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॥ विष्णुपुराणम् ॥ षष्ठः अंशः ॥ प्रथमोऽध्यायः ॥ मैत्रेय उवाच
व्याख्याता भवता सर्गवंशमन्वन्तरस्थितिः । वंशानुचरितं चैव विस्तरेण महामुने ॥ १ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-हे महामुने ! आपने सृष्टिरचना, वंश-परम्परा और मन्वन्तरोंकी स्थितिका तथा वंशोंके चरित्रोंका विस्तारसे वर्णन किया ॥ १ ॥ श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वत्तो यथावदुपसंहृतिम् ।
महाप्रलयसंज्ञां च कल्पान्ते च महामुने ॥ २ ॥ अब मैं आपसे कल्पान्तमें होनेवाले महाप्रलय नामक संसारके उपसंहारका यथावत् वर्णन सुनना चाहता हूँ ॥ २ ॥ श्रीपराशर उवाच
मैत्रेय श्रूयतां मत्तो यथावदुपसंहृतिः । कल्पान्ते प्राकृते चैव प्रलयो जायते यथा ॥ ३ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! कल्पान्तके समय प्राकृत प्रलयमें जिस प्रकार जीवोंका उपसंहार होता है, वह सुनो ॥ ३ ॥ अहोरात्रं पितॄणां तु मासोऽब्दस्त्रिदिवौकसाम् ।
चतुर्युगसहस्रे तु ब्रह्मणो वै द्विजोत्तम ॥ ४ ॥ हे द्विजोत्तम ! मनुष्योंका एक मास पितृगणका, एक वर्ष देवगणका और दो सहस्र चतुर्युग ब्रह्माका एक दिन-रात होता है ॥ ४ ॥ कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् ।
दिव्यैर्वर्षसहस्रैस्तु तद्द्वादशभिरुच्यते ॥ ५ ॥ सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चार युग हैं, इन सबका काल मिलाकर बारह हजार दिव्य वर्ष कहा जाता है ॥ ५ ॥ चतुर्युगाण्यशेषाणि सदृशानि स्वरूपतः ।
आद्यं कृतयुगं मुक्त्वा मैत्रेयान्त्यं तथा कलिम् ॥ ६ ॥ हे मैत्रेय ! [प्रत्येक मन्वन्तरके] आदि कृतयुग और अन्तिम कलियुगको छोड़कर शेष सब चतुर्युग स्वरूपसे एक समान हैं ॥ ६ ॥ आद्ये कृतयुगे सर्गो ब्रह्मणा क्रियते यथा ।
क्रियते चोपसंहारस्तथान्ते च कलौ युगे ॥ ७ ॥ जिस प्रकार आद्य (प्रथम) सत्ययुगमें ब्रह्माजी जगत्की रचना करते हैं उसी प्रकार अन्तिम कलियुगमें वे उसका उपसंहार करते हैं ॥ ७ ॥ मैत्रेय उवाच
कलेःस्वरूपं भगवन्विस्तराद्वक्तुमर्हसि । धर्मश्चतुष्पाद्भगवान् यस्मिन् विप्लवमृच्छति ॥ ८ ॥ श्रीमैत्रेयजी बोले-हे भगवन् ! कलिके स्वरूपका विस्तारसे वर्णन कीजिये, जिसमें चार चरणोंवाले भगवान् धर्मका प्रायः लोप हो जाता है ॥ ८ ॥ श्रीपराशर उवाच
कलेःस्वरूपं मैत्रेय यद्भवाञ्छ्रोतुमिच्छति । तन्निबोध समासेन वर्तते यन्महामुने ॥ ९ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! आप जो कलियुगका स्वरूप सुनना चाहते हैं सो उस समय जो कुछ होता है वह संक्षेपसे सुनिये ॥ ९ ॥ वर्णाश्रमाचारवती प्रवृत्तिर्न कलौ नृणाम् ।
न सामऋग्यजुर्धर्मविनिष्पादनहैतुकी ॥ १० ॥ कलियुगमें मनुष्योंकी प्रवृत्ति वर्णाश्रम-धर्मानुकूल नहीं रहती और न वह ऋक्-साम-यजुरूप त्रयी-धर्मका सम्पादन करनेवाली ही होती है ॥ १० ॥ विवाहा न कलौ धर्म्या न शिष्यगुरुसंस्थितिः ।
न दाम्पत्यक्रमो नैव वह्निदेवात्मकः क्रमः ॥ ११ ॥ उस समय धर्मविवाह, गुरु-शिष्य-सम्बन्धकी स्थिति, दाम्पत्यक्रम और अग्निमें देवयज्ञक्रियाका क्रम (अनुष्ठान) भी नहीं रहता ॥ ११ ॥ यत्र कुत्र कुले जातो बली सर्वेश्वरः कलौ ।
सर्वेभ्य एव वर्णेभ्यो योग्यः कन्यावरोधने ॥ १२ ॥ कलियुगमें जो बलवान् होगा वही सबका स्वामी होगा चाहे किसी भी कुलमें क्यों न उत्पन्न हुआ हो, वह सभी वर्गोंसे कन्या ग्रहण करनेमें समर्थ होगा ॥ १२ ॥ येन केन च योगेन द्विजातिर्दीक्षितः कलौ ।
यैव सैव च मैत्रेय प्रायश्चित्तं कलौ क्रिया ॥ १३ ॥ उस समय द्विजातिगण जिस-किसी उपायसे [अर्थात् निषिद्ध द्रव्य आदिसे] भी 'दीक्षित' हो जायेंगे और जैसी-तैसी क्रियाएँ ही प्रायश्चित्त मान ली जायेंगी ॥ १३ ॥ सर्वमेव कलौ शास्त्रं यस्य यद्वचनं द्विज ।
देवता च कलौ सर्वा सर्वःसर्वस्य चाश्रमः ॥ १४ ॥ हे द्विज ! कलियुगमें जिसके मुखसे जो कुछ निकल जायगा वही शास्त्र समझा जायगा; उस समय सभी (भूत-प्रेत-मशान आदि) देवता होंगे और सभीके सब आश्रम होंगे ॥ १४ ॥ उपवासस्तथायासौ वित्तोत्सर्गस्तपः कलौ ।
धर्मो यथाभिरुचितैरनुष्ठनैरनुष्ठितः ॥ १५ ॥ उपवास, तीर्थाटनादि कायक्लेश, धन-दान तथा तप आदि अपनी रुचिके अनुसार अनुष्ठान किये हुए ही धर्म समझे जायेंगे ॥ १५ ॥ वित्तेन भविता पुंसां स्वल्पेनाढ्यमदः कलौ ।
स्त्रीणां रूपमदश्चैवं केशैरेव भविष्यति ॥ १६ ॥ कलियुगमें अल्प धनसे ही लोगोंको धनाढ्यताका गर्व हो जायगा और केशोंसे ही स्त्रियोंको सुन्दरताका अभिमान होगा ॥ १६ ॥ मसुवर्णमणिरत्नादौ वस्त्रे चोपक्षयं गते ।
कलौ स्त्रियो भविष्यन्ति तदा केशैरलङ्कृताः ॥ १७ ॥ उस समय सुवर्ण, मणि, रत्न और वस्त्रोंके क्षीण हो जानेसे स्त्रियाँ केश-कलापोंसे ही अपनेको विभूषित करेंगी ॥ १७ ॥ परित्यक्ष्यन्ति भर्तारं वित्तहीनं तथा स्त्रियः ।
भर्ता भविष्यति कलौ वित्तवानेव योषिताम् ॥ १८ ॥ जो पति धनहीन होगा उसे स्त्रियाँ छोड़ देंगी । कलियुगमें धनवान् पुरुष ही स्त्रियोंका पति होगा ॥ १८ ॥ यो वै ददाति बहुलं स्वं स स्वामी सदा नृणाम् ।
स्वामित्वहेतुःसम्बन्धो न चाभिजनता तथा ॥ १९ ॥ जो मनुष्य [चाहे वह कितनाहू निन्द्य हो] अधिक धन देगा वही लोगोंका स्वामी होगा; यह धन-दानका सम्बन्ध ही स्वामित्वका कारण होगा, कुलीनता नहीं ॥ १९ ॥ गृहान्ता द्रव्यसङ्घाता द्रव्यान्ता च तथा मतिः ।
अर्थाश्चात्मोपभोग्यान्ता भविष्यन्ति कलौ युगे ॥ २० ॥ कलिमें सारा द्रव्य-संग्रह घर बनानेमें ही समाप्त हो जायगा [दान-पुण्यादिमें नहीं], बुद्धि धन-संचयमें ही लगी रहेगी [आत्मज्ञानमें नहीं], सारी सम्पत्ति अपने उपभोगमें ही नष्ट हो जायगी [उससे अतिथिसत्कारादि न होगा] ॥ २० ॥ स्त्रियः कलौ भविष्यन्ति स्वैरिण्यो ललितस्पृहाः ।
अन्यायादाप्तवित्तेषु पुरुषाः स्पृहयालवः ॥ २१ ॥ कलिकालमें स्त्रियाँ सुन्दर पुरुषकी कामनासे स्वेच्छाचारिणी होंगी तथा पुरुष अन्यायोपार्जित धनके इच्छुक होंगे ॥ २१ ॥ अभ्यर्थितापि सुहृदा स्वार्थहानिं न मानवा ।
पणार्धार्धार्द्धमात्रेऽपि करिष्यन्ति कलौ द्विज ॥ २२ ॥ हे द्विज ! कलियुगमें अपने सुहृदोंके प्रार्थना करनेपर भी लोग एक-एक दमड़ीके लिये भी स्वार्थहानि नहीं करेंगे ॥ २२ ॥ समानपौरुषं चेतो भावि विप्रेषु वै कलौ ।
क्षीरप्रदानसम्बन्धि भावि गोषु च गौरवम् ॥ २३ ॥ कलिमें ब्राह्मणोंके साथ शूद्र आदि समानताका दावा करेंगे और दूध देनेके कारण ही गौओंका सम्मान होगा ॥ २३ ॥ अनावृष्टिभयप्रायाः प्रजाः क्षुद्भयकातराः ।
भविष्यन्ति तदा सर्वे गगनासक्तदृष्टयः ॥ २४ ॥ उस समय सम्पूर्ण प्रजा क्षुधाकी व्यथासे व्याकुल हो प्रायः अनावृष्टिके भयसे सदा आकाशकी ओर दृष्टि लगाये रहेगी ॥ २४ ॥ कन्दमूलफलाहारास्तापसा इव मानवाः ।
आत्मानं घातयिष्यन्ति ह्यनावृष्ट्यादिदुःखिताः ॥ २५ ॥ मनुष्य [अन्नका अभाव होनेसे] तपस्वियोंके समान केवल कन्द, मूल और फल आदिके सहारे ही रहेंगे तथा अनावृष्टिके कारण दुःखी होकर आत्मघात करेंगे ॥ २५ ॥ दुर्भिक्षमेव सततं तथा क्लेशमनीश्वराः ।
प्राप्स्यन्ति व्याहतसुखप्रमोदा मानवाः कलौ ॥ २६ ॥ कलियुगमें असमर्थ लोग सुख और आनन्दके नष्ट हो जानेसे प्रायः सर्वदा दुर्भिक्ष तथा क्लेश ही भोगेंगे ॥ २६ ॥ अस्नानभोजिनो नाग्निदेवतातिथिपूजनम् ।
करिष्यन्ति कलौ प्राप्ते न च पिण्डोदकक्रियाम् ॥ २७ ॥ कलिके आनेपर लोग बिना स्नान किये ही भोजन करेंगे, अग्नि, देवता और अतिथिका पूजन न करेंगे और न पिण्डोदक क्रिया ही करेंगे ॥ २७ ॥ लोलुपा ह्रस्वदेहाश्च बह्वन्नादनतत्पराः ।
बहुप्रजाल्पभाग्याश्च भविष्यन्ति कलौ स्त्रियः ॥ २८ ॥ उस समयकी स्त्रियाँ विषयलोलुप, छोटे शरीरवाली, अति भोजन करनेवाली, अधिक सन्तान पैदा करनेवाली और मन्दभाग्या होंगी ॥ २८ ॥ उभाभ्यामपि पाणिभ्यां शिरःकण्डूयनं स्त्रियः ।
कुर्वन्त्यो गुरुभतॄणामाज्ञां भर्त्स्यन्त्यनादराः ॥ २९ ॥ वे दोनों हाथोंसे सिर खुजलाती हुई अपने गुरुजनों और पतियोंके आदेशका अनादरपूर्वक खण्डन करेंगी ॥ २९ ॥ स्वपोषणपराः क्षुद्रा देहसंस्कारवर्जिताः ।
परुषानृतभाषिण्यो भविष्यन्ति कलौ स्त्रियः ॥ ३० ॥ कलियुगकी स्त्रियाँ अपना ही पेट पालने में तत्पर, क्षुद्र चित्तवाली, शारीरिक शौचसे हीन तथा कटु और मिथ्या भाषण करनेवाली होंगी ॥ ३० ॥ दुःशीला दुष्टशीलेषु कुर्वन्त्यःसततं स्पृहाम् ।
असद्वृत्ता भविष्यन्ति पुरुषेषु कुलाङ्गनाः ॥ ३१ ॥ उस समयकी कुलांगनाएँ निरन्तर दुश्चरित्र पुरुषोंकी इच्छा रखनेवाली एवं दुराचारिणी होंगी तथा पुरुषोंके साथ असद्व्यवहार करेंगी ॥ ३१ ॥ वेदादानं करिष्यन्ति वटवश्चाकृतव्रताः ।
गृहस्थाश्च न होष्यन्ति न दास्यन्त्युचितान्यपि ॥ ३२ ॥ ब्रह्मचारिगण वैदिक व्रत आदिसे हीन रहकर ही वेदाध्ययन करेंगे तथा गृहस्थगण न तो हवन करेंगे और न सत्पात्रको उचित दान ही देंगे ॥ ३२ ॥ वानप्रस्था भविष्यन्ति ग्राम्याहारपरिग्रहाः ।
भिक्षवश्चापि मित्रादिस्नेहसम्बन्धयन्त्रणाः ॥ ३३ ॥ वानप्रस्थ [वनके कन्द-मूलादिको छोड़कर] ग्राम्य भोजनको स्वीकार करेंगे और संन्यासी अपने मित्रादिके स्नेहबन्धनमें ही बँधे रहेंगे ॥ ३३ ॥ अरक्षितारो हर्तारः शुल्कव्याजेन पार्थिवाः ।
हारिणो जनवित्तानां सम्प्राप्ते तु कलौ युगे ॥ ३४ ॥ कलियुगके आनेपर राजालोग प्रजाकी रक्षा नहीं करेंगे, बल्कि कर लेनेके बहाने प्रजाका ही धन छीनेंगे ॥ ३४ ॥ यो योऽश्वरथनागाढ्यः स स राजा भविष्यति ।
यश्च यश्चाबलः सर्वः स स भृत्यः कलौ युगे ॥ ३५ ॥ उस समय जिस-जिसके पास बहुत-से हाथी, घोड़े और रथ होंगे वह-वह ही राजा होगा तथा जो-जो शक्तिहीन होगा वह-वह ही सेवक होगा ॥ ३५ ॥ वैश्याः कृषिवणिज्यादि सन्त्यज्य निजकर्म यत् ।
शूद्रवृत्त्या प्रवर्त्स्यन्ति कारुकर्मोपजीविनः ॥ ३६ ॥ वैश्यगण कृषि-वाणिज्यादि अपने कर्मोंको छोड़कर शिल्पकारी आदिसे जीवन-निर्वाह करते हुए शूद्रवृत्तियों में ही लग जायेंगे ॥ ३६ ॥ भैक्षव्रतपराः शूद्रा प्रव्रज्यालिङ्गिनोऽधमाः ।
पाषण्डसंश्रयां वृत्तिमाश्रयिष्यन्ति सत्कृताः ॥ ३७ ॥ आश्रमादिके चिह्नसे रहित अधम शूद्रगण संन्यास लेकर भिक्षावृत्तिमें तत्पर रहेंगे और लोगोंसे सम्मानित होकर पाषण्ड-वृत्तिका आश्रय लेंगे ॥ ३७ ॥ दुर्भिक्षकरपीडाभिरतीवोपद्रुता जनाः ।
गोधूमान्नयवान्नाढ्यान्देशान्यास्यन्ति दुःखिताः ॥ ३८ ॥ प्रजाजन दुर्भिक्ष और करकी पीड़ासे अत्यन्त उपद्रवयुक्त और दुःखित होकर ऐसे देशोंमें चले जायगे जहाँ गेहूँ और जौकी अधिकता होगी ॥ ३८ ॥ वेदमार्गे प्रलीने च पाषण्डाढ्ये ततो जने ।
अधर्मवृद्ध्या लोकानामल्पमायुर्भविष्यति ॥ ३९ ॥ उस समय वेदमार्गका लोप, मनुष्योंमें पाषण्डकी प्रचुरता और अधर्मकी वृद्धि हो जानेसे प्रजाकी आयु अल्प हो जायगी ॥ ३९ ॥ अशास्त्रविहितं घोरं तप्यमानेषु वै तपः ।
नरेषु नृपदोषेण बाल्ये मृत्युर्भविष्यति ॥ ४० ॥ लोगोंके शास्त्रविरुद्ध घोर तपस्या करनेसे तथा राजाके दोषसे प्रजाओंकी बाल्यावस्थामें मृत्यु होने लगेगी ॥ ४० ॥ भविता योषितां सूतिः पञ्चषट्सप्तवार्षिकी ।
नवाष्टदशवर्षाणां मनुष्याणां तथा कलौ ॥ ४१ ॥ कलिमें पाँच-छ: अथवा सात वर्षकी स्त्री और आठ-नौ या दस वर्षके पुरुषोंके ही सन्तान हो जायगी ॥ ४१ ॥ पलितोद्भवश्च भविता तथा द्वादशवार्षिकः ।
नातिजीवति वै कश्चित्कलौ वर्षाणि विंशतिः ॥ ४२ ॥ बारह वर्षकी अवस्थामें ही लोगोंके बाल पकने लगेंगे और कोई भी व्यक्ति बीस वर्षसे अधिक जीवित न रहेगा ॥ ४२ ॥ अल्पप्रज्ञा वृथालिङ्गा दुष्टान्तःकरणाः कलौ ।
यतस्ततो विनङ्क्ष्यन्ति कालेनाल्पेन मानवाः ॥ ४३ ॥ कलियुगमें लोग मन्द बुद्धि, व्यर्थ चिह्न धारण करनेवाले और दुष्ट चित्तवाले होंगे, इसलिये वे अल्पकालमें ही नष्ट हो जायेंगे ॥ ४३ ॥ यदा यदा हि मैत्रेय हानिर्धर्मस्य लक्ष्यते ।
तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया विचक्षणैः ॥ ४४ ॥ हे मैत्रेय ! जब-जब धर्मकी अधिक हानि दिखलायी दे तभी-तभी बुद्धिमान् मनुष्यको कलियुगकी वृद्धिका अनुमान करना चाहिये ॥ ४४ ॥ यदा यदा हि पांषडवृद्धिर्मैत्रेय लक्ष्यते ।
तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया महात्मभिः ॥ ४५ ॥ हे मैत्रेय ! जब-जब पाषण्ड बढ़ा हुआ दीखे तभी-तभी महात्माओंको कलियुगकी वृद्धि समझनी चाहिये ॥ ४५ ॥ यदा यदा सतां हीनिर्वेदमार्गानुसारिणाम् ।
तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया विचक्षणैः ॥ ४६ ॥ जब-जब वैदिक मार्गका अनुसरण करनेवाले सत्पुरुषोंका अभाव हो तभी-तभी बुद्धिमान् मनुष्य कलिकी वृद्धि हुई जाने ॥ ४६ ॥ प्रारम्भाश्चावसीदन्ति यदा धर्मभृतां नृणाम् ।
तदानुमेयं प्राधान्यं कलेर्मैत्रेय पण्डितैः ॥ ४७ ॥ हे मैत्रेय ! जब धर्मात्मा पुरुषोंके आरम्भ किये हुए कार्योंमें असफलता हो तब पण्डितजन कलियुगकी प्रधानता समझें ॥ ४७ ॥ यदायाद न यज्ञानामीश्वरः पुरुषोत्तमः ।
इज्यते पुरुषैर्यज्ञैस्तदा ज्ञेयं कलेर्बलम् ॥ ४८ ॥ जब-जब यज्ञोंके अधीश्वर भगवान् पुरुषोत्तमका लोग यज्ञोंद्वारा यजन न करें तब-तब कलिका प्रभाव ही समझना चाहिये ॥ ४८ ॥ न प्रीतिर्वेदवादेषु पाषण्डेषु यदा रतिः ।
कलेर्वृद्धिस्तदा प्राज्ञैरनुमेया विचक्षणैः ॥ ४९ ॥ जब वेद-वादमें प्रीतिका अभाव हो और पाषण्डमें प्रेम हो तब बुद्धिमान् प्राज्ञ पुरुष कलियुगको बढ़ा हुआ जानें ॥ ४९ ॥ कलौ जगत्पतिं विष्णुं सर्वस्रष्टारमीश्वरम् ।
नार्चयिष्यन्ति मैत्रेय पाषण्डोपहता जनाः ॥ ५० ॥ हे मैत्रेय ! कलियुगमें लोग पाषण्डके वशीभूत हो जानेसे सबके रचयिता और प्रभु जगत्पति भगवान् विष्णुका पूजन नहीं करेंगे ॥ ५० ॥ किं देवैः किं द्विजैर्वेदैः किं शौचेनाम्बुजन्मना ।
इत्येवं विप्र वक्ष्यन्ति पाषण्डोपहता जनाः ॥ ५१ ॥ हे विप्र ! उस समय लोग पाषण्डके वशीभूत होकर कहेंगे-'इन देव, द्विज, वेद और जलसे होनेवाले शौचादिमें क्या रखा है ?' ॥ ५१ ॥ स्वल्पाम्बुवृष्टिः पर्जन्यः सस्यं स्वल्पफलं तथा ।
फलं तथाल्पसारं च विप्र प्राप्ते कलौ युगे ॥ ५२ ॥ हे विप्र ! कलिके आनेपर वृष्टि अल्प जलवाली होगी, खेती थोड़ी उपजवाली होगी और फलादि अल्प सारयुक्त होंगे ॥ ५२ ॥ शाणीप्रायाणि वस्त्राणि शमीप्राया महीरुहाः ।
शूद्रप्रायास्तथा वर्णा भविष्यन्ति कलौ युगे ॥ ५३ ॥ कलियुगमें प्रायः सनके बने हुए सबके वस्त्र होंगे, अधिकतर शमीके वृक्ष होंगे और चारों वर्ण बहुधा शूद्रवत् हो जायँगे ॥ ५३ ॥ अणुप्रायाणि धान्यानि अजाप्रायं तथा पयः ।
भविष्यति कलौ प्राप्ते ह्यौशीरं चानुलेपनम् ॥ ५४ ॥ कलिके आनेपर धान्य अत्यन्त अणु होंगे, प्रायः बकरियोंका ही दूध मिलेगा और उशीर (खस) ही एकमात्र अनुलेपन होगा ॥ ५४ ॥ श्वश्रूश्वशुरभूयिष्ठा गुरवश्च नृणां कलौ ।
श्यालाद्य हारिभार्याश्च सृहृदो मुनिसत्तम ॥ ५५ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! कलियुगमें सास और ससुर ही लोगोंके गुरुजन होंगे और हृदयहारिणी भार्या तथा साले ही सुहृद् होंगे ॥ ५५ ॥ कस्य माता पिता कस्य यथा कर्मानुगः पुमान् ।
इति चोदाहरिष्यन्ति श्वशुरानुगता नराः ॥ ५६ ॥ लोग अपने ससुरके अनुगामी होकर कहेंगे कि 'कौन किसका पिता है और कौन किसकी माता; सब पुरुष अपने कर्मानुसार जन्मते-मरते रहते हैं ॥ ५६ ॥ वाङ्मनःकायजैर्दोषैरभिभूताः पुनः पुनः ।
नराः पापान्यनुदिनं करिष्यन्त्यल्पमेधसः ॥ ५७ ॥ उस समय अल्पबुद्धि पुरुष बारम्बार वाणी, मन और शरीरादिके दोषोंके वशीभूत होकर प्रतिदिन पुनःपुनः पापकर्म करेंगे ॥ ५७ ॥ निःसत्त्वानामशौचानां निर्ह्रीकाणां तथा नृणाम् ।
यद्यद्दुःखाय तत्सर्वं कलिकाले भविष्यति ॥ ५८ ॥ शक्ति, शौच और लज्जाहीन पुरुषोंको जो-जो दुःख हो सकते हैं कलियुगमें वे सभी दुःख उपस्थित होंगे ॥ ५८ ॥ निःस्वाध्यायवषट्कारे स्वधास्वाहाविवर्जिते ।
तदा प्रविरलो धर्मः क्वचिल्लोके निवत्स्यति ॥ ५९ ॥ उस समय संसारके स्वाध्याय और वषट्कारसे हीन तथा स्वधा और स्वाहासे वर्जित हो जानेसे कहीं-कहीं कुछ-कुछ धर्म रहेगा ॥ ५९ ॥ तत्राल्पेनैव यत्नेन पुण्यस्कन्धमनुत्तमम् ।
करोति यं कृतयुगे क्रियते तपसा हि सः ॥ ६० ॥ किंतु कलियुगमें मनुष्य थोड़ा-सा प्रयत्न करनेसे ही जो अत्यन्त उत्तम पुण्यराशि प्राप्त करता है वही सत्ययुगमें महान् तपस्यासे प्राप्त किया जा सकता है ॥ ६० ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे षष्ठेंऽशे प्रथमोऽध्यायः
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेंऽशे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥ |