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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ तृतीयोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
एवं संस्तूयमाना सा देवैर्देवमधारयत् । गर्भेण पुण्डरीकाक्षं जगतस्त्राणकारणम् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! देवताओंसे इस प्रकार स्तुति की जाती हुई देवकीजीने संसारको रक्षाके कारण भगवान् पुण्डरीकाक्षको गर्भमें धारण किया ॥ १ ॥ ततोऽखिलजगत्पद्मबोधायाच्युतभानुना ।
देवकीपूर्वसन्ध्यायामाविर्भूतं महात्मना ॥ २ ॥ तदनन्तर सम्पूर्ण संसाररूप कमलको विकसित करनेके लिये देवकीरूप पूर्व सन्ध्यामें महात्मा अच्युतरूप सूर्यदेवका आविर्भाव हुआ ॥ २ ॥ तज्जन्मदिनमत्यर्थमाह्लाद्यमलदिङ्मुखम् ।
बभूव सर्वलोकस्य कौमुदी शशिनो यथा ॥ ३ ॥ चन्द्रमाकी चाँदनीके समान भगवान्का जन्म-दिन सम्पूर्ण जगत्को आह्लादित करनेवाला हुआ और उस दिन सभी दिशाएँ अत्यन्त निर्मल हो गयीं ॥ ३ ॥ सन्तःसन्तोषमधकं प्रशमं चण्डमारुताः ।
प्रसादं निम्नगा याता जायमाने जनार्दने ॥ ४ ॥ श्रीजनार्दनके जन्म लेनेपर सन्तजनोंको परम सन्तोष हुआ, प्रचण्ड वायु शान्त हो गया तथा नदियाँ अत्यन्त स्वच्छ हो गयीं ॥ ४ ॥ सिन्धवो निजशब्देन वाद्यं चक्रुर्मनोहरम् ।
जगुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ५ ॥ समुद्रगण अपने घोषसे मनोहर बाजे बजाने लगे, गन्धर्वराज गान करने लगे और अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ५ ॥ ससृजुः पुष्पवर्षाणि देवा भुव्यन्तरिक्षगाः ।
जज्वलुश्चाग्नयः शान्ता जायमाने जनार्दने ॥ ६ ॥ श्रीजनार्दनके प्रकट होनेपर आकाशगामी देवगण पृथिवीपर पुष्प बरसाने लगे तथा शान्त हुए यज्ञाग्नि फिर प्रज्वलित हो गये ॥ ६ ॥ मदं जगुर्जुर्जलदाः पुष्पवृष्टिमुचो द्विज ।
अर्धरात्रेऽखिलाधारे जायमाने जनार्दने ॥ ७ ॥ हे द्विज ! अर्द्धरात्रिके समय सर्वाधार भगवान् जनार्दनके आविर्भूत होनेपर पुष्पवर्षा करते हुए मेघगण मन्द-मन्द गर्जना करने लगे ॥ ७ ॥ फुल्लेन्दीवरपत्राभं चतुर्बाहुमुदीक्ष्य तम् ।
श्रीवत्सवक्षसं जातं तुष्टावानकदुन्दुभिः ॥ ८ ॥ उन्हें खिले हुए कमलदलकी-सी आभावाले, चतुर्भुज और वक्षःस्थलमें श्रीवत्स-चिह्नसहित उत्पन्न हुए देख आनकदुन्दुभि वसुदेवजी स्तुति करने लगे ॥ ८ ॥ अभिष्टूय च तं वाग्भिः प्रसन्नाभिर् महामतिः ।
विज्ञापयामास तदा कंसाद्भीतो द्विजोत्तम ॥ ९ ॥ हे द्विजोत्तम ! महामति वसुदेवजीने प्रसादयुक्त वचनोंसे भगवान्की स्तुति कर कंससे भयभीत रहनेके कारण इस प्रकार निवेदन किया ॥ ९ ॥ वसुदेव उवाच
जातोऽसि देवदेवेश शङ्खचक्रगदाधरम् । दिव्यरूपमिदं देव प्रसादेनोपसंहर ॥ १० ॥ वसुदेवजी बोले-हे देवदेवेश्वर ! यद्यपि आप [साक्षात् परमेश्वर प्रकट हुए हैं, तथापि हे देव ! मुझपर कृपा करके अब अपने इस शंख-चक्र-गदाधारी दिव्य रूपका उपसंहार कीजिये ॥ १० ॥ अद्यैव देव कंसोऽयं कुरुते मम घातनम् ।
अवतीर्म इति ज्ञात्वा त्वमस्मिन्मम मन्दिरे ॥ ११ ॥ हे देव ! यह पता लगते ही कि आप मेरे इस गृहमें अवतीर्ण हुए हैं, कंस इसी समय मेरा सर्वनाश कर देगा ॥ ११ ॥ देवक्युवाच
योऽनन्तरूपोऽखिलविश्वरूपो गर्भेऽपि लोकान्वपुषा बिभर्ति । प्रसीतदामेष स देवदेवो यो माययाविष्कृतबालरूपः ॥ १२ ॥ देवकीजी बोलीं-जो अनन्तरूप और अखिलविश्वस्वरूप हैं, जो गर्भमें स्थित होकर भी अपने शरीरसे सम्पूर्ण लोकोंको धारण करते हैं तथा जिन्होंने अपनी मायासे ही बालरूप धारण किया है वे देवदेव हमपर प्रसन्न हों ॥ १२ ॥ उपसंहर सर्वात्मन् रूपमेतच्चतुर्भुजम् ।
जानातु मावतारं ते कंसोऽयं दितिजन्मजः ॥ १३ ॥ हे सर्वात्मन् ! आप अपने इस चतुर्भुज रूपका उपसंहार कीजिये । भगवन् ! यह राक्षसके अंशसे उत्पन्न* कंस आपके इस अवतारका वृत्तान्त न जानने पावे ॥ १३ ॥ श्रीभगवानुवाच
स्तुतोऽहं य त्त्वया पूर्वं पुत्रार्थिन्या तदद्य ते । सफलं देवि संजातं जातोऽहं यत्तवोदरात् ॥ १४ ॥ श्रीभगवान् बोले-हे देवि ! पूर्वजन्ममें तूने जो पुत्रकी कामनासे मुझसे [पुत्ररूपसे उत्पन्न होनेके लिये] प्रार्थना की थी । आज मैंने तेरे गर्भसे जन्म लिया है-इससे तेरी वह कामना पूर्ण हो गयी ॥ १४ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा भगवांस्तूष्णीं बभूव मुनिसत्तम । वसुदेवोऽपि तं रात्रावादाय प्रययौ बहिः ॥ १५ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर "भगवान् मौन हो गये तथा वसुदेवजी भी उन्हें उस रात्रिमें ही लेकर बाहर निकले ॥ १५ ॥ मोहिताश्चाभवंस्तत्र रक्षिणो योगनिद्रया ।
मथुराद्वारपालाश्च व्रजत्यानकदुन्दुभौ ॥ १६ ॥ वसुदेवजीके बाहर जाते समय कारागृहरक्षक और मथुराके द्वारपाल योगनिद्राके प्रभावसे अचेत हो गये ॥ १६ ॥ वर्षतां जलदानां च तोयमात्युल्बणं निशि ।
संवृत्यानुययौ शेषः फणैरानकदुन्दुभिम् ॥ १७ ॥ उस रात्रिके समय वर्षा करते हुए मेघोंकी जलराशिको अपने फोंसे रोककर श्रीशेषजी आनकदुन्दुभिके पीछेपीछे चले ॥ १७ ॥ यमुनां चातिगम्भीरां नानावर्तशताकुलाम् ।
वसुदेवो वहन्विष्णुं जानुमात्रवहां ययौ ॥ १८ ॥ भगवान् विष्णुको ले जाते हुए वसुदेवजी नाना प्रकारके सैकड़ों भंवरोंसे भरी हुई अत्यन्त गम्भीर यमुनाजीको घुटनोंतक रखकर ही पार कर गये ॥ १८ ॥ कंसस्य करदानाय तत्रैवाभ्यागतास्तटे ।
नन्दादीन्गोपवृद्धांश्च यमुनाया ददर्श सः ॥ १९ ॥ उन्होंने वहाँ यमुनाजीके तटपर ही कंसको कर देनेके लिये आये हुए नन्द आदि वृद्ध गोपोंको भी देखा ॥ १९ ॥ तस्मिन्काले यशोदापि मोहिता योगनिद्रया ।
