २५-२८ ॥

तस्यापि पुत्रो बिन्दुसारो भविष्यति ॥ २९ ॥
तस्याप्यशोकवर्धनस्ततः सुयशास्ततश्च दशरथस्ततश्च संयुतस्ततः शालिशुकस्तस्मात्सोमशर्मा तस्यापि सोमशर्मणः शतधन्वा ॥ ३० ॥
तस्यानुबृहद्रथनामा भविता ॥ ३१ ॥
एवमेते मौर्या दश भूपतयो भविष्यन्ति अब्दशतं सप्तत्रिंशदुत्तरम् ॥ ३२ ॥
चन्द्रगुप्तका पुत्र बिन्दुसार, बिन्दुसारका अशोकवर्द्धन, अशोकवर्द्धनका सुयशा, सुयशाका दशरथ, दशरथका संयुत, संयुतका शालिशूक, शालिशूकका सोमशर्मा, सोमशर्माका शतधन्वा तथा शतधन्वाका पुत्र वृहद्रथ होगा । इस प्रकार एक सौ तिहत्तर वर्षतक ये दस मौर्यवंशी राजा राज्य करेंगे ॥ २९-३२ ॥

तेषामन्ते पृथिवीं दश शुङ्‍गा भोक्ष्यन्ति ॥ ३३ ॥
इनके अनन्तर पृथिवीमें दस शुंगवंशीय राजागण होंगे ॥ ३३ ॥

पुष्यमीत्रःसेनापतिःस्वामिनं हत्वा राज्यं करिष्यति तस्यात्मजोऽग्निमित्रः ॥ ३४ ॥
उनमें पहला पुष्यमित्र नामक सेनापति अपने स्वामीको मारकर स्वयं राज्य करेगा, उसका पुत्र अग्निमित्र होगा ॥ ३४ ॥

तस्मात्सुज्येष्ठस्ततो वसुमित्रस्तस्मादप्युदङ्‍कस्ततः पुलिन्दकस्ततो घोषवसुस्कस्मादपि वज्रमित्रस्ततो भगवतः ॥ ३५ ॥
तस्माद्देवभूतिः ॥ ३६ ॥
अग्निमित्रका पुत्र सुज्येष्ठ, सुज्येष्ठका वसुमित्र, वसुमित्रका उदक, उदंकका पुलिन्दक, पुलिन्दकका घोषवसु, घोषवसुका वज्रमित्र, वामित्रका भागवत और भागवतका पुत्र देवभूति होगा ॥ ३५-३६ ॥

इत्येते शुङ्‍गा द्वादशोत्तरं वर्षशतं पृथिवीं भोक्ष्यन्ति ॥ ३७ ॥
ये शुंगनरेश एक सौ बारह वर्ष पृथिवीका भोग करेंगे ॥ ३७ ॥

ततः कण्वानेषाभूर्यास्यति ॥ ३८ ॥
इसके अनन्तर यह पृथिवी कण्व भूपालोंके अधिकारमें चली जायगी ॥ ३८ ॥

देवभूतिं तु शुङ्‍गराजानं व्यसनिनं तस्यैवामात्यः कण्वो वसुदेवनामा तं निहत्य स्वयमवनीं भोक्ष्यति ॥ ३९ ॥
शंगवंशीय अति व्यसनशील राजा देवभूतिको कण्यवंशीय वसुदेव नामक उसका मन्त्री मारकर स्वयं राज्य भोगेगा ॥ ३९ ॥

तस्य पुत्रो भूमित्रस्तस्यापि नारायणः ॥ ४० ॥
नारायणात्मजःसुशर्मा ॥ ४१ ॥
उसका पुत्र भूमित्र, भूमित्रका नारायण तथा नारायणका पुत्र सुशर्मा होगा ॥ ४०-४१ ॥

एते काण्वायनाश्चत्वारः पञ्चचत्वारींशद्‌वर्षाणि भूपतयो भविष्यन्ति ॥ ४२ ॥
ये चार काण्व भूपतिगण पैंतालीस वर्ष पृथिवीके अधिपति रहेंगे ॥ ४२ ॥

सुशर्माणं तु काण्वं तद्‍भूत्यो बलिपुच्छकनामा हत्वान्ध्रजातीयो वसुधां भोक्ष्यति ॥ ४३ ॥
कण्ववंशीय सुशर्माको उसका बलिपुच्छक नामवाला आन्ध्रजातीय सेवक मारकर स्वयं पृथिवीका भोग करेगा ॥ ४३ ॥

ततश्च कृष्णनामा तद्‍भ्राता पृथिवीपतिर्भविष्यति ॥ ४४ ॥
उसके पीछे उसका भाई कृष्ण पृथिवीका स्वामी होगा ॥ ४४ ॥

तस्यापि पुत्रः शान्तकर्णिस्तस्यापि पूर्णोत्सङ्‍गस्तत्पुत्रः शातकर्मिस्तस्माच्च लम्बोदरः तस्माच्च पिलकस्ततो मेघस्वातिः स्ततः पटुमान् ॥ ४५ ॥
ततश्चारिष्टकर्मा ततो हालाहलः ॥ ४६ ॥
हालाहलात्पललकस्ततः पुलिन्दसेनस्ततः सुन्दरस्ततःशातकर्णिः शिवस्वातिस्ततश्च गोमतिपुत्रस्तत्पुत्रोऽलिमान् ॥ ४७ ॥ तस्यापि शान्तकर्णिस्ततः शिवश्रितस्तश्च शिवस्कन्धस्तस्मादपि यज्ञश्रीस्ततो द्वियज्ञस्तस्माच्चन्द्रश्रीः ॥ ४८ ॥
तस्मात्पुलोमाचिः ॥ ४९ ॥
उसका पुत्र शान्तकर्णि होगा । शान्तकर्णिका पुत्र पूर्णोत्संग, पूर्णोत्संगका शातकर्णि, शातकर्णिका लम्बोदर, लम्बोदरका पिलक, पिलकका - मेघस्वाति, मेघस्वातिका पटुमान् , पटुमान्का अरिष्टकर्मा, अरिष्टकर्माका हालाहल, हालाहलका पललक, पललकका - पुलिन्दसेन, पुलिन्दसेनका सुन्दर, सुन्दरका शातकर्णि, [दूसरा] शातकर्णिका शिवस्वाति, शिवस्वातिका गोमतिपुत्र, गोमतिपुत्रका अलिमान् , अलिमानका शान्तकर्णि [दूसरा], शान्तकर्णिका शिवश्रित, शिवश्रितका शिवस्कन्ध, शिवस्कन्धका यज्ञश्री, यज्ञश्रीका द्वियज्ञ, द्वियज्ञका चन्द्र श्री । तथा चन्द्रश्रीका पुत्र पुलोमाचि होगा ॥ ४५-४९ ॥

