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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
कंसस्ततोद्विग्नमनाः प्राह सर्वान्महासुरान् ।
प्रलम्बकेशिप्रमुखानाहूयासुरपुङ्‍गवान् ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब कंसने खिन्नचित्तसे प्रलम्ब और केशी आदि समस्त मुख्य-मुख्य असुरोंको बुलाकर कहा ॥ १ ॥

कंस उवाच
हे प्रलम्ब महाबाहो केशिन् धेनुक पूतने ।
अरिष्टाद्यास्तथैवान्ये श्रूयतां वचनं मम ॥ २ ॥
कंस बोला-हे प्रलम्ब ! हे महाबाहो केशिन् ! हे धेनुक ! हे पूतने ! तथा हे अरिष्ट आदि अन्य असुरगण ! मेरा वचन सुनो- ॥ २ ॥

मां हन्तुममरैर्यत्‍नः कृतः किल दुरात्मभिः ।
मद्वीर्यतापितान्वीरो न त्वेतान्गणयाम्यहम् ॥ ३ ॥
यह बात प्रसिद्ध हो रही है कि दुरात्मा देवताओंने मेरे मारनेके लिये कोई यल किया है; किन्तु मैं वीर पुरुष अपने वीर्यसे सताये हुए इन लोगोंको कुछ भी नहीं गिनता हूँ ॥ ३ ॥

किमिन्द्रेणाल्पवीर्येण किं हरेणैकचारिणा ।
हरिणा वापि किं साध्यं छिद्रेष्वसुरघातिना ॥ ४ ॥
अल्पवीर्य इन्द्र, अकेले घूमनेवाले महादेव अथवा छिद्र (असावधानीका समय) ढूँढकर दैत्योंका वध करनेवाले विष्णुसे उनका क्या कार्य सिद्ध हो सकता है ? ॥ ४ ॥

किमादित्यैः किं वसुभिरल्पवीर्यैः किमग्निभिः ।
किंवान्यैरमरैः सर्वैर्मद्‍बाहुबलनिर्जितैः ॥ ५ ॥
मेरे बाहुबलसे दलित आदित्यों, अल्पवीर्य वसुगणों, अग्नियों अथवा अन्य समस्त देवताओंसे भी मेरा क्या अनिष्ट हो सकता है ? ॥ ५ ॥

किं न दृष्टोमरपतिर्मया संयुगमेत्य सः ।
पृष्ठेनैव वहन्बाणानपगच्छन्न वक्षसा ॥ ६ ॥
आपलोगोंने क्या देखा नहीं था कि मेरे साथ युद्धभूमिमें आकर देवराज इन्द्र, वक्षःस्थलमें नहीं, अपनी पीठपर बाणोंकी बौछार सहता हुआ भाग गया था ॥ ६ ॥

मद्‌राष्ट्रे वारिता वृष्टिर्यदा शक्रेण किं तदा ।
मद्‍बाणभिन्नैर्जलदैर्नापो मुक्ता यथेप्सिताः ॥ ७ ॥
जिस समय इन्द्रने मेरे राज्यमें वर्षाका होना बन्द कर दिया था उस समय क्या मेघोंने मेरे बाणोंसे विंधकर ही यथेष्ट जल नहीं बरसाया ? ॥ ७ ॥

किमुर्व्यामवनीपाला मद्‍बाहुबलभीरवः ।
ते सर्वे सन्नतिं याता जरासन्धमृते गुरम् ॥ ८ ॥
हमारे गुरु (श्वशुर) जरासन्धको छोड़कर क्या पृथिवीके और सभी नृपतिगण मेरे बाहुबलसे भयभीत होकर मेरे सामने सिर नहीं झुकाते ? ॥ ८ ॥

अमरेषु ममावज्ञा जायते दैत्यपुङ्‍गवाः ।
हास्यं मे जायते वीरास्तेषु यत्‍नपरेष्वपि ॥ ९ ॥
हे दैत्यश्रेष्ठगण ! देवताओंके प्रति मेरे चित्तमें अवज्ञा होती है और हे वीरगण ! उन्हें अपने (मेरे) वधका यल करते देखकर तो मुझे हँसी आती है ॥ ९ ॥

तथापि खलु दुष्टानां तेषामप्यधिकं मया ।
अपकाराय दैत्येन्द्रा यतनीयं दुरात्मनाम् ॥ १० ॥
तथापि हे दैत्येन्द्रो ! उन दुष्ट और दुरात्माओंके अपकारके लिये मुझे और भी अधिक प्रयत्न करना चाहिये ॥ १० ॥

तद्ये यशस्विनः केचित्पृथिव्यां ये च याजकाः ।
कार्यो देवापकाराय तेषां सर्वात्मना वधः ॥ ११ ॥
अतः पृथिवीमें जो कोई यशस्वी और यज्ञकर्ता हों उनका देवताओंके अपकारके लिये सर्वथा वध कर देना चाहिये ॥ ११ ॥

उत्पन्नश्चापि मे मृत्युर्भूतपूर्वः स वै किल ।
इत्येतद्दारिका प्राह देवकीगर्भसम्भवा ॥ १२ ॥
देवकीके गर्भसे उत्पन्न हुई बालिकाने यह भी कहा है कि, वह मेरा भूतपूर्व (प्रथम जन्मका) काल निश्चय ही उत्पन्न हो चुका है ॥ १२ ॥

तस्माद्‍बालेषु च परो यत्‍नः कार्यो महीतले ।
यत्रोद्रिक्तं बलं बाले स हन्तव्यः प्रयत्‍नतः ॥ १३ ॥
अतः आजकल पृथिवीपर उत्पन्न हुए बालकोंके विषयमें विशेष सावधानी रखनी चाहिये और जिस बालकमें विशेष बलका उद्रेक हो उसे यत्नपूर्वक मार डालना चाहिये ॥ १३ ॥

इत्याज्ञाप्यासुरान्कंसः प्रविश्याशु गृहं ततः ।
मुमोच वसुदेवं च देवकीं च निरोधतः ॥ १४ ॥
असुरोंको इस प्रकार आज्ञा दे कंसने कारागृहमें जाकर तुरन्त ही वसुदेव और देवकीको बन्धनसे मुक्त कर दिया ॥ १४ ॥

कंस उवाच
युवयोर्घातिता गर्भा वृथैवैते मयाधुना ।
कोप्यन्य एव नाशाय बालो मम समुद्‌गतः ॥ १५ ॥
कंस बोला-मैंने अबतक आप दोनोंके बालकोंकी तो वृथा ही हत्या की, मेरा नाश करनेके लिये तो कोई और ही बालक उत्पन्न हो गया है ॥ १५ ॥

तदलं परितापेन नुनं तद्‍भाविनो हि ते ।
अर्भका युवयोर्देषाच्चायुषो यद्वियोजिताः ॥ १६ ॥
परन्तु आपलोग इसका कुछ दुःख न मानें; क्योंकि उन बालकोंकी होनहार ऐसी ही थी । आपलोगोंके प्रारब्धदोषसे ही उन बालकोंको अपने जीवनसे हाथ धोना पड़ा है ॥ १६ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्याश्वास्य विमुक्त्वा च कंसस्तौ परिशङ्‌‍कितः ।
अन्तर्गृहं द्विजश्रेष्ठ प्रविवेश ततः स्वकम् ॥ १७ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज श्रेष्ठ ! उन्हें इस प्रकार ढाँढस बँधा और बन्धनसे मुक्तकर कंसने शंकित चित्तसे अपने अन्त:पुरमें प्रवेश किया ॥ १७ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः (४)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥

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