तामेव कन्यां मैत्रेय प्रसूता मोहिते जने ॥ २० ॥ हे मैत्रेय ! इसी समय योगनिद्राके प्रभावसे सब मनुष्योंके मोहित हो जानेपर मोहित हुई यशोदाने भी उसी कन्याको जन्म दिया ॥ २० ॥ वसुदेवोपि विन्यस्य बालमादाय दारिकाम् ।
यशोदाशयनात्तूर्णमाजगामामितद्युतिः ॥ २१ ॥ तब अतिशय कान्तिमान् वसुदेवजी भी उस बालकको सुलाकर और कन्याको लेकर तुरन्त यशोदाके शयनगृहसे चले आये ॥ २१ ॥ ददृशे च प्रबुद्धा सा यशोदा जातमात्मजम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं ततोऽत्यर्थं मुदं ययौ ॥ २२ ॥ जब यशोदाने जागनेपर देखा कि उसके एक नीलकमलदलके समान श्यामवर्ण पुत्र उत्पन्न हुआ है तो उसे अत्यन्त प्रसन्नता हुई ॥ २२ ॥ आदाय वसुदेवोऽपि दारिकां निजमन्दिरे ।
देवकीशयने न्यस्य यथापूर्वमतिष्ठत ॥ २३ ॥ इधर, वसुदेवजीने कन्याको ले जाकर अपने महलमें देवकीके शयनगृहमें सुला दिया और पूर्ववत् स्थित हो गये ॥ २३ ॥ ततो बालध्वनिं श्रुत्वा रक्षिणः सहसोत्थिताः ।
कंसायावेदयामासुर्देवकीप्रसवं द्विज ॥ २४ ॥ हे द्विज ! तदनन्तर वालकके रोनेका शब्द सुनकर कारागृह-रक्षक सहसा उठ खड़े हुए और देवकीके सन्तान उत्पन्न होनेका वृत्तान्त कंसको सुना दिया ॥ २४ ॥ कंसस्तूर्णमुपेत्यैनां ततो जग्रह बालिकाम् ।
मुञ्चमुञ्चेति देवक्या सन्नकण्ठ्या निवारितः ॥ २५ ॥ चिक्षेप च शिलापृष्ठे सा क्षिप्ता वियति स्थिता । अवाप रूपं सुमहत्सायुधाष्टमहाभुजम् ॥ २६ ॥ यह सुनते ही कंसने तुरन्त जाकर देवकीके रुंधे हुए कण्ठसे "छोड़, छोड़'-ऐसा कहकर रोकनेपर भी उस बालिकाको पकड़ लिया और उसे एक शिलापर पटक दिया । उसके पटकते ही वह आकाशमें स्थित हो गयी और उसने शस्त्रयुक्त एक महान् अष्टभुजरूप धारण कर लिया ॥ २५-२६ ॥ प्रजहास तथैवोच्चैः कंसं च रुषिताब्रवीत् ।
किं मया क्षिप्तया कंस जाता यस्त्वां वधिष्यति ॥ २७ ॥ सर्वस्वभूतो देवानामासीन्मृत्युः पुरा स ते । तदेतत्सम्प्रधार्याशु क्रियतां हितमात्मनः ॥ २८ ॥ तब उसने ऊँचे स्वरसे अट्टहास किया और कंससे रोषपूर्वक कहा-'अरे कंस ! मुझे पटकनेसे तेरा क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ ? जो तेरा वध करेगा उसने तो [पहले ही] जन्म ले लिया है; देवताओंके सर्वस्व वे हरि ही तुम्हारे [कालनेमिरूप] पूर्वजन्ममें भी काल थे । अत: ऐसा जानकर तू शीघ्र ही अपने हितका उपाय कर' ॥ २७-२८ ॥ इत्युक्त्वा प्रययौ देवी दिव्यस्रग्गन्धभूषणा ।
पश्यतो भोजराजस्य स्तुता सिद्धैर्विहायसा ॥ २९ ॥ ऐसा कह, वह दिव्य माला और चन्दनादिसे विभूषिता तथा सिद्धगणद्वारा स्तुति की जाती हुई देवी भोजराज कंसके देखते-देखते आकाशमार्गसे चली गयी ॥ २९ ॥ इति श्रिविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे तृतीयोऽध्यायः (३)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ |