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॥ विष्णुपुराणम् ॥ षष्ठः अंशः ॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥ श्रीपराशर उवाच
आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुधः । उत्पन्नज्ञानवैराग्यं प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम् ॥ १ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक-तीनों तापोंको जानकर ज्ञान और वैराग्य उत्पन्न होनेपर पण्डितजन आत्यन्तिक प्रलय प्राप्त करते हैं ॥ १ ॥ आध्यात्मिकोपि द्विविधः शरीरो मानसस्तथा ।
शारीरो बहुभिर्भेदैर्भिद्यते श्रुयतां च सः ॥ २ ॥ आध्यात्मिक ताप शारीरिक और मानसिक दो प्रकारके होते हैं । उनमें शारीरिक तापके भी कितने ही भेद है, वह सुनो ॥ २ ॥ शिरोरोगप्रतिश्यायज्वरशूलभगन्दरैः ।
गुल्मार्शः श्वययुश्वासच्छर्द्यादिभिरनेकधा ॥ ३ ॥ तथाक्षिरोगातीसारकुष्ठाङ्गामयसंज्ञितैः । भिद्यते देहजस्तापो मानसं श्रोतुमर्हसि ॥ ४ ॥ शिरोरोग, प्रतिश्याय (पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म, अर्श (बवासीर), शोथ (सूजन), श्वास (दमा), छर्दि तथा नेत्ररोग, अतिसार और कुष्ठ आदि शारीरिक कष्ट-भेदसे दैहिक तापके कितने ही भेद हैं । अब मानसिक तापोंको सुनो ॥ ३-४ ॥ कामक्रोधभयद्वेषलोभमोहविषादजः ।
शोकासूयावमानेर्ष्यामात्सर्यादिमयस्तथा ॥ ५ ॥ मानसोऽपि द्विजश्रेष्ठ तापो भवति नैकधा । इत्येवमादिभिर्भेदैस्तापो ह्याध्यात्मिकः स्मृतः ॥ ६ ॥ हे द्विज श्रेष्ठ ! काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद, शोक, असूया (गुणोंमें दोषारोपण), अपमान, ईर्ष्या और मात्सर्य आदि भेदोंसे मानसिक तापके अनेक भेद हैं । ऐसे ही नाना प्रकारके भेदोंसे युक्त तापको आध्यात्मिक कहते हैं ॥ ५-६ ॥ मृगपक्षिमनुष्याद्यैः पिशाचोरगराक्षसैः ।
सरीसृपाद्यैश्च नृणां जायते चाधिभौतिकः ॥ ७ ॥ मनुष्योंको जो दुःख मृग, पक्षी, मनुष्य, पिशाच, सर्प, राक्षस और सरीसृप (बिच्छू) आदिसे प्राप्त होता है उसे आधिभौतिक कहते हैं ॥ ७ ॥ शीतवातोष्णवर्षाम्बुवैद्युतादिसमुद्भवः ।
तापो द्विजवर श्रेष्ठैः कथ्यते चाधिदैविकः ॥ ८ ॥ तथा हे द्विजवर ! शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदिसे प्राप्त हुए दुःखको श्रेष्ठ पुरुष आधिदैविक कहते हैं ॥ ८ ॥ गर्भजन्मजराज्ञानमृत्युनारकजं तथा ।
दुःखं सहस्रशो भेदैर्भिद्यते मुनिसत्तम ॥ ९ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इनके अतिरिक्त गर्भ, जन्म, जरा, अज्ञान, मृत्यु और नरकसे उत्पन्न हुए दुःखके भी सहस्रों प्रकारके भेद हैं ॥ ९ ॥ सुकुमारतनुर्गर्भे जन्तुर्बहुमलावृते ।
उल्वसंवेष्टितो भुग्नपृष्ठग्रीवास्थिसंहतिः ॥ १० ॥ अत्यम्लकटुतीक्ष्णोष्णलवणैर्मातृभोजनैः । अत्यन्ततापैरत्यर्थं वर्धमानातिवेदनः ॥ ११ ॥ प्रसारणाकुञ्चनादौ नाङ्गानां प्रभुरात्मनः । शकृन्मूत्रमहापङ्कशायी सर्वत्र पीडितः ॥ १२ ॥ निरुच्छ्वासः सचैतन्यः स्मरञ्जन्मशतान्यथ । आस्ते गर्भेऽतिदुःखेन निजकर्मनिबन्धनः ॥ १३ ॥ अत्यन्त मलपूर्ण गर्भाशयमें उल्ब (गर्भकी झिल्ली)-से लिपटा हुआ यह सुकुमारशरीर जीव, जिसकी पीठ और ग्रीवाकी अस्थियाँ कुण्डलाकार मुड़ी रहती हैं, माताके खाये हुए अत्यन्त तापप्रद खट्टे, कड़वे, चरपरे, गर्म और खारे पदार्थोंसे जिसकी वेदना बहुत बढ़ जाती है, जो मल-मूत्ररूप महापंकमें पड़ापड़ा सम्पूर्ण अंगोंमें अत्यन्त पीड़ित होनेपर भी अपने अंगोंको फैलाने या सिकोड़ने में समर्थ नहीं होता और चेतनायुक्त होनेपर भी श्वास नहीं ले सकता, अपने सैकड़ों पूर्वजन्मोंका स्मरण कर कर्मोंसे बंधा हुआ अत्यन्त दुःखपूर्वक गर्भमें पड़ा रहता है ॥ १०-१३ ॥ जायमानः पुरीषासृङ्मूत्रशुक्राविलाननः ।
प्राजापत्येन वातेन पीड्यमानास्थिबन्धनः ॥ १४ ॥ उत्पन्न होनेके समय उसका मुख मल, मूत्र, रक्त और वीर्य आदिमें लिपटा रहता है और उसके सम्पूर्ण अस्थिबन्धन प्राजापत्य (गर्भको संकुचित करनेवाली) वायुसे अत्यन्त पीड़ित होते हैं ॥ १४ ॥ अधोमुखो वै क्रियते प्रबलैः सूतिमारुतैः ।
क्लेशान्निष्क्रान्तिमाप्नोति जठरान्मातुरातुरः ॥ १५ ॥ प्रबल प्रसूति-वायु उसका मुख नीचेको कर देती है और वह आतुर होकर बड़े क्लेशके साथ माताके गर्भाशयसे बाहर निकल पाता है ॥ १५ ॥ मुर्च्छामवाप्य महतीं संस्पृष्टो बाह्यवायुना ।
विज्ञानभ्रंशमाप्नोति जातश्च मुनिसत्तम ॥ १६ ॥ । हे मुनिसत्तम ! उत्पन्न होनेके अनन्तर बाह्य वायुका स्पर्श होनेसे अत्यन्त मूर्च्छित होकर वह जीव बेसुध हो जाता है ॥ १६ ॥ कण्टकैरिव तुन्नाङ्गः क्रकचैरिव दारितः ।
पूतिव्रणान्निपतितो धरण्यां कृमिको यथा ॥ १७ ॥ उस समय वह जीव दुर्गन्धयुक्त फोड़ेमेंसे गिरे हुए किसी कण्टक-विद्ध अथवा आरेसे चीरे हुए कीड़ेके समान पृथिवीपर गिरता है ॥ १७ ॥ कण्डूयनेऽपि चाशक्तः परिवर्तेप्यनीश्वरः ।
स्नानपानादिकाहारमप्याप्नोति परेच्छया ॥ १८ ॥ उसे स्वयं खुजलाने अथवा करवट लेनेकी भी शक्ति नहीं रहती । वह स्नान तथा दुग्धपानादि आहार भी दूसरेहीकी इच्छासे प्राप्त करता है ॥ १८ ॥ अशुचिप्रस्तरे सुप्तः कीटद्रंशादिभिस्तथा ।
भक्ष्यमाणोऽपि नैवैषां समर्थो विनिवारणे ॥ १९ ॥ अपवित्र (मल-मूत्रादिमें सने हुए) बिस्तरपर पड़ा रहता है, उस समय कीड़े और डाँस आदि उसे काटते हैं तथापि वह उन्हें दूर करनेमें भी समर्थ नहीं होता ॥ १९ ॥ जन्मदुःखान्यनेकानि जन्मनोऽनन्तराणि च ।
बालभावे यदा प्नोति ह्याधिभौतादिकानि च ॥ २० ॥ इस प्रकार जन्मके समय और उसके अनन्तर बाल्यावस्थामें जीव आधिभौतिकादि अनेकों दुःख भोगता है ॥ २० ॥ अज्ञानतमसाऽऽच्छन्नो मूढान्तःकरणो नरः ।
न जानाति कुतः कोऽहं क्वाहं गन्ता किमात्मनः ॥ २१ ॥ अज्ञानरूप अन्धकारसे आवृत होकर मूढहृदय पुरुष यह नहीं जानता कि 'मैं कहाँसे आया हूँ ? कौन हूँ ? कहाँ जाऊँगा ? तथा मेरा स्वरूप क्या है ? ॥ २१ ॥ केनबन्धेन बद्धोऽहं कारणं किमकारणम् ।
किं कार्यं किमकार्यं वा किं वाच्यं किं च नोच्यते ॥ २२ ॥ मैं किस बन्धनसे बंधा हूँ ? इस बन्धनका क्या कारण है ? अथवा यह अकारण ही प्राप्त हुआ है ? मुझे क्या करना चाहिये और क्या न करना चाहिये ? तथा क्या कहना चाहिये और क्या न कहना चाहिये ? ॥ २२ ॥ को धर्मः कश्च वाधर्मः कस्मिन्वर्तेऽथ वा कथम् ।
किं कर्तव्यमकर्तव्यं किं वा किं गुणदोषवत् ॥ २३ ॥ धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? किस अवस्थामें मुझे किस प्रकार रहना चाहिये ? क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है ? अथवा क्या गुणमय और क्या दोषमय है ?' ॥ २३ ॥ एवं पशुसमैर्मुढैरज्ञानप्रभवं महत् ।
अवाप्यते नरैर्दुःखं शिश्नोदरपरायणैः ॥ २४ ॥ इस प्रकार पशुके समान विवेकशून्य शिश्नोदरपरायण पुरुष अज्ञानजनित महान् दुःख भोगते हैं ॥ २४ ॥ अज्ञानं तामसो भावः कार्यारम्भप्रवृत्तयः ।
अज्ञानिनां प्रवर्तन्ते कर्मलोपास्ततो द्विज ॥ २५ ॥ हे द्विज ! अज्ञान तामसिक भाव (विकार) है, अतः अज्ञानी पुरुषोंकी (तामसिक) कर्मोंके आरम्भमें प्रवृत्ति होती है । इससे वैदिक कर्मोका लोप हो जाता है ॥ २५ ॥ नरकं कर्मणां लोपात्फलमाहुर्मनीषिणः ।
तस्मादज्ञानिनां दुःखमिह चामुत्र चोत्तमम् ॥ २६ ॥ मनीषिजनोंने कर्म-लोपका फल नरक बतलाया है; इसलिये अज्ञानी पुरुषोंको इहलोक और परलोक दोनों जगह अत्यन्त ही दुःख भोगना पड़ता है ॥ २६ ॥ जराजर्जरदेहश्च शिथिलावयवः पुमान् ।
विचलच्छीर्णदशनो वलिस्नायुशिरावृतः ॥ २७ ॥ शरीरके जराजर्जरित हो जानेपर पुरुषके अंग-प्रत्यंग शिथिल हो जाते हैं, उसके दाँत पुराने होकर उखड़ जाते हैं और शरीर झुर्रियों तथा नस-नाड़ियोंसे आवृत हो जाता है ॥ २७ ॥ दूरप्रनष्टनयनो व्योमान्तर्गततारकः ।
नासाविवलनिर्यातलोमपुञ्जश्चलद्वपुः ॥ २८ ॥ उसकी दृष्टि दूरस्थ विषयके ग्रहण करने में असमर्थ हो जाती है, नेत्रोंके तारे गोलकोंमें घुस जाते हैं, नासिकाके रन्धोंमेंसे बहुत-से रोम बाहर निकल आते हैं और शरीर काँपने लगता है ॥ २८ ॥ प्रकटीभूतसर्वास्थिर्नतपृष्ठास्थिसंहतिः ।
उत्सन्नजठराग्नित्वाद् अल्पाहारोऽप्लचेष्टितः ॥ २९ ॥ उसकी समस्त हड़ियाँ दिखलायी देने लगती हैं, मेरुदण्ड झुक जाता है तथा जठराग्निके मन्द पड़ जानेसे उसके आहार और पुरुषार्थ कम हो जाते हैं ॥ २९ ॥ कृच्छ्राच्चङ्क्रमणोत्थानशयनासनचेष्टितः ।
मन्दीभवच्छ्रोत्रनेत्रःस्रवल्लालाविलाननः ॥ ३० ॥ उस समय उसकी चलना-फिरना, उठनाबैठना और सोना आदि सभी चेष्टाएँ बड़ी कठिनतासे होती हैं, उसके श्रोत्र और नेत्रोंकी शक्ति मन्द पड़ जाती है तथा लार बहते रहनेसे उसका मुख मलिन हो जाता है ॥ ३० ॥ अनायत्तैः समस्तैश्च करणेर्मरणोन्मुखः ।
तत्क्षणेप्यनुभूतानामस्मर्ताखिलवस्तुनाम् ॥ ३१ ॥ अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ स्वाधीन न रहनेके कारण वह सब प्रकार मरणासन्न हो जाता है तथा [स्मरणशक्तिके क्षीण हो जानेसे] वह उसी समय अनुभव किये हुए समस्त पदार्थोंको भी भूल जाता है ॥ ३१ ॥ सकृदुच्चारिते वाक्ये समुद्भूतमहाश्रमः ।