एवमेते त्रिंशच्चत्वार्यब्दशतानि षट्पञ्चाशदधिकानि पृथिवीं भोक्ष्यन्ति आन्ध्रभृत्या ॥ ५० ॥
इस प्रकार ये तीस आन्ध्रभृत्य राजागण चार सौ छप्पन वर्ष पृथिवीको भोगेंगे ॥ ५० ॥

सप्ताभीरप्रभृतयो दश गर्दभिलाश्च भूभुजो भविष्यन्ति ॥ ५१ ॥
इनके पीछे सात आभीर और दस गर्दभिल राजा होंगे ॥ ५१ ॥

ततःषोडश भूपतयो भवितारः ॥ ५२ ॥
फिर सोलह शक राजा होंगे ॥ ५२ ॥

ततश्चाष्टौ यवनाश्चतुर्दश तुरुष्कारा मुण्डाश्च त्रयोदश एकादश मौना एते वै पृथुवीपतयः पृथिवीं दशवर्षशातानि नवत्यधिकानि भोक्ष्यन्ति ॥ ५३ ॥
उनके पीछे आठ यवन, चौदह तुर्क, तेरह मुण्ड (गुरुण्ड) और ग्यारह मौनजातीय राजालोग एक हजार नब्बे वर्ष पृथिवीका शासन करेंगे ॥ ५३ ॥

ततश्च एकादश भूपतयोऽब्दशतानि त्रीणि पृथिवीं भोक्ष्यन्ति ॥ ५४ ॥
इनमेंसे भी ग्यारह मौन राजा पृथिवीको तीन सौ वर्षतक भोगेंगे ॥ ५४ ॥

तेषूत्सन्नेषु कैंकिला यवना भूपतयो भविष्यन्त्यमूर्धाभिषिक्ताः ॥ ५५ ॥
इनके उच्छिन्न होनेपर कैंकिल नामक यवनजातीय अभिषेकरहित राजा होंगे ॥ ५५ ॥

तेषामपत्यं विन्ध्यशक्तिस्ततः पुंरजयस्तस्माद्‌रामचन्द्रस्तस्माद्‌धर्मवर्मा ततो वङ्‍गस्ततोभून्नन्दनस्ततःसुनन्दी तद्‍भ्राता नन्दीयशाः शुक्रः प्रवीर एते वर्षशतं षड्वर्षाणि भूपतयो भविष्यन्ति ॥ ५६ ॥
उनका वंशधर विन्ध्यशक्ति होगा । विन्ध्यशक्तिका पुत्र पुरंजय होगा । पुरंजयका रामचन्द्र, रामचन्द्रका धर्मवर्मा, धर्मवर्माका वंग, वंगका नन्दन तथा नन्दनका पुत्र सुनन्दी होगा । सुनन्दीके नन्दियशा, शुक्र और प्रवीर ये तीन भाई होंगे । ये सब एक सौ छ: वर्ष राज्य करेंगे ॥ ५६ ॥

ततस्तत्पुत्रास्त्रयोदशैते बाह्लिकाश्च त्रयः ॥ ५७ ॥
इसके पीछे तेरह इनके वंशके और तीन बाहिक राजा होंगे ॥ ५७ ॥

ततः पुष्पमित्राः पटुमियत्रास्त्रयोदशैकलाश्च सप्तान्ध्राः ॥ ५८ ॥
उनके बाद तेरह पुष्पमित्र और पटुमित्र आदि तथा सात आन्ध्र माण्डलिक भूपतिगण होंगे ॥ ५८ ॥

ततश्च कोसलायां तु नव चैव भूपतयो भविष्यन्ति ॥ ५९ ॥
तथा नौ राजा क्रमशः कोसलदेशमें राज्य करेंगे ॥ ५९ ॥

नैषधास्तु त एव ॥ ६० ॥
निषधदेशके स्वामी भी ये ही होंगे ॥ ६० ॥

मगधायां तु विश्वस्फटिक संज्ञोऽन्यान्वर्णान्करिष्यति ॥ ६१ ॥
मगधदेशमें विश्वस्फटिक नामक राजा अन्य वर्णोको प्रवृत्त करेगा ॥ ६१ ॥

कैवर्तवटुपुलिन्दब्राह्मणान्‌राज्ये स्थपयिष्यति ॥ ६२ ॥
वह कैवर्त, वटु, पुलिन्द और ब्राह्मणोंको राज्यमें नियुक्त करेगा ॥ ६२ ॥

उत्साद्याखिलक्षत्रजातिं नव नागाः पद्मवत्यां नाम पुर्यामनुगङ्‍गाप्रयागं गयायाञ्च मागधा गुप्तांश्च भोक्ष्यन्ति ॥ ६३ ॥
सम्पूर्ण क्षत्रिय-जातिको उच्छिन्न कर पद्मावतीपुरीमें नागगण तथा गंगाके निकटवर्ती प्रयाग और गया मागध और गुप्त राजालोग राज्य भोग करेंगे ॥ ६३ ॥

कोशलान्ध्रपुण्ड्रताम्रलिप्तसमतटपुरीं च देवरक्षितो रक्षिता ॥ ६४ ॥
कोसल, आन्ध्र, पुण्ड, ताम्रलिप्त और समुद्रतटवर्तिनी पुरीकी देवरक्षित नामक एक राजा रक्षा करेगा ॥ ६४ ॥

कलिङ्‍गमाहिषमहेन्द्रभौमान् गुहा भोक्ष्यन्ति ॥ ६५ ॥
कलिंग, माहिष, महेन्द्र और भौम आदि देशोंको गुह नरेश भोगेंगे ॥ ६५ ॥

नैषधनैमिषक कालकोशकाञ्जनपदान्मणिधान्यकवंशा भोक्ष्यन्ति ॥ ६६ ॥
नैषध, नैमिषक और कालकोशक आदि जनपदोंको मणि-धान्यक-वंशीय राजा भोगेंगे ॥ ६६ ॥

त्रैराज्यमुषिकजनपदान् कनकाह्वयो भोक्ष्यति ॥ ६७ ॥
त्रैराज्य और मुषिक देशोंपर कनक नामक राजाका राज्य होगा ॥ ६७ ॥

सौराष्ट्रावन्ति शुद्राभीरान्नर्मदामरुभूविषयांश्च व्रात्यद्विजाभीरशूद्राद्या भोक्ष्यन्ति ॥ ६८ ॥
सौराष्ट्र, अवन्ति, शूद्र, आभीर तथा नर्मदा-तटवर्ती मरुभूमिपर व्रात्य द्विज, आभीर और शूद्र आदिका आधिपत्य होगा । ॥ ६८ ॥

सिन्धुतटदाविकोर्वीचन्द्रभागा काश्मीरविषयांश्च व्रात्यम्लेच्छस्कूद्रादयो भोक्ष्यन्ति ॥ ६९ ॥
समुद्रतट, दाविकोर्वी, चन्द्रभागा और काश्मीर आदि देशोंका व्रात्य, म्लेच्छ और शूद्र आदि राजागण भोग करेंगे ॥ ६९ ॥

एते च तुल्यकालाःसर्वे पृथिव्यां भूभुजो भविष्यन्ति ॥ ७० ॥
ये सम्पूर्ण राजालोग पृथिवीमें एक ही समय में होंगे ॥ ७० ॥

अल्पप्रसादा बृहत्कोपाः सार्वकालमनृताधर्मरुचयः स्त्रीबालगोवधकर्तारः परस्वादानरुचयोऽल्पसाराः तमिस्त्रप्राया उदितास्तमितप्राया अल्पायुषो महेच्छा ह्यल्पधर्मा लुब्धाश्च भविष्यन्ति ॥ ७१ ॥
ये थोड़ी प्रसन्नतावाले, अत्यन्त क्रोधी, सर्वदा अधर्म और मिथ्या भाषणमें रुचि रखनेवाले, स्त्री-बालक और गौओंकी हत्या करनेवाले, पर-धन-हरणमें रुचि रखनेवाले, अल्पशक्ति तमःप्रधान उत्थानके साथ ही पतनशील, अल्पायु, महती कामनावाले, अल्पपुण्य और अत्यन्त लोभी होंगे ॥ ७१ ॥

तैश्च विमिश्रा नजपदाः तच्छीलानुवर्तिनो राजाश्रयशुष्मिणो म्लेच्छाचाराश्च विपर्ययेण वर्तमानाः प्रजाः क्षपयिष्यन्ति ॥ ७२ ॥
ये सम्पूर्ण देशोंको परस्पर मिला देंगे तथा उन राजाओंके आश्रयसे ही बलवान् और उन्होंके स्वभावका अनुकरण करनेवाले म्लेच्छ तथा आर्यविपरीत आचरण करते हुए सारी प्रजाको नष्ट-भ्रष्ट कर देंगे ॥ ७२ ॥

ततश्चानुदिनं अल्पाल्पह्रासव्यवच्छेदाद् धर्मार्थयोर्जगतःसंक्षयो भविष्यति ॥ ७३ ॥
तब दिन-दिन धर्म और अर्थका थोड़ा-थोड़ा हास तथा क्षय होनेके कारण संसारका क्षय हो जायगा ॥ ७३ ॥

ततश्चार्थ एवाभिजनहेतुः ॥ ७४ ॥
बलमेवाशेषधर्महेतुः ॥ ७५ ॥
अभिरुचिरेव दाम्पत्यसम्बन्धहेतुः ॥ ७६ ॥
स्त्रीत्वमेवोपभोगहेतुः ॥ ७७ ॥
अनृतमेव व्यवहारजयहेतुः ॥ ७८ ॥
उन्नताम्बुतैव पृथिवीहेतुः ॥ ७९ ॥
ब्रह्मसूत्रमेव विप्रत्वहेतुः ॥ ८० ॥
रत्‍नधातुतैव श्लाघ्यताहेतुः ॥ ८१ ॥
लिङ्‍गधाराणमेवाश्रमहेतुः ॥ ८२ ॥
अन्याय एव वृत्तिहेतुः ॥ ८३ ॥
दौर्बल्यमेवावृत्तिहेतुः ॥ ८४ ॥
अभयप्रगल्भोच्चारणमेव पाण्डित्यहेतुः ॥ ८५ ॥
अनाढ्यतैव साधुत्वहेतुः ॥ ८६ ॥
स्त्रानमेव प्रसाधनहेतुः ॥ ८७ ॥
दानमेव धर्महेतुः ॥ ८८ ॥
स्वीकरणमेव विवाहहेतुः ॥ ८९ ॥
सद्वेषधार्येव पात्रम् ॥ ९० ॥
दूरायतननोदकमेव तीर्थहेतुः ॥ ९१ ॥
कपटवेषधारणमेव महत्त्वहेतुः ॥ ९२ ॥
उस समय अर्थ ही कुलीनताका हेतु होगा; बल ही सम्पूर्ण धर्मका हेतु होगा; पारस्परिक रुचि ही दाम्पत्य-सम्बन्धकी हेतु होगी, स्त्रीत्व ही उपभोगका हेतु होगा [अर्थात् स्त्रीकी जाति-कुल आदिका विचार न होगा]: मिथ्या भाषण ही व्यवहार में सफलता प्राप्त करनेका हेतु होगा; जलकी सुलभता और सुगमता ही पृथिवीकी स्वीकृतिका हेतु होगा [अर्थात् पुण्यक्षेत्रादिका कोई विचार न होगा जहाँकी जलवायु उत्तम होगी वही भूमि उत्तम मानी जायगी]; यज्ञोपवीत ही ब्राह्मणत्वका हेतु होगा; रत्नादि धारण करना ही प्रशंसाका हेतु होगा; बाह्य चिहन ही आश्रमोंके हेतु होंगे; अन्याय ही आजीविकाका हेतु होगा; दुर्बलता ही बेकारीका हेतु होगा; निर्भयतापूर्वक धृष्टताके साथ बोलना ही पाण्डित्यका हेतु होगा, निर्धनता ही साधुत्वका हेतु होगी; स्नान ही साधनका हेतु होगा; दान ही धर्मका हेतु होगा; स्वीकार कर लेना ही विवाहका हेतु होगा [अर्थात् संस्कार आदिकी अपेक्षा न कर पारस्परिक स्नेहबन्धनसे ही दाम्पत्य सम्बन्ध स्थापित हो जायगा]; भली प्रकार बन ठनकर रहनेवाला ही सुपात्र समझा जायगा; दूरदेशका जल ही तीर्थोदकत्वका हेतु होगा तथा छद्मवेश धारण ही गौरवका कारण होगा ॥ ७४–९२ ॥

इत्येवमनेकदोषोत्तरे तु भूमण्डले सर्वावर्णेष्वेव यो यो बलवान्स स भूपतिर्भविष्यति ॥ ९३ ॥
इस प्रकार पृथिवीमण्डलमें विविध दोषोंके फैल जानेसे सभी वों में जो-जो बलवान् होगा वही वही राजा बन बैठेगा ॥ ९३ ॥

एवं चातिलुब्धकराजासहाः शोलानामन्तरद्रोणीः प्रजाःसंश्रयिष्यन्ति ॥ ९४ ॥
मधुशाकमूलफलपत्रपुष्पाद्याहाराश्च भविष्यन्ति ॥ ९५ ॥
इस प्रकार अतिलोलुप राजाओंके कर-भारको सहन न कर सकनेके कारण प्रजा पर्वत-कन्दराओंका आनय लेगी तथा मधु, शाक, मूल, फल, पत्र और पुष्प आदि खाकर दिन काटेगी ॥ ९४-९५ ॥

तरुवल्कलपर्णचीर प्रावरणाश्चातिबहुप्रजाः शीतवातातपवर्षसहाश्च भविष्यन्ति ॥ ९६ ॥
वृक्षोंके पत्र और वल्कल ही उनके पहनने तथा ओढ़नेके कपड़े होंगे । अधिक सन्तानें होंगी । सब लोग शीत, वायु, घाम और वर्षा आदिके कष्ट सहेंगे ॥ ९६ ॥

न च कश्चित्त्रयोविंशतिवर्षाणि जीविष्यति अनवरतं चात्र कलियुगे भयमायात्यखिल एवैष जनः ॥ ९७ ॥
कोई भी तेईस वर्षतक जीवित न रह सकेगा । इस प्रकार कलियुगमें यह सम्पूर्ण जनसमुदाय निरन्तर क्षीण होता रहेगा ॥ ९७ ॥

श्रौते स्मार्ते च धर्मे विप्लवमत्यन्तमुपगते क्षीणप्राये च कलावशेष जगत्स्त्रष्टुश्चराचरगुरोरादि मध्यान्तरहितस्य ब्रह्ममयस्यात्मरूपिणो भगवतो वासुदेवस्यांशः शम्बलग्रामप्रधानब्राह्मणस्य विष्णुयशसो गृहेष्टगुणर्धिसमन्वितः कल्किरूपी जगत्यत्रावतीर्य सकल म्लेच्छदस्युदुष्टाचरमचेतसां अशेषाणां अपरिच्छिन्नशक्तिमाहात्म्यः क्षयं करिष्यति स्वधर्मेषु चा खिलमेव संस्थापयिष्यति ॥ ९८ ॥
इस प्रकार श्रौत और स्मार्तधर्मका अत्यन्त हास हो जाने तथा कलियुगके प्रायः बीत जानेपर शम्बल (सम्भल) ग्रामनिवासी ब्राह्मणश्रेष्ठ विष्णुयशाके घर सम्पूर्ण संसारके रचयिता, चराचर गुरु, आदिमध्यान्तशून्य, ब्रह्ममय, आत्मस्वरूप भगवान् वासुदेव अपने अंशसे अष्टैश्वर्ययुक्त कल्किरूपसे संसारमें अवतार लेकर असीम शक्ति और माहात्म्यसे सम्पन्न हो सकल म्लेच्छ, दस्यु, दुष्टाचारी तथा दुष्ट चित्तोंका क्षय करेंगे और समस्त प्रजाको अपने-अपने धर्ममें नियुक्त करेंगे ॥ ९८ ॥

अनन्तरं चाशेषकलेरवसाने निशावसाने विबुद्धानामिव तेषामेव जनपदानां अमलस्फटिकविशुद्धा मतयो भविष्यन्ति ॥ ९९ ॥
इसके पश्चात् समस्त कलियुगके समाप्त हो जानेपर रात्रिके अन्तमें जागे हुओंके समान तत्कालीन लोगोंकी बुद्धि स्वच्छ, स्फटिकमणिके समान निर्मल हो जायगी ॥ ९९ ॥

तेषां च बीजभूतानां अशेषमनुष्याणां परिणतानामपि तत्कालकृतापत्यप्रसूतिर्भविष्यति ॥ १०० ॥
उन बीजभूत समस्त मनुष्योंसे उनकी अधिक अवस्था होनेपर भी उस समय सन्तान उत्पन्न हो सकेगी ॥ १०० ॥

