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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्थं स्तुतस्तदा तेन मुचुकुन्देन धीमता । प्राहेशः सर्वभूतानामनादिनिधनो हरिः ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-परम बुद्धिमान् राजा मुचुकुन्दके इस प्रकार स्तुति करनेपर सर्वभूतोंके ईश्वर अनादिनिधन भगवान् हरि बोले ॥ १ ॥ श्रीभगवानुवाच
यथाभिवाञ्छितान्दिव्यान्गच्छ लोकान्नराधिप । अव्याहतपरैश्वर्यो मत्प्रसादोपबृंहितः ॥ २ ॥ श्रीभगवान्ने कहा-हे नरेश्वर ! तुम अपने अभिमत दिव्य लोकोंको जाओ; मेरी कृपासे तुम्हें अव्याहत परम ऐश्वर्य प्राप्त होगा ॥ २ ॥ भुक्त्वा दिव्यन्महाभोगान्भविष्यसि महाकुले ।
जातिस्मरो मत्प्रसादात्ततोमोक्षमवाप्स्यसि ॥ ३ ॥ वहाँ अत्यन्त दिव्य भोगोंको भोगकर तुम अन्त में एक महान् कुलमें जन्म लोगे, उस समय तुम्हें अपने पूर्वजन्मका स्मरण रहेगा और फिर मेरी कृपासे तुम मोक्षपद प्राप्त करोगे ॥ ३ ॥ श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तः प्रणिपत्येशं जगतामच्युतं नृपः । गुहामुखाद्विनिष्क्रान्ततः स ददर्शाल्पकान्नरान् ॥ ४ ॥ श्रीपराशरजी बोले-भगवान्के इस प्रकार कहनेपर राजा मुचुकुन्दने जगदीश्वर श्रीअच्युतको प्रणाम किया और गुफासे निकलकर देखा कि लोग बहुत छोटेछोटे हो गये हैं ॥ ४ ॥ ततः कलियुगं मत्वा प्राप्तं तप्तुं नृपस्तपः ।
नरनारायणस्थानं प्रययौ गन्धमादनम् ॥ ५ ॥ उस समय कलियुगको वर्तमान समझकर राजा तपस्या करनेके लिये श्रीनरनारायणके स्थान गन्धमादनपर्वतपर चले गये ॥ ५ ॥ कृष्णोपि घातयित्वारिमुपायेन हि तद्बलम् ।
जग्राह मथुरामेत्य हस्त्यश्वस्यन्दनोज्ज्वलम् ॥ ६ ॥ आनीय चोग्रसेनाय द्वारवत्वां न्यवेदयत् । पराभिभवनिःशङ्कं बभूव च यदोः कुलम् ॥ ७ ॥ इस प्रकार कृष्णचन्द्रने उपायपूर्वक शत्रुको नष्टकर फिर मथुराम आ उसकी हाथी, घोड़े और स्थादिसे सुशोभित सेनाको अपने वशीभूत किया और उसे द्वारकामें लाकर राजा उग्रसेनको अर्पण कर दिया । तबसे यदुवंश शत्रुओंके दमनसे नि:शंक हो गया ॥ ६-७ ॥ बलदेवोऽपि मैत्रेय प्रशान्ताखिलविग्रहः ।
ज्ञातिदर्शनसोत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥ ८ ॥ हे मैत्रेय ! इस सम्पूर्ण विग्रहके शान्त हो जानेपर बलदेवजी अपने बान्धवोंके दर्शनको उत्कण्ठासे नन्दजीके गोकुलको गये ॥ ८ ॥ ततो गोपाश्च गोपीश्च यथा पूर्वममित्रजित् ।
तथैवाभ्यवदत्प्रेम्णा बहुमानपुरःसरम् ॥ ९ ॥ वहाँ पहुँचकर शत्रुजित् बलभद्रजीने गोप और गोपियोंका पहलेहीकी भाँति अति आदर और प्रेमके साथ अभिवादन किया ॥ ९ ॥ स कैश्चित् सम्परिष्वक्तः कांश्चिच्च परिषस्वजे ।
हास्यं चक्रे समं कैश्चिद्गोपैर्गोपीजनैस्तथा ॥ १० ॥ किसीने उनका आलिंगन किया और किसीको उन्होंने गले लगाया तथा किन्हीं गोप और गोपियोंके साथ उन्होंने हास-परिहास किया ॥ १० ॥ प्रियाण्यनेकान्यवदन् गोपास्तत्र हलायुधम् ।
गोप्यश्च प्रेमकुपिताः प्रोचुःसेर्ष्यमथापराः ॥ ११ ॥ गोपोंने बलरामजीसे अनेकों प्रिय वचन कहे तथा गोपियोंमेंसे कोई प्रणयकुपित होकर बोली और किन्होंने उपालम्भयुक्त बातें की ॥ ११ ॥ गोप्यः पप्रच्छुरपरा नागरीजनवल्लभः ।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णश्चलप्रेमलवात्मकः ॥ १२ ॥ किन्हीं अन्य गोपियोंने पूछा-चंचल एवं अल्प प्रेम करना ही जिनका स्वभाव है, वे नगर-नारियोंके प्राणाधार कृष्ण तो आनन्दमें हैं न ? ॥ १२ ॥ अस्मच्चेष्टामपहसन्न कच्चित्पुरयोषिताम् ।
सौभाग्यमानमधिकं करोति क्षणसौहृदः ॥ १३ ॥ वे क्षणिक स्नेहवाले नन्दनन्दन हमारी चेष्टाओंका उपहास करते हुए क्या नगरकी महिलाओंके सौभाग्यका मान नहीं बढ़ाया करते ? ॥ १३ ॥ कच्चित्स्मरति नः कृष्णो गीतानुगमनं कलम् ।
अप्यसौ मातरं द्रष्टु सकृदप्यागमिष्यति ॥ १४ ॥ क्या कृष्णचन्द्र कभी हमारे गीतानुयायी मनोहर स्वरका स्मरण करते हैं ? क्या वे एक बार अपनी माताको भी देखनके लिये यहाँ आवेंगे ? ॥ १४ ॥ अथवा किं तदालापैः क्रियन्तामपराः कथाः ।
यस्यास्मभिर्विना तेन विनास्माकं भविष्यति ॥ १५ ॥ अथवा अब उनकी बात करनेसे हमें क्या प्रयोजन है, कोई और बात करो । जब उनकी हमारे बिना निभ गयी तो हम भी उनके बिना निभा ही लेंगी ॥ १५ ॥ पिता माता तथा भ्राता भर्ता बन्धुजनश्च किम् ।
सन्त्यक्तस्तत्कृतेस्माभिरकृतज्ञध्वजो हि सः ॥ १६ ॥ क्या माता, क्या पिता, क्या बन्धु, क्या पति और क्या कुटुम्बके लोग ? हमने उनके लिये सभीको छोड़ दिया, किन्तु वे तो अकृतज्ञोंकी ध्वजा ही निकले ॥ १६ ॥ तथापि कच्चिदालापमिहागमनसंश्रयम् ।
करोति कृष्णो वक्तव्यं भवता राम नानृतम् ॥ १७ ॥ तथापि बलरामजी ! सच-सच बतलाइये क्या कृष्ण कभी यहाँ आनेके विषयमें भी कोई बातचीत करते हैं ? ॥ १७ ॥ दामोदरोऽसौ गोविन्दः पुरस्त्रीसक्तमानसः ।
अपेतप्रीतिरस्मासु दुर्दर्शः प्रतिभाति नः ॥ १८ ॥ हमें ऐसा प्रतीत होता है कि दामोदर कृष्णका चित्त नागरी-नारियोंमें फंस गया है । हममें अब उनकी प्रीति नहीं है, अतः अब हमें तो उनका दर्शन दुर्लभ ही जान पड़ता है ॥ १८ ॥ श्रीपराशर उवाच
आमन्त्रितश्च कृष्णेति पुनर्दामोदरेति च । जहसुःसस्वरं गोप्यो हरिणा हृतचेतसः ॥ १९ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर श्रीहरिने जिनका चित हर लिया है, वे गोपियाँ बलरामजीको कृष्ण और दामोदर कहकर सम्बोधन करने लगी और फिर उच्चस्वरसे हँसने लगीं ॥ १९ ॥ सन्देशैः साममधुरैः प्रेमगर्भैरगर्वितैः ।
रामेणाश्वासिता गोप्यः कृष्णस्यातिमनोहरैः ॥ २० ॥ तब बलभद्रजीने कृष्णचन्द्रका अति मनोहर और शान्तिमय, प्रेमगधित और गर्वहीन सन्देश सुनाकर गोपियोंको सान्त्वना दी ॥ २० ॥ गोपैश्च पूर्ववद्रामः परिहासमनोहराः ।
कथाश्चकार रेमे च सह तैर्व्रजभूमिषु ॥ २१ ॥ तथा गोपोंके साथ हास्य करते हुए उन्होंने पहलेकी भाँति बहुत-सी मनोहर बातें की और उनके साथ व्रजभूमिमें नाना प्रकारकी लीलाएँ करते रहे ॥ २१ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्विंशोध्यायः (२४)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे चतुर्विंशोऽध्यायः ॥ २४ ॥ |