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॥ विष्णुपुराणम् ॥

षष्ठः अंशः

॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
व्यासश्चाह महाबुद्धिर्यदत्रैव हि वस्तुनि ।
तच्छ्रूयतां महाभागा गदतो मम तत्त्वतः ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे महाभाग ! इसी विषयमें महामति व्यासदेवने जो कुछ कहा है वह मैं यथावत् वर्णन करता हूँ, सुनो ॥ १ ॥

कस्मिन्कालेऽल्पको धर्मो ददाति सुमहत्फलम् ।
मुनीनां पुण्यवादोऽभूत्कैश्चासौ क्रियते सुखम् ॥ २ ॥
एक बार मुनियोंमें [परस्पर] पुण्यके विषयमें यह वार्तालाप हुआ कि 'किस समयमें थोड़ा-सा पुण्य भी महान् फल देता है और कौन उसका सुखपूर्वक अनुष्ठान कर सकते हैं ?' ॥ २ ॥

सन्देहनिर्णयार्थाय वेदव्यासं महामुनिम् ।
ययुस्ते संशयं प्रष्टुं मैत्रेय मुनिपुङ्‍गवाः ॥ ३ ॥
हे मैत्रेय ! वे समस्त मुनिश्रेष्ठ इस सन्देहका निर्णय करनेके लिये महामुनि व्यासजीके पास यह प्रश्न पूछने गये ॥ ३ ॥

दृदृशुस्ते मुनिं तत्र जाह्नवीसलिले द्विज ।
वेदव्यासं महाभागमर्धस्नातं सुतं मम ॥ ४ ॥
हे द्विज ! वहाँ पहुँचनेपर उन मुनिजनोंने मेरे पुत्र महाभाग व्यासजीको गंगाजीमें आधा स्नान किये देखा ॥ ४ ॥

स्नानावसानं ते तस्य प्रतीक्षन्तो महर्षयः ।
तस्थुस्तीरे महानद्यास्तरुषण्डमुपाश्रिताः ॥ ५ ॥
वे महर्षिगण व्यासजीके स्नान कर चुकनेकी प्रतीक्षामें उस महानदीके तटपर वृक्षोंके तले बैठे रहे ॥ ५ ॥

मग्नोऽथ जाह्नवीतोयादुत्थायाह सुतो मम ।
शुद्रःसाधुः कलिःसाधुरित्येवं शृण्वतां वचः ।
तेषां मुनीनां भूयश्च ममज्ज स नदीजले ॥ ६ ॥
साधुसाध्विति चोत्थाय शूद्र धन्योसि चाब्रवीत् ॥ ७ ॥
उस समय गंगाजीमें डुबकी लगाये मेरे पुत्र व्यासने जलसे उठकर उन मुनिजनोंके सुनते हुए 'कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ है' यह वचन कहा । ऐसा कहकर उन्होंने फिर जलमें गोता लगाया और फिर उठकर कहा-"शूद्र ! तुम ही श्रेष्ठ हो, तुम ही धन्य हो" ॥ ६-७ ॥

निमग्नश्च समुत्थाय पुनः प्राह महामुनिः ।
योषितः साधु धन्यास्तास्ताभ्यो धन्यतरोऽस्ति कः ॥ ८ ॥
यह कहकर वे महामुनि फिर जलमें मग्न हो गये और फिर खड़े होकर बोले-"स्त्रियाँ ही साधु हैं, वे ही धन्य हैं, उनसे अधिक धन्य और कौन है ?" ॥ ८ ॥

ततः स्नात्वा यथान्यायमायान्तं च कृतक्रियम् ।
उपतस्थुर्महाभागं मुनयस्ते सुतं मम ॥ ९ ॥
तदनन्तर जब मेरे महाभाग पुत्र व्यासजी स्नान करनेके अनन्तर नियमानुसार नित्यकर्मसे निवृत्त होकर आये तो वे मुनिजन उनके पास पहुँचे ॥ ९ ॥

कृतसंवन्दनांश्चाह कृतासनपरिग्रहान् ।
किमर्थ मागता यूयमिति सत्यवतीसुतः ॥ १० ॥
वहाँ आकर जब वे यथायोग्य अभिवादनादिके अनन्तर आसनोंपर बैठ गये तो सत्यवतीनन्दन व्यासजीने उनसे पूछा-"आपलोग कैसे आये हैं ?" ॥ १० ॥

श्रीपराशर उवाच
तमूचुः संशयं प्रष्टं भवन्तं वयमागताः ।
अलं तेनास्तु तावन्नः कथ्यतामपरं त्वया ॥ ११ ॥
तब मुनियोंने उनसे कहा-"हमलोग आपसे एक सन्देह पूछनेके लिये आये थे, किंतु इस समय उसे तो जाने दीजिये, एक और बात हमें बतलाइये ॥ ११ ॥

कलिःसाध्विति यत्प्रोक्तं शूद्रः साध्विति योषितः ।
यदाह भगवान् साधु धन्याश्चेति पुनः पुनः ॥ १२ ॥
तत् सर्वं श्रोतुमिच्छामो न चेद् गुह्यं महामुने ।
तत्कथ्यतां ततो हृत्स्थं पृच्छामस्त्वां प्रयोजनम् ॥ १३ ॥
भगवन् ! आपने जो स्नान करते समय कई बार कहा था कि 'कलियुग ही श्रेष्ठ है, शूद्र ही श्रेष्ठ हैं, स्त्रियाँ ही साधु और धन्य हैं', सो क्या बात है ? हम यह सम्पूर्ण विषय सुनना चाहते हैं । हे महामुने ! यदि गोपनीय न हो तो कहिये । इसके पीछे हम आपसे अपना आन्तरिक सन्देह पूछेंगे" ॥ १२-१३ ॥

श्रीपराश उवाच
इत्युक्तो मुनिभिर्व्यासः प्रहस्येदमथाब्रवीत् ।
श्रूयतां भो मुनिश्रेष्ठा यदुक्तं साधुसाध्विति ॥ १४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-मुनियोंके इस प्रकार पूछनेपर व्यासजीने हँसते हुए कहा-"हे मुनिश्रेष्ठो ! मैंने जो इन्हें बारम्बार साधु-साधु कहा था, उसका कारण सुनो" ॥ १४ ॥

व्यास उवाच
यत्कृते दशभिर्वर्षैस्त्रेतायां हायनेन तत् ।
द्वापरे तच्च मासेन ह्यहोरात्रेण तत्कलौ ॥ १५ ॥
तपसो ब्रह्मचर्यस्य जपादेश्च फलं द्विजाः ।
प्राप्नोति पुरषस्तेन कलिःसाध्विति भाषितम् ॥ १६ ॥
श्रीव्यासजी बोले-हे द्विजगण ! जो फल सत्ययुगमें दस वर्ष तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदि करनेसे मिलता है उसे मनुष्य त्रेतामें एक वर्ष, द्वापरमें एक मास और कलियुगमें केवल एक दिन-रातमें प्राप्त कर लेता है, इस कारण ही मैंने कलियुगको श्रेष्ठ कहा है ॥ १५-१६ ॥

ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन् ।
यदाप्नोति तदाप्नोति कलौ संकीर्त्य केशवम् ॥ १७ ॥
जो फल सत्ययुगमें ध्यान, त्रेतामें यज्ञ और द्वापरमें देवार्चन करनेसे प्राप्त होता है वही कलियुगमें श्रीकृष्णचन्द्रका नाम-कीर्तन करनेसे मिल जाता है ॥ १७ ॥

धर्मोत्कर्षमतीवात्र प्राप्नोति पुरुषः कलौ ।
अल्पायासेन धर्मज्ञास्तेन तुष्टोस्म्यहं कलेः ॥ १८ ॥
हे धर्मज्ञगण ! कलियुगमें थोड़े-से परिश्रमसे ही पुरुषको महान् धर्मकी प्राप्ति हो जाती है, इसीलिये मैं कलियुगसे अति सन्तुष्ट हूँ ॥ १८ ॥

व्रतचर्यापरैर्ग्राह्या वेदाः पूर्वं द्विजातिभिः ।
ततःस्वधर्मसम्प्राप्तैर्यष्टव्यं विधिवद्धनैः ॥ १९ ॥
[अब शूद्र क्यों श्रेष्ठ हैं, यह बतलाते हैं] द्विजातियोंको पहले ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है और फिर स्वधर्माचरणसे उपार्जित धनके द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करने पड़ते हैं ॥ १९ ॥

वृथा कथा वृथा भोज्यं वृथेज्या च द्विजन्मनाम् ।
पतनाय ततो भाव्यं तैस्तु संयमिभिः सदा ॥ २० ॥
इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ यज्ञ उनके पतनके कारण होते हैं; इसलिये उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक है ॥ २० ॥

असम्यक्करणे दोषस्तेषां सर्वेषु वस्तुषु ।
भोज्यपेयादिकं चैषां नेच्छाप्राप्तिकरं द्विजाः ॥ २१ ॥
सभी कामोंमें अनुचित (विधिके विपरीत) करनेसे उन्हें दोष लगता है; यहाँतक कि भोजन और पानादि भी वे अपने इच्छानुसार नहीं भोग सकते ॥ २१ ॥

पारतन्त्र्यं समस्तेषु तेषां कार्येषु वै यतः ।
जयन्ति ते निजांल्लोकान्क्लेशेन महता द्विजाः ॥ २२ ॥
क्योंकि उन्हें सम्पूर्ण कार्यों में परतन्त्रता रहती है । हे द्विजगण ! इस प्रकार वे अत्यन्त क्लेशसे पुण्य-लोकोंको प्राप्त करते हैं ॥ २२ ॥

द्विजशुश्रूषयैवैष पाकयज्ञाधिकारवान् ।
निजाञ्जयति वै लोकाञ्छूद्रो धन्यतरस्ततः ॥ २३ ॥
किंतु जिसे केवल [मन्त्रहीन] पाक-यज्ञका ही अधिकार है वह शूद्र द्विजोंकी सेवा करनेसे ही सद्‌गति प्राप्त कर लेता है, इसलिये वह अन्य जातियोंकी अपेक्षा धन्यतर है ॥ २३ ॥

भक्ष्याभक्ष्येषु नास्यास्ति पेयापेयेषु वै यतः ।
नियमो मुनिशार्दूलास्तेनासौ साध्वितीरितः ॥ २४ ॥
हे मुनिशार्दूलो ! शूद्रको भक्ष्याभक्ष्य अथवा पेयापेयका कोई नियम नहीं है, इसलिये मैंने उसे साधु कहा है ॥ २४ ॥

स्वधर्मस्याविरोधेन नरैर्लब्धं धनं सदा ।
प्रतिपादनीयं पात्रेषु यष्टव्यं च यथाविधि ॥ २५ ॥
[अब स्त्रियोंको किसलिये श्रेष्ठ कहा, यह बतलाते हैं-] पुरुषोंको अपने धर्मानुकूल प्राप्त किये हुए धनसे ही सर्वदा सुपात्रको दान और विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये ॥ २५ ॥

तस्यार्जने महाक्लेशः पालने च द्विजोत्तमाः ।
तथासद्विनियोगेन विज्ञातं गहनं नृणाम् ॥ २६ ॥
हे द्विजोत्तमगण ! इस द्रव्यके उपार्जन तथा रक्षणमें महान् क्लेश होता है और उसको अनुचित कार्यमें लगानेसे भी मनुष्योंको जो कष्ट भोगना पड़ता है वह मालूम ही है ॥ २६ ॥

एवमन्यैस्तथा क्लेशैः पुरुषा द्विजसत्तमाः ।
निजाञ्जयन्ति वै लोकान्प्राजापत्यादिकान्क्रमात् ॥ २७ ॥
इस प्रकार हे द्विजसत्तमो ! पुरुषगण इन तथा ऐसे ही अन्य कष्टसाध्य उपायोंसे क्रमशः प्राजापत्य आदि शुभ लोकोंको प्राप्त करते हैं ॥ २७ ॥

योषिच्छुश्रूषणाद्‍भर्तुः कर्मणा मनसा गिरा ।
तद्धिता शुभमाप्नोति तत्सालोक्यं यतो द्विजाः ॥ २८ ॥
नातिक्लेशेन महता तानेव पुरुषो यथा ।
तृतीयं व्याहृतं तेन मया साध्विति योषितः ॥ २९ ॥
किंतु स्त्रियाँ तो तन-मन-वचनसे पतिकी सेवा करनेसे ही उनकी हितकारिणी होकर पतिके समान शुभ लोकोंको अनायास ही प्राप्त कर लेती हैं जो कि पुरुषोंको अत्यन्त परिश्रमसे मिलते हैं । इसीलिये मैंने तीसरी बार यह कहा था कि 'स्त्रियाँ साधु हैं' ॥ २८-२९ ॥

एतद्वः कथितं विप्रा यन्निमित्तमिहागताः ।
तत्पृच्छतः यथाकामं सव वक्ष्यामि वः स्फुटम् ॥ ३० ॥
"हे विप्रगण ! मैंने आपलोगोंसे यह [अपने साधुवादका रहस्य] कह दिया, अब आप जिसलिये पधारे हैं वह इच्छानुसार पूछिये । मैं आपसे सब बातें स्पष्ट करके कह दूंगा" ॥ ३० ॥

ऋषयस्ते ततः प्रोचुर्यत्प्रष्टव्यं महामुने ।
अस्मिन्नेव च तत्प्रश्ने यथावत्कथितं त्वया ॥ ३१ ॥
तव ऋषियोंने कहा-"हे महामुने ! हमें जो कुछ पूछना था उसका यथावत् उत्तर आपने इसी प्रश्नमें दे दिया है । [इसलिये अब हमें और कुछ पूछना नहीं है] ॥ ३१ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततः प्रहस्य तानाह कृष्णद्वैपायनो मुनिः ।
विस्मयोत्फुल्लनयनांस्तापसांस्तानुपागतान् ॥ ३२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब मुनिवर कृष्णद्वैपायनने विस्मयसे खिले हुए नेत्रोंवाले उन समागत तपस्वियोंसे हँसकर कहा ॥ ३२ ॥

मयैष भवतां प्रश्नो ज्ञातो दिव्येन चक्षुषा ।
ततोहं वः प्रसङ्‍गेन साधुसाध्विति भाषितम् ॥ ३३ ॥
मैं दिव्य दृष्टिसे आपके इस प्रश्नको जान गया था इसीलिये मैंने आपलोगोंके प्रसंगसे ही 'साधु-साधु' कहा था ॥ ३३ ॥

स्वल्पेन हि प्रयत्‍नेन धर्मःसिध्यति वै कलौ ।
नरैरात्मगुणाम्भोभिः क्षालिताखिलकिल्बिषैः ॥ ३४ ॥
जिन पुरुषोंने गुणरूप जलसे अपने समस्त दोष धो डाले हैं उनके थोड़े-से प्रयत्नसे ही कलियुगमें धर्म सिद्ध हो जाता है ॥ ३४ ॥

शुद्रैश्च द्विजशुश्रूषातत्परैर्द्विजसत्तमाः ।
तथा स्त्रीभिरनायासात्पतिशुश्रूषयैव हि ॥ ३५ ॥
हे द्विजश्रेष्ठो ! शूद्रोंको द्विजसेवापरायण होनेसे और स्त्रियोंको पतिकी सेवामात्र करनेसे ही अनायास धर्मकी सिद्धि हो जाती है ॥ ३५ ॥

ततस्त्रितयमप्येतन्मम धन्यतरं मतम् ।
धर्मसम्पादने क्लेशो द्विजातीनां कृतादिषु ॥ ३६ ॥
इसीलिये मेरे विचारसे ये तीनों धन्यतर हैं, क्योंकि सत्ययुगादि अन्य तीन युगोंमें भी द्विजातियोंको ही धर्म सम्पादन करनेमें महान् क्लेश उठाना पड़ता है ॥ ३६ ॥

भवद्‍भिर्यदभिप्रेतं तदेतत्कथितं मया ।
अपृष्टेनापि धर्मज्ञाः किमन्यत्क्रियतां द्विजाः ॥ ३७ ॥
हे धर्मज्ञ ब्राह्मणो ! इस प्रकार आपलोगोंका जो अभिप्राय था वह मैंने आपके बिना पूछे ही कह दिया, अब और क्या करूँ ?" ॥ ३७ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततःसम्पूज्य ते व्यासं प्रशशंसुः पुनः पुनः ।
यथाऽऽगतं द्विजा जग्मुर्व्यासोक्तिकृतनिश्चयाः ॥ ३८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तदनन्तर उन्होंने व्यासजीका पूजनकर उनकी बारम्बार प्रशंसा की और उनके कथनानुसार निश्चयकर जहाँसे आये थे वहाँ चले गये ॥ ३८ ॥

भवतोऽपि महाभाग रहस्यं कथितं मया ।
अत्यन्तदुष्टस्य कलेरयमेको महान्मुणः |
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तबन्धः परं व्रजेत् ॥ ३९ ॥
हे महाभाग मैत्रेयजी ! आपसे भी मैंने यह रहस्य कह दिया । इस अत्यन्त दुष्ट कलियुगमें यही एक महान् गुण है कि इस युगमें केवल कृष्णचन्द्रका नाम-संकीर्तन करनेसे ही मनुष्य परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ३९ ॥

यच्चाहं भवता पृष्टो जगतामुपसंहृतिम् ।
प्राकृतामन्तरालां च तामप्येष वदामि ते ॥ ४० ॥
अब आपने मुझसे जो संसारके उपसंहारप्राकृत प्रलय और अवान्तर प्रलयके विषयमें पूछा था वह भी सुनाता हूँ ॥ ४० ॥

इति श्रीविष्णुमाहपुराणे षष्ठेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः (२)
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥



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