तानि च तदपत्यानि कृतयुगानुसारीण्येव भविष्यन्ति ॥ १०१ ॥
उनकी वे सन्ताने सत्ययुगके ही धर्मोका अनुसरण करनेवाली होंगी ॥ १०१ ॥

अत्रोच्यते
यथा चन्द्रश्च सूर्यश्च तथा तिष्यो बृहस्पतिः ।
एकराशौ समेष्यन्ति तदा भवति वै कृतम् ॥ १०२ ॥
इस विषयमें ऐसा कहा जाता है कि जिस समय चन्द्रमा, सूर्य और बृहस्पति पुष्यनक्षत्रमें स्थित होकर एक राशिपर एक साथ आगे उसी समय सत्ययुगका आरम्भ हो जायगा ॥ १०२ ॥

अतीता वर्तमानाश्च तथैवानागताश्च ये ।
एते वंशेषु भूपालाः कथिता मुनिसत्तम ॥ १०३ ॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! तुमसे मैंने यह समस्त वंशोंके भूत, भविष्यत् और वर्तमान सम्पूर्ण राजाओंका वर्णन कर दिया ॥ १०३ ॥

यावत्परीक्षितो जन्म यावन्नन्दाभिषेचनम् ।
एतद्वर्षसहस्रं तु ज्ञेयं पञ्चाशदुत्तरम् ॥ १०४ ॥
परीक्षित्के जन्मसे नन्दके अभिषेकतक एक हजार पचास वर्षका समय जानना चाहिये ॥ १०४ ॥

सप्तर्षीणां तु यौ पूर्वौ दृश्येते ह्युदितौ दिवि ।
तयोस्तु मध्ये नक्षत्रं दृश्यते यत्समं निशि ॥ १०५ ॥
तेन सप्तर्षयो युक्तास्तिष्ठन्त्यब्दशतं नृणाम् ।
ते तु पारीक्षिते काले मघास्वासन्द्विजोत्तम ॥ १०६ ॥
तदा प्रवृत्तश्च कलिर्द्वादशाब्दशतात्मकः ॥ १०७ ॥
सप्तर्षियोंमेंसे जो [पुलस्त्य और क्रतु] दो नक्षत्र आकाशमें पहले दिखायी देते हैं, उनके बीचमें रात्रिके समय जो [दक्षिणोत्तर रेखापर] समदेशमें स्थित [अश्विनी आदि] नक्षत्र हैं, उनमेंसे प्रत्येक नक्षत्रपर सप्तर्षिगण एक-एक सौ वर्ष रहते हैं । हे द्विजोत्तम ! परीक्षितके समयमें वे सप्तर्षिगण मघानक्षत्रपर थे । उसी समय बारह सौ वर्ष प्रमाणवाला कलियुग आरम्भ हुआ था ॥ १०५-१०७ ॥

यदैव भगवान्विष्णोरंशो यातो दिवं द्विज ।
वसुदेवकुलोद्‍भूतस्तदैवात्रागतः कलिः ॥ १०८ ॥
हे द्विज ! जिस समय भगवान् विष्णुके अंशावतार भगवान् वासुदेव निजधामको पधारे थे उसी समय पृथिवीपर कलियुगका आगमन हुआ था ॥ १०८ ॥

यावत्स पादपद्माभ्यां पस्पर्शेमां वसुन्धराम् ।
तावत्पुथ्वीपरिष्वङ्‍गे समर्थो नाभवत्कलिः ॥ १०९ ॥
जबतक भगवान् अपने चरणकमलोंसे इस पृथिवीका स्पर्श करते रहे, तबतक पृथिवीसे संसर्ग करनेकी कलियुगकी हिम्मत न पड़ी ॥ १०९ ॥

गते सनातनस्यांशे विष्णोस्तत्र भुवो दिवम् ।
तत्याज सानुजो राज्यं धर्म पुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ११० ॥
सनातन पुरुष भगवान् विष्णुके अंशावतार श्रीकृष्णचन्द्रके स्वर्गलोक पधारनेपर भाइयोंके सहित धर्मपुत्र महाराज युधिष्ठिरने अपने राज्यको छोड़ दिया ॥ ११० ॥

विपरीतानि दृष्ट्‍वा च निमित्तानि हि पाण्डवः ।
याते कृष्णे चकाराथ सोऽभिषेकं परीक्षितः ॥ १११ ॥
कृष्णचन्द्रके अन्तर्धान हो जानेपर विपरीत लक्षणों को देखकर पाण्डवोंने परीक्षितको राज्यपदपर अभिषिक्त कर दिया ॥ १११ ॥

प्रयास्यन्ति यदा चैते पूर्वाषाढां महर्षयः ।
तदा नन्दात्प्रभृत्येष गतिवृद्धिं गमिष्यति ॥ ११२ ॥
जिस समय ये सप्तर्षिगण पूर्वाषाढानक्षत्रपर जायेंगे उसी समय राजा नन्दके समयसे कलियुगका प्रभाव बढ़ेगा ॥ ११२ ॥

यस्मिन् कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदाहनि ।
प्रतिपन्नं कलियुगं तस्य संख्यां निबोध मे ॥ ११३ ॥
जिस दिन भगवान् कृष्णचन्द्र परमधामको गये थे उसी दिन कलियुग उपस्थित हो गया था । अब तुम कलियुगकी वर्ष-संख्या सुना- ॥ ११३ ॥

त्रीणि लक्षाणि वर्षाणां द्विज मानुष्यसंख्यया ।
षष्टिश्चैव सहस्राणि भविष्यत्येष वै कलिः ॥ ११४ ॥
हे द्विज ! मानवी वर्षगणनाके अनुसार कलियुग तीन लाख साठ हजार वर्ष रहेगा ॥ ११४ ॥

शातानि तानि दिव्यानां सप्त पञ्च च संख्यया ।
निःशेषेण गते तस्मिन् भविष्यति पुनः कृतम् ॥ ११५ ॥
इसके पश्चात् बारह सौ दिव्य वर्षपर्यन्त कृतयुग रहेगा ॥ ११५ ॥

ब्राह्मणाः क्षित्त्रिया वैश्याः शुद्राश्च द्विजसत्तम ।
युगेयुगे महात्मानः समतीताः सहस्रशः ॥ ११६ ॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! प्रत्येक युगमें हजारों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र महात्मागण हो गये हैं ॥ ११६ ॥

बहुत्वान्नामधेयानां परिसंख्या कुले कुले ।
पौनरुक्त्याद्धि साम्याच्च न मया परिकीर्तिता ॥ ११७ ॥
उनके बहुत अधिक संख्यामें होनेसे तथा समानता होनेके कारण कुलोंमें पुनरुक्ति हो जानेके भयसे मैंने उन सबके नाम नहीं बतलाये हैं ॥ ११७ ॥

देवापिः पौरवो राजा पुरुश्चेक्षाकुवंशजः ।
महायोगबलोपेतौ कलापग्रमसंश्रितौ ॥ ११८ ॥
पुरुवंशीय राजा देवापि तथा इक्ष्वाकुकुलोत्पन्न राजा पुरु-ये दोनों अत्यन्त योगबलसम्पन्न हैं और कलापग्राममें रहते हैं ॥ ११८ ॥

कृते युगे त्विहागम्य क्षत्रप्रावर्तकौ हि तौ ।
भविष्यतो मनोर्वशबीजभूतौ व्यवस्थितौ ॥ ११९ ॥
सत्ययुगका आरम्भ होनेपर ये पुनः मर्त्यलोकमें आकर क्षत्रिय-कुलके प्रवर्तक होंगे । वे आगामी मनुवंशके बीजरूप हैं । ॥ ११९ ॥

एतेन क्रमयोगेन मनुपुत्रौर्वसुन्धरा ।
कृतत्रेताद्वापराणि युगानि त्रीणि भुज्यते ॥ १२० ॥
सत्ययुग, त्रेता और द्वापर इन तीनों युगोंमें इसी क्रमसे मनुपुत्र पृथिवीका भोग करते हैं ॥ १२० ॥

कलौ ते बीजभूता वै केचित्तिष्ठन्ति वै मुने ।
यथैव देवापिपुरू साम्प्रतं समधिष्ठितौ ॥ १२१ ॥
फिर कलियुगमें उन्हींमेंसे कोई-कोई आगामी मनुसन्तानके बीजरूपसे स्थित रहते हैं जिस प्रकार कि आजकल देवापि और पुरु हैं ॥ १२१ ॥

एष तूद्देशतो वंशस्तवोक्तो भूभुजां मया ।
निखिलो गदितुं शक्यो नैष वर्षशतैरपि ॥ १२२ ॥
इस प्रकार मैंने तुमसे सम्पूर्ण राजवंशोंका यह संक्षिप्त वर्णन कर दिया है, इनका पूर्णतया वर्णन तो सौ वर्षमें भी नहीं किया जा सकता ॥ १२२ ॥

एते चान्ये च भूपाला यैरत्र क्षितिमण्डले ।
कृतं ममत्वं मोहान्धैर्नित्यं हेयकलेवरे ॥ १२३ ॥
इस हेय शरीरके मोहसे अन्धे हुए ये तथा और भी ऐसे अनेक भूपतिगण हो गये हैं जिन्होंने इस पृथिवीमण्डलको अपना-अपना माना है ॥ १२३ ॥

कथं ममेयमचला मत्पुत्रस्य कथं मही ।
मद्वंशस्येति चिन्तार्ता जग्मुरन्तमिमे नृपाः ॥ १२४ ॥
'यह पृथिवी किस प्रकार अचलभावसे मेरी, मेरे पुत्रकी अथवा मेरे वंशकी होगी ?' इसी चिन्तामें व्याकुल हुए इन सभी राजाओंका अन्त हो गया ॥ १२४ ॥

तेभ्यः पूर्वतराश्चान्ये तेभ्यस्तेभ्यस्तथा परे ।
भविष्याश्चैव यास्यन्ति तेषामन्ये च येऽप्यनु ॥ १२५ ॥
इसी चिन्तामें डूबे रहकर इन सम्पूर्ण राजाओंके पूर्व-पूर्वतरवर्ती राजालोग चले गये और इसीमें मग्न रहकर आगामी भूपतिगण भी मृत्युमुख में चले जायेंगे ॥ १२५ ॥

विलोक्यात्मजयोद्योगं यात्राव्यग्रान्नराधिपान् ।
पुष्पप्रहासैः शरदि हसन्तीव वसुन्धरा ॥ १२६ ॥
इस प्रकार अपनेको जीतनेके लिये राजाओंको अथक उद्योग करते देखकर वसुन्धरा शरत्कालीन पुष्पोंके रूपमें मानो हँस रही है ॥ १२६ ॥

मैत्रेय पृथिवीगीताञ्च्लोकांश्चात्र निबोध मे ।
यानाह धर्मध्वजिने नजकायासितो मुनिः ॥ १२७ ॥
हे मैत्रेय ! अब तुम पृथिवीके कहे हुए कुछ श्लोकोंको सुनो । पूर्वकालमें इन्हें असित मुनिने धर्मध्वजी राजा जनकको सुनाया था । १२७ ॥

पृथिव्युवाच
कथमेष नरेद्राणां मोहो बुद्धिमतामपि ।
येन फेनसधर्माणोऽप्यतिविश्वस्तचेतसः ॥ १२८ ॥
पृथिवी कहती है-अहो ! बुद्धिमान् होते हुए भी इन राजाओंको यह कैसा मोह हो रहा है जिसके कारण ये बुलबुलेके समान क्षणस्थायी होते हुए भी अपनी स्थिरतामें इतना विश्वास रखते हैं ॥ १२८ ॥

पूर्वमात्मजयं कृत्वा जेतुमिच्छन्ति मन्त्रिणः ।
ततो भृत्यांश्च पौरांश्च जिगीषन्ते तथा रिपून् ॥ १२९ ॥
ये लोग प्रथम अपनेको जीतते हैं और फिर अपने मन्त्रियोंको तथा इसके अनन्तर ये क्रमशः अपने भृत्य, पुरवासी एवं शत्रुओंको जीतना चाहते हैं ॥ १२९ ॥

क्रमेणानेन जेष्यामो वयं पृथ्वीं ससागराम् ।
इत्यासक्तधियो मृत्युं न पश्यन्त्यविद्वरगम् ॥ १३० ॥
'इसी क्रमसे हम समुद्रपर्यन्त इस सम्पूर्ण पृथिवीको जीत लेंगे' ऐसी बुद्धिसे मोहित हुए ये लोग अपनी निकटवर्तिनी मृत्युको नहीं देखते ॥ १३० ॥

समुद्रावरणं याति भूमण्डलमथो वशम् ।
कियदात्मजयस्यैतन्मुक्तिरात्मजये फलम् ॥ १३१ ॥
यदि समुद्रसे घिरा हुआ यह सम्पूर्ण भूमण्डल अपने वशमें हो ही जाय तो भी मनोजयकी अपेक्षा इसका मूल्य ही क्या है ? क्योंकि मोक्ष तो मनोजयसे ही प्राप्त होता है ॥ १३१ ॥

उत्सृज्य पूर्वजा याता यां नादाय गतः पिता ।
तां मामतीव मूढत्वाज्जेतुमिच्छन्ति पार्थिवाः ॥ १३२ ॥
जिसे छोड़कर इनके पूर्वज चले गये तथा जिसे अपने साथ लेकर इनके पिता भी नहीं गये उसी मुझको अत्यन्त मूर्खताके कारण ये राजालोग जीतना चाहते हैं ॥ १३२ ॥

मत्कृते पितृपुत्राणां भ्रातॄणां चापि विग्रहः ।
जायतेऽत्यन्तमोहेन ममत्वादृतचेतसाम् ॥ १३३ ॥
जिनका चित्त ममतामय है उन पिता-पुत्र और भाइयोंमें अत्यन्त मोहके कारण मेरे ही लिये परस्पर कलह होता है ॥ १३३ ॥

पृथ्वी ममेयं सकला ममैषा
    मदन्वयस्यापि च शाश्वतीयम् ।
यो यो मृतो ह्यत्र बभूव राजा
    कुबुद्धिरासीदिति तस्य तस्य ॥ १३४ ॥
जो-जो राजालोग यहाँ हो चुके हैं उन सभीकी ऐसी कुबुद्धि रही है कि यह सम्पूर्ण पृथिवी मेरी ही है और मेरे पीछे यह सदा मेरी सन्तानकी ही रहेगी ॥ १३४ ॥

दृष्ट्‍वा ममत्वादृतचित्तमेकं
    विहाय मां मृत्युवशं व्रजन्तम् ।
तस्यानुयस्तस्य कथं ममत्वं
    हृद्यास्पदं मत्प्रभवं करोति ॥ १३५ ॥
इस प्रकार मेरेमें ममता करनेवाले एक राजाको, मुझे छोड़कर मृत्युके मुखमें जाते हुए देखकर भी न जाने कैसे उसका उत्तराधिकारी अपने हृदयमें मेरे लिये ममताको स्थान देता है ? ॥ १३५ ॥

पृथ्वी ममैषाशु परित्यजैनां
    वदन्ति ये दूतमुखैः स्वशत्रून् ।
नराधिपास्तेषु ममातिहासः     पुनश्च मूढेषु दयाभ्युपैति ॥ १३६ ॥
जो राजालोग दूतोंके द्वारा अपने शत्रुओंसे इस प्रकार कहलाते हैं कि 'यह पृथिवी मेरी है, तुमलोग इसे तुरन्त छोड़कर चले जाओ' उनपर मझे बड़ी हंसी आती है और फिर उन मूडोंपर मुझे दया भी आ जाती है । १३६ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्येते धरणीगीतः श्लोका मैत्रेय यैः श्रुताः ।
ममत्वं विलयं याति तपत्यर्के यथा हिमम् ॥ १३७ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! पृथिवीके कहे हुए इन श्लोकोंको जो पुरुष सुनेगा उसकी ममता इसी प्रकार लीन हो जायगी जैसे सूर्यके तपते समय बर्फ पिघल जाता है ॥ १३७ ॥

इत्येष कथितः सम्यङ्‍मनोर्वंशो मया तव ।
यत्र स्थितिप्रवृत्तस्य विष्णोरंशांशका नृपाः ॥ १३८ ॥
इस प्रकार मैंने तुमसे भली प्रकार मनुके वंशका वर्णन कर दिया । जिस वंशके राजागण स्थितिकारक भगवान् विष्णुके अंशके अंश थे ॥ १३८ ॥

शृणोति य इमं भक्त्या मनोर्वंशमनुक्रमात् ।
तस्य पापमशेषं वै प्रणश्यत्यमलात्मनः ॥ १३९ ॥
जो पुरुष इस मनुवंशका क्रमशः श्रवण करता है उस शुद्धात्माके सम्पूर्ण पाप नष्ट हो जाते हैं ॥ १३९ ॥

धनधान्यर्धिमतुलां प्राप्नोत्यव्याहतेन्द्रियः ।
श्रुत्वैवमखिलं वंशं प्रशस्तं शशीसूर्ययोः ॥ १४० ॥
जो मनुष्य जितेन्द्रिय होकर सूर्य और चन्द्रमाके इन प्रशंसनीय वंशोंका सम्पूर्ण वर्णन सुनता है, वह अतुलित धन-धान्य और सम्पत्ति प्राप्त करता है ॥ १४० ॥

इक्ष्वाकुजह्नुमान्धातृसगराविक्षितान्‌रघून् ।
ययातिनहुषाद्यांश्च ज्ञात्वा निष्ठामुपागतान् ॥ १४१ ॥
महाबलान्महावीर्याननन्तधनसञ्चयान् ।
कृतान्कालेन बलिना कथाशेषान्नराधिपान् ॥ १४२ ॥
श्रुत्वा न पुत्रदारादौ गृहक्षेत्रादिके तथा ।
द्रव्यादौ वा कृतप्रज्ञो ममत्वं कुरुते नरः ॥ १४३ ॥
महाबलवान्, महावीर्यशाली, अनन्त धन संचय करनेवाले तथा परम निष्ठावान् इक्ष्वाकु, जनु, मान्धाता, सगर, अविक्षित, रघुवंशीय राजागण तथा नहुष और ययाति आदिके चरित्रोंको सुनकर, जिन्हें कि कालने आज कथामात्र ही शेष रखा है, प्रज्ञावान् मनुष्य पुत्र, स्त्री, गृह, क्षेत्र और धन आदिमें ममता न करेगा ॥ १४१-१४३ ॥

तप्तं तपो यैः पुरुषप्रवीरै-
    रुद्‌बाहुभिर्वर्षगणाननेकान् ।
इष्ट्‌वा सुयज्ञैर्बलिनोऽतिवीर्याः
    कृता नु कालेन कथावशेषाः ॥ १४४ ॥
जिन पुरुषश्रेष्ठोंने ऊर्ध्वबाहु होकर अनेक वर्षपर्यन्त कठिन तपस्या की थी तथा विविध प्रकारके यज्ञॉका अनुष्ठान किया था, आज उन अति बलवान् और वीर्यशाली राजाओंकी कालने केवल कथामात्र ही छोड़ दी है ॥ १४४ ॥

पृथुःसमस्तान्विचचार लोका-
    नव्याहतो योविजितारिचक्रः ।
स कालवाताभिहतः प्रणष्टः
    क्षिप्तं यथा शाल्मलितूलमग्नौ ॥ १४५ ॥
जो पृथु अपने शत्रुसमूहको जीतकर स्वच्छन्द-गतिसे समस्त लोकोंमें विचरता था आज वही काल-वायुकी प्रेरणासे अग्निमें फेंके हुए सेमरकी रूईके ढेरके समान नष्ट-भ्रष्ट हो गया है ॥ १४५ ॥

यः कार्तवीर्यो बुभुजे समस्ता-
    न्द्वीपान्समाक्रम्य हतारिचक्रः ।
कथाप्रसङ्‍गेष्वभिधीयमानः
    स एव संकल्पविकल्पहेतुः ॥ १४६ ॥
जो कार्तवीर्य अपने शत्रु-मण्डलका संहारकर समस्त द्वीपोंको वशीभूतकर उन्हें भोगता था वही आज कथा-प्रसंगसे वर्णन करते समय उलटा संकल्पविकल्पका हेतु होता है [अर्थात् उसका वर्णन करते समय यह सन्देह होता है कि वास्तवमें वह हुआ था या नहीं । ॥ १४६ ॥

दशाननाविक्षतराघवाणा-
    मैश्वर्यमुद्‍भासितदिङ्‍मुखानाम् ।
भस्मापि शिष्टं न कथं क्षणेन
    भ्रूभङ्‍गपातेन धिगन्तकस्य ॥ १४७ ॥
समस्त दिशाओंको देदीप्यमान करनेवाले रावण, अविक्षित और रामचन्द्र आदिके [क्षणभंगुर] ऐश्वर्यको धिक्कार है । अन्यथा कालके क्षणिक कटाक्षपातके कारण आज उसका भस्ममात्र भी क्यों नहीं बच सका ? ॥ १४७ ॥

कथाशरीरत्वमवाप यद्वै
    मान्धातृनामा भुवि चक्रवर्ती ।
श्रुत्वापि तत्कोहि करोति साधु-
    र्ममत्वमान्मन्यपि मन्दचेताः ॥ १४८ ॥
जो मान्धाता सम्पूर्ण भूमण्डलका चक्रवर्ती सम्राट् था आज उसका केवल कथामें ही पता चलता है । ऐसा कौन मन्दबुद्धि होगा जो यह सुनकर अपने शरीरमें भी ममता करेगा ? [फिर पृथिवी आदिमें ममता करनेकी तो बात ही क्या है ?] ॥ १४८ ॥

भगीरथाद्याःसगरं ककुत्स्थो
    दशाननो राघवलक्ष्मणौ च ।
युधिष्ठिराद्याश्च बभूवुरेते
    सत्यं न मिथ्या क्व नु ते न विद्मः ॥ १४९ ॥
भगीरथ, सगर, ककुत्स्थ, रावण, रामचन्द्र, लक्ष्मण और युधिष्ठिर आदि पहले हो गये हैं यह बात सर्वथा सत्य है, किसी प्रकार भी मिथ्या नहीं है । किन्तु अब वे कहाँ हैं इसका हमें पता नहीं ॥ १४९ ॥

ये साम्प्रतं ये च नृपा भविष्याः
    प्रोक्ता मया विप्रवरोग्रवीयाः ।
एते तथान्ये च तथाभिधेयाः
    सर्वे भविष्यन्ति यथैव पूर्वे ॥ १५० ॥
हे विप्रवर ! वर्त मान और भविष्यत्कालीन जिनजिन महावीर्यशाली राजाओंका मैंने वर्णन किया है ये तथा अन्य लोग भी पूर्वोक्त राजाओंकी भौति कथामात्र शेष रहेंगे ॥ १५० ॥

एत द्विदित्वा न नरेण कार्यं
    ममत्वमात्मन्यपि पण्डितेन ।
तिष्ठन्तु तावत्तनयात्मजाद्याः
    क्षेत्रादयो ये च शरीरिणोऽन्ये ॥ १५१ ॥
ऐसा जानकर पुत्र, पुत्री और क्षेत्र आदि तथा अन्य प्राणी तो अलग रहें, बुद्धिमान् मनुष्यको अपने शरीरमें भी ममता नहीं करनी चाहिये ॥ १५१ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे चतुर्थेंऽशे चतुर्विंशोऽध्यायः (२४)
श्रीविष्णुमहापुराणे चतुर्थांऽशः समाप्तः
इति श्रीविष्णुपुराणे चतुर्थेऽशे चतुर्विशोऽध्यायः ॥ २४ ॥
इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे चतुर्थोऽशः समाप्तः ।



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