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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ एकत्रिंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
संस्तुतो भगवानित्थं देवराजेन केशवः ।
प्रहस्य भावगम्भीरमुवाचेन्द्रं द्विजोत्तम ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे द्विजोत्तम ! इन्द्रने जब इस प्रकार स्तुति की तो भगवान् कृष्णचन्द्र गम्भीरभावसे हंसते हुए इस प्रकार बोले- ॥ १ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
देवराजो भवानिन्द्रो वयं मर्त्या जगत्पते ।
क्षन्तव्यं भवतैवेदमपराधं कृतं मम ॥ २ ॥
श्रीकृष्णजी बोले-हे जगत्पते ! आप देवराज इन्द्र हैं और हम मरणधर्मा मनुष्य हैं । हमने आपका जो अपराध किया है उसे आप क्षमा करें ॥ २ ॥

पारिजाततरुश्चायं नीयतामुचितास्पदम् ।
गृहीतोयं मया शक्र सत्यावचनकारणात् ॥ ३ ॥
मैंने जो यह पारिजातवृक्ष लिया था इसे इसके योग्य स्थान (नन्दनवन)-को ले जाइये । हे शक्र ! मैंने तो इसे सत्यभामाके कहनेसे ही ले लिया था ॥ ३ ॥

वज्रं चेदं गृहाण त्वं यदत्र प्रहितं त्वया ।
तवैवैतत्प्रहरणं शक्र वैरिविदारणम् ॥ ४ ॥
और आपने जो वन फेंका था उसे भी ले लीजिये; क्योंकि हे शक्र ! यह शत्रुओंको नष्ट करनेवाला शस्त्र आपहीका है ॥ ४ ॥

इन्द्र उवाच
विमोहयसि मामीश मर्त्योऽहमिति किं वदन् ।
जानीमस्त्वां भगवतो न तु सूक्ष्मविदो वयम् ॥ ५ ॥
इन्द्र बोले-हे ईश ! 'मैं मनुष्य हूँ' ऐसा कहकर मुझे क्यों मोहित करते हैं ? हे भगवन् ! मैं तो आपके इस सगुणस्वरूपको ही जानता हूँ, हम आपके सूक्ष्मस्वरूपको जाननेवाले नहीं हैं ॥ ५ ॥

योऽसि सोऽसि जगत्त्रणप्रवृत्तौ नाथ संस्थितः ।
जगतः शल्यनिष्कर्षं करोष्यसुरसूदन ॥ ६ ॥
हे नाथ ! आप जो हैं वही हैं, [हम तो इतना ही जानते हैं कि] हे दैत्यदलन ! आप लोकरक्षामें तत्पर हैं और इस संसारके काँटोंको निकाल रहे हैं ॥ ६ ॥

नीयतां पारीजातोऽयं कृष्ण द्वारवतीम्पुरीम् ।
मर्त्यलोके त्वया त्यक्ते नायं संस्थास्यते भुवि ॥ ७ ॥
हे कृष्ण ! इस पारिजातवृक्षको आप द्वारकापुरी ले जाइये, जिस समय आप मर्त्यलोक छोड़ देंगे, उस समय वह भूलॊकमें नहीं रहेगा ॥ ७ ॥

देवदेव जगन्नाथ कृष्ण विष्णो महाभुज ।
शङ्‍खचक्रगदापाणे क्षमस्वैतद्‌व्यतिक्रमम् ॥ ८ ॥
हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे कृष्ण ! हे विष्णो ! हे महाबाहो ! हे शंखचक्रगदापाणे ! मेरी इस धृष्टताको क्षमा कीजिये ॥ ८ ॥

श्रीपराशर उवाच
तथेत्युक्त्वा च देवेन्द्रमाजगाम भुवं हरिः ।
प्रसक्तैः सिद्धगन्धर्वैः स्तूयमानः सुरर्षिभिः ॥ ९ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर श्रीहरि देवराजसे 'तुम्हारी जैसी इच्छा है वैसा ही सही' ऐसा कहकर सिद्ध, गन्धर्व और देवर्षिगणसे स्तुत हो भूलॊकमें चले आये ॥ ९ ॥

ततः शङ्‍खमुपाध्माय द्वारकोपरि संस्थितः ।
हर्षमुत्पादयामास द्वारकावासिनां द्वज ॥ १० ॥
हे द्विज ! द्वारकापुरीके ऊपर पहुंचकर श्रीकृष्णचन्द्रने [अपने आनेकी सूचना देते हुए] शंख बजाकर द्वारकावासियोको आनन्दित किया ॥ १० ॥

अवतीर्याथ गरुडात्सत्यभामा सहायवान् ।
निष्कुटे स्थापयामास पारिजातं महातरुम् ॥ ११ ॥
तदनन्तर सत्यभामाके सहित गरुडसे उतरकर उस पारिजातमहावृक्षको [सत्यभामाके गृहोद्यानमें लगा दिया ॥ ११ ॥

यमभ्येत्य जनः सर्वो जातिं स्मरति पौर्विकीम् ।
वास्यते यस्य पुष्पोत्थगन्धेनोर्वी त्रियोजनम् ॥ १२ ॥
जिसके पास आकर सब मनुष्योंको अपने पूर्वजन्मका स्मरण हो आता है और जिसके पुष्पोंसे निकली हुई गन्धसे तीन योजनतक पृथिवी सुगन्धित रहती है ॥ १२ ॥

ततस्ते यादवाःसर्वे देहबन्धानमानुषान् ।
ददृशुः पादपे तस्मिन् कुर्वन्तो मखदर्शनम् ॥ १३ ॥
यादवोंने उस वृक्षके पास जाकर अपना मुख देखा तो उन्हें अपना शरीर अमानुष दिखलायी दिया ॥ १३ ॥

किङ्‍करैः समुपानीतं हस्त्यश्वादि ततो धनम् ।
विभज्य प्रददौ कृष्णो बान्धवानां महामतिः ॥ १४ ॥
कन्याश्च कृष्णे जग्राह नरकस्य परिग्रहान् ॥ १५ ॥
तदनन्तर महामति श्रीकृष्णचन्द्रने नरकासुरके सेवकोंद्वारा लाये हुए हाथी-घोड़े आदि धनको अपने बन्धु-बान्धवोंमें बाँट दिया और नरकासुरकी वरण की हुई कन्याओंको स्वयं ले लिया ॥ १४-१५ ॥

ततः काले शुभे प्राप्ते उपयेमे जनार्दनः ।
ताः कन्या नरकेणासन्सर्वतो याःसमाहृताः ॥ १६ ॥
शुभ समय प्राप्त होनेपर श्रीजनार्दनने उन समस्त कन्याओंके साथ, जिन्हें नरकासुर बलात् हर लाया था, विवाह किया ॥ १६ ॥

एकस्मिन्नेव गोविन्दः काले तासां महामुने ।
जग्राह विधिवत्पाणीन्पृथग्गेहेषु धर्मतः ॥ १७ ॥
हे महामुने ! श्रीगोविन्दने एक ही समय पृथक्-पृथक् भवनोंमें उन सबके साथ विधिवत् धर्मपूर्वक पाणिग्रहण किया ॥ १७ ॥

षोडशस्त्रीसहस्राणि शतमेकं ततोऽधिकम् ।
तावन्ति चक्रे रूपाणि भगवान् मधुसूदनः ॥ १८ ॥
वे सोलह हजार एक सौ स्त्रियाँ थीं; उन सबके साथ पाणिग्रहण करते समय श्रीमधुसूदनने इतने ही रूप बना लिये ॥ १८ ॥

एकैकमेव ताः कन्या मेनिरे मधुसूदनः ।
ममैव पाणिग्रहणं मैत्रेय कृतवानिति ॥ १९ ॥
हे मैत्रेय ! परंतु उस समय प्रत्येक कन्या 'भगवान्ने मेरा ही पाणिग्रहण किया है' इस प्रकार उन्हें एक ही समझ रही थी ॥ १९ ॥

निशासु च जगत्स्रष्टा तासां गेहेषु केशवः ।
उवास विप्र सर्वासां विश्वरूपधरो हरिः ॥ २० ॥
हे विप्र ! जगत्स्रष्टा विश्वरूपधारी श्रीहरि रात्रिके समय उन सभीके घरोंमें रहते थे ॥ २० ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे एकत्रिंशोऽध्यायः (३१)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे एकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१ ॥

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