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॥ विष्णुपुराणम् ॥ पञ्चमः अंशः ॥ अष्टाविंशोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
चारुदेष्णं सुदेष्णं च चारुदेहं च वीर्यवान् । सुषेणं चारुगुप्तं च भद्रचारुं तथा परम् ॥ १ ॥ चारुविन्दं सुचारुं च चारुं च बलिनां वरम् । रुक्मिण्यजनयत्पुत्रान्कन्यां चारुमतीं तथा ॥ २ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! रुक्मिणीके [प्रद्युम्नके अतिरिक्त] चारुदेष्ण, सुदेष्ण, वीर्यवान्, चारुदेह, सुषेण, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुविन्द, सुचारु और बलवानोंमें श्रेष्ठ चारु नामक पुत्र तथा चारुमती नामकी एक कन्या हुई ॥ १-२ ॥ अन्याश्च भार्याः कृष्णस्य बभूवुः सप्त शोभनाः ।
कालिदी मित्रविन्दा च सत्या चाग्नजिती तथा ॥ ३ ॥ देवी जाम्बवती चापि रोहिणी कामरूपिणी । मद्रराजसुता चान्या सुशीला शीलमण्डना ॥ ४ ॥ सत्राजिती सत्यभामा लक्ष्मणा चारुहासिनी । षोडशासन् सहस्राणि स्त्रीणामन्यानि चक्रिणः ॥ ५ ॥ रुक्मिणीके अतिरिक्त श्रीकृष्णचन्द्रके कालिन्दी, मित्रविन्दा, नग्नजित्की पुत्री सत्या, जाम्बवान्की पुत्री कामरूपिणी रोहिणी, अतिशीलवती मद्रराजसुता सुशीला भद्रा, सत्राजित्की पुत्री सत्यभामा और चारुहासिनी लक्ष्मणा-ये अति सुन्दरी सात स्त्रियाँ और थीं, इनके सिवा उनके सोलह हजार स्त्रियाँ और भी थीं ॥ ३-५ ॥ प्रद्युम्नोऽपि महावीर्यो रुक्मिणस्तनयां शुभाम् ।
स्वयम्वरे तां जग्राह सा च तं तनयं हरेः ॥ ६ ॥ महावीर प्रद्युम्नने रुक्मीकी सुन्दरी कन्याको और उस कन्याने भी भगवान्के पुत्र प्रद्युम्नजीको स्वयंवरमें ग्रहण किया ॥ ६ ॥ तस्यामस्याभवत्पुत्रो महाबलपराक्रमः ।
अनिरुद्धो रणेऽरुद्धवीर्योदधिररिन्दमः ॥ ७ ॥ उससे प्रद्युम्नजीके अनिरुद्ध नामक एक महाबलपराक्रमसम्पन्न पुत्र हुआ जो युद्धमें रुद्ध (प्रतिहत) न होनेवाला, बलका समुद्र तथा शत्रुओंका दमन करनेवाला था ॥ ७ ॥ तस्यापि रुक्मिणः पौत्रीं वरयामास केशवः ।
दौहित्राय ददौ रक्मी तां स्पर्धन्नपि चक्रिणा ॥ ८ ॥ कृष्णचन्द्रने उस (अनिरुद्ध)-के लिये भी रुक्मीकी पौत्रीका वरण किया और रुक्मीने कृष्णचन्द्रसे ईर्ष्या रखते हुए भी अपने दौहित्रको अपनी पौत्री देना स्वीकार कर लिया ॥ ८ ॥ तस्या विवाहे रामाद्या यादवा हरिणा सह ।
रुक्मिणो नगरं जग्मुर्नाम्ना भोजकटं द्विज ॥ ९ ॥ हे द्विज ! उसके विवाहमें सम्मिलित होनेके लिये कृष्णचन्द्रके साथ बलभद्र आदि अन्य यादवगण भी रुक्मीको राजधानी भोजकट नामक नगरको गये ॥ ९ ॥ विवाहे तत्र निर्वृत्ते प्राद्युम्नेस्तु महात्मनः ।
कलिङ्गराजप्रमुखा रुक्मिणं वाक्यमब्रुवन् ॥ १० ॥ जब प्रद्युम्नपुत्र महात्मा अनिरुद्धका विवाह-संस्कार हो चुका तो कलिंगराज आदि राजाओंने रुक्मीसे कहा- ॥ १० ॥ अनक्षज्ञो हली द्युते तथास्य व्यसनं महत् ।
तज्जयामो बलं कस्माद्द्युतेनैनं महाबलम् ॥ ११ ॥ "ये बलभद्र द्यूतक्रीडा [अच्छी तरह ] जानते तो हैं नहीं तथापि इन्हें उसका व्यसन बहुत है; तो फिर हम इन महाबली रामको जुएसे ही क्यों न जीत लें ?" ॥ ११ ॥ श्रीपराशर उवाच
तथेति तानाह नृपान्रुक्मी बलमदान्वितः । सभायां सह रामेण चक्रे द्यूतं च वै तदा ॥ १२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तब बलके मदसे उन्मत्त रुक्मीने उन राजाओंसे कहा-'बहुत अच्छा' और सभामें बलरामजीके साथ द्यूतक्रीडा आरम्भ कर दी ॥ १२ ॥ सहस्रमेकं निष्काणां रुक्मिणा विजितो बलः ।
द्वितीयेऽपिपणे चान्यत्सहस्रं रुक्मिणा जितः ॥ १३ ॥ रुक्मीने पहले ही दाँवमें बलरामजीसे एक सहस्र निष्क जीते तथा दूसरे दाँवमें एक सहस्र निष्क और जीत लिये ॥ १३ ॥ ततो दशसहस्राणि निष्काणां पणमाददे ।
बलभद्रोऽजयत्तानि रुक्मी द्युतविदां वरः ॥ १४ ॥ तब बलभद्रजीने दस हजार निष्कका एक दाँव और लगाया । उसे भी पक्के जुआरी रुक्मीने ही जीत लिया ॥ १४ ॥ ततो जहास स्वनवत्कलिङ्गाधिपतिर्द्विज ।
दन्तान्विदर्शयन्मूढो रुक्मी चाह मदोद्धतः ॥ १५ ॥ हे हिज ! इसपर मूढ कलिंगराज दाँत दिखाता हुआ जोरसे हँसने लगा और मदोन्मत्त रुक्मीने कहा- ॥ १५ ॥ अविद्योऽयं मया द्यूते बलभद्रः पराजितः ।
भुधैवाक्षावलेपान्धो योऽवमेनेऽक्षकोविदान् ॥ १६ ॥ "द्यूतक्रीडासे अनभिज्ञ इन बलभद्रजीको मैंने हरा दिया है; ये वृथा ही अक्षके घमण्डसे अन्धे होकर अक्षकुशल पुरुषोंका अपमान करते थे" ॥ १६ ॥ दृष्ट्वा कलिङ्गराजन्तं प्रकाशदशनाननम् ।
रुक्मिणं चापि दुर्वाक्यं कोपं चक्रे हलायुधः ॥ १७ ॥ इस प्रकार कलिंगराजको दाँत दिखाते और रुक्मीको दुर्वाक्य कहते देख हलायुध बलभद्रजी अत्यन्त क्रोधित हुए ॥ १७ ॥ ततः कोपपरीतात्मा निष्ककोटिं समाददे ।
ग्लहं जग्राह रुक्मी च तदर्थेक्षानपातयत् ॥ १८ ॥ तब उन्होंने अत्यन्त कुपित होकर करोड़ निष्कका दाँव लगाया और रुक्मीने भी उसे ग्रहणकर उसके निमित्त पाँसे फेंके ॥ १८ ॥ अजयद्बलदेवस्तं प्राहोच्चैर्विजितं मया ।
मयेति रुक्मी प्राहोच्चैरलीकोक्तेरलं बल ॥ १९ ॥ उसे बलदेवजीने ही जीता और वे जोरसे बोल उठे, 'मैंने जीता । ' इसपर रुक्मी भी चिल्लाकर बोला-'बलराम ! असत्य बोलनेसे कुछ लाभ नहीं हो सकता, यह दाँव भी मैंने ही जीता है ॥ १९ ॥ त्वयोक्तोऽयं ग्लहःसत्यं न मयैषोनुमोदितः ।
एवं त्वया चेद्विजितं विजितं न मया कथम् ॥ २० ॥ आपने इस दाँवके विषयमें जिक्र अवश्य किया था, किंतु मैंने उसका अनुमोदन तो नहीं किया । इस प्रकार यदि आपने इसे जीता है तो मैंने भी क्यों नहीं जीता ?" ॥ २० ॥ श्रीपराशर उवाच
अथान्तरिक्षे वागुच्चेः प्राह गम्भीरनादिनी । बलदेवस्य तं कोपं वर्धयन्ती महात्मनः ॥ २१ ॥ श्रीपराशरजी बोले- उसी समय महात्मा बलदेवजीके क्रोधको बढ़ाती हुई आकाशवाणीने गम्भीर स्वरमें कहा- ॥ २१ ॥ जितं बलेन धर्मेण रुक्मिणा भाषितं मृषा ।
अनुक्त्वापि वचः किञ्चित्कृतं भवति कर्मणा ॥ २२ ॥ "इस दाँवको धर्मानुसार तो बलरामजी ही जीते हैं; रुक्मी झूठ बोलता है क्योंकि [अनुमोदनसूचक] वचन न कहनेपर भी [पाँसे फेंकने आदि] कार्यसे वह अनुमोदित ही माना जायगा" ॥ २२ ॥ ततो बलः समुत्थाय कोपसंरक्तलोचनः ।
जघानाष्टपदेनैव रुक्मिणं स महाबलः ॥ २३ ॥ तब क्रोधसे अरुणनयन हुए महाबली बलभद्रजीने उठकर रुक्मीको जुआ खेलनेके पाँसोंसे ही मार डाला ॥ २३ ॥ कलिङ्गराजं चादाय विस्फुरन्तं बलाद्बलः ।
बभञ्ज दन्तान्कुपितो यैः प्रकाशैः जहास सः ॥ २४ ॥ फिर फड़कते हुए कलिंगराजको बलपूर्वक पकड़कर बलरामजीने उसके दाँत, जिन्हें दिखलाता हुआ वह हँसा था, तोड़ दिये ॥ २४ ॥ आकृष्य च महास्तम्भं जातरूपमयं बलः ।
जघान तान्ये तत्पक्षे भूभृतः कुपितो भृशम् ॥ २५ ॥ इनके सिवा उसके पक्षके और भी जो कोई राजालोग थे, उन्हें बलरामजीने अत्यन्त कुपित होकर एक सुवर्णमय स्तम्भ उखाड़कर उससे मार डाला ॥ २५ ॥ ततो हाहाकृतं सर्वं पलायनपरं द्विज ।
तद्राजमण्डलं भीतं बभूव कुपिते बले ॥ २६ ॥ हे द्विज ! उस समय बलरामजीके कुपित होनेसे हाहाकार मच गया और सम्पूर्ण राजालोग भयभीत होकर भागने लगे ॥ २६ ॥ बलेन निहतं दृष्ट्वा रुक्मिणं मधुसूदनः ।
नोवाच किञ्चिन्मैत्रेय रुक्मिणीबलयोर्भयात् ॥ २७ ॥ हे मैत्रेय ! उस समय रुक्मीको मारा गया देख श्रीमधुसूदनने एक ओर रुक्मिणीके और दूसरी ओर बलरामजीके भयसे कुछ भी नहीं कहा ॥ २७ ॥ ततोनिरुद्धमादाय कृतदारं द्विजोत्तम ।
द्वारकामाजगामाथ यदुचक्रं च केशवः ॥ २८ ॥ तदनन्तर, हे द्विज श्रेष्ठ ! यादवोंके सहित श्रीकृष्णचन्द्र सपत्नीक अनिरुद्धको लेकर द्वारकापुरीमें चले आये ॥ २८ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशेऽष्टाविंशोध्यायः (२८)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमें ऽशेऽष्टाविंशोऽध्यायः ॥ २८ ॥ |