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॥ विष्णुपुराणम् ॥

षष्ठः अंशः

॥ चतुर्थोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
सप्तर्षिस्थानमाक्रम्य स्थितेऽम्भसि महामुने ।
एकार्णवं भवत्येतत्त्रैलोक्यमखिलं ततः ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले-हे महामुने ! जब जल सप्तर्षियोंके स्थानको भी पार कर जाता है तो यह सम्पूर्ण त्रिलोकी एक महासमुद्रके समान हो जाती है ॥ १ ॥

मुखनिःश्वासजो विष्णोर्वायुस्ताञ्जलदांस्ततः ।
नाशयन्वाति मैत्रेय वर्षाणामपरं शतम् ॥ २ ॥
हे मैत्रेय ! तदनन्तर, भगवान् विष्णुके मुखनि:श्वाससे प्रकट हुआ वायु उन मेघोंको नष्ट करके पुनः सौ वर्षतक चलता रहता है ॥ २ ॥

सर्वभूतमयोऽचिन्त्यो भगवान्भूतभावनः ।
अनादिरादिर्विश्वस्य पीत्वा वायुमशेषतः ॥ ३ ॥
एकार्णवे ततस्तस्मिञ्छेषशय्यागतः प्रभुः ।
ब्रह्मरूपधरः शेते भगवानादिकृद्धरिः ॥ ४ ॥
जनलोकगतैः सिद्धैः समकाद्यैरभिष्टुतः ।
ब्रह्मलोकगतैश्चैव चिन्त्यमानो मुमुक्षुभिः ॥ ५ ॥
आत्ममायामयीं दिव्यां योगनिद्रां समास्थितः ।
आत्मानं वासुदेवाख्यं चिन्तयन्मधुसूदनः ॥ ६ ॥
फिर जनलोकनिवासी सनकादि सिद्धगणसे स्तुत और ब्रह्मलोकको प्राप्त हुए मुमुक्षुओंसे ध्यान किये जाते हुए सर्वभूतमय, अचिन्त्य, अनादि, जगत्‌के आदिकारण, आदिकर्ता, भूतभावन, मधुसूदन भगवान् हरि विश्वके सम्पूर्ण वायुको पीकर अपनी दिव्य-मायारूपिणी योगनिद्राका आश्रय ले अपने वासुदेवात्मक स्वरूपका चिन्तन करते हुए उस महासमुद्र में शेषशय्यापर शयन करते हैं ॥ ३-६ ॥

एष नैमित्तिको नाम मैत्रेयः प्रतिसञ्चरः ।
निमित्तं तत्र यच्छेते ब्रह्मरूपधरो हरिः ॥ ७ ॥
हे मैत्रेय ! इस प्रलयके होनेमें ब्रह्मारूपधारी भगवान् हरिका शयन करना ही निमित्त है; इसलिये यह नैमित्तिक प्रलय कहलाता है ॥ ७ ॥

यदा जागर्ति सर्वात्मा स तदा चेष्टते जगत् ।
निमीलत्येतदखिलं मायाशय्यां गतेऽच्युते ॥ ८ ॥
जिस समय सर्वात्मा भगवान् विष्णु जागते रहते हैं उस समय सम्पूर्ण संसारकी चेष्टाएँ होती रहती हैं और जिस समय वे अच्युत मायारूपी शय्यापर सो जाते हैं उस समय संसार भी लीन हो जाता है ॥ ८ ॥

पद्मयोनेर्दिनं यत्तु चतुर्युगसहस्रवत् ।
एकार्णवीकृते लोके तावती रात्रिरिष्यते ॥ ९ ॥
जिस प्रकार ब्रह्माजीका दिन एक हजार चतुर्युगका होता है उसी प्रकार संसारके एकार्णवरूप हो जानेपर उनकी रात्रि भी उतनी ही बड़ी होती है ॥ ९ ॥

ततः प्रबुद्धो रात्र्यन्ते पुनःसृष्टिं करोत्यजः ।
ब्रह्मस्वरूपधृग्विष्णुर्यथा ते कथितं पुरा ॥ १० ॥
उस रात्रिका अन्त होनेपर अजन्मा भगवान् विष्णु जागते हैं और ब्रह्मारूप धारणकर, जैसा तुमसे पहले कहा था उसी क्रमसे फिर सृष्टि रचते हैं ॥ १० ॥

इत्येष कल्पसंहारोऽवान्तरप्रलयो द्विज ।
नैमित्तिकस्ते कथितः प्राकृतः शृण्वतः परम् ॥ ११ ॥
हे द्विज ! इस प्रकार तुमसे कल्पान्तमें होनेवाले नैमित्तिक एवं अवान्तर-प्रलयका वर्णन किया । अब दूसरे प्राकृत प्रलयका वर्णन सुनो ॥ ११ ॥

अनावृष्ट्यादिसम्पर्कात्कृते संक्षालने मुने ।
समस्तेष्वेव लोकेषु पातालेष्वखिलेषु च ॥ १२ ॥
महदादेर्विकारस्य विशेषान्तस्य संक्षये ।
कृष्णेच्छाकारिते तस्मिन्प्रवृत्ते प्रतिसञ्चरे ॥ १३ ॥
आपो ग्रसन्ति वै पूर्वं भूमेर्गन्धात्मकं गुणम् ।
आत्तगन्धा ततो भूमिः प्रलयत्वाय कल्पते ॥ १४ ॥
हे मुने ! अनावृष्टि आदिके संयोगसे सम्पूर्ण लोक और निखिल पातालोंके नष्ट हो जानेपर तथा भगवदिच्छासे उस प्रलयकालके उपस्थित होनेपर जब महत्तत्त्वसे लेकर [पृथिवी आदि पंच] विशेषपर्यन्त सम्पूर्ण विकार क्षीण हो जाते हैं तो प्रथम जल पृथिवीके गुण गन्धको अपनेमें लीन कर लेता है । इस प्रकार गन्ध छिन लिये जानेसे पृथिवीका प्रलय हो जाता है ॥ १२-१४ ॥

प्रणष्टे गन्धतन्मात्रे भवत्युर्वी जलात्मिका ।
आपस्तदा प्रवृद्धास्तु वेगवत्यो महास्वनाः ॥ १५ ॥
सर्वमापूरयन्तीदं तिष्ठन्ति विचरन्ति च ।
सलिलेनोर्मिमालेन लोका व्याप्ताः समन्ततः ॥ १६ ॥
गन्ध-तन्मात्राके नष्ट हो जानेपर पृथिवी जलमय हो जाती है, उस समय बड़े वेगसे घोर शब्द करता हुआ जल बढ़कर इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त कर लेता है । यह जल कभी स्थिर होता और कभी बहने लगता है । इस प्रकार तरंगमालाओंसे पूर्ण इस जलसे सम्पूर्ण लोक सब ओरसे व्याप्त हो जाते हैं ॥ १५-१६ ॥

अपामपि गुणो यस्तु ज्योतिषा पीयते तु सः ।
नश्यन्त्यापस्ततस्ताश्च रसतन्मात्रसंक्षयात् ॥ १७ ॥
तदनन्तर जलके गुण रसको तेज अपनेमें लीन कर लेता है । इस प्रकार रस-तन्मात्राका क्षय हो जानेसे जल भी नष्ट हो जाता है ॥ १७ ॥

ततश्चापो हृतरसा ज्योतिषं प्राप्नुवन्ति वै ।
अग्नावस्थे तु सलिले तेजसा सर्वतो वृते ॥ १८ ॥
स चाग्निः सर्वतो व्याप्य चादत्ते तज्जलं तथा ।
सर्वमापूर्यतेर्चिर्भिस्तदा जगदिदं शनैः ॥ १९ ॥
तब रसहीन हो जानेसे जल अग्निरूप हो जाता है तथा अग्निके सब ओर व्याप्त हो जानेसे जलके अग्निमें स्थित हो जानेपर वह अग्नि सब ओर फैलकर सम्पूर्ण जलको सोख लेता है और धीरे-धीरे यह सम्पूर्ण जगत् ज्वालासे पूर्ण हो जाता है ॥ १८-१९ ॥

अर्चिर्भिः संवृते तस्मिंस्तिर्यगूर्ध्वमधस्तदा ।
ज्योतिषोऽपि परं रूपं वायुरत्ति प्रभाकरम् ॥ २० ॥
जिस समय सम्पूर्ण लोक ऊपर-नीचे तथा सब ओर अग्नि-शिखाओंसे व्याप्त हो जाता है उस समय अग्निके प्रकाशक स्वरूपको वायु अपनेमें लीन कर लेता है ॥ २० ॥

प्रलीने च ततस्तस्मिन्वायुभूतेऽखिलात्मनि ।
प्रनष्टे रूपतन्मात्रे हृतरूपो विभावसुः ॥ २१ ॥
सबके प्राणस्वरूप उस वायुमें जब अग्निका प्रकाशक रूप लीन हो जाता है तो रूप-तन्मात्राके नष्ट हो जानेसे अग्नि रूपहीन हो जाता है ॥ २१ ॥

प्रशाम्यति तदाज्योतिर्वायुर्दोधूयते महान् ।
निरा लोके तथा लोके वाय्ववस्थे च तेजसि ॥ २२ ॥
उस समय संसारके प्रकाशहीन और तेजके वायुमें लीन हो जानेसे अग्नि शान्त हो जाता है और अति प्रचण्ड वायु चलने लगता है ॥ २२ ॥

ततस्तु मूलमासाद्य वायुःसम्भवमात्मनः ।
ऊर्ध्वं चाधश्च तिर्यक्च दोधवीति दिशो दश ॥ २३ ॥
तब अपने उद्‌भवस्थान आकाशका आश्रय कर वह प्रचण्ड वायु ऊपर-नीचे तथा सब ओर दसों दिशाओं में बड़े वेगसे चलने लगता है ॥ २३ ॥

वायोरपि गुणं स्पर्शमाकाशो ग्रसते ततः ।
प्रशाम्यति ततो वायुः खं तु तिष्ठत्यनावृतम् ॥ २४ ॥
तदनन्तर वायुके गुण स्पर्शको आकाश लीन कर लेता है; तब वायु शान्त हो जाता है और आकाश आवरणहीन हो जाता है ॥ २४ ॥

अरूपरसमस्पर्शमगन्धं न च मूर्तिमत् ।
सर्वमापूरयच्चैव सुमहात्तत्प्रकाशते ॥ २५ ॥
उस समय रूप, रस, स्पर्श, गन्ध तथा आकारसे रहित अत्यन्त महान् एक आकाश ही सबको व्याप्त करके प्रकाशित होता है ॥ २५ ॥

परिमण्डलं च सुषिरमाकाशं शब्दलक्षणम् ।
शब्दमात्रं तदाकाशं सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ २६ ॥
उस समय चारों ओरसे गोल, छिद्रस्वरूप, शब्दलक्षण आकाश ही शेष रहता है; और वह शब्दमात्र आकाश सबको आच्छादित किये रहता है ॥ २६ ॥

ततःशब्दगुणं तस्य भूतादिर्ग्रसते पुनः ।
भूतेन्द्रियेषु युगपद्‍भूतादौ संस्थितेषु वै ।
अभिमानात्मको ह्येष भूतादिस्तामसःस्मृतः ॥ २७ ॥
भीतादिं ग्रसते चापि महान्वै बुद्धिलक्षणः ॥ २८ ॥
तदनन्तर, आकाशके गुण शब्दको भूतादि ग्रस लेता है । इस भूतादिमें ही एक साथ पंचभूत और इन्द्रियोंका भी लय हो जानेपर केवल अहंकारात्मक रह जानेसे यह तामस (तमःप्रधान) कहलाता है फिर इस भूतादिको भी [सत्त्वप्रधान होनेसे] बुद्धिरूप महत्तत्त्व ग्रस लेता है ॥ २७-२८ ॥

उर्वी महांश्च जगतः प्रान्तेऽन्तर्बाह्यतस्तथा ॥ २९ ॥
जिस प्रकार पृथ्वी और महत्तत्त्व ब्रह्माण्डके अन्तर्जगत्‌की आदि-अन्त सीमाएँ हैं उसी प्रकार उसके बाह्य जगत्‌का भी हैं ॥ २९ ॥

एवं सप्त महाबुद्धे क्रमात्प्रकृतयःस्मृताः ।
प्रत्याहारे तु ताःसर्वाः प्रविशन्ति परस्परम् ॥ ३० ॥
हे महाबुद्धे ! इसी तरह जो सात आवरण बताये गये हैं वे सब भी प्रलयकालमें [पूर्ववत् पृथिवी आदि क्रमसे] परस्पर (अपने-अपने कारणोंमें) लीन हो जाते हैं ॥ ३० ॥

येनेदमावृतं सर्वमण्डमप्सु प्रलीयते ।
सप्तद्वीपसमुद्रान्तं सप्तलोकं सपर्वतम् ॥ ३१ ॥
जिससे यह समस्त लोक व्याप्त है वह सम्पूर्ण भूमण्डल सातों द्वीप, सातों समुद्र, सातों लोक और सकल पर्वतश्रेणियोंके सहित जलमें लीन हो जाता है ॥ ३१ ॥

उदकावरणं यत्तु ज्योतिषा पीयते तु तत् ।
ज्योतिर्वायौ लयं याति यात्याकाशे समीरणः ॥ ३२ ॥
फिर जो जलका आवरण है उसे अग्नि पी जाता है तथा अग्नि वायुमें और वायु आकाशमें लीन हो जाता है ॥ ३२ ॥

आकाशं चैव भूतादिर्ग्रसते तं तथा महान् ।
महान्तमेभिः सहितं प्रकृतिर्ग्रसते द्विज ॥ ३३ ॥
हे द्विज ! आकाशको भूतादि (तामस अहंकार), भूतादिको महत्तत्त्व और इन सबके सहित महत्तत्त्वको मूल प्रकृति अपनेमें लीन कर लेती है ॥ ३३ ॥

गुसाम्यमनुद्रिक्तमन्यूनं च महामुने ।
प्रोच्यते प्रकतिर्हेतुः प्रधानं कारणं परम् ॥ ३४ ॥
हे महामुने ! न्यूनाधिकसे रहित जो सत्त्वादि तीनों गुणोंकी साम्यावस्था है उसीको प्रकृति कहते हैं । इसीका नाम प्रधान भी है । यह प्रधान ही सम्पूर्ण जगत्‌का परम कारण है ॥ ३४ ॥

इत्येषा प्रकृतिःसर्वा व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी ।
व्यक्तस्वरूपमव्यक्ते तस्मान्मैत्रेय लीयते ॥ ३५ ॥
यह प्रकृति व्यक्त और अव्यक्तरूपसे सर्वमयी है । हे मैत्रेय ! इसीलिये अव्यक्तमें व्यक्तरूप लीन हो जाता है ॥ ३५ ॥

एकः शुद्धोऽक्षरो नित्यःसर्वव्यापी तथा पुमान् ।
सोऽप्यंशःसर्वभूतस्य मैत्रेय परमात्मनः ॥ ३६ ॥
इससे पृथक् जो एक शुद्ध, अक्षर, नित्य और सर्वव्यापक पुरुष है वह भी सर्वभूत परमात्माका अंश ही है ॥ ३६ ॥

न सन्ति यत्र सर्वेशे नामजात्यादिकल्पनाः ।
सत्तामात्रात्मके ज्ञेये ज्ञानात्मन्यात्मनः परे ॥ ३७ ॥
तद्‍ब्रह्म परमं धाम परमात्मा स चेश्वरः ।
स विष्णुःसर्वमेवेदं यतो नावर्तते यतिः ॥ ३८ ॥
जिस सत्तामात्रस्वरूप आत्मा (देहादि संघात) से पृथक् रहनेवाले ज्ञानात्मा एवं ज्ञातव्य सर्वेश्वरमें नाम और जाति आदिकी कल्पना नहीं है वही सबका परम आश्रय परब्रह्म परमात्मा है और वही ईश्वर है । वह विष्णु ही इस अखिल विश्वरूपसे अवस्थित है उसको प्राप्त हो जानेपर योगिजन फिर इस संसारमें नहीं लौटते ॥ ३७-३८ ॥

प्रकृतिर्या मयाऽऽख्याता व्यक्ताव्यक्तस्वरूपिणी ।
पुरुषश्चाप्युभावेतौ लीयेते परमात्मनि ॥ ३९ ॥
जिस व्यक्त और अव्यक्तस्वरूपिणी प्रकृतिका मैंने वर्णन किया है वह तथा पुरुष-ये दोनों भी उस परमात्मामें ही लीन हो जाते हैं ॥ ३९ ॥

परमात्मा च सर्वेषामाधारः परमेश्वरः ।
विष्णुनामा स वेदेषु वेदान्तेषु च गीयते ॥ ४० ॥
वह परमात्मा सबका आधार और एकमात्र अधीश्वर है । उसीका वेद और वेदान्तोंमें विष्णुनामसे वर्णन किया है ॥ ४० ॥

प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं कर्म वैदिकम् ।
ताभ्यामुभाभ्यां पुरुषैः सर्वमूर्तिः स इज्यते ॥ ४१ ॥
वैदिक कर्म दो प्रकारका है-प्रवृत्तिरूप (कर्मयोग) और निवृत्तिरूप (सांख्ययोग) । इन दोनों प्रकारके कर्मोंसे उस सर्वभूत पुरुषोत्तमका ही यजन किया जाता है ॥ ४१ ॥

ऋग्यजुःसामभिर्मार्गैः प्रवृत्तेरिज्यते ह्यसौ ।
यज्ञेश्वरो यज्ञपुमान्पुरुषैः पुरुषोत्तमः ॥ ४२ ॥
ऋक्, यजुः और सामवेदोक्त प्रवृत्तिमार्गसे लोग उन यज्ञपति पुरुषोत्तम यज्ञ-पुरुषका ही पूजन करते हैं ॥ ४२ ॥

ज्ञानात्मा ज्ञानयोगेन ज्ञानमूर्तिः स चेज्यते ।
निवृत्ते योगिभिर्मार्गे विष्णुर्मुक्तिफलप्रदः ॥ ४३ ॥
तथा निवृत्ति-मार्गमें स्थित योगिजन भी उन्हीं ज्ञानात्मा ज्ञानस्वरूप मुक्ति-फलदायक भगवान् विष्णुका ही ज्ञानयोगद्वारा यजन करते हैं ॥ ४३ ॥

ह्रस्वदीर्घप्लुतैर्यत्तु किञ्चिद्वस्त्वभिधीयते ।
यच्च वाचामविषयं तत्सर्वं विष्णुरव्ययः ॥ ४४ ॥
ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत-इन त्रिविध स्वरोंसे जो कुछ कहा जाता है तथा जो वाणीका विषय नहीं है वह सब भी अव्ययात्मा विष्णु ही है ॥ ४४ ॥

व्यक्तःस एव चाव्यक्तः स एव पुरुषोऽव्ययः ।
परमात्मा च विश्वात्मा विश्वरूपधरो हरिः ॥ ४५ ॥
वह विश्वरूपधारी विश्वरूप परमात्मा श्रीहरि ही व्यक्त, अव्यक्त एवं अविनाशी पुरुष हैं ॥ ४५ ॥

व्यक्ताव्यक्तात्मिका तस्मिन्प्रकृतिःसम्प्रलीयते ।
पुरुषश्चापि मैत्रेय व्यापिन्यव्याहतात्मनि ॥ ४६ ॥
हे मैत्रेय ! उन सर्वव्यापक और अविकृतरूप परमात्मामें ही व्यक्ताव्यक्तरूपिणी प्रकृति और पुरुष लीन हो जाते हैं ॥ ४६ ॥

द्विपरार्धात्मकः कालः कथितो यो मया तव ।
तदहस्तस्य मैत्रेय विष्णोरीशस्य कथ्यते ॥ ४७ ॥
हे मैत्रेय ! मैंने तुमसे जो द्विपरार्द्धकाल कहा है वह उन विष्णुभगवान्‌का केवल एक दिन है ॥ ४७ ॥

व्यक्ते च प्रकृतौ लीने प्रकृत्यां पुरुषे तथा ।
तत्र स्थिते निशा चास्य तत्प्रमाणा महामुने ॥ ४८ ॥
हे महामुने ! व्यक्त जगत्‌के अव्यक्त-प्रकृतिमें और प्रकृतिके पुरुषमें लीन हो जानेपर इतने ही कालकी विष्णुभगवान्‌की रात्रि होती है ॥ ४८ ॥

नैवाहस्तस्य न निशा नित्यस्य परमात्मनः ।
उपचारस्तथाप्येष तस्येशस्य द्विजोच्यते ॥ ४९ ॥
हे द्विज ! वास्तवमें तो उन नित्य परमात्माका न कोई दिन है और न रात्रि, तथापि केवल उपचार (अध्यारोप)-से ऐसा कहा जाता है ॥ ४९ ॥

इत्येष तव मैत्रेय कथितः प्राकृतो लयः ।
आत्यन्तिकमथो ब्रह्मन्निबोध प्रतिसञ्चरम् ॥ ५० ॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार मैंने तुमसे यह प्राकृत प्रलयका वर्णन किया, अब तुम आत्यन्तिक प्रलयका वर्णन और सुनो ॥ ५० ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे षष्ठेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः (४)
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेऽशे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४ ॥



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