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॥ विष्णुपुराणम् ॥

पञ्चमः अंशः

॥ द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
प्रद्युम्नाद्या हरेः पुत्रा रुक्मिण्यां क्वथितास्तव ।
भानुभौमेरिकाद्यंश्च सत्यभामा व्यजायत ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-रुक्मिणीके गर्भसे उत्पन्न हुए भगवान्के प्रद्युम्न आदि पुत्रोंका वर्णन हम पहले ही कर चुके हैं; सत्यभामाने भानु और भौमेरिक आदिको जन्म दिया ॥ १ ॥

दीप्तिमत्ताम्रपक्षाद्य रोहिण्यां तनया हरेः ।
बभूवुर्जाम्बवत्यां च साम्बाद्या बाहुशालिनः ॥ २ ॥
श्रीहरिके रोहिणीके गर्भसे दीप्तिमान् और ताम्रपक्ष आदि तथा जाम्बवतीसे बलशाली साम्ब आदि पुत्र हुए ॥ २ ॥

तनया भद्रविन्दाद्या नाग्नजित्यां महाबलाः ।
सङ्‍ग्रामजित्प्रधानास्तु शैव्यायां च हरेःसुताः ॥ ३ ॥
नाम्नजिती (सत्या)-से महाबली भद्रविन्द आदि और शैव्या (मित्रविन्दा)-से संग्रामजित् आदि उत्पन्न हुए ॥ ३ ॥

वृकाद्याश्च सुता माद्र्यां गात्रवत्प्रमुखान् सुतान् ।
अवाप लक्ष्माणा पुत्रान्कालिन्द्याश्च श्रुतादयः ॥ ४ ॥
माद्रीसे वृक आदि, लक्ष्मणासे गात्रवान् आदि तथा कालिन्दीसे श्रुत आदि पुत्रोंका जन्म हुआ ॥ ४ ॥

अन्यासां चैव भार्याणां समुत्पन्नानि चक्रिणः ।
अष्टायुतानि पुत्राणां सहस्राणि शतं तथा ॥ ५ ॥
इसी प्रकार भगवान्की अन्य स्त्रियोंके भी आठ अयुत आठ हजार आठ सौ (अट्ठासी हजार आठ सौ) पुत्र इन सब पुत्रों में रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न सबसे बड़े थे; प्रद्युम्नसे अनिरुद्धका जन्म हुआ और अनिरुद्धसे वज्र उत्पन्न हुआ ॥ ६ ॥

प्रद्युम्नः प्रथमस्तेषां सर्वेषां रुक्मिणीसुतः ।
प्रद्युम्नादनिरुद्धोऽभूद्वज्रस्तस्मादजायत ॥ ६ ॥
हे द्विजोत्तम ! महाबली अनिरुद्ध युद्ध में किसीसे रोके नहीं जा सकते थे । उन्होंने बलिकी पौत्री एवं बाणासुरकी पुत्री उषासे विवाह किया था ॥ ७ ॥

अनिरुद्धो रणेऽरुद्धो बलेः पौत्रीं महाबलः ।
उषाम्बाणस्य तनयामुपयेमे द्विजोत्तम ॥ ७ ॥
उस विवाहमें श्रीहरि और भगवान् शंकरका घोर युद्ध हुआ था और श्रीकृष्णचन्द्रने बाणासुरकी सहल भुजाएँ काट डाली थीं ॥ ८ ॥

यत्र युद्धमभूद्घोरं हरिशङ्‍करयोर्महत् ।
छिन्नं सहस्रं बाहूनां यत्र बाणस्य चाक्रिणा ॥ ८ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-हे ब्रह्मन् ! उषाके लिये श्रीमहादेव और कृष्णका युद्ध क्यों हुआ और श्रीहरिने बाणासुरकी भुजाएँ क्यों काट डालीं ? ॥ ९ ॥

मैत्रेय उवाच
कथं युद्धमभूद्‍ब्रह्मन्‍नुषार्थे हरकृष्णयोः ।
कथं क्षयं च बाणस्य बाहूनां कृतवान्हरिः ॥ ९ ॥
हे महाभाग ! आप मुझसे यह सम्पूर्ण वृत्तान्त कहिये; मुझे श्रीहरिकी यह कथा सुननेका बड़ा कुतूहल हो रहा है ॥ १० ॥

एतत्सर्वं महाभाग ममाख्यातुं त्वमर्हसि ।
महत्कौतूहलं जातं कथां श्रोतुमिमां हरेः ॥ १० ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे विप्र ! एक बार बाणासुरकी पुत्री उषाने श्रीशंकरके साथ पार्वतीजीको क्रीडा करती देख स्वयं भी अपने पतिके साथ रमण करनेकी इच्छा की ॥ ११ ॥

श्रीपराशर उवाच
उषा बाणसुता विप्र पार्वतीं सह शम्भुना ।
क्रीडन्तीमुपलक्ष्योच्चैः स्पृहां चक्रे तदाश्रयाम् ॥ ११ ॥
तब सर्वान्तर्यामिनी श्रीपार्वतीजीने उस सुकुमारीसे कहा"तू अधिक सन्तप्त मत हो, यथासमय तू भी अपने पतिके साथ रमण करेगी" ॥ १२ ॥

ततःसकलचित्तज्ञा गौरी तामाह भामिनीम् ।
अलमत्यर्थतापेन भर्त्रा त्वमपि रंस्यसे ॥ १२ ॥
पार्वतीजीके ऐसा कहनेपर उषाने मन-ही-मन यह सोचकर कि 'न जाने ऐसा कब होगा ?

इत्युक्ता सा तया चक्रे कदेति मतिमात्मनः ।
को वा भर्ता ममेत्याह पुनस्तामाह पार्वती ॥ १३ ॥
और मेरा पति भी कौन होगा ?' [इस सम्बन्धमें] पार्वतीजीसे पूछा, तब पार्वतीजीने उससे फिर कहा- ॥ १३ ॥

पार्वत्युवाच
वैशाखशुक्लद्वादश्यां स्वप्ने योऽभिभवं तव ।
करिष्यति स ते भर्ता राजपुत्रि भविष्यति ॥ १४ ॥
पार्वतीजी बोली-हे राजपुत्रि ! वैशाख शुक्ला द्वादशीकी रात्रिको जो पुरुष स्वप्नमें तुझसे हठात् सम्भोग करेगा वही तेरा पति होगा ॥ १४ ॥

श्रीपराशर उवाच
तस्यां तिथावुषास्वप्ने यथा देव्या समीरितम् ।
तथैवाभिभवं चक्रे कश्चिद्‍रागं च तत्र सा ॥ १५ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर उसी तिथिको उषाकी स्वप्नावस्थामें किसी पुरुषने उससे, जैसा श्रीपार्वतीदेवीने कहा था, उसी प्रकार सम्भोग किया और उसका भी उसमें अनुराग हो गया ॥ १५ ॥

ततः प्रबुद्धा पुरुषमपश्यन्ती समुत्मुका ।
क्व गतेसीति निर्लज्जा मैत्रेयोक्तवती सखीम् ॥ १६ ॥
हे मैत्रेय ! तब उसके बाद स्वप्नसे जगनेपर जब उसने उस पुरुषको न देखा तो वह उसे देखनेके लिये अत्यन्त उत्सुक होकर अपनी सखीकी ओर लक्ष्य करके निर्लज्जतापूर्वक कहने लगी- "हे नाथ ! आप कहाँ चले गये ?" ॥ १६ ॥

बाणस्य मन्त्री कुम्भाण्डः चित्रलेखा च तत्सुता ।
तस्याःसख्यभवत्सा च प्राह कोऽयं त्वयोच्यते ॥ १७ ॥
बाणासुरका मन्त्री कुम्भाण्ड था; उसकी चित्रलेखा नामकी पुत्री थी, वह उषाकी सखी थी, [उषाका यह प्रलाप सुनकर] उसने पूछा-"यह तुम किसके विषयमें कह रही हो ?" ॥ १७ ॥

यदा लज्जाकुला नास्यै कथयामास सा सखी ।
तदा विश्वासमानीय सर्वमेवाभ्यवादयत् ॥ १८ ॥
किन्तु जब लज्जावश उपाने उसे कुछ भी न बतलाया तब चित्रलेखाने [सब बात गुप्त रखनेका] विश्वास दिलाकर उषासे सब वृत्तान्त कहला लिया ॥ १८ ॥

विदितार्थां तु तामाह पुनश्चोषा यथोदितम् ।
देव्या तथैव तत्प्राप्तौ यो ह्युपायः कुरुष्व तम् ॥ १९ ॥
चित्रलेखाके सब बात जान लेनेपर उषाने जो कुछ श्रीपार्वतीजीने कहा था, वह भी उसे सुना दिया और कहा कि अब जिस प्रकार उसका पुनः समागम हो वही उपाय करो ॥ १९ ॥

चित्रलेखोवाच
दुर्विज्ञेयमिदं वक्तुं प्राप्तुं वापि न शक्यते ।
तथापि किञ्चित्कर्तव्यमुपकारं प्रिये तव ॥ २० ॥
चित्रलेखाने कहा-हे प्रिये ! तुमने जिस पुरुषको देखा है उसे तो जानना भी बहुत कठिन है फिर उसे बतलाना या पाना कैसे हो सकता है ? तथापि मैं तुम्हारा कुछ-न-कुछ उपकार तो करूंगी ही ॥ २० ॥

सप्ताष्टदिनपर्यन्तं तावत्कालः प्रतीक्ष्यताम् ।
इत्युक्त्वाभ्यन्तरं गत्वा उपायं तमथाकरोत् ॥ २१ ॥
तुम सात या आठ दिनतक मेरी प्रतीक्षा करना-ऐसा कहकर वह अपने घरके भीतर गयी और उस पुरुषको ढूंढनेका उपाय करने लगी ॥ २१ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततः पटे सुरान्दैत्यान्गन्धर्वांश्च प्रधानतः ।
मनुष्यांश्च विलिख्यास्यै चित्रलेखा व्यदर्शयत् ॥ २२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर [सात-आठ दिन पश्चात् लौटकर] चित्रलेखाने चित्रपटपर मुख्य-मुख्य देवता, दैत्य, गन्धर्व और मनुष्योंके चित्र लिखकर उषाको दिखलाये ॥ २२ ॥

अपास्य सा तु गन्धर्वांस्तथोरगसुरासुरान् ।
मनुष्येषु ददौ दृष्टिं तेष्वप्यन्धकवृष्णिषु ॥ २३ ॥
तब उषाने गन्धर्व, नाग, देवता और दैत्य आदिको छोड़कर केवल मनुष्योंपर और उनमें भी विशेषतः अन्धक और वृष्णिवंशी यादवोंपर ही दृष्टि दी ॥ २३ ॥

कृष्णरामौ विलोक्यासीत् सुभ्रूर्लज्जाजडेव सा ।
प्रद्युम्नदर्शने व्रीडादृष्टिं निन्येऽन्यतो द्विज ॥ २४ ॥
हे द्विज ! राम और कृष्णके चित्र देखकर वह सुन्दर भृकुटिवाली लज्जासे जडवत् हो गयी तथा प्रद्युम्नको देखकर उसने लज्जावश अपनी दृष्टि हटा ली ॥ २४ ॥

दृष्टमात्रे ततः कान्ते प्रद्युम्नतनये द्विज ।
दृष्टत्यर्थविलासिन्या लज्जा क्वापि निराकृता ॥ २५ ॥
तत्पश्चात् प्रद्युम्नतनय प्रियतम अनिरुद्धजीको देखते ही उस अत्यन्त विलासिनीकी लज्जा मानो कहीं चली गयी ॥ २५ ॥

सोऽयं सोऽयमितीत्युक्ते तया सा योगगामिनी ।
चित्रलेखाब्रजीदेनामुषां बाणसुरां तदा ॥ २६ ॥
[वह बोल उठी]-'वह यही है, वह यही है । ' उसके इस प्रकार कहनेपर योगगामिनी चित्रलेखाने उस बाणासुरकी कन्यासे कहा- ॥ २६ ॥

चित्रलेखोवाच
अयं कृष्णस्य पौत्रस्ते भर्ता देव्या प्रसादितः ।
अनिरुद्ध इति ख्यातः प्रख्यातः प्रियदर्शनः ॥ २७ ॥
चित्रलेखा बोली-देवीने प्रसन्न होकर यह कृष्णका पौत्र ही तेरा पति निश्चित किया है । इसका नाम अनिरुद्ध है और यह अपनी सुन्दरताके लिये प्रसिद्ध है ॥ २७ ॥

प्राप्नोषि यदि भर्तारमिमं प्राप्तं त्वयाखिलम् ।
दुष्प्रवेशा पुरी पूर्वं द्वारका कृष्णपालिता ॥ २८ ॥
यदि तुझको यह पति मिल गया तब तो तूने मानो सभी कुछ पा लिया; किन्तु कृष्णचन्द्रद्वारा सुरक्षित द्वारकापुरीमें पहले प्रवेश ही करना कठिन है ॥ २८ ॥

तथापि यत्‍नाद्‍भर्तारमानयिष्यामि ते सखि ।
रहस्यमेतद्वक्तव्यं न कस्यचिदपि त्वया ॥ २९ ॥
तथापि हे सखि ! किसी उपायसे मैं तेरे पतिको लाऊँगी ही, तू इस गुप्त रहस्यको किसीसे भी न कहना ॥ २९ ॥

अचिरादागमिष्यामि सहस्व विरहं मम ।
ययौ द्वारवतीं चोषां समाश्वास्य ततः सखीम् ॥ ३० ॥
मैं शीघ्र ही आऊँगी, इतनी देर तू मेरे वियोगको सहन कर । अपनी सखी उषाको इस प्रकार ढाढस बंधाकर चित्रलेखा द्वारकापुरीको गयी ॥ ३० ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे पञ्चमेंऽशे द्वात्रिंशोऽध्यायः (३२)
इति श्रीविष्णुपुराणे पञ्चमेंऽशे द्वात्रिंशोऽध्यायः ॥ ३२ ॥

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