श्वासकाशसमुद्भूतमहायासप्रजागरः ॥ ३२ ॥ उसे एक वाक्य उच्चारण करने में भी महान् परिश्रम होता है तथा श्वास और खाँसी आदिके महान् कष्टके कातण वह [दिन-रात] जागता रहता है ॥ ३२ ॥ अन्येनोत्थाप्यतेऽन्येन तथा संवेश्यते जरी ।
भृत्यात्मपुत्रदाराणामवमानास्पदी कृतः ॥ ३३ ॥ वृध्द पुरुष औरोंकी सहायतासे ही उठता तथा औरोंके बिठानेसेही बैठ सकता है, अतः वह अपने सेवक और स्त्रीपुत्रादिके लिये सदा अनादरका पात्र बना रहता है ॥ ३३ ॥ प्रक्षीणाखिलशौचश्च विहाराहारसस्पृहः ।
हास्यः परिजनस्यापि निर्विण्णाशेषबान्धवः ॥ ३४ ॥ उसका समस्त शौचाचार नष्ट हो जाता है तथा भोग और भोजनकी लालसा बढ़ जाती है; उसके परिजन भी उसकी हँसी उड़ाते हैं और बन्धुजन उससे उदासीन हो जाते हैं ॥ ३४ ॥ अनुभूतमिवान्यस्मिञ्जन्मन्यात्मविचेष्टितम् ।
संस्मरन्यौवने दीर्घं निःश्वसत्यभितापितः ॥ ३५ ॥ अपनी युवावस्थाकी चेष्टाओंको अन्य जन्ममें अनुभव की हुई-सी स्मरण करके वह अत्यंत सन्तापवश दीर्घ निःश्वास छोड़ता रहता है ॥ ३५ ॥ एवमादीनि दुःखानि जरायामनुभूय वै ।
मरणे यानि दुःखानि प्राप्नोति शृणु तान्यपि ॥ ३६ ॥ इस प्रकार वृद्धावस्थामें ऐसे ही अनेकों दुःख अनुभव कर उसे मरणकालमें जो कष्ट भोगने पड़ते हैं वे भी सुनो ॥ ३६ ॥ श्लथद्ग्रीवाङ्घ्रिहस्तोऽथ व्याप्तो वेपथुना भृशम् ।
मुहुर्ग्लानिपरवशो मुहुर्ज्ञानलवान्वितः ॥ ३७ ॥ कण्ठ और हाथ-पैर शिथिल पड जाते तथा शरीरमें अत्यन्त कम्प छा जाता है । बार-बार उसे ग्लनी होती और कभी कुछ चेतना भी आ जाती है ॥ ३७ ॥ हिरण्यधान्यतनयभार्याभृत्यगृहादिषु ।
एते कथं भविष्यन्तीत्यतीव ममताकुलः ॥ ३८ ॥ उस समय वह अपने हिरण्य (सोना), धन-धान पुत्र स्त्री भृत्य और गृह आदिके प्रति 'इन सबका क्या होगा ?' इस प्रकार अत्यन्त ममतासे व्याकुल हो जाता है ॥ ३८ ॥ मर्मभिद्भिर्महारोगैः क्रकचैरिव दारुणैः ।
शरैरिवान्तकस्योग्रैश्छिद्यमानासुबन्धनः ॥ ३९ ॥ उस समय मर्मभेदी क्रकच (आरे) तथा यमराजके विकराल बाणके समान महाभयंकर रोगोंसे उसके प्राण-बन्धन कटने लगते हैं ॥ ३९ ॥ परिवर्तितताराक्षो हस्तपादं मुहुः क्षिपन् ।
संशुष्यमाणताल्वोष्ठपुटो घुरघुरायते ॥ ४० ॥ उसकी आँखोंके तारे चढ़ जाते हैं, वह अत्यन्त पीड़ासे बारम्बार हाथ-पैर पटकता है तथा उसके तालु और ओंठ सूखने लगते हैं ॥ ४० ॥ निरुद्धकण्ठो दोषौघैरुदानश्वासपीडितः ।
तापेन महता व्याप्तस्तृषा चार्तस्तथा क्षुधा ॥ ४१ ॥ फिर क्रमशः दोष-समूहसे उसका कण्ठ रुक जाता है अत: वह 'घरघर' शब्द करने लगता है; तथा ऊर्ध्वश्वाससे पीडित और महान् तापसे व्याप्त होकर क्षुधा-तृष्णासे व्याकुल हो उठता है ॥ ४१ ॥ क्लेशादुत्क्रान्तिमाप्नोति यमकिङ्करपीडितः ।
ततश्च यातनादेहं क्लेशेन प्रतिपद्यते ॥ ४२ ॥ ऐसी अवस्थामें भी यमदूतोंसे पीडित होता हुआ वह बड़े क्लेशसे शरीर छोड़ता है और अत्यन्त कष्टसे कर्मफल भोगनेके लिये यातना-देह प्राप्त करता हैः ॥ ४२ ॥ एतान्यन्यानि चोग्राणि दुःखानि मरणे नृणाम् ।
शृणुष्व नरके यानि प्राप्यन्ते पुरुषैर्मृतैः ॥ ४३ ॥ मरणकालमें मनुष्योंको ये और ऐसे ही अन्य भयानक कष्ट भोगने पड़ते हैं; अब, मरणोपरान्त उन्हें नरकमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं वह सुनो- ॥ ४३ ॥ याम्यकिङ्करपाशादिग्रहणं दण्डताडनम् ।
यमस्य दर्शनं चोग्रमुग्रमार्गविलोकनम् ॥ ४४ ॥ प्रथम यम-किंकर अपने पाशोंमें बाँधते हैं; फिर उनके दण्ड-प्रहार सहने पड़ते हैं, तदनन्तर यमराजका दर्शन होता है और वहाँतक पहुँचनेमें बडा दुर्गम मार्ग देखना पडता है ॥ ४४ ॥ करम्भवालुकावह्नियन्त्रशस्त्रादिभीषणे ।
प्रत्येकं नरके याश्च यातना द्विज दुःसहाः ॥ ४५ ॥ हे द्विज ! फिर तप्त बालुका, अग्नि-यन्त्र और शस्त्रादिसे महाभयंकर नरकोंमें जो यातनाएँ भोगनी पड़ती हैं वे अत्यन्त असह्य होती हैं ॥ ४५ ॥ क्रकचैः पाट्यमानानां मूषायां चापि दह्यताम् ।
कुठारैः कृत्यमानानां भूमौ चापि निखन्यताम् ॥ ४६ ॥ शूलेष्वारोप्यमाणानां व्याघ्रवक्त्रे प्रवेश्यताम् । गृध्रैः सम्भक्ष्यमाणानां द्वीपिभिश्चोपभुज्यताम् ॥ ४७ ॥ क्वाथ्यतां तैलमध्ये च क्लिद्यतां क्षारकर्दमे । उच्चान्निपात्यमानानां क्षिप्यतां क्षेपयन्त्रकैः ॥ ४८ ॥ नरके यानि दुःखानि पापहेतूद्भवानि वै । प्राप्यन्ते नारकैर्विप्र तेषां संख्या न विद्यते ॥ ४९ ॥ आरेसे चीरे जाने, मूसमें तपाये जाने, कुल्हाड़ीसे काटे जाने, भूमिमें गाड़े जाने, शूलीपर चढ़ाये जाने, सिंहके मुख में डाले जाने, गिद्धोंके नोचने, हाथियोंसे दलित होने, तेलमें पकाये जाने, खारे दलदलमें फंसने, ऊपर ले जाकर नीचे गिराये जाने और क्षेपण-यन्त्रद्वारा दूर फेंके जानेसे नरकनिवासियोंको अपने पाप-कर्मोंके कारण जो-जो कष्ट उठाने पड़ते हैं उनकी गणना नहीं हो सकती ॥ ४६-४९ ॥ न केवलं द्विजश्रेष्ठ नरके दुःखपद्धतिः ।
स्वर्गेऽपि पातभीतस्य क्षयिष्णोर्नास्ति निर्वृतिः ॥ ५० ॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! केवल नरकमें ही दुःख हों, सो बात नहीं है, स्वर्गमें भी पतनका भय लगे रहनेसे कभी शान्ति नहीं मिलती ॥ ५० ॥ पुनश्च गर्भे भवति जायते च पुनः पुनः ।
गर्भे विलीयते भूयो जायमानोऽस्तमेति वै ॥ ५१ ॥ [नरक अथवा स्वर्ग-भोगके अनन्तर] बार-बार वह गर्भमें आता है और जन्म ग्रहण करता है तथा फिर कभी गर्भ में ही नष्ट हो जाता है और कभी जन्म लेते ही मर जाता है ॥ ५१ ॥ जातमात्रश्च म्रियते बालभावेऽथ यौवने ।
मध्यमं वा वयः प्राप्य वार्धके वाथ वा मृतिः ॥ ५२ ॥ जो उत्पन्न हुआ है वह जन्मते ही, बाल्यावस्थामें, युवावस्थामें, मध्यमवयमें अथवा जराग्रस्त होनेपर अवश्य मर जाता है ॥ ५२ ॥ यावज्जीवति तावच्च दुःखैर् नानाविधैः प्लुतः ।
तं तु कारणपक्ष्मौघैरास्ते कार्पासबीजवत् ॥ ५३ ॥ जबतक जीता है तबतक नाना प्रकारके कष्टोंसे घिरा रहता है, जिस तरह कि कपासका बीज तन्तुओंके कारण सूत्रोंसे घिरा रहता है ॥ ५३ ॥ द्रव्यनाशे तथोत्पत्तौ पालने च सदा नृणाम् ।
भवन्त्यनेकदुःखानि तथैवेष्टविपत्तिषु ॥ ५४ ॥ द्रव्यके उपार्जन, रक्षण और नाशमें तथा इष्ट-मित्रोंके विपत्तिग्रस्त होनेपर भी मनुष्योंको अनेकों दुःख उठाने पड़ते हैं ॥ ५४ ॥ यद्यत्प्रीतिकरं पुंसां वस्तु मैत्रेय जायते ।
तदेव दुःखवृक्षस्य बीजत्वमुपगच्छति ॥ ५५ ॥ हे मैत्रेय ! मनुष्योंको जो-जो वस्तुएँ प्रिय हैं, वे सभी दुःखरूपी वृक्षका बीज हो जाती हैं ॥ ५५ ॥ कलत्रपुत्रमित्रार्थगृहक्षेत्रधनादिकैः ।
क्रियते न तथा भूरि सुखं पुंसां यथाऽसुखम् ॥ ५६ ॥ स्त्री, पुत्र, मित्र, अर्थ, गृह, क्षेत्र और धन आदिसे पुरुषोंको जैसा दुःख होता है वैसा सुख नहीं होता ॥ ५६ ॥ इति संसारदुःखार्कतापतापितचेतसाम् ।
विमुक्तिपादपच्छायामृते कुत्र सुखं नृणाम् ॥ ५७ ॥ इस प्रकार सांसारिक दुःखरूप सूर्यके तापसे जिनका अन्त:करण तप्त हो रहा है उन पुरुषोंको मोक्षरूपी वृक्षकी [घनी] छायाको छोड़कर और कहाँ सुख मिल सकता है ? ॥ ५७ ॥ तदस्य त्रिविधस्यापि दुःखजातस्य वै मम ।
गर्भजन्मजराद्येषु स्थानेषु प्रभविष्यतः ॥ ५८ ॥ निरस्तातिशयाह्लादसुखभावैकलक्षणा । भेषजं भगवत्प्राप्तिरेकान्तात्यन्तिकी मता ॥ ५९ ॥ अत: मेरे मतमें गर्भ, जन्म और जरा आदि स्थानोंमें प्रकट होनेवाले आध्यात्मिकादि त्रिविध दुःख-समूहकी एकमात्र सनातन ओषधि भगवत्प्राप्ति ही है जिसका निरतिशय आनन्दरूप सुखकी प्राप्ति कराना ही प्रधान लक्षण है ॥ ५८-५९ ॥ तस्मात्तत्प्राप्तये यत्नः कर्तव्यः पण्डितैर्नरैः ।
तत्प्राप्तिहेतुर्ज्ञानं च कर्म चोक्तं महामुने ॥ ६० ॥ इसलिये पण्डितजनोंको भगवत्प्राप्तिका प्रयत्न करना चाहिये । हे महामुने ! कर्म और ज्ञान - ये दो ही उसकी प्राप्तिके कारण कहे गये हैं ॥ ६० ॥ आगमोत्थं विवेकाच्च द्विधा ज्ञानं तदुच्यते ।
शब्दब्रह्मागममयं परं ब्रह्म विवेकजम् ॥ ६१ ॥ ज्ञान दो प्रकारका है- शास्त्रजन्य तथा विवेकज । शब्दब्रह्मका ज्ञान शास्त्रजन्य है और परब्रह्मका बोध विवेकज ॥ ६१ ॥ अन्धं तम इवाज्ञानं दीपवच्चेन्द्रियोद्भवम् ।
यथा सूर्यस्तथा ज्ञानं यद्विप्रर्षे विवेकजम् ॥ ६२ ॥ हे विप्रर्षे ! अज्ञान घोर अन्धकारके समान है । उसको नष्ट करनेके लिये शास्त्रजन्य ज्ञान दीपकवत् और विवेकज ज्ञान सूर्यके समान है ॥ ६२ ॥ मनुरप्याह वेदार्थं स्मृत्वा यन्मुनिसत्तम ।
तदेतच्छ्रूयतामत्र सम्बन्धे गदतो मम ॥ ६३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! इस विषयमें वेदार्थका स्मरणकर मनुणीने जो कुछ कहा है वह बतलाता हूँ, श्रवण करो ॥ ६३ ॥ द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शब्दब्रह्मणि निष्णातः परं ब्रह्माधिगच्छति ॥ ६४ ॥ ब्रह्म दो प्रकारका है- शब्दब्रह्म और परब्रह्म । शब्दब्रह्म (शास्त्रजन्य ज्ञान)-में निपुण हो जानेपर जिज्ञासु [विवेकज ज्ञानके द्वारा] परब्रह्मको प्राप्त कर लेता है ॥ ६४ ॥ द्वे वै विद्ये वेदितव्ये इति चाथर्वणी श्रुतिः ।
परया त्वक्षरप्राप्तिर्ऋग्वेदादिमयापरा ॥ ६५ ॥ अथर्ववेदकी श्रुति है कि विद्या दो प्रकारकी है-परा और अपरा । परासे अक्षर ब्रह्मकी प्राप्ति होती है और अपरा ऋगादि वेदत्रयीरूपा है ॥ ६५ ॥ यत्तदव्यक्तमजरमचिन्त्यमजमव्ययम् ।
अनिर्देश्यमरूपं च पाणिपादाद्यसंयुतम् ॥ ६६ ॥ विभु सर्वगतं नित्यं भूतयोनिरकारणम् । व्याप्य व्याप्तं यतः सर्वं यद्वै पश्यन्ति सूरयः ॥ ६७ ॥ तद्ब्रह्म तत्परं धाम तद्ध्येयं मोक्षकांक्षिभिः । श्रुतिवाक्योदितं सूक्ष्मं तद्विष्णोः परमं पदम् ॥ ६८ ॥ जो अव्यक्त, अजर, अचिन्त्य, अज, अव्यय, अनिर्देश्य, अरूप, पाणि-पादादिशून्य, व्यापक, सर्वगत, नित्य, भूतोंका आदिकारण, स्वयं कारणहीन तथा जिससे सम्पूर्ण व्याप्य और व्यापक प्रकट हुआ है और जिसे पण्डितजन [ज्ञाननेत्रोंसे] देखते हैं वह परमधाम ही ब्रह्म है, मुमुक्षुओंको उसीका ध्यान करना चाहिये और वही भगवान् विष्णुका वेदवचनोंसे प्रतिपादित अति सूक्ष्म परमपद है ॥ ६६-६८ ॥ तदेव भगवद्वाच्यं स्वरूपं परमात्मनः ।
वाचको भगवच्छब्दस्तस्याद्यस्याक्षयात्मनः ॥ ६९ ॥ परमात्माका वह स्वरूप ही 'भगवत्' शब्दका वाच्य है और भगवत् शब्द ही उस आद्य एवं अक्षय स्वरूपका वाचक है ॥ ६९ ॥ एवं निगदितार्थस्य तत्तत्त्वं तस्य तत्त्वतः ।
ज्ञायते येन तज्ज्ञानं परमन्यत्त्रयीमयम् ॥ ७० ॥ जिसका ऐसा स्वरूप बतलाया गया है उस परमात्माके तत्त्वका जिसके द्वारा वास्तविक ज्ञान होता है वही परमज्ञान (परा विद्या) है । त्रयीमय ज्ञान (कर्मकाण्ड) इससे पृथक् (अपरा विद्या) है ॥ ७० ॥ अशब्दगोचरस्यापि तस्य वै ब्रह्मणो द्विज ।
पूजायां भगवच्छब्दः क्रियते ह्युपचारतः ॥ ७१ ॥ हे द्विज ! वह ब्रह्म यद्यपि शब्दका विषय नहीं है तथापि आदरप्रदर्शनके लिये उसका भगवत्' शब्दसे उपचारतः कथन किया जाता है ॥ ७१ ॥ शुद्धे महाविभूत्वाख्ये परे ब्रह्मणि शब्दिते ।
मैत्रेय भगवच्छब्दःसर्वकारणकारणे ॥ ७२ ॥ हे मैत्रेय ! समस्त कारणोंके कारण, महाविभूतिसंज्ञक परब्रह्मके लिये ही 'भगवत्' शब्दका प्रयोग हुआ है ॥ ७२ ॥ सम्भर्तेति तथा भर्ता भकारोऽर्थद्वयान्वितः ।
नेता गमयता स्रष्टा गकारार्थस्तथा मुने ॥ ७३ ॥ इस ('भगवत्' शब्द)-में भकारके दो अर्थ हैं- पोषण करनेवाला और सबका आधार तथा गकारके अर्थ कर्म-फल प्राप्त करनेवाला, लय करनेवाला और रचयिता हैं ॥ ७३ ॥ ऐश्वर्यस्य समग्रस्य वीर्यस्य यशसः श्रियः ।
ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥ ७४ ॥ सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य-इन छ:का नाम 'भग' है ॥ ७४ ॥ वसन्ति तत्र भूतानि भूतात्मन्यखिलात्मनि ।
स च भूतेष्वशेषेषु वकारार्थस्ततोऽव्ययः ॥ ७५ ॥ उस अखिल भूतात्मामें समस्त भूतगण निवास करते हैं और वह स्वयं भी समस्त भूतोंमें विराजमान है, इसलिये वह अव्यय (परमात्मा) ही वकारका अर्थ है ॥ ७५ ॥ एवमेष महाञ्छब्दो मैत्रेय भगवानिति ।
परमब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥ ७६ ॥ हे मैत्रेय ! इस प्रकार यह महान् 'भगवान्' शब्द परब्रह्मस्वरूप श्रीवासुदेवका ही वाचक है, किसी औरका नहीं ॥ ७६ ॥ तत्र पूज्यपदार्थोक्तिपरिभाषासमन्वितः ।
शब्दोऽयं नोपचारेण त्वन्यत्र ह्युपचारतः ॥ ७७ ॥ पूज्य पदार्थोंको सूचित करनेके लक्षणसे युक्त इस 'भगवान्' शब्दका परमात्मामें मुख्य प्रयोग है तथा औरोंके लिये गौण ॥ ७७ ॥ उत्पत्तिं प्रलयं चैव भूतानामागतिं गतिम् ।
वेत्ति विद्यामाविद्यां च स वाच्यो भगवानिति ॥ ७८ ॥ क्योंकि जो समस्त प्राणियोंके उत्पत्ति और नाश, आना और जाना तथा विद्या और अविद्याको जानता है वही भगवान् कहलाने योग्य है ॥ ७८ ॥ ज्ञानशक्तिबलैश्वयवीर्यतेजांस्यशेषतः ।
भगवच्छब्दवाच्यानि विना हेयैर्गुणादिभिः ॥ ७९ ॥ त्याग करनेयोग्य [त्रिविध] गुण [और उनके क्लेश ] आदिको छोड़कर ज्ञान, शक्ति, बल, ऐश्वर्य, वीर्य और तेज आदि सद्गुण ही 'भगवत्' शब्दके वाच्य हैं ॥ ७९ ॥ सर्वाणि तत्र भूतानि वसन्ति परमात्मनि ।
भूतेषु च स सर्वात्मा वासुदेवस्ततः स्मृतः ॥ ८० ॥ उन परमात्मामें ही समस्त भूत बसते हैं और वे स्वयं भी सबके आत्मारूपसे सकल भूतोंमें विराजमान हैं, इसलिये उन्हें वासुदेव भी कहते हैं ॥ ८० ॥ खाण्डिक्यजनकायाह पृष्टः केशिध्वजः पुरा ।
नाभव्याख्यामनन्तस्य वासुदेवस्य तत्त्वतः ॥ ८१ ॥ पूर्वकालमें खाण्डिक्य जनकके पूछनेपर केशिध्वजने उनसे भगवान् अनन्तके 'वासूदेव' नामकी यथार्थ व्याख्या इस प्रकार की थी ॥ ८१ ॥ भूतेषु वसते सोऽन्तर्वसन्त्यत्र च तानि यत् ।
धाता विधाता जगतां वासुदेवस्ततः प्रभुः ॥ ८२ ॥ प्रभु समस्त भूतोंमें व्याप्त हैं और सम्पूर्ण भूत भी उन्हीं में रहते हैं तथा वे ही संसारके रचयिता और रक्षक हैं; इसलिये वे 'वासुदेव' कहलाते हैं' ॥ ८२ ॥ स सर्वभूतप्रकृतिं विकारान्-
गुणादिदोशांश्च मुने व्यतीतः । अतीतसर्वावरणोखिलात्मा तेनास्तृतं यद्भुवनान्तराले ॥ ८३ ॥ हे मुने ! वे सर्वात्मा समस्त आवरणोंसे परे हैं । वे समस्त भूतोंकी प्रकृति, प्रकृतिके विकार तथा गुण और उनके कार्य आदि दोषोंसे विलक्षण हैं ! पृथिवी और आकाशके बीचमें जो कुछ स्थित है उन्होंने वह सब व्याप्त किया है ॥ ८३ ॥ समस्तकल्याणगुणात्मकोऽसौ
स्वशक्तिलेशावृतभूतवर्गः । इच्छागृहीताभिमतोरुदेह- स्संसाधिताशेषजगद्धितो यः ॥ ८४ ॥ वे सम्पूर्ण कल्याण-गुणोंके स्वरूप हैं उन्होंने अपनी मायाशक्तिके लेशमात्रसे ही सम्पूर्ण प्राणियोंको व्याप्त किया है और वे अपनी इच्छासे स्वमनोऽनुकूल महान् शरीर धारणकर समस्त संसारका कल्याण-साधन करते हैं ॥ ८४ ॥ तेजोबलैश्वर्यमहावबोध-
सुवीर्यशक्त्यादिगुणैकराशिः । परः पराणां सकला न यत्र क्लेशादयःसन्ति परावरेशे ॥ ८५ ॥ वे तेज, बल, ऐश्वर्य, महाविज्ञान, वीर्य और शक्ति आदि गुणोंकी एकमात्र राशि हैं, प्रकृति आदिसे भी परे हैं और उन परावरेश्वरमें अविद्यादि सम्पूर्ण क्लेशोंका अत्यन्ताभाव है ॥ ८५ ॥ स ईश्वरो व्यