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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ सप्तविंशोऽध्यायः ॥

श्रीमैत्रेय उवाच
शम्बरेण हृतो वीरः प्रद्युम्नः स कथं मुने ।
शम्बरः स महावीर्यः प्रद्युम्नेन कथं हतः ॥ १ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-हे मुने ! वीरवर प्रद्युम्नको शम्बरासुरने कैसे हरण किया था ? और फिर उस महाबली शम्बरको प्रद्युम्नने कैसे मारा ? ॥ १ ॥

यस्तेनापहृतः पूर्वं स कथं विजघान तम् ।
एतद्विस्तरतः श्रोतुमिच्छामि सरलं गुरो ॥ २ ॥
जिसको पहले उसने हरण किया था उसीने पीछे उसे किस प्रकार मार डाला ? हे गुरो ! मैं यह सम्पूर्ण प्रसंग विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥

श्रीपराशर उवाच
षष्ठेह्नि जातमात्रं तु प्रद्युम्नं सूतिकागृहात् ।
ममैष हन्तेति मुने हृतवान्कालशम्बरः ॥ ३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मुने ! कालके समान विकराल शम्बरासुरने प्रद्युम्नको, जन्म लेनेके छठे ही दिन 'यह मेरा मारनेवाला है' ऐसा जानकर सूतिकागृहसे हर लिया ॥ ३ ॥

हृत्वा चिक्षेप चैवैनं ग्राहोग्रे लवणार्णवे ।
कल्लोलजनितावर्ते सुघोरे मकारालये ॥ ४ ॥
उसको हरण करके शम्बरासुरने लवणसमुद्रमें डाल दिया, जो तरंगमालाजनित आवतोंसे पूर्ण और बड़े भयानक मकरोंका घर है ॥ ४ ॥

पातितं तत्र चैवैको मत्स्यो जग्राह बालकम् ।
न ममार च तस्यापि जठराग्निप्रदीपितः ॥ ५ ॥
वहाँ फेंके हुए उस बालकको एक मत्स्यने निगल लिया, किन्तु वह उसकी जठराग्निसे जलकर भी न मरा ॥ ५ ॥

मत्स्यबन्धैश्च मत्स्योऽसौ मत्स्यैरन्यैः सह द्विज ।
घातितोऽसुरवर्याय शम्बराय निवेदितः ॥ ६ ॥
कालान्तरमें कुछ मढेरोंने उसे अन्य मछलियोंके साथ अपने जालमें फंसाया और असुर श्रेष्ठ शम्बरको निवेदन किया ॥ ६ ॥

तस्य माया वती नामपत्‍नी सर्वगृहेश्वरी ।
कारयामास सूदानामाधिपत्यमनिन्दिता ॥ ७ ॥
उसकी नाममात्रकी पत्नी मायावती सम्पूर्ण अन्तःपुरको स्वामिनी थी और वह सुलक्षणा सम्पूर्ण सूदों (रसोइयों) का आधिपत्य करती थी ॥ ७ ॥

दारिते मत्स्यजठरे सा ददर्शातिशोभनम् ।
कुमारं मन्मथतरोर्दग्धस्य प्रथमाङ्‍कुरम् ॥ ८ ॥
उस मछलीका पेट चीरते ही उसमें एक अति सुन्दर बालक दिखायी दिया जो दग्ध हुए कामवृक्षका प्रथम अंकुर था ॥ ८ ॥

कोऽयं कथमयं मत्स्यजठरे प्रविवेशितः ।
इत्येवं कौतुपाविष्टां तन्वीं प्राहाथ नारदः ॥ ९ ॥
'तब यह कौन है और किस प्रकार इस मछलीके पेटमें डाला गया' इस प्रकार अत्यन्त आश्चर्यचकित हुई उस सुन्दरीसे देवर्षि नारदने आकर कहा- ॥ ९ ॥

अयं समस्तजगतः स्थितिसंहारकारिणः ।
शम्बरेण हृतो विष्णोस्तनयः सूतिकागृहात् ॥ १० ॥
क्षिप्तःसमुद्रे मत्स्येन निगीर्णस्ते गृहं गतः ।
नररत्‍नमिदं सुभ्रु विस्रब्धा परिपालय ॥ ११ ॥
"हे सुन्दर भृकुटिबाली ! यह सम्पूर्ण जगत्के स्थिति और संहारकर्ता भगवान् विष्णुका पुत्र है; इसे शम्बरासुरने सूतिकागृहसे चुराकर समुद्र में फेंक दिया था । वहाँ इसे यह मत्स्य निगल गया और अब इसीके द्वारा यह तेरे घर आ गया है । तू इस नररत्नका विश्वस्त होकर पालन कर" ॥ १०-११ ॥

श्रीपराशर उवाच
नारदेनैवमुक्ता सा पालयामास तं शिशुम् ।
बाल्यादेवातिरागेण रूपातिशयमोहिता ॥ १२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-नारदजीके ऐसा कहनेपर मायावतीने उस बालककी अतिशय सुन्दरतासे मोहित हो बाल्यावस्थासे ही उसका अति अनुरागपूर्वक पालन किया ॥ १२ ॥

स यदा यौवनाभोगभूषितोऽभून्महामते ।
साभिलाषा तदा सापि बभूव गजगामिनि ॥ १३ ॥
हे महामते ! जिस समय वह नवयौवनके समागमसे सुशोभित हुआ तब वह गजगामिनी उसके प्रति कामनायुक्त अनुराग प्रकट करने लगी ॥ १३ ॥

मायावती ददौ तस्मै मायाः सर्वा महामुने ।
प्रद्युम्नायानुरागान्धा तत्र्यस्तहृदयेक्षणा ॥ १४ ॥
हे महामुने ! जो अपना हृदय और नेत्र प्रद्युम्नमें अर्पित कर चुकी थी उस मायावतीने अनुरागसेसे अन्धी होकर उसे सब प्रकारकी माया सिखा दो ॥ १४ ॥

प्रसाज्जन्तीं तु तां प्राह स कार्ष्णिः कमलेक्षणाम् ।
मातृत्वमपहायाद्य किमेवं वर्तसेऽन्यथा ॥ १५ ॥
इस प्रकार अपने ऊपर आसक्त हुई उस कमललोचनासे कृष्णनन्दन प्रद्युम्नने कहा-"आज तुम मातृभावको छोड़कर यह अन्य प्रकारका भाव क्यों प्रकट करती हो ?" ॥ १५ ॥

सा तस्मै कथयामासन पुत्रस्त्वं ममेति वै ।
तनयं त्वामयं विष्णोर्हृतवान्कालशम्बरः ॥ १६ ॥
क्षिप्तः समुद्रे मत्स्यस्य सम्प्राप्तो जठरान्मया ।
सा हि रोदिति ते माता कान्ताद्याप्यतिवत्सला ॥ १७ ॥
तब मायावतीने कहा-"तुम मेरे पुत्र नहीं हो, तुम भगवान् विष्णुके तनय हो । तुम्हें कालशम्बरने हरकर समुद्र में फेंक दिया था; तुम मुझे एक मत्स्यके उदरमें मिले हो । हे कान्त ! आपकी पुत्रवत्सला जननी आज भी रोती होगी" ॥ १६-१७ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तः शम्बरं युद्धे प्रद्युम्नः स समाह्वयत् ।
क्रोधाकुलीकृतमना युयुधे च महाबलः ॥ १८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-मायावतीके इस प्रकार कहनेपर महाबलवान् प्रद्युम्नजीने क्रोधसे विह्वल हो शम्बरासुरको युद्धके लिये ललकारा और उससे युद्ध करने लगे ॥ १८ ॥

हत्वा सैन्यमशेषं तु तस्य दैत्यस्य यादवः ।
सप्तमाया व्यतिक्रम्य मायां प्रयुयुजेऽष्टमीम् ॥ १९ ॥
यादव श्रेष्ठ प्रद्युम्नजीने उस दैत्यकी सम्पूर्ण सेना मार डाली और उसकी सात मायाओंको जीतकर स्वयं आठवीं मायाका प्रयोग किया ॥ १९ ॥

तया जघान तं दैत्यं मायया कालशम्बरम् ।
उत्पत्त्य च तया सार्धमाजगाम पितुः पुरम् ॥ २० ॥
उस मायासे उन्होंने दैत्यराज कालशम्बरको मार डाला और मायावतीके साथ [विमानद्वारा] उड़कर आकाशमार्गसे अपने पिताके नगरमें आ गये ॥ २० ॥

अन्तःपुरे निपतितं मायावत्या समन्वितम् ।
तं दृष्ट्‍वा कृष्णसंकल्पा बभूवुः कृष्णयोषितः ॥ २१ ॥
मायावतीके सहित अन्तःपुरमें उतरनेपर श्रीकृष्णचन्द्रकी रानियोंने उन्हें देखकर कृष्ण ही समझा ॥ २१ ॥

रुक्मिणी साभवत्प्रेम्णा सास्रदृष्टिरनिन्दिता ।
धन्याया खल्वयं पुत्रो वर्तते नवयौवने ॥ २२ ॥
किन्तु अनिन्दिता रुक्मिणीके नेत्रों में प्रेमवश आँसू भर आये और वे कहने लगीं-"अवश्य ही यह नवयौवनको प्राप्त हुआ किसी बड़भागिनीका पुत्र है ॥ २२ ॥

अस्मिन्वयसि पुत्रो मे प्रद्युम्नो यदि जीवति ।
सभाग्या जननी वत्स सा त्वया का विभीषिता ॥ २३ ॥
यदि मेरा पुत्र प्रद्युम्न जीवित होगा तो उसकी भी यही आयु होगी । हे वत्स ! तू ठीक-ठीक बता तूने किस भाग्यवती जननीको विभूषित किया है ? ॥ २३ ॥

अथ वा यादृशः स्नेहो मम यादृग्वपुस्तव ।
हरेरपत्यं सुव्यक्तं भवान्वत्स भविष्यति ॥ २४ ॥
अथवा, बेटा ! जैसा मुझे तेरे प्रति स्नेह हो रहा है और जैसा तेरा स्वरूप है, उससे मुझे ऐसा भी प्रतीत होता है कि तू श्रीहरिका ही पुत्र है" ॥ २४ ॥

श्रीपराशर उवाच
एतस्मिन्नन्तरे प्राप्तः सह कृष्णेन नारदः ।
अन्तःपुरचरां देवीं रुक्मिणीं प्राह हर्षयन् ॥ २५ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इसी समय श्रीकृष्णचन्द्रके साथ वहाँ नारदजी आ गये । उन्होंने अन्तःपुरनिवासिनी देवी रुक्मिणीको आनन्दित करते हुए कहा- ॥ २५ ॥

एष ते तनयः सुभ्रु हत्वा शम्बरमागतः ।
हृतो येनाभवद्‍बालो भवत्याः सूतिकागृहात् ॥ २६ ॥
"हे सुध ! यह तेरा ही पुत्र है । यह शम्बरासुरको मारकर आ रहा है, जिसने कि इसे बाल्यावस्थामें सूतिकागृहसे हर लिया था ॥ २६ ॥

इयं मायावती भार्या तनयस्यास्य ते सती ।
शम्बरस्य न भार्येयं श्रूयतामत्र कारणम् ॥ २७ ॥
यह सती मायावती भी तेरे पुत्रकी ही स्त्री है । यह शम्बरासुरकी पत्नी नहीं है । इसका कारण सुन ॥ २७ ॥

मन्मथे तु गते नाशं तदुद्‍भवपरयणा ।
शम्बरं मोहयामास मायारूपेण रूपिणी ॥ २८ ॥
पूर्वकालमें कामदेवके भस्म हो जानेपर उसके पुनर्जन्मकी प्रतीक्षा करती हुई इसने अपने मायामयरूपसे शम्बरासुरको मोहित किया था ॥ २८ ॥

विहाराद्युपभोगेषु रूपं मायामयं शुभम् ।
दर्शयामास दैत्यस्य तस्येयं मदिरेक्षणा ॥ २९ ॥
यह मत्तविलोचना उस दैत्यको विहारादि उपभोगोंके समय अपने अति सुन्दर मायामय रूप दिखलाती रहती थी ॥ २९ ॥

कामोऽवतीर्णः पुत्रस्ते तस्येयं दयिता रतिः ।
विशङ्‍का नात्र कर्तव्या स्नुषेयं तव शोभने ॥ ३० ॥
कामदेवने ही तेरे पुत्ररूपसे जन्म लिया है और यह सुन्दरी उसकी प्रिया रति ही है । हे शोभने ! यह तेरी पुत्रवधू है, इसमें तू किसी प्रकारकी विपरीत शंका न कर" ॥ ३० ॥

ततो हर्षसमाविष्टौ रुक्मिणीकेशवौ तदा ।
नगरी च समस्ता सा साधुसाध्वित्यभाषत ॥ ३१ ॥
यह सुनकर रुक्मिणी और कृष्णको अतिशय आनन्द हुआ तथा समस्त द्वारकापुरी भी 'साधु-साधु' कहने लगी ॥ ३१ ॥

चिरं नष्टेन पुत्रेण सङ्‍गतां प्रेक्ष्य रुक्मिणीम् ।
अवाप विस्मयं सर्वो द्वारवत्यां तदा जनः ॥ ३२ ॥
उस समय चिरकालसे खोये हुए पुत्रके साथ रुक्मिणीका समागम हुआ देख द्वारकापुरीके सभी नागरिकोंको बड़ा आश्चर्य हुआ ॥ ३२ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे सप्तविंशोध्यायः (२७)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चवरण सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७ ॥

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