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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
द्वारवत्यां स्थिते कृष्णे शक्रस्त्रिभुवनेश्वरः ।
आजगामाथ मैत्रेय मत्तैरावतपृष्ठगः ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! एक बार जब श्रीभगवान् द्वारकामें ही थे त्रिभुवनपति इन्द्र अपने मत्त गजराज ऐरावतपर चढ़कर उनके पास आये ॥ १ ॥

प्रविश्य द्वारकां सोऽथ समेत्य हरिणा ततः ।
कथयामास दैत्यस्य नरकस्य विचेष्टितम् ॥ २ ॥
द्वारकामें आकर वे भगवानसे मिले और उनसे नरकासुरके अत्याचारोंका वर्णन किया ॥ २ ॥

त्वया नाथेन देवानां मनष्यत्वेपि तिष्ठता ।
प्रशमं सर्वदुःखानि नीतानि मधुसूदन ॥ ३ ॥
[वे बोले-] "हे मधुसूदन ! इस समय मनुष्यरूपमें स्थित होकर भी आप सम्पूर्ण देवताओंके स्वामीने हमारे समस्त दुःखोंको शान्त कर दिया है ॥ ३ ॥

तपस्विव्यमनार्थाय सोऽरिष्टो धेनुकस्तथा ।
प्रवृत्तो यस्तथा केशी ते सर्वे निहतास्त्वया ॥ ४ ॥
जो अरिष्ट, धेनुक और केशी आदि असुर सर्वदा तपस्वियोंको क्लेशित करते रहते थे उन सबको आपने मार डाला ॥ ४ ॥

कंसः कुवलयापीडः पूतना बालघातिनी ।
नाशं नीतास्त्वया सर्वे येऽन्ये जगदुपद्रवाः ॥ ५ ॥
कंस, कुवलयापीड और बालघातिनी पूतना तथा और भी जो-जो संसारके उपद्रवरूप थे उन सबको आपने नष्ट कर दिया ॥ ५ ॥

युष्मद्दोर्दडसम्भूतिपरित्राते जगत्त्रये ।
यज्वयज्ञांशसम्प्राप्त्या तृप्तिं यान्ति दिवौकसः ॥ ६ ॥
आपके बाहुदण्डकी सत्तासे त्रिलोकीके सुरक्षित हो जानेके कारण याजकोंके दिये हुए यज्ञभागोंको प्राप्तकर देवगण तृप्त हो रहे हैं ॥ ६ ॥

सोऽहं साम्प्रतमायातो यन्निमित्तं जनार्दन ।
तच्छुत्वा तत्प्रतीकारप्रयत्‍नं कर्तुमर्हसि ॥ ७ ॥
है जनार्दन ! इस समय जिस निमित्तसे मैं आपके पास उपस्थित हुआ हूँ, उसे सुनकर आप उसके प्रतीकारका प्रयल करें ॥ ७ ॥

भौमोऽयं नरको नाम प्राग्ज्योतिषपुरेश्वरः ।
करोति सर्वभूतानामुपघातमरिन्दम ॥ ८ ॥
हे शत्रुदमन ! यह पृथिवीका पुत्र नरकासुर प्राग्ज्योतिषपुरका स्वामी है; इस समय यह सम्पूर्ण जीवोंका घात कर रहा है ॥ ८ ॥

देवसिद्दसुरादीनां नृपाणां च नजार्दन ।
हृत्वा तु सोऽसुरः कन्या रुरुधे निजमन्दिरे ॥ ९ ॥
हे जनार्दन ! उसने देवता, सिद्ध, असुर और राजा आदिकोंकी कन्याओंको बलात् लाकर अपने अन्तःपुरमें बन्द कर रखा है ॥ ९ ॥

छत्रं यत्सलिलस्रावि तज्जहार प्रचेतसः ।
मदंरस्य तथा शृङ्‍गं हृतवान्मणिपर्वतम् ॥ १० ॥
इस दैत्यने वरुणका जल बरसानेवाला छत्र और मन्दराचलका मणिपर्वत नामक शिखर भी हर लिया है ॥ १० ॥

अमृतस्त्राविणी दिव्ये मन्मातुः कृष्ण कुण्डले ।
जहार सोऽसुरोदित्या वाञ्चत्यैरावतं गजम् ॥ ११ ॥
हे कृष्ण ! उसने मेरी माता अदितिके अमृतस्त्रावी दोनों दिव्य कुण्डल ले लिये हैं और अब इस ऐरावत हाथीको भी लेना चाहता है ॥ ११ ॥

दुर्नीतमेतद्‍गोविन्द मया तस्य निवेदितम् ।
यदत्र प्रतिकर्तव्यं तत्स्वयं परिमृश्यताम् ॥ १२ ॥
हे गोविन्द ! मैंने आपको उसकी ये सब अनीतियाँ सुना दी हैं; इनका जो प्रतीकार होना चाहिये, वह आप स्वयं विचार लें" ॥ १२ ॥

श्रीपराशर उवाच
इति श्रुत्वा स्मितं कृत्वा भगवान्देवकीसुतः ।
गृहीत्वा वासवं हस्ते समुत्तस्थौ वरासनात् ॥ १३ ॥
श्रीपराशरजी बोले-इन्द्रके ये वचन सुनकर श्रीदेवकीनन्दन मुसकाये और इन्द्रका हाथ पकड़कर अपने श्रेष्ठ आसनसे उठे ॥ १३ ॥

सञ्चिन्त्यागतमारुह्य गरुडं गगनेचरम् ।
सत्यभामां समारोप्य ययौ प्राग्ज्योतिषं पुरम् ॥ १४ ॥
फिर स्मरण करते ही उपस्थित हुए आकाशगामी गरुडपर सत्यभामाको चढ़ाकर स्वयं चढ़े और प्राग्ज्योतिषपुरको चले ॥ १४ ॥

आरुह्यैरावतं नागं शक्रोऽपि त्रिदिवं ययौ ।
ततौ जगाम कृष्णश्च पश्यतां द्वारकौकसाम् ॥ १५ ॥
तदनन्तर इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़कर देवलोकको गये तथा भगवान् कृष्णचन्द्र सब द्वारकावासियोंके देखतेदेखते [नरकासुरको मारने] चले गये ॥ १५ ॥

प्राग्ज्योतिषपुरस्यापि समन्ताच्छतयोजनम् ।
आचिता मौरवैः पाशैः क्षुरान्तैर्भूर्द्विजोत्तम ॥ १६ ॥
हे द्विजोत्तम ! प्राग्ज्योतिषपुरके चारों ओर पृथिवी सौ योजनतक मुर दैत्यके बनाये हुए छुरेकी धाराके समान अति तीक्ष्ण पार्शोसे घिरी हुई थी ॥ १६ ॥

ताञ्चिच्छेद हरिः पाशान्क्षिप्त्वा चक्रं सुदर्शनम् ।
ततो मुरःसमुत्तस्थौ तं जघान च केशवः ॥ १७ ॥
भगवान्ने उन पाशोंको सुदर्शनचक्र फेंककर काट डाला; फिर मुर दैत्य भी सामना करनेके लिये उठा तब श्रीकेशवने उसे भी मार डाला ॥ १७ ॥

मुरस्य तनयान्सप्त सहस्रांस्तांस्ततो हरिः ।
चक्रधाराग्निनिर्दग्धांश्चकार शलभानिव ॥ १८ ॥
तदनन्तर श्रीहरिने मुरके सात हजार पुत्रोंको भी अपने चक्रकी धाररूप अग्निमें पतंगके समान भस्म कर दिया ॥ १८ ॥

हत्वा मुरं हयग्रीवं तथा पञ्चजनं द्विज ।
प्राग्ज्योतिषपुरं धीमांस्त्वरावान्समुपाद्रवत् ॥ १९ ॥
हे द्विज ! इस प्रकार मतिमान् भगवान्ने मुर, हयग्नीव एवं पंचजन आदि दैत्योंको मारकर बड़ी शीघ्रतासे प्राग्ज्योतिषपुरमें प्रवेश किया ॥ १९ ॥

नरकेणास्य तत्राभून्महासैन्येन संयुगम् ।
कृष्णस्य यत्र गोविन्दो जघ्ने दैत्यान्सहस्रशः ॥ २० ॥
वहाँ पहुँचकर भगवान्का अधिक सेनावाले नरकासुरसे युद्ध हुआ, जिसमें श्रीगोविन्दने उसके सहस्रों दैत्योंको मार डाला ॥ २० ॥

शस्त्रास्त्रवर्षं मुञ्चन्तं तं भौमं नरकं बली ।
क्षिप्त्वा चक्रं द्विधा चक्रे चक्री दैतेयचक्रहा ॥ २१ ॥
दैत्यदलका दलन करनेवाले महाबलवान् भगवान् चक्रपाणिने शस्त्रास्त्रको वर्षा करते हुए भूमिपुत्र नरकासुरके सुदर्शनचक्र फेंककर दो टुकड़े कर दिये ॥ २१ ॥

हते तु नरके भूमिर्गृहीत्वादितिकुण्डले ।
उपतस्थे जगन्नाथं वाक्यं चेदमथाब्रवीत् ॥ २२ ॥
नरकासुरके मरते ही पृथिवी अदितिके कुण्डल लेकर उपस्थित हुई और श्रीजगन्नाथसे कहने लगी ॥ २२ ॥

पृथ्व्युवाच
यदाहमुद्धृता नाथ त्वया सूकरमूर्तिना ।
त्वत्स्पर्शसम्भवः पुत्रस्तदायं मय्यजायत ॥ २३ ॥
पृथिवी बोली-हे नाथ ! जिस समय वराहरूप धारणकर आपने मेरा उद्धार किया था, उसी समय आपके स्पर्शसे मेरे यह पुत्र उत्पन्न हुआ था ॥ २३ ॥

सोऽयं त्वयैव दत्तो मे त्वयैव विनिपातितः ।
गृहाण कुण्डले चेमे पालयास्य च सन्ततिम् ॥ २४ ॥
इस प्रकार आपहीने मुझे यह पुत्र दिया था और अब आपहीने इसको नष्ट किया है; आप ये कुण्डल लीजिये और अब इसकी सन्तानको रक्षा कीजिये ॥ २४ ॥

भारावतरणार्थाय ममैव भगवानिमम् ।
अंशेन लोकमायातः प्रसादसुमुखः प्रभो ॥ २५ ॥
हे प्रभो ! मेरे ऊपर प्रसन्न होकर ही आप मेरा भार उतारनेके लिये अपने अंशसे इस लोकमें अवतीर्ण हुए हैं ॥ २५ ॥

त्वं कर्ता च विकर्ता च संहर्ता प्रभवोऽप्ययः ।
जगतां त्वं जगद्‍रूपः स्तूयतेऽच्युत किं तव ॥ २६ ॥
हे अच्युत ! इस जगत्के आप ही कर्ता, आप ही विकर्ता (पोषक) और आप ही हर्ता (संहारक) हैं; आप ही इसकी उत्पत्ति और लयके स्थान हैं तथा आप ही जगतरूप हैं । फिर हम आपकी स्तुति किस प्रकार करें ? ॥ २६ ॥

व्याप्तिव्याप्यं क्रिया कर्ता कार्यं च भगवान्यथा ।
सर्वभूतात्मभूतस्य स्तूयते तव किं तथा ॥ २७ ॥
हे भगवन् ! जब कि व्याप्ति, व्याप्य, क्रिया, कर्ता और कार्यरूप आप ही हैं, तब सबके आत्मस्वरूप आपकी किस प्रकार स्तुति की जा सकती है ? ॥ २७ ॥

परमात्मा च भूतात्मा त्वमात्मा चाप्ययो भवान् ।
यथातथा स्तुतिर्नाथ किमर्थं ते प्रवर्तते ॥ २८ ॥
हे नाथ ! जब आप ही परमात्मा, आप ही भूतात्मा और आप ही अव्यय जीवात्मा हैं, तब किस वस्तुको लेकर आपकी स्तुति हो सकती है ? ॥ २८ ॥

प्रसीद सर्वभूतात्मन्नरकेण तु यत्कृतम् ।
तत्क्षम्यतामदोषाय त्वत्सुतस्त्वन्निपातितः ॥ २९ ॥
हे सर्वभूतात्मन् ! आप प्रसन्न होइये और इस नरकासुरके सम्पूर्ण अपराध क्षमा कीजिये । निश्चय ही आपने अपने पुत्रको निर्दोष करनेके लिये ही स्वयं मारा है ॥ २९ ॥

श्रीपराशर उवाच
तथेति चोक्त्वा धरणीं भगवान् भूतभावनः ।
रत्‍नानि नरकावासाज्जग्राह मुनिसत्तम ॥ ३० ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मुनिश्रेष्ठ ! तदनन्तर भगवान् भूतभावनने पृथिवीसे कहा-"तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो" और फिर नरकासुरके महलसे नाना प्रकारके रत्न लिये ॥ ३० ॥

कन्यापुरे स कन्यानां षोडःशातुलविक्रमः ।
शताधिकानि ददृशे सहस्राणि महामुने ॥ ३१ ॥
हे महामुने ! अतुलविक्रम श्रीभगवान्ने नरकासुरके कन्यान्तःपुरमें जाकर सोलह हजार एक सौ कन्याएँ देखीं ॥ ३१ ॥

चतुर्दंष्ट्रान्गजांश्चाग्र्यान् षट्सहस्रांश्च दृष्टवान् ।
काम्भोजानां तथाश्वानां नियुतान्येकविंशतिम् ॥ ३२ ॥
तथा चार दाँतवाले छः हजार गजश्रेष्ठ और इक्कीस लाख काम्बोजदेशीय अश्व देखे ॥ ३२ ॥

ताः कन्यास्तांस्तथा नागांस्तानश्वान् द्वारकां पुरीम् ।
प्रापयामास गोविन्दः सद्यो नरककिङ्‍करैः ॥ ३३ ॥
उन कन्याओं, हाथियों और घोड़ोंको श्रीकृष्णचन्द्रने नरकासुरके सेवकोंद्वारा तुरन्त ही द्वारकापुरी पहुँचवा दिया ॥ ३३ ॥

ददृशे वारुणं छत्रं तथैव मणिपर्वतम् ।
आरोपयामास हरिर्गरुडे पतगेश्वरे ॥ ३४ ॥
तदनन्तर भगवान्ने वरुणका छत्र और मणिपर्वत देखा, उन्हें उठाकर उन्होंने पक्षिराज गरुडपर रख लिया ॥ ३४ ॥

आरुह्य च स्वयं कृष्णः सत्यभामासहायवान् ।
अदित्याः कुण्डले दानुं जगाम त्रिदशालयम् ॥ ३५ ॥
और सत्यभामाके सहित स्वयं भी उसीपर चढ़कर अदितिके कुण्डल देनेके लिये स्वर्गलोकको गये ॥ ३५ ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे एकोनत्रिन्शोऽध्यायः (२९)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे एकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥

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