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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
गार्ग्यं गोष्ठ्यां द्विजं श्यालष्षण्ढ इत्युक्तवान्द्विज । यदूनां सन्निधौ सर्वे जहसुर्यादवास्तदा ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे द्विज ! एक बार महर्षि गाय॑से उनके सालेने यादवोंकी गोष्ठीमें नपुंसक कह दिया । उस समय समस्त यदुवंशी हँस पड़े ॥ १ ॥ ततः कोपपरीतात्मा दक्षिणापथमेत्य सः ।
सुतमिच्छंस्तपस्तेपे यदुचक्रभयावहम् ॥ २ ॥ तब गायन अत्यन्त कुपित हो दक्षिण-समुद्रके तटपर जा यादवसेनाको भयभीत करनेवाले पुत्रकी प्राप्तिके लिये तपस्या की ॥ २ ॥ आराधयन्महादेवं लोहचूर्णमभक्षयत् ।
ददौ वरं च तुष्टोऽस्मै वर्षे तु द्वादशे हरः ॥ ३ ॥ उन्होंने श्रीमहादेवजीकी उपासना करते हुए केवल लोहचूर्ण भक्षण किया तब भगवान् शंकरने बारहवें वर्षमें प्रसन्न होकर उन्हें अभीष्ट वर दिया ॥ ३ ॥ सन्तोषयामास च तं यवनेशो ह्यनात्मजः ।
तद्योषित्सङ्गमाच्चास्य पुत्रोऽभूदलिसन्निभः ॥ ४ ॥ एक पुत्रहीन यवनराजने महर्षि गार्यकी अत्यन्त सेवाकर उन्हें सन्तुष्ट किया, उसकी स्त्रीके संगसे ही इनके एक भौरके समान कृष्णवर्ण बालक हुआ ॥ ४ ॥ तं कालयवनं नाम राज्ये स्वे यवनेश्वरः ।
अभिषिच्य वनं यातो वज्रग्रकठिनोरसम् ॥ ५ ॥ वह यवनराज उस कालयवन नामक बालकको, जिसका वक्षःस्थल बजके समान कठोर था, अपने राज्यपदपर अभिषिक्त कर स्वयं वनको चला गया ॥ ५ ॥ स तु वीर्यमदोन्मत्तः पृथिव्यां बलिनो नृपान् ।
अपृच्छन्नारदस्तस्मै कथयामास यादवान् ॥ ६ ॥ तदनन्तर वीर्यमदोन्मत्त कालयवनने नारदजीसे पूछा कि पृथिवीपर बलवान् राजा कौन-कौनसे हैं ? इसपर नारदजीने उसे यादवोंको ही सबसे अधिक बलशाली बतलाया ॥ ६ ॥ म्लेच्छकोटिसहस्राणां सहस्रैः सोऽभिसंवृतः ।
गजाश्वरथसम्पन्नैश्चकार परमोद्यमम् ॥ ७ ॥ यह सुनकर कालयवनने हजारों हाथी, घोड़े और रथोंके सहित सहस्रों करोड़ म्लेच्छसेनाको साथ ले बड़ी भारी तैयारी की ॥ ७ ॥ प्रययौ सोऽव्यवच्छिन्नं छिन्नयानो दिनेदिने ।
यादवान्प्रति सामर्षो मैत्रेय मथुरां पुरीम् ॥ ८ ॥ और यादवोंके प्रति क्रुद्ध होकर वह प्रतिदिन [हाथी, घोड़े आदिके थक जानेपर] उन वाहनोंका त्याग करता हुआ [अन्य वाहनोंपर चढ़कर] अविच्छिन्न-गतिसे मथुरापुरीपर चढ़ आया ॥ ८ ॥ कृष्णोऽपि चिन्तयामास क्षपितं यादवं बलम् ।
यवनेन रणे गम्यं मागधस्य भविष्यति ॥ ९ ॥ [एक ओर जरासन्धका आक्रमण और दूसरी ओर कालयवनकी चढ़ाई देखकर] श्रीकृष्णचन्द्रने सोचा"यवनोंके साथ युद्ध करनेसे क्षीण हुई यादव-सेना अवश्य ही मगधनरेशसे पराजित हो जायगी ॥ ९ ॥ मागधस्य बलं क्षीणं स कालयवनो बली ।
हन्तैतदेवमायातं यदूनां व्यसनं द्विधा ॥ १० ॥ और यदि प्रथम मगधनरेशसे लड़ते हैं तो उससे क्षीण हुई यादवसेनाको बलवान् कालयवन नष्ट कर देगा । हाय ! इस प्रकार यादवोपर [एक ही साथ] यह दो तरहकी आपत्ति आ पहुँची है ॥ १० ॥ तस्माद्दुर्गं करिष्यामि यदूनामरिदुर्जयम् ।
स्त्रियोऽपि यत्र युद्धेयुः किं पुनर्वृष्णिपुङ्गवाः ॥ ११ ॥ अतः मैं यादवोंके लिये एक ऐसा दुर्जय दुर्ग तैयार कराता हूँ जिसमें बैठकर वृष्णिश्रेष्ठ यादवोंकी तो बात ही क्या है, स्त्रियाँ भी युद्ध कर सकें ॥ ११ ॥ मयि मत्ते प्रमत्ते वा सुप्ते प्रवसितेऽपि वा ।
यादवाभिभवं दुष्टा मा कुर्वन्त्वरयोऽधिकाः ॥ १२ ॥ उस दुर्गमें रहनेपर यदि मैं मत्त, प्रमत्त (असावधान), सोया अथवा कहीं बाहर भी गया होऊँ तब भी, अधिक-से-अधिक दुष्ट शत्रुगण भी यादवोंको पराभूत न कर सकें" ॥ १२ ॥ इति सञ्चिन्त्य गोविन्दो योजनानां महोदधिम् ।
ययाचे द्वादशपुरीं द्वारकां तत्र निर्ममे ॥ १३ ॥ ऐसा विचारकर श्रीगोविन्दने समुद्रसे बारह योजन भूमि माँगी और उसमें द्वारकापुरी निर्माण की ॥ १३ ॥ महोद्यानां महावप्रां तटाकशतशोभिताम् ।
प्रासादगृहसम्बाधामिन्द्रस्येवामरावतीम् ॥ १४ ॥ जो इन्द्रकी अमरावतीपुरीके समान महान् उद्यान, गहरी खाईं, सैकड़ों सरोवर तथा अनेकों महलोंसे सुशोभित थी ॥ १४ ॥ मथुरावासिनं लोकं तत्रानीय जनार्दनः ।
आसन्ने कालयवने मथुरां च स्वयं ययौ ॥ १५ ॥ कालयवनके समीप आ जानेपर श्रीजनार्दन सम्पूर्ण मथुरानिवासियोंको द्वारकामें ले आये और फिर स्वयं मथुरा लौट गये ॥ १५ ॥ बहिरावासिते सैन्ये मथुराया निरायुधः ।
निर्जगाम च गोविन्दो ददर्श यवनश्च तम् ॥ १६ ॥ जब कालयवनकी सेनाने मथुराको घेर लिया तो श्रीकृष्णचन्द्र बिना शस्त्र लिये मधुरासे बाहर निकल आये । तब यवनराज कालयवनने उन्हें देखा ॥ १६ ॥ स ज्ञात्वा वासुदेवं तं बाहुप्रहरणं नृपः ।
अनुयातो महायोगी चेतोभिः प्राप्यते न यः ॥ १७ ॥ महायोगीश्वरोंका चित्त भी जिन्हें प्राप्त नहीं कर पाता उन्हीं वासुदेवको केवल बाहुरूप शस्त्रोंसे ही युक्त [अर्थात् खाली हाथ] देखकर वह उनके पीछे दौड़ा ॥ १७ ॥ तेनानुयातः कृष्णोऽपि प्रविवेश महागुहाम् ।
यत्र शेते महावीर्यो मुचुकुन्दो नरेश्वरः ॥ १८ ॥ कालयवनसे पीछा किये जाते हुए श्रीकृष्णचन्द्र उस महा गुहामें घुस गये जिसमें महावीर्यशाली राजा मुचुकुन्द सो रहा था ॥ १८ ॥ सोऽपि प्रविष्टो यवनो दृष्ट्वा शय्यागतं नृपम् ।
पादेन ताडयामास मत्वा कृष्णं सुदुर्मतिः ॥ १९ ॥ उस दुर्मति यवनने भी उस गुफामें जाकर सोये हुए राजाको कृष्ण समझकर लात मारी ॥ १९ ॥ उत्थाय मुचुकुन्दोऽपि ददर्श यवनं नृपः ॥ २० ॥
दृष्टमात्रश्च तेनासौ जज्वाल यवनोग्निना । तत्क्रोधजेन मैत्रेय भस्मीभूतश्च तत्क्षणात् ॥ २१ ॥ उसके लात मारनेसे उठकर राजा मुचुकुन्दने उस यवनराजको देखा । हे मैत्रेय ! उनके देखते ही वह यवन उसकी क्रोधाग्निसे जलकर भस्मीभूत हो गया ॥ २०-२१ ॥ स हि देवासुरे युद्धे गतो हत्वा महासुरान् ।
निद्रार्तः सुमहाकालं निद्रां वव्रे वरं सुरान् ॥ २२ ॥ पूर्वकालमें राजा मुचुकुन्द देवताओंकी ओरसे देवासुर संग्राममें गये थे; असुरोंको मार चुकनेपर अत्यन्त निद्रालु होनेके कारण उन्होंने देवताओंसे बहुत समयतक सोनेका वर माँगा था ॥ २२ ॥ प्रोक्तश्च देवैः संसुप्तं यस्त्वामुत्थापयिष्यति ।
देहजेनाग्निना सद्यः स तु भस्मीभविष्यति ॥ २३ ॥ उस समय देवताओंने कहा था कि तुम्हारे शयन करनेपर तुम्हें जो कोई जगावेगा वह तुरन्त ही अपने शरीरसे उत्पन्न हुई अग्निसे जलकर भस्म हो जायगा ॥ २३ ॥ एवं दग्ध्वा स तं पापं दृष्ट्वा च मधुसूदनम् ।
कस्त्वमित्याह सोऽप्याह जातोहं शशिनः कुले । वसुदेवस्य तनयो यदोर्वंशसमुद्भवः ॥ २४ ॥ इस प्रकार पापी कालयवनको दग्ध कर चुकनेपर राजा मुचुकुन्दने श्रीमधुसूदनको देखकर पूछा-'आप कौन हैं ?' तब भगवान्ने कहा-"मैं चन्द्रवंशके अन्तर्गत यदुकुलमें वसुदेवजीके पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ हूँ" ॥ २४ ॥ मुचुकुन्दोऽपि तत्रासौ वृद्धगार्ग्यवचोऽस्मरत् ॥ २५ ॥
संस्मृत्य प्रणिपत्यैनं सर्वं सर्वेश्वरं हरिम् । प्राह ज्ञातो भवान्विष्णोरंशस्त्वं परमेश्वर ॥ २६ ॥ तब मुचुकुन्दको वृद्ध गार्य मुनिके वचनोंका स्मरण हुआ । उनका स्मरण होते ही उन्होंने सर्वरूप सर्वेश्वर श्रीहरिको प्रणाम करके कहा-"हे परमेश्वर ! मैंने आपको जान लिया है; आप साक्षात् भगवान् विष्णुके अंश हैं ॥ २५-२६ ॥ पुरा गार्ग्येण कथितमष्टाविंशतिमे युगे ।
द्वापरान्ते हरेर्जन्म यदुवंशे भविष्यति ॥ २७ ॥ पूर्वकालमें गाम्यं मुनिने कहा था कि अट्ठाईसवें युगों द्वापरके अन्तमें यदुकुलमें श्रीहरिका जन्म होगा ॥ २७ ॥ स त्वं प्राप्तो न सन्देहो मर्त्यानामुपकारकृत् ॥ २८ ॥
निस्सन्देह आप भगवान् विष्णुके अंश हैं और मनुष्योंके उपकारके लिये ही अवतीर्ण हुए हैं तथापि मैं आपके महान् तेजको सहन करने में समर्थ नहीं हूँ ॥ २८ ॥ तथाहि सुमहत्तेजो नालं सोढुमहं तव ।
तथाहि सजलाम्भोदनादधीरतरं तव । वाक्यं नमति चैवोर्वी युष्मत्पादप्रपीडिता ॥ २९ ॥ हे भगवन् ! आपका शब्द सजल मेघकी घोर गर्जनाके समान अति गम्भीर है तथा आपके चरणोंसे पीडिता होकर पृथिवी झुकी हुई है । ॥ २९ ॥ देवासुरमहायुद्धे दैत्यसैन्यमहाभटाः ।
न सेहुर्मम ते जस्ते त्वत्तेजो न सहाम्यहम् ॥ ३० ॥ हे देव ! देवासुरमहासंग्राममें दैत्य-सेनाके बड़े-बड़े योद्धागण भी मेरा तेज नहीं सह सके थे और मैं आपका तेज सहन नहीं कर सकता ॥ ३० ॥ संसारपतितस्यैको जन्तोस्त्वं शरणं परम् ।
प्रसीद त्वं प्रपन्नार्तिहर नाशय मेऽशुभम् ॥ ३१ ॥ संसारमें पतित जीवोंके एकमात्र आप ही परम आश्रय हैं । हे शरणागतोंका दुःख दूर करनेवाले ! आप प्रसन्न होइये और मेरे अमंगलोंको नष्ट कीजिये ॥ ३१ ॥ त्वं पयो निधयः शैलसरितस्त्वं वनानि च ।
मेदिनी गगनं वायुरापोग्निस्त्वं तथा मनः ॥ ३२ ॥ आप ही समुद्र हैं, आप ही पर्वत हैं, आप ही नदियाँ हैं और आप ही वन हैं तथा आप ही पृथिवी, आकाश, वायु, जल, अग्नि और मन हैं ॥ ३२ ॥ बुद्धिरव्याकृतप्राणाः प्राणेशस्त्वं तथा पुमान् ।
पुंसः परतरं यच्च व्याप्य जन्म विकारवत् ॥ ३३ ॥ आप ही बुद्धि, अव्याकृत, प्राण और प्राणोंका अधिष्ठाता पुरुष हैं; तथा पुरुषसे भी परे जो व्यापक और जन्म तथा विकारसे शून्य तत्त्व है वह भी आप ही हैं ॥ ३३ ॥ शब्दादिहीनमजरममेयं क्षयवर्जितम् ।
अवृद्धिनाशं तद्ब्रह्म त्वमाद्यन्तविवर्जितम् ॥ ३४ ॥ जो शब्दादिसे रहित, अजर, अमेय, अक्षय और नाश तथा वृद्धिसे रहित है, वह आद्यन्तहीन ब्रह्म भी आप ही हैं ॥ ३४ ॥ त्वत्तोऽमराः सपितरो यक्षगन्धर्वकिन्नराः ।
सिद्धाश्चाप्सरसस्त्वत्तो मनुष्याः पशवः खगाः ॥ ३५ ॥ सरीसृपा मृगाः सर्वे त्वत्तः सर्वे महीरुहाः । यच्च भूतं भविष्यं च किञ्चिदत्र चराचरम् ॥ ३६ ॥ आपहीसे देवता, पितृगण, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, सिद्ध और अप्सरागण उत्पन्न हुए हैं । आपहीसे मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप और मृग आदि हुए हैं तथा आपहीसे सम्पूर्ण वृक्ष और जो कुछ भी भूत-भविष्यत् चराचर जगत् है वह सब हुआ है ॥ ३५-३६ ॥ मूर्तामूर्तं तथा चापि स्थूलं सूक्ष्मतरं तथा ।
तत्सर्वं त्वं जगत्कर्ता नास्ति किञ्चित्त्वया विना ॥ ३७ ॥ हे प्रभो ! मूर्तअमूर्त, स्थूल-सूक्ष्म तथा और भी जो कुछ है वह सब आप जगत्कर्ता ही हैं,आपसे भिन्न और कुछ भी नहीं है ॥ ३७ ॥ मया संसारचक्रेऽस्मिन्भ्रमता भगवन् सदा ।
तापत्रयाभिभूतेन न प्राप्ता निर्वृतिः क्वचित् ॥ ३८ ॥ हे भगवन् ! तापत्रयसे अभिभूत होकर सर्वदा इस संसार-चक्रमें भ्रमण करते हुए मुझे कभी शान्ति प्राप्त नहीं हुई ॥ ३८ ॥ दुःखान्येव सुखानीति मृगतृष्णाजलाशया ।
मया नाथ गृहीतानि तानि तापाय मेऽभवन् ॥ ३९ ॥ हे नाथ ! जलकी आशासे मृगतृष्णाके समान मैंने दुःखोंको ही सुख समझकर ग्रहण किया था; परन्तु वे मेरे सन्तापके ही कारण हुए ॥ ३९ ॥ राज्यमुर्वी बलं कोशो मित्रपक्षस्तथात्मजाः ।
भार्या भृत्य जनो ये च शब्दाद्य विषयाः प्रभो ॥ ४० ॥ सुखबुद्ध्या मया सर्वं गृहीतमिदमव्ययम् । परिणामे तदेवेश तापात्मकमभून्मम ॥ ४१ ॥ हे प्रभो ! राज्य, पृथिवी, सेना, कोश, मित्रपक्ष, पुत्रगण, स्त्री तथा सेवक आदि और शब्दादि विषय इन सबको मैंने अविनाशी तथा सुख-बुद्धिसे ही अपनाया था; किन्तु हे ईश ! परिणाममें वे ही दुःखरूप सिद्ध हुए ॥ ४०-४१ ॥ देवलोकगतिं प्राप्तो नाथ देवगणोऽपि हि ।
मत्तः साहाय्यकामोभूच्छाश्वती कुत्र निर्वृतिः ॥ ४२ ॥ हे नाथ ! जब देवलोक प्राप्त करके भी देवताओंको मेरी सहायताकी इच्छा हुई तो उस (स्वर्गलोक)-में भी नित्य-शान्ति कहाँ है ? ॥ ४२ ॥ त्वामनाराध्य जगतां सर्वेषां प्रभवास्पदम् ।
शाश्वती प्राप्यते केन परमेश्वर निर्वृतिः ॥ ४३ ॥ हे परमेश्वर ! सम्पूर्ण जगत्की उत्पत्तिके आदि-स्थान आपकी आराधना किये बिना कौन शाश्वत शान्ति प्राप्त कर सकता है ? ॥ ४३ ॥ त्वन्मायामूढमनसो जन्ममृत्युजरादिकान् ।
अवाप्य तापान्पश्यन्ति प्रेतराजमनन्तरम् ॥ ४४ ॥ हे प्रभो ! आपकी मायासे मूद हुए पुरुष जन्म, मृत्यु और जरा आदि सन्तापोंको भोगते हुए अन्तमें यमराजका दर्शन करते हैं ॥ ४४ ॥ ततो निजक्रियासूति नरकेष्वतिदारुणम् ।
प्राप्नुवन्ति नरा दुःखमस्वरूपविदस्तव ॥ ४५ ॥ आपके स्वरूपको न जाननेवाले पुरुष नरकोंमें पड़कर अपने कमौके फलस्वरूप नाना प्रकारके दारुण क्लेश पाते हैं ॥ ४५ ॥ अहमत्यन्तविषयी मोहितस्तव मायया ।
ममत्वगर्वगर्तान्तर्भ्रमामि परमेश्वर ॥ ४६ ॥ हे परमेश्वर ! मैं अत्यन्त विषयी हूँ और आपकी मायासे मोहित होकर ममत्वाभिमानके गड्डेमें भटकता रहा हूँ ॥ ४६ ॥ सोऽहं त्वां शरणमपारमप्रमेयं
सम्प्राप्तः परमपदं यतो न किञ्चित् । संसारभ्रमपरितापतप्तचेता निर्वाणे परिणतधाम्नि साभिलाषः ॥ ४७ ॥ वही मैं आज अपार और अप्रमेय परमपदरूप आप परमेश्वरको शरणमें आया हूँ जिससे भिन्न दूसरा कुछ भी नहीं है और संसारभ्रमणके खेदसे खिन्न-चित्त होकर मैं निरतिशय तेजोमय निर्वाणस्वरूप आपका ही अभिलाषी हूँ" ॥ ४७ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणेच पञ्चमेंऽशे त्रयोविंशोऽध्यायः (२३)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥ |