![]() |
॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ एकविंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
तौ समुत्पन्नविज्ञानौ भगवत्कर्मदर्शनात् । देवकी वसुदेवौ तु दृष्ट्वा मायां पुनर्हरिः । मोहाय यदुचक्रस्य विततान स वैष्णवीम् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-अपने अति अद्भुत कर्मोंको देखनेसे वसुदेव और देवकीको विज्ञान उत्पन्न हुआ देखकर भगवान्ने यदुवंशियोंको मोहित करनेके लिये अपनी वैष्णवी मायाका विस्तार किया ॥ १ ॥ उवाच चाम्ब हे तात चिरादुत्कण्ठितेन मे ।
भवन्तौ कंसभीतेन दृष्टौ संकर्षणेन च ॥ २ ॥ और बोले-"हे मातः ! हे पिताजी ! बलरामजी और मैं बहुत दिनोंसे कंसके भयसे छिपे हुए आपके दर्शनोंके लिये उत्कण्ठित थे, सो आज आपका दर्शन हुआ है ॥ २ ॥ कुर्वतां याति यः कालो मातापित्रोरपूजनम् ।
तत्खण्डमायुषो व्यर्थमसाधूनां हि जायते ॥ ३ ॥ जो समय माता-पिताकी सेवा किये बिना बीतता है वह असाधु पुरुषोंकी ही आयुका भाग व्यर्थ जाता है ॥ ३ ॥ गुरुदेवद्विजातीनां मातापित्रोश्च पूजनम् ।
कुर्वतां सफलः कालो देहिनां तात जायते ॥ ४ ॥ हे तात ! गुरु, देव, ब्राह्मण और माता-पिताका पूजन करते रहनेसे देहधारियोंका जीवन सफल हो जाता है ॥ ४ ॥ तत्क्षन्तव्यमिदं सर्वमतिक्रमकृतं पितः ।
कंसवीर्यप्रतापाभ्यामावयोः परवश्ययोः ॥ ५ ॥ अतः हे तात ! कंसके वीर्य और प्रतापसे भीत हम परवशोंसे जो कुछ अपराध हुआ हो वह क्षमा करें" ॥ ५ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वाथ प्रणम्योभौ यदुवृद्धाननुक्रमात् । यथावदभिपूज्याथ चक्रतुः पौरमाननम् ॥ ६ ॥ श्रीपराशरजी बोले-राम और कृष्णने इस प्रकार कह माता-पिताको प्रणाम किया और फिर क्रमशः समस्त यदुवृद्धोंका यथायोग्य अभिवादन कर पुरवासियोंका सम्मान किया ॥ ६ ॥ कंसपत्न्यस्ततः कंसं परिवार्य हतं भुवि ।
विलेपुर्मातरश्चास्य दुःखशोकपरिप्लुताः ॥ ७ ॥ उस समय कंसकी पलियाँ और माताएँ पृथिवीपर पड़े हुए मृतक कंसको घेरकर दु:खशोकसे पूर्ण हो विलाप करने लगीं ॥ ७ ॥ बहुप्रकारमत्यर्थं पश्चात्तापातुरो हरिः ।
ताःसमाश्वासयामास स्वयमस्राविलेक्षणः ॥ ८ ॥ तब कृष्णचन्द्रने भी अत्यन्त पश्चात्तापसे विह्मल हो स्वयं आँखोंमें आँसू भरकर उन्हें अनेकों प्रकारसे ढाँड़स बंधाया ॥ ८ ॥ उग्रसेनं ततो बन्धामुमोच मधुसूदनः ।
अभ्यसिञ्चत्तदैवैनं निजराज्ये हतात्मजम् ॥ ९ ॥ तदनन्तर श्रीमधुसूदनने उग्रसेनको बन्धनसे मुक्त किया और पुत्रके मारे जानेपर उन्हें अपने राज्यपदपर अभिषिक्त किया ॥ ९ ॥ राज्योभिषिक्तः कृष्णेन यदुसिंहः सुतस्य सः ।
चकार प्रेतकार्याणि ये चान्ये तत्र घातिताः ॥ १० ॥ श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा राज्याभिषिक्त होकर यदुःश्रेष्ठ उग्रसेनने अपने पुत्र तथा और भी जो लोग वहाँ मारे गये थे, उन सबके औ दैहिक कर्म किये ॥ १० ॥ कृतौर्ध्वदैहिकं चैनं सिंहासनगतं हरिः ।
उवाचाज्ञापय विभो यत्कार्यमविशङ्कितः ॥ ११ ॥ औदैहिक कर्मोंसे निवृत्त होनेपर सिंहासनारूढ़ उग्रसेनसे श्रीहरि बोले"हे विभो ! हमारे योग्य जो सेवा हो उसके लिये हमें निश्शंक होकर आज्ञा दीजिये ॥ ११ ॥ ययातिशापाद्वंशोऽयमराज्यार्होऽपि साम्प्रतम् ।
मयि भृत्ये स्थिते देवानाज्ञापयतु किं नृपैः ॥ १२ ॥ ययातिका शाप होनेसे यद्यपि हमारा वंश राज्यका अधिकारी नहीं है तथापि इस समय मुझ दासके रहते हुए राजाओंको तो क्या, आप देवताओंको भी आज्ञा दे सकते हैं" ॥ १२ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा सोऽस्मरद्वायुमाजगाम च तत्क्षणात् । उवाच चैनं भगवान्केशवः कार्यमानुषः ॥ १३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-उग्रसेनसे इस प्रकार कह [धर्मसंस्थापनादि] कार्यसिद्धिके लिये मनुष्यरूप धारण करनेवाले भगवान् कृष्णने वायुका स्मरण किया और वह उसी समय वहाँ उपस्थित हो गया । तब भगवान्ने उससे कहा- ॥ १३ ॥ गच्छेदं ब्रूहि वायो त्वमलं गर्वोण वासव ।
दीयतामुग्रसेनाय सुधर्मा भवता सभा ॥ १४ ॥ "हे वायो ! तुम जाओ और इन्द्रसे कहो कि हे वासव ! व्यर्थ गर्व छोड़कर तुम उग्रसेनको अपनी सुधर्मा नामकी सभा दो ॥ १४ ॥ कृष्णो ब्रवीति राजार्हमेतद्रत्नमनुत्तमम् ।
सूधर्माख्यसभा युक्तमस्यां यदुभिरासितुम् ॥ १५ ॥ कृष्णचन्द्रकी आज्ञा है कि यह सुधर्मा-सभा नामक सर्वोत्तम रत्ल राजाके ही योग्य है इसमें यादवोंका विराजमान होना उपयुक्त है" ॥ १५ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तः पवनो गत्वा सर्वमाह शचीपतिम् । ददौ सोऽपि सुधर्माख्यां सभां वायोः पुरन्दरः ॥ १६ ॥ श्रीपराशरजी बोले-भगवान्की ऐसी आज्ञा होनेपर वायुने यह सारा समाचार इन्द्रसे जाकर कह दिया और इन्द्रने भी तुरन्त ही अपनी सुधर्मा नामकी सभा वायुको दे दी ॥ १६ ॥ वायुना चाहृतां दिव्यां सभां ते यदुपुङ्गवाः ।
बुभुजुः सर्वरत्नाढ्यां गोविन्दभुजसंश्रयाः ॥ १७ ॥ वायुद्वारा लायी हुई उस सर्वरत्न-सम्पन्न दिव्य सभाका सम्पूर्ण भोग वे यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्णचन्द्रकी भुजाओंके आश्रित रहकर करने लगे ॥ १७ ॥ विदिताखिलविज्ञानौ सर्वज्ञानमयावपि ।
शिष्याचार्यक्रमं वीरौ ख्यापयन्तौ सदूत्तमौ ॥ १८ ॥ ततःसान्दीपनिं काश्यमवन्तीपुरवासिनम् । विद्यार्थं जग्मतुर्बालौ कृतोपनयनक्रमौ ॥ १९ ॥ तदनन्तर समस्त विज्ञानोंको जानते हुए और सर्वज्ञानसम्पन्न होते हुए भी वीरवर कृष्ण और बलराम गुरुशिष्य-सम्बन्धको प्रकाशित करनेके लिये उपनयन-संस्कारके अनन्तर विद्योपार्जनके लिये काशीमें उत्पन्न हुए अवन्तिपुरवासी सान्दीपनि मुनिके यहाँ गये ॥ १८-१९ ॥ वेदाभ्यासकृतप्रीति संकर्षणजनार्दनौ ।
तस्य शिष्यत्वमभ्येत्य गुरुवृत्तिपुरौ हि तौ । दर्शयाञ्चक्रतुर्वीरावाचारमखिले जने ॥ २० ॥ वीर संकर्षण और जनार्दन सान्दीपनिका शिष्यत्व स्वीकार कर वेदाभ्यासपरायण हो यथायोग्य गुरुशुश्रूषादिमें प्रवृत्त रह सम्पूर्ण लोकोंको यथोचित शिष्टाचार प्रदर्शित करने लगे ॥ २० ॥ सरहस्यं धनुर्वेदं ससङ्ग्रहमधीयताम् ।
अहोरात्रचतुःषष्ट्या तदद्भुतमभूद्द्विज ॥ २१ ॥ हे द्विज ! यह बड़े आश्चर्यकी बात हुई कि उन्होंने केवल चौंसठ दिनमें रहस्य (अस्त्र-मन्त्रोपनिषद्) और संग्रह (अस्त्रप्रयोग)-के सहित सम्पूर्ण धनुर्वेद सीख लिया ॥ २१ ॥ सान्दीपनिरसम्भाव्यं तयोः कर्मातिमानुषम् ।
विचिन्त्य तौ तदा मेने प्राप्तौ चन्द्रदिवाकरौ ॥ २२ ॥ सान्दीपनिने जब उनके इस असम्भव और अतिमानुष-कर्मको देखा तो यही समझा कि साक्षात् सूर्य और चन्द्रमा ही मेरे घर आ गये हैं ॥ २२ ॥ साङ्गांश्च चतुरो वेदान्सर्वशास्त्राणि चैव हि ।
अस्त्रग्राममशेषं च प्रोक्तमात्रमवाप्य तौ ॥ २३ ॥ ऊचतुर्व्रियतां या ते दातव्या गुरुदक्षिणा ॥ २४ ॥ उन दोनोंने अंगोंसहित चारों वेद, सम्पूर्ण शास्त्र और सब प्रकारको अस्त्रविद्या एक बार सुनते ही प्राप्त कर ली और फिर गुरुजीसे कहा-"कहिये, आपको क्या गुरुदक्षिणा दें ?" ॥ २३-२४ ॥ सोऽप्यतीन्द्रियमालोक्य तयोः कर्म महामति ।
अयाचत मृतं पुत्रं प्रभासे लवणार्णवे ॥ २५ ॥ महामति सान्दीपनिने उनके अतीन्द्रियकर्म देखकर प्रभासक्षेत्रके खारे समुद्रमें डूबकर मरे हुए अपने पुत्रको माँगा ॥ २५ ॥ गृहीतास्त्रौ ततस्तौ तु सार्घ्यहस्तो महोदधिः ।
उवाच न मया पुत्रो हृतःसान्दीपनेरिति ॥ २६ ॥ तदनन्तर जब वे शस्त्र ग्रहणकर समुद्रके पास पहुंचे तो समुद्र अर्घ्य लेकर उनके सम्मुख उपस्थित हुआ और कहा-"मैंने सान्दीपनिका पुत्र हरण नहीं किया ॥ २६ ॥ दैत्यः पञ्चजनो नाम शङ्खरूपः स बालकम् ।
जग्राह योस्ति सलिले ममैवासुरसूदन ॥ २७ ॥ हे दैत्यदवन ! मेरे जलमें ही पंचजन नामक एक दैत्य शंखरूपसे रहता है; उसीने उस बालकको पकड़ लिया था" ॥ २७ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वाऽन्तर्जलं गत्वा हत्वा पञ्चजनं च तम् । कष्णो जग्राह तस्यास्थिप्रभवं शङ्खमुत्तमम् ॥ २८ ॥ श्रीपराशरजी बोले-समुद्रके इस प्रकार कहनेपर कृष्णचन्द्रने जलके भीतर जाकर पंचजनका वध किया और उसकी अस्थियोंसे उत्पन्न हुए शंखको ले लिया ॥ २८ ॥ यस्य नादेन दैत्यानां बलहानिरजायत ।
देवानां ववृधे तेजो यात्यधर्मश्च संक्षयम् ॥ २९ ॥ जिसके शब्दसे दैत्योंका बल नष्ट हो जाता है, देवताओंका तेज बढ़ता है और अधर्मका क्षय होता है ॥ २९ ॥ तं पाञ्चजन्यमापूर्य गत्वा यमपुरं हरिः ।
बलदेवश्च बलवाञ्जित्वा वैवस्वतं यमम् ॥ ३० ॥ तं बालं यातनासंस्थं यथापूर्वशरीरिणम् । पित्रे प्रदत्तवान्कृष्णो बलश्च बलिनां वरः ॥ ३१ ॥ तदनन्तर उस पांचजन्य शंखको बजाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र और बलवान् बलराम यमपुरको गये और सूर्यपुत्र यमको जीतकर यमयातना भोगते हुए उस बालकको पूर्ववत् शरीरयुक्तकर उसके पिताको दे दिया ॥ ३०-३१ ॥ मथुरां च पुनः प्राप्ताबुग्रसेनेन पालिताम् ।
प्रहृष्टपुरुषस्त्रीकामुभौ रामजनार्दनौ ॥ ३२ ॥ इसके पश्चात् वे राम और कृष्ण राजा उग्रसेनद्वारा परिपालित मथुरापुरीमें, जहाँके स्त्री-पुरुष [उनके आगमनसे] आनन्दित हो रहे थे पधारे ॥ ३२ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे एवविंशोध्यायः (२१)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे एकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥ |