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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ विंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
राजमार्गे ततः कृष्णः सानुलेपनभाजनाम् । ददर्श कुब्जामायान्तीं नवयोवनगोचराम् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर श्रीकृष्णचन्द्रने राजमार्गमें एक नवयौवना कुब्जा स्त्रीको अनुलेपनका पात्र लिये आती देखा ॥ १ ॥ तामाह ललितं कृष्णः कस्येदमनुलेपनम् ।
भवत्या नीयते सत्यं वदेन्दीवरलोचने ॥ २ ॥ तब श्रीकृष्णने उससे विलासपूर्वक कहा-"अयि कमललोचने ! तू सचसच बता यह अनुलेपन किसके लिये ले जा रही है ?" ॥ २ ॥ सकामेनेव सा प्रोक्ता सानुरागा हरिं प्रति ।
प्राह सा ललितं कुब्जा तद्दर्शनबलात्कृता ॥ ३ ॥ भगवान् कृष्णके कामुक पुरुषकी भौत इस प्रकार पूछनेपर अनुरागिणी कब्जाने उनके दर्शनसे हठात् आकृष्टचित्त हो अति ललितभावसे इस प्रकार कहा- ॥ ३ ॥ कान्त कस्मान्न जानासि कंसेन विनियोजिताम् ।
नैकवक्रेति विख्यातामनुलेपनकर्मणि ॥ ४ ॥ "हे कान्त ! क्या आप मुझे नहीं जानते ? मैं अनेकवक्रा नामसे विख्यात हूँ, राजा कंसने मुझे अनुलेपन-कार्यमें नियुक्त किया है ॥ ४ ॥ नान्यपिष्टं हि कंसस्य प्रीतये ह्यनुलेपनम् ।
भवाम्यहमतीवास्य प्रसादधनभाजनम् ॥ ५ ॥ राजा कंसको मेरे अतिरिक्त और किसीका पीसा हुआ उबटन पसन्द नहीं है, अत: मैं उनकी अत्यन्त कृपापात्री हूँ" ॥ ५ ॥ श्रीकृष्ण उवाच
सुगन्धमेतद्राजार्हं रुचिरं रुचिरानने । आवयोर्गात्र सदृशं दीयतामनुलेपनम् ॥ ६ ॥ श्रीकृष्णजी बोले-हे सुमुखि ! यह सुन्दर सुगन्धमय अनुलेपन तो राजाके ही योग्य है, हमारे शरीरके योग्य भी कोई अनुलेपन हो तो दो ॥ ६ ॥ श्रीपराशर उवाच
श्रुत्वैतदाह सा कुब्जा गृह्यतामिति सादरम् । अनुलेपनं च प्रददौ गात्रयोग्यमथोभयोः ॥ ७ ॥ श्रीपराशरजी बोले-यह सुनकर कुब्जाने कहा 'लीजिये और फिर उन दोनोंको आदरपूर्वक उनके शरीरयोग्य चन्दनादि दिये ॥ ७ ॥ भक्तिच्छेदानुलिप्ताङ्गौ ततस्तौ पुरुषर्षभौ ।
सेन्द्रचापौ व्यराजेतां सितकृष्णाविवाम्बुदौ ॥ ८ ॥ उस समय वे दोनों पुरुषश्रेष्ठ [कपोल आदि अंगोंमें] पत्ररचनाविधिसे यथावत् अनुलिप्त होकर इन्द्रधनुषयुक्त श्याम और श्वेत मेधके समान सुशोभित हुए ॥ ८ ॥ ततस्तां चुबुके शौरिरुल्लापनविधानवित् ।
उत्पाट्य तोलयामास व्द्यङ्गुलेनाग्रपाणिना ॥ ९ ॥ चकर्ष पद्भ्यां च तदा ऋजुत्वं केशवोऽनयत् । ततः सा ऋजुतां प्राप्ता योषितमभवद्वरा ॥ १० ॥ तत्पश्चात् उल्लापन (सीधे करनेकी)-विधिके जाननेवाले भगवान् कृष्णचन्द्रने उसकी ठोड़ीमें अपनी आगेकी दो अँगुलियाँ लगा उसे उचकाकर हिलाया तथा उसके पैर अपने पैरोंसे दबा लिये । इस प्रकार श्रीकेशवने उसे ऋजुकाय (सीधे शरीरवाली) कर दी । तब सीधी हो जानेपर वह सम्पूर्ण स्त्रियोंमें सुन्दरी हो गयी ॥ ९-१० ॥ विलासलिलितं प्राह प्रेमगर्भभरालसम् ।
वस्त्रे प्रगृह्य गोविन्दं मम गेहं व्रजेति वै ॥ ११ ॥ तब वह श्रीगोविन्दका पन्ना पकड़कर अन्तर्गर्भित प्रेम-भारसे अलसायी हुई विलासललित वाणीमें बोली'आप मेरे घर चलिये' ॥ ११ ॥ एवमुक्तस्तया शौरी रामस्यालोक्य चाननम् ।
प्रहस्य कुब्जां तामाह नैकवक्रामनिन्दिताम् ॥ १२ ॥ उसके ऐसा कहनेपर श्रीकृष्णचन्द्रने उस कुब्जासे, जो पहले अनेक अंगोंसे टेडी थी, परंतु अब सुन्दरी हो गयी थी, बलरामजीके मुखकी ओर देखकर हँसते हुए कहा- ॥ १२ ॥ आयास्ये भवतीगेहमिति तां प्रहसन्हरिः ।
विससर्ज जहासोच्चै रामस्यालोक्य चाननम् ॥ १३ ॥ हाँ, तुम्हारे घर भी आऊँगा'-ऐसा कहकर श्रीहरिने उसे मुसकाते हुए विदा किया और बलभद्रजीके मुखकी ओर देखते हुए जोर-जोरसे हँसने लगे ॥ १३ ॥ भक्तिभेदानुनिप्ताङ्गौ नीलपीताम्बरौ तु तौ ।
धनुःशालां ततो यातौ चित्रमाल्योपशोभितौ ॥ १४ ॥ तदनन्तर पत्र-रचनादि विधिसे अनुलिप्त तथा चित्रविचित्र मालाओंसे सुशोभित राम और कृष्ण क्रमश: नीलाम्बर और पीताम्बर धारण किये हुए यज्ञशालातक आये ॥ १४ ॥ आयागं तद्धनूरत्नं ताभ्यां पृष्टैस्तु रक्षिभिः ।
आख्याते सहसा कृष्णो गृहीत्वा पूरयद्धनुः ॥ १५ ॥ वहाँ पहुँचकर उन्होंने यज्ञरक्षकोंसे उस यज्ञके उद्देश्यस्वरूप धनुषके विषयमें पूछा और उनके बतलानेपर श्रीकृष्णचन्द्रने उसे सहसा उठाकर प्रत्यंचा (डोरी) चढ़ा दी ॥ १५ ॥ ततः पूरयता तेन भज्यमानं बलाद्धनुः ।
चकार सुमहच्छब्दं मथुरा येन पूरिता ॥ १६ ॥ उसपर बलपूर्वक प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह धनुष टूट गया, उस समय उसने ऐसा घोर शब्द किया कि उससे सम्पूर्ण मथुरापुरी गूंज उठी ॥ १६ ॥ अनुयुक्तौ ततस्तौ तु भग्ने धनुषि रक्षिभिः ।
रक्षिसैन्यं निहत्योभौ निष्क्रान्तौ कार्मुकालयात् ॥ १७ ॥ तब धनुष टूट जानेपर उसके रक्षकोंने उनपर आक्रमण किया, उस रक्षक सेनाका संहार कर वे दोनों बालक धनुश्शालासे बाहर आये ॥ १७ ॥ अक्रूरागमवृत्तान्तमुपलभ्य महद्धनुः ।
भग्नं श्रुत्वा च कंसोऽपि प्राह चाणूरमुष्टिकौ ॥ १८ ॥ तदनन्तर अक्रूरके आनेका समाचार पाकर तथा उस महान् धनुषको भग्न हुआ सुनकर कंसने चाणूर और मुष्टिकसे कहा ॥ १८ ॥ कंस उवाच
गोपालदारकौ प्राप्तौ भवद्भ्यां तु ममाग्रतः । मल्लयुद्धेन हन्तव्यौ मम प्राणहरौ दि तौ ॥ १९ ॥ नियुद्धे तद्विनाशेन भवद्भ्यां तोषितो ह्य् अहम् । दास्याम्यभिमतान्कामान्नान्यथैतौ महाबलौ ॥ २० ॥ न्यायतोऽन्यायतो वापि भवद्भ्यां तौ ममाहितौ । हन्ताव्यौ तद्वधाद्राज्यं सामान्यं वां भविष्यति ॥ २१ ॥ कंस बोला-यहाँ दोनों गोपालबालक आ गये हैं । वे मेरा प्राण-हरण करनेवाले हैं, अतः तुम दोनों मल्लयुद्धसे उन्हें मेरे सामने मार डालो । यदि तुमलोग मल्लयुद्ध में उन दोनोंका विनाश करके मुझे सन्तुष्ट कर दोगे तो मैं तुम्हारी समस्त इच्छाएं पूर्ण कर दूंगा; मेरे इस कथनको तुम मिथ्या न समझना तुम न्यायसे अथवा अन्यायसे मेरे इन महाबलवान् अपकारियोंको अवश्य मार डालो । उनके मारे जानेपर यह सारा राज्य [ हमारा और ] तुम दोनोंका सामान्य होगा ॥ १९-२१ ॥ इत्यादिश्य स तौ मल्लौ ततश्चाहूय हस्तिपम् ।
प्रोवाचोच्चैस्त्वया मल्लसमाजद्वारि कुञ्जरः ॥ २२ ॥ स्थाप्यः कुवलयापीडस्तेन तौ गोपदारकौ । घातनीयौ नियुद्धाय रङ्गद्वारमुपागतौ ॥ २३ ॥ मल्लोंको इस प्रकार आज्ञा दे कंसने अपने महावतको बुलाया और उसे आज्ञा दी कि तू कुवलयापीड हाथीको मल्लोंकी रंगभूमिके द्वारपर खड़ा रख और जब वे गोपकुमार युद्धके लिये यहाँ आवें तो उन्हें इससे नष्ट करा दे ॥ २२-२३ ॥ तमप्याज्ञाप्य दृष्ट्वा च सर्वान्मञ्चानुपाकृतान् ।
आसन्नमरणः कंसः सूर्योदयमुदैक्षत ॥ २४ ॥ इस प्रकार उसे आज्ञा देकर और समस्त सिंहासनोंको यथावत् रखे देखकर, जिसकी मृत्यु पास आ गयी है वह कंस सूर्योदयकी प्रतीक्षा करने लगा ॥ २४ ॥ ततः समस्तमञ्चेषु नागरः स तदा जनः ।
राजमञ्चेषु चारूढाः सह भृत्यैर्नराधिपाः ॥ २५ ॥ प्रात:काल होनेपर समस्त मंचोंपर नागरिक लोग और राजमंचोंपर अपने अनुचरोंके सहित राजालोग बैठे ॥ २५ ॥ मल्लप्राश्निकवर्गश्च रङ्गमध्यसमीपगः ।
कृतः कंसेन कंसोऽपि तुङ्गमञ्चे व्यवस्थितः ॥ २६ ॥ तदनन्तर रंगभूमिके मध्यभागके समीप कंसने युद्धपरीक्षकोंको बैठाया और फिर स्वयं आप भी एक ऊँचे सिंहासनपर बैठा ॥ २६ ॥ अन्तःपुराणां मञ्चाश्च तथान्ये परिकल्पिताः ।
अन्ये च वारमुख्यानामन्ये नागरयोषिताम् ॥ २७ ॥ वहाँ अन्तःपुरकी स्त्रियों के लिये पृथक् मचान बनाये गये थे तथा मुख्य मुख्य वारांगनाओं और नगरकी महिलाओंके लिये भी अलग-अलग मंच थे ॥ २७ ॥ नन्दगोपादयो गोपा मञ्चेष्वन्येष्ववस्थिताः ।
अक्रूरवसुदेवौ च मञ्चप्रान्ते व्यवस्थितौ ॥ २८ ॥ कुछ अन्य मंचोंपर नन्दगोप आदि गोपगण बिठाये गये थे और उन मंचोंके पास ही अक्रूर और वसुदेवजी बैठे थे ॥ २८ ॥ नागरीयोषितां मध्ये देवकीपुत्रगर्धिनी ।
अन्तकालेऽपि पुत्रस्य द्रक्ष्यामीति मुखं स्थिता ॥ २९ ॥ नगरकी नारियोंके बीचमें 'चलो, अन्तकालमें ही पुत्रका मुख तो देख लूंगी' ऐसा विचारकर पुत्रके लिये मंगलकामना करती हुई देवकीजी बैठी थीं ॥ २९ ॥ वाद्यमानेषु तुर्येषु चाणूरे चापि वल्गति ।
हाहाकारपरे लोके ह्यास्फोटयति मुष्टिके ॥ ३० ॥ ईषद्धसन्तौ तौ वीरौ बलभद्रजनार्दनौ । गोपवेषधारौ बालौ रङ्गद्वारमुपागतौ ॥ ३१ ॥ तदनन्तर जिस समय तूर्य आदिके बजने तथा चाणूरके अत्यन्त उछलने और मुष्टिकके ताल ठोंकनेपर दर्शकगण हाहाकार कर रहे थे, गोपवेषधारी वीर बालक बलभद्र और कृष्ण कुछ हँसते हुए रंगभूमिके द्वारपर आये ॥ ३०-३१ ॥ ततः कुवलयापीडो महामात्रप्रचोदितः ।
अभ्यधावत वेगेन हन्तुं गोपकुमारकौ ॥ ३२ ॥ वहाँ आते ही महावतको प्रेरणासे कुवलयापीड नामक हाथी उन दोनों गोपकुमारोंको मारनेके लिये बड़ेवेगसे दौड़ा ॥ ३२ ॥ हाहाकारो महाञ्जज्ञे रङ्गमध्ये द्विजोत्तम ।
बलदेवोऽनुजं दृष्ट्वा वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३३ ॥ हन्तव्यो हि महाभाग नागोऽयं शत्रुचोदितः ॥ ३४ ॥ हे द्विज श्रेष्ठ ! उस समय रंगभूमिमें महान् हाहाकार मच गया तथा बलदेवजीने अपने अनुज कृष्णकी ओर देखकर कहा-"हे महाभाग ! इस हाथीको शत्रुने ही प्रेरित किया है; अत: इसे मार डालना चाहिये" ॥ ३३-३४ ॥ इत्युक्तः सोऽग्रजेनाथ बलदेवेन वै द्विज ।
सिंहनादं ततश्चक्रे माधवः परवीरहा ॥ ३५ ॥ हे द्विज ! ज्येष्ठ भ्राता बलरामजीके ऐसा कहनेपर शत्रुसूदन श्रीश्यामसुन्दरने बड़े जोरसे सिंहनाद किया ॥ ३५ ॥ करेण करमाकृष्य तस्य केशिनिषूदनः ।
भ्रामयामास तं शौरिरैरावतसमं बले ॥ ३६ ॥ फिर केशिनिघूदन भगवान् श्रीकृष्णने बलमें ऐरावतके समान उस महाबली हाथीकी सूंड अपने हाथसे पकड़कर उसे घुमाया ॥ ३६ ॥ ईशोपि सर्वजगतां बाललीलानुसारतः ।
क्रीडित्वा सुचिरं कृष्णः करिदन्तपदान्तरे ॥ ३७ ॥ उत्पाट्य वामदन्तं तु दक्षिणेनैव पाणिना । ताडयामास यन्तारं तस्यासीच्छतधा शिरः ॥ ३८ ॥ भगवान् कृष्ण यद्यपि सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हैं तथापि उन्होंने बहुत देरतक उस हाथोके दाँत और चरणोंके बीचमें खेलते-खेलते अपने दाएँ हाथसे उसका बायाँ दाँत उखाड़कर उससे महावतपर प्रहार किया । इससे उसके सिरके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥ ३७-३८ ॥ दक्षिण दन्तमुत्पाट्य बलभद्रोऽपि तत्क्षणात् ।
स रोषस्तेन पार्श्वस्थान् गजपालानपोथयत् ॥ ३९ ॥ उसी समय बलभद्रजीने भी क्रोधपूर्वक उसका दायाँ दाँत उखाड़कर उससे आसपास खड़े हुए महावतोंको मार डाला ॥ ३९ ॥ ततस्तूत्प्लुत्य वेगेन रौहिणेयो महाबलः ।
जघान वामपादेन मस्तके हस्तिनं रुषा ॥ ४० ॥ तदनन्तर महाबली रोहिणीनन्दनने रोषपूर्वक अति वेगसे उछलकर उस हाथीके मस्तकपर अपनी बायीं लात मारी ॥ ४० ॥ स पपात हतस्तेन बलभद्रेण लीलया ।
सहस्राक्षेण वज्रेण ताडितः पर्वतो यथा ॥ ४१ ॥ इस प्रकार वह हाथी बलभद्रजीद्वारा लीलापूर्वक मारा जाकर इन्द्र-वज्रसे आहत पर्वतके समान गिर पड़ा ॥ ४१ ॥ हत्वा कुवलयापीडं हस्त्यारोहप्रचोदितम् ।
मदासृगनुलिप्ताङ्गौ हस्तिदन्तवरायुधौ ॥ ४२ ॥ मृगमध्ये यथा सिंहौ गर्वलीलावलोकिनौ । प्रविष्टौ सुमहारङ्गं बलभद्रजनार्दनौ ॥ ४३ ॥ तब महावतसे प्रेरित कुवलयापीडको मारकर उसके मद और रक्तसे लथपथ राम और कृष्ण उसके दाँतोंको लिये हुए गर्वयुक्त लीलामयी चितवनसे निहारते उस महान् रंगभूमिमें इस प्रकार आये जैसे मृगसमूहके बीचमें सिंह चला जाता है ॥ ४२-४३ ॥ हाहाकारो महाञ्जज्ञे महारङ्गे त्वनन्तरम् ।
कृष्णोऽयं बलभद्रोयमिति लोकस्य विस्मयः ॥ ४४ ॥ उस समय महान् रंगभूमिमें बड़ा कोलाहल होने लगा और सब लोगोंमें 'ये कृष्ण हैं, ये बलभद्र हैं' ऐसा विस्मय छा गया ॥ ४४ ॥ सोऽयं येन हता घोरा पूतना बालघातिनी ।
क्षिप्तं तु शकटं येन भग्नौ तु यमलार्जुनौ ॥ ४५ ॥ सोयं यः कालियं नागं ममर्दारुह्य बालकः । धृतो गोवर्धनो येन सप्तरात्रं महागिरिः ॥ ४६ ॥ [वे कहने लगे-]"जिसने बालघातिनी घोर राक्षसी पूतनाको मारा था, शकटको उलट दिया था और यमलार्जुनको उखाड़ डाला था वह यही है । जिस बालकने कालियनागके ऊपर चढ़कर उसका मान मर्दन किया था और सात रात्रितक महापर्वत गोवर्द्धनको अपने हाथपर धारण किया था वह यही है ॥ ४५-४६ ॥ अरिष्टो धेनुकः केशी लीलयैव महात्मना ।
निहता येन दुर्वृत्ता दृश्यतामेष सोऽच्युतः ॥ ४७ ॥ जिस महात्माने अरिष्टासुर, । धेनुकासुर और केशी आदि दुष्टोंको लीलासे ही मार डाला था; देखो, वह अच्युत यही हैं ॥ ४७ ॥ अयं चास्य महाबाहुर्बलभद्रोऽग्रतोऽग्रजः ।
प्रयाति लीलया योषिन्मनोनयननन्दनः ॥ ४८ ॥ ये इनके आगे इनके बड़े भाई महाबाहु बलभद्रजी हैं जो बड़े लीलापूर्वक चल रहे हैं । ये स्त्रियोंके मन और नयनोंको बड़ा ही आनन्द देनेवाले हैं ? ॥ ४८ ॥ अयं स कथ्यते प्राज्ञैः पुराणार्थविशारदैः ।
गोपालो यादवं वंशं मग्नमभ्यद्धरिष्यति ॥ ४९ ॥ पुराणार्थवेत्ता विद्वान् लोग कहते हैं कि ये गोपालजी डूबे हुए यदुवंशका उद्धार करेंगे ॥ ४९ ॥ अयं हि सर्वलोकस्य विष्णोरखिलजन्मनः ।
अवतीर्णो महीमंशो नूनं भारहरो भुवः ॥ ५० ॥ ये सर्वलोकमय और सर्वकारण भगवान् विष्णुके ही अंश हैं, इन्होंने पृथिवीका भार उतारनेके लिये ही भूमिपर अवतार लिया है" ॥ ५० ॥ इत्येवं वर्णिते पौरै रामे कृष्णे च तत्क्षणात् ।
उरस्तताप देवक्याः स्नेहस्नुतपयोधरम् ॥ ५१ ॥ राम और कृष्णके विषयमें पुरवासियोंके इस प्रकार 'कहते समय देवकीके स्तनोंसे स्नेहके कारण दूध बहने लगा और उनके हृदयमें बड़ा अनुताप हुआ ॥ ५१ ॥ महोत्सवमिवासाद्य पुत्राननविलोकनात् ।
युवेव वसुदेवोऽभूद्विहायाभ्यागतां जराम् ॥ ५२ ॥ पुत्रोंका मुख देखनेसे अत्यन्त उल्लास-सा प्राप्त होनेके कारण वसुदेवजी भी मानो आयी हुई जराको छोड़कर फिरसे नवयुवक-से हो गये ॥ ५२ ॥ विस्तारिताक्षियुगलो राजान्तःपुरयोषिताम् ।
नागारस्त्रीसमूहश्च द्रष्टुं न विरराम तम् ॥ ५३ ॥ राजाके अन्तःपुरकी स्त्रियाँ तथा नगर निवासिनी महिलाएँ भी उन्हें एकटक देखते-देखते उपराम न हुई ॥ ५३ ॥ सख्यः पश्यत कृष्णस्य मुखमत्यरुणेक्षणम् ।
गजयुद्धकृतायासस्वेदाम्बुकणिकाचितम् ॥ ५४ ॥ विकासिशरदम्भोजमपश्यायजलोक्षितम् । परिभूयं स्थितं जन्म सफलं क्रियतां दृशः ॥ ५५ ॥ [वे परस्पर कहने लगीं-]"अरी सखियो ! अरुणनयनसे युक्त श्रीकृष्णचन्द्रक अति सुन्दर मुख तो देखो, जो कुवलयापीडके साथ युद्ध करनेके परिश्रमसे स्वेद बिन्दुपूर्ण होकर हिम-कण-सिंचित शरत्कालीन प्रफुल्ल कमलको लज्जित कर रहा है । अरी ! इसका दर्शन करके अपने नेत्रोंका होना सफल कर लो" ॥ ५४-५५ ॥ श्रीवत्सांकं महद्धाम बालस्यैतद्विलोक्यताम् ।
विपक्षक्षपणं वक्षो भुजयुग्यं च भामिनि ॥ ५६ ॥ [एक स्त्री बोली-] "हे भामिनि ! इस बालकका यह लक्ष्मी आदिका आत्रयभूत श्रीवत्सांकयुक्त वक्षःस्थल तथा शत्रुओंको पराजित करनेवाली इसकी दोनों भुजाएँ तो देखो !" ॥ ५६ ॥ किं न पश्यसि दुग्धेन्दुमृणालधवलाकृतिम् ।
बलभद्रमिमं नीलपरिधानमुपागतम् ॥ ५७ ॥ [दूसरी०-]"अरी ! क्या तुम नीलाम्बर धारण किये इन दुग्ध, चन्द्र अथवा कमलनालके समान शुभ्रवर्ण बलदेवजीको आते हुए नहीं देखती हो ?" ॥ ५७ ॥ वल्गता मुष्टिकेनैव चाणूरेण तथा सखि ।
क्रीडतोबलभद्रस्य हरेर्हास्यं विलोक्यताम् ॥ ५८ ॥ [तीसरी०-] "अरी सखियो ! [अखाड़ेमें] चक्कर देकर घूमनेवाले चाणूर और मुष्टिकके साथ क्रीडा करते हुए बलभद्र तथा कृष्णका हँसना देख लो । " ॥ ५८ ॥ सख्यः पश्यत चाणूरं नियुद्धार्थमयं हरिः ।
समुपैति न सन्त्यत्र किं वृद्धा मुक्तकारिणः ॥ ५९ ॥ [चौथी०-]"हाय ! सखियो ! देखो तो चाणूरसे लड़नेके लिये ये हरि आगे बढ़ रहे हैं; क्या इन्हें हुड़ानेवाले कोई भी बड़े-बूढ़े यहाँ नहीं हैं ?" ॥ ५९ ॥ क्व यौवनोन्मुखीभूतसुकुमारतनुर्हरिः ।
क्व वज्रकठिनाभोगशरीरोऽयं महासुरः ॥ ६० ॥ 'कहाँ तो यौवनमें प्रवेश करनेवाले सुकुमार-शरीर श्याम और कहाँ वजके समान कठोर शरीरवाला यह महान् असुर !' ॥ ६० ॥ इमौ सुललितैरङ्गैर्वर्तेते नवयौवनौ ।
दैतेयमल्लाश्चाणूरप्रमुखास्त्वतिदारुणाः ॥ ६१ ॥ ये दोनों नवयुवक तो बड़े ही सुकुमार शरीरवाले हैं, [किंतु इनके प्रतिपक्षी] ये चाणूर आदि दैत्य मल्ल अत्यन्त दारुण हैं ॥ ६१ ॥ नियुद्धप्राश्निकानां तु महानेष व्यतिक्रमः ।
यद्बालबलिनोर्युद्धं मध्यस्थैः समुपेक्ष्यते ॥ ६२ ॥ मल्लयुद्धके परीक्षकगणोंका यह बहुत बड़ा अन्याय है जो वे मध्यस्थ होकर भी इन बालक और बलवान् मल्लोंके बीच युद्ध करा रहे हैं ॥ ६२ ॥ श्रीपारशर उवाच
इत्थं पुरस्त्रीलोकस्व वदतश्चालयन्भुवम् । ववल्ग बद्धकक्ष्योऽन्तर्जनस्य भगवान्हरिः ॥ ६३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-नगरकी स्त्रियोंके इस प्रकार वार्तालाप करते समय भगवान् कृष्णचन्द्र अपनी कमर कसकर उन समस्त दर्शकोंके बीच में पृथिवीको कम्पायमान करते हुए रंगभूमिमें कूद पड़े ॥ ६३ ॥ बलभद्रोऽपि चास्फोट्य ववल्ग ललितं तथा ।
पदे पदे तथा भूमिर्यन्न शीर्णा तदद्भुतम् ॥ ६४ ॥ श्रीबलभद्रजी भी अपने भुजदण्डोंको ठोंकते हुए अति मनोहरभावसे उछलने लगे । उस समय उनके पदपदपर पृथिवी नहीं फटी, यही बड़ा आश्चर्य है ॥ ६४ ॥ चाणूरेण ततः कृष्णो ययुधेऽमितविक्रमः ।
नियुद्धकुशलो दैत्यौ बलभद्रेण मुष्टिकः ॥ ६५ ॥ तदनन्तर अमित-विक्रम कृष्णचन्द्र चाणूरके साथ और द्वन्द्वयुद्धकुशल राक्षस मुष्टिक बलभद्रके साथ युद्ध करने लगे ॥ ६५ ॥ सन्निपातावधूतैस्तु चाणूरेण समं हरिः ।
प्रक्षेपणैर्मुष्टिभिश्च कीलवज्रनिपातनैः ॥ ६६ ॥ पादोद्धूतैः प्रमृष्टैश्च तयोर्युद्धमभून् महत् ॥ ६७ ॥ कृष्णचन्द्र चाणूरके साथ परस्पर भिड़कर, नीचे गिराकर, उछालकर, घूसे और वजके समान कोहनी मारकर, पैरोंसे ठोकर मारकर तथा एक-दूसरेके अंगोंको रगड़कर लड़ने लगे । उस समय उनमें महान् युद्ध होने लगा ॥ ६६-६७ ॥ अशस्त्रमतिघोरं तत्तयोर्युद्धं सुदारुणम् ।
बलप्राणविनिष्पाद्यं समाजोत्सवसन्निधौ ॥ ६८ ॥ इस प्रकार उस समाजोत्सवके समीप केवल बल और प्राणशक्तिसे ही सम्पन्न होनेवाला उनका अति भयंकर और दारुण शस्त्रहीन युद्ध हुआ ॥ ६८ ॥ यावद्यावच्च चाणूरो युयुधे हरिणा सह ।
प्राणहानिमवापाग्र्यां तावत्तावल्लवाल्लवम् ॥ ६९ ॥ चाणूर जैसे-जैसे भगवानसे भिड़ता गया वैसे-ही-वैसे उसकी प्राणशक्ति थोड़ी-थोड़ी करके अत्यन्त क्षीण होती गयी ॥ ६९ ॥ कृष्णोऽपि युयुधे तेन लीलयैव जगन्मयः ।
खेदाच्चालयता कोपान्निजशेखरकेसरम् ॥ ७० ॥ जगन्मय भगवान् कृष्ण भी, श्रम और कोपके कारण अपने पुष्पमय शिरोभूषणोंमें लगे हुए केशरको हिलानेवाले उस चाणूरसे लीलापूर्वक लड़ने लगे ॥ ७० ॥ बलक्षयं विवृद्धिं च दृष्ट्वा चाणूरकृष्णयोः ।
वारयामास तूर्याणि कंसः कोपपरायणः ॥ ७१ ॥ उस समय चाणूरके बलका क्षय और कृष्णचन्द्रके बलका उदय देख कंसने खीझकर तूर्य आदि बाजे बन्द करा दिये ॥ ७१ ॥ मृदङ्गादिषु तूर्येषु प्रतिषिद्धेषु तत्क्षणात् ।
खे सङ्गतान्यवाद्यन्त देवतूर्याण्यनेकशः ॥ ७२ ॥ रंगभूमिमें मृदंग और तूर्य आदिके बन्द हो जानेपर आकाशमें अनेक दिव्य तूर्य एक साथ बजने लगे ॥ ७२ ॥ जय गोविन्द चाणूरं जहि केशव दानवम् ।
अन्तर्धानगता देवास्तमूचुरतिहर्षिताः ॥ ७३ ॥ और देवगण अत्यन्त हर्षित होकर अलक्षितभावसे कहने लगे- "हे गोविन्द ! आपकी जय हो । हे केशव ! आप शीघ्र ही इस चाणूर दानवको मार डालिये । " ॥ ७३ ॥ चाणूरेण चिरं कालं पीडित्वा मधुसूदनः ।
उत्पाट्य भ्रमयामास तद्वधाय कृतोद्यमः ॥ ७४ ॥ भगवान् मधुसूदन बहुत देरतक चाणूरके साथ खेल करते रहे, फिर उसका वध करनेके लिये उद्यत होकर उसे उठाकर घुमाया ॥ ७४ ॥ भ्रामयित्वा शतगुणं दैत्यमल्लममित्रजित् ।
भूभावास्फोटयामास गगने गतजीवितम् ॥ ७५ ॥ शत्रुविजयी श्रीकृष्णचन्द्रने उस दैत्य मल्लको सैकड़ों बार घुमाकर आकाशमें ही निर्जीव हो जानेपर पृथिवीपर पटक दिया ॥ ७५ ॥ भूमावास्फोटितस्तेन चाणूरः शतधाभवत् ।
रक्तस्रावमहापङ्कां चकार च तदा भवम् ॥ ७६ ॥ भगवान्के द्वारा पृथिवीपर गिराये जाते ही चाणूरके शरीरके सैकड़ों टुकड़े हो गये और उस समय उसने रक्तस्त्रावसे पृथिवीको अत्यन्त कीचड़मय कर दिया ॥ ७६ ॥ बलदेवोऽपि तत्कालं मुष्टिकेन महाबलः ।
ययुधे दैत्यमल्लेन चाणूरेण यथा हरिः ॥ ७७ ॥ इधर, जिस प्रकार भगवान् कृष्ण चाणूरसे लड़ रहे थे, उसी प्रकार महाबली बलभद्रजी भी उस समय दैत्य मल्ल मुष्टिकसे भिड़े हुए थे ॥ ७७ ॥ सोऽप्येनं मुष्टिना मूर्ध्नि वक्षस्याहत्य जानुना ।
पातयित्वा धरापृष्ठे निष्पिपेष गतायुषम् ॥ ७८ ॥ बलरामजीने उसके मस्तकपर घूसोंसे तथा वक्षःस्थलमें जानसे प्रहार किया और उस गताय दैत्यको पृथिवीपर पटककर रौंद डाला ॥ ७८ ॥ कृष्णस्तोशलकं भूयो मल्लराजं महाबलम् ।
वाममुष्टिप्रहारेण पातयामास भूतले ॥ ७९ ॥ तदनन्तर श्रीकृष्णचन्द्रने महाबली मल्लराज तोशलको बायें हाथसे चूंसा मारकर पृथिवीपर गिरा दिया ॥ ७९ ॥ चाणूरे नहते मल्ले मुष्टिके विनिपातिते ।
नीते क्षयं तोशलके सर्वे मल्लाः प्रदुद्रुवुः ॥ ८० ॥ मल्ल श्रेष्ठ चाणूर और मुष्टिकके मारे जानेपर तथा मल्लराज तोशलके नष्ट होनेपर समस्त मल्लगण भाग गये ॥ ८० ॥ ववल्गतुस्ततो रङ्गे कृष्णसंकर्षणावुभौ ।
समानवयसो गोपान्बलादाकृष्य हर्षितौ ॥ ८१ ॥ तब कृष्ण और संकर्षण अपने समवयस्क गोपोंको बलपूर्वक खींचकर [आलिंगन करते हुए] हर्षसे रंगभूमिमें उछलने लगे ॥ ८१ ॥ कंसोऽपि कोपरक्ताक्षः प्राहोच्चैर्व्यायतान्नरान् ।
गोपावेतौ समाजौघान्निष्क्राम्येतां बलादितः ॥ ८२ ॥ तदनन्तर कंसने क्रोधसे नेत्र लाल करके वहाँ एकत्रित हुए पुरुषोंसे कहा-"अरे ! इस समाजसे इन ग्वालवालोंको बलपूर्वक निकाल दो ॥ ८२ ॥ नन्दोऽपि गृह्यतां पापो निर्गलैरायसैरिह ।
अवृद्धार्हेण दण्डेन वसुदेवोऽपि वध्यताम् ॥ ८३ ॥ पापी नन्दको लोहेकी श्रृंखलामें बाँधकर पकड़ लो तथा वृद्ध पुरुषोंके अयोग्य दण्ड देकर वसुदेवको भी मार डालो ॥ ८३ ॥ वल्गन्ति गोपाः कृष्णेन ये चेमे सहिताः पुराः ।
गावो निगृह्यतामेषां यच्चास्ति वसु किञ्चन ॥ ८४ ॥ मेरे सामने कृष्णके साथ ये जितने गोपबालक उछल रहे हैं इन सबको भी मार डालो तथा इनकी गौएँ और जो कुछ अन्य धन हो वह सब छीन लो" ॥ ८४ ॥ एवमाज्ञापयन्तं तु प्रहस्य मधुसूदनः ।
उत्प्लुत्यारुह्य तं मञ्चं कंसं जग्राह वेगतः ॥ ८५ ॥ जिस समय कंस इस प्रकार आज्ञा दे रहा था, उसी समय श्रीमधुसूदन हँसते-हँसते उछलकर मंचपर चढ़ गये और शीघ्रतासे उसे पकड़ लिया ॥ ८५ ॥ केशेष्वाकृष्य विगलत्किरीटमवनीतले ।
सं कंसं पातयामास तस्योपरि पपात च ॥ ८६ ॥ भगवान् कृष्णने उसके केशेको खींचकर उसे पृथिवीपर पटक दिया तथा उसके ऊपर आप भी कूद पड़े, इस समय उसका मुकुट सिरसे खिसककर अलग जा पड़ा ॥ ८६ ॥ अशेषजगदाधारगुरुणा पततोपरि ।
कृष्णेन त्याजितः प्राणानुग्रसेनात्मजो नृपः ॥ ८७ ॥ सम्पूर्ण जगत्के आधार भगवान् कृष्णके ऊपर गिरते ही उग्रसेनात्मज राजा कंसने अपने प्राण होड़ दिये ॥ ८७ ॥ मृतस्य केशेषु तदा गृहीत्वा मधुसूदनः ।
चकर्ष देहं कंसस्य रङ्गमध्ये महाबलः ॥ ८८ ॥ तब महाबली कृष्णचन्द्रने मृतक कंसके केश पकड़कर उसके देहको रंगभूमिमें घसीटा ॥ ८८ ॥ गौरवेणातिमहता परिघातेन कृष्यता ।
कृता कंसस्य देहेन वेगेनेव महाम्भसः ॥ ८९ ॥ कंसका देह बहुत भारी था, इसलिये उसे घसीटनेसे जलके महान् वेगसे हुई दरारके समान पृथिवीपर परिघा बन गयी ॥ ८९ ॥ कंसे गृहीते कृष्णेन तद्भ्राताऽभ्यागतो रुषा ।
सुनामा बलभद्रेण लीलयैव निपातितः ॥ ९० ॥ श्रीकृष्णचन्द्रद्वारा कंसके पकड़ लिये जानेपर उसके भाई सुमालीने क्रोधपूर्वक आक्रमण किया । उसे बलरामजीने लीलासे ही मार डाला ॥ ९० ॥ ततो हाहाकृतं सर्वमासीत्तद्रङ्गमण्डलम् ।
अवज्ञया हतं दृष्ट्वा कृष्णेन मथुरेश्वरम् ॥ ९१ ॥ इस प्रकार मथुरापति कंसको कृष्णचन्द्रद्वारा अवज्ञापूर्वक मरा हुआ देखकर रंगभूमिमें उपस्थित सम्पूर्ण जनता हाहाकार करने लगी ॥ ९१ ॥ कृष्णेऽपि वसुदेवस्य पादौ जग्राह सत्वरः ।
देवक्याश्च महाबाहुर्बलदेवसहायवान् ॥ ९२ ॥ उसी समय महाबाहु कृष्णचन्द्र बलदेवजी-सहित वसुदेव और देवकीके चरण पकड़ लिये ॥ ९२ ॥ उत्थाप्य वसुदेवस्तं देवकी च जनार्दनम् ।
स्मृतजन्मोक्तवचनौ तावे व प्रणतौ स्थितौ ॥ ९३ ॥ तब वसुदेव और देवकीको पूर्वजन्ममें कहे हुए भगवद्वाक्योंका स्मरण हो आया और उन्होंने श्रीजनार्दनको पृथिवीपरसे उठा लिया तथा उनके सामने प्रणतभावसे खड़े हो गये ॥ ९३ ॥ श्रीवसुदेव उवाच
प्रसीद सीदतां दत्तो देवानां यो वरः प्रभो । तथावयोः प्रसादेन कृतोद्धारः स केशव ॥ ९४ ॥ श्रीवसुदेवजी बोले-हे प्रभो ! अब आप हमपर प्रसन्न होइये । हे केशव ! आपने आर्त्त देवगणोंको जो वर दिया था, वह हम दोनोंपर अनुग्रह करके पूर्ण कर दिया ॥ ९४ ॥ आराधितो यद्भगवानवतीर्णो गृहे मम ।
दुर्वृत्तनिधनार्थाय तेन नः पावितं कुलम् ॥ ९५ ॥ भगवन् ! आपने जो मेरी आराधनासे दुष्टजनोंके नाशके लिये मेरे घरमें जन्म लिया, उससे हमारे कुलको पवित्र कर दिया है ॥ ९५ ॥ त्वमन्तः सर्वभूतानां सर्वभूतमयस्थितः ।
प्रवर्तेते समस्तात्मंस्त्वत्तो भूतभविष्यति ॥ ९६ ॥ आप सर्वभूतमय हैं और समस्त भूतोंके भीतर स्थित हैं । हे समस्तात्मन् ! भूत और भविष्यत् आपहीसे प्रवृत्त होते हैं ॥ ९६ ॥ यज्ञैस्त्वमिज्यसेऽचिन्त्य सर्वदेवमयाच्युत ।
त्वमेव यज्ञो यष्टा च यज्वनां परमेश्वरः ॥ ९७ ॥ हे अचिन्त्य ! हे सर्वदेवमय ! हे अच्युत ! समस्त यज्ञोंसे आपहीका यजन किया जाता है तथा हे परमेश्वर ! आप ही यज्ञ करनेवालोंके यष्टा और यज्ञस्वरूप हैं ॥ ९७ ॥ समुद्भवः समस्तस्य जगतस्त्वं जनार्दन ॥ ९८ ॥
सापह्नवं मम मनो यदेतत्त्वयि जायते । देवक्याश्चात्मजप्रीत्या तदत्यन्तविडम्बना ॥ ९९ ॥ हे जनार्दन ! आप तो सम्पूर्ण जगत्के उत्पत्तिस्थान हैं, आपके प्रति पुत्रवात्सल्यके कारण जो मेरा और देवकीका चित्त भ्रान्तियुक्त हो रहा है यह बड़ी ही हँसीकी बात है ॥ ९८-९९ ॥ त्वं कर्ता सर्वभूतानामनादिनिधनो भवान् ।
त्वं मनुष्यस्य कस्यैषा जिह्वा पुत्रेति वक्ष्यति ॥ १०० ॥ आप आदि और अन्तसे रहित हैं तथा समस्त प्राणियोंके उत्पत्तिकर्ता हैं, ऐसा कौन मनुष्य है जिसकी जिह्म आपको 'पुत्र' कहकर सम्बोधन करेगी ? ॥ १० ॥ जगदेतज्जगन्नाथ सम्भूतमखिलं यतः ।
कया युक्त्या विना मायां सोऽस्मत्तः सम्भविष्यति ॥ १०१ ॥ हे जगन्नाथ ! जिन आपसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है वही आप बिना मायाशक्तिके और किस प्रकार हमसे उत्पन्न हो सकते हैं ॥ १०१ ॥ यस्मिन्प्रतिष्ठितं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ।
स कोष्ठोत्सङ्गशयनो मानुषो जायते कथम् ॥ १०२ ॥ जिसमें सम्पूर्ण स्थावर-जंगम जगत् स्थित है वह प्रभु कुक्षि (कोख) और गोदमें शयन करनेवाला मनुष्य कैसे हो सकता है ? ॥ १०२ ॥ स त्वं प्रसीद परम्श्वर पाहि विश्व-
मंशावतारकरणैर्न ममासि पुत्रः । आब्रह्मपादपमिदं जगदेतदीश त्वत्तो विमोहयसि किं पुरुषोत्तमास्मान् ॥ १०३ ॥ हे परमेश्वर ! वही आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने अंशावतारसे विश्वकी रक्षा कीजिये । आप मेरे पुत्र नहीं हैं । हे ईश ! ब्रहासे लेकर वृक्षादिपर्यन्त यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उत्पन्न हुआ है, फिर हे पुरुषोत्तम ! आप हमें क्यों मोहित कर रहे हैं ? ॥ १०३ ॥ मायाविमोहितदृशा तनयो ममेति
कंसाद्भयं कृतमपास्तभयातितीव्रम् । नीतोऽसि गोकुलमरातिभयाकुलेन वृद्धिं गतोऽसि मम नास्ति ममत्वमीश ॥ १०४ ॥ हे निर्भय ! आप मेरे पुत्र हैं' इस मायासे मोहित होकर मैंने कंससे अत्यन्त भय माना था और उस शत्रुके भयसे ही मैं आपको गोकुल ले गया था । हे ईश ! आप वहीं रहकर इतने बड़े हुए हैं, इसलिये अब आपमें मेरी ममता नहीं रही है ॥ १०४ ॥ कर्माणि रुद्रमरुदश्विशतक्रतूनां
साध्यानि यस्य न भवन्ति निरीक्षितानि । त्वं विष्णुरीश जगतामुपकारहेतोः प्राप्तोसि नः परिगतो विगतो हि मोहः ॥ १०५ ॥ अबतक मैंने आपके ऐसे अनेक कर्म देखे हैं जो रुद्र, मरुद्गण, अश्विनीकुमार और इन्द्रके लिये भी साध्य नहीं हैं । अब मेरा मोह दूर हो गया है । हे ईश ! [मैंने निश्चयपूर्वक जान लिया है कि आप साक्षात् श्रीविष्णुभगवान् ही जगत्के उपकारके लिये प्रकट हुए हैं ॥ १०५ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे विंशोध्यायः (२०)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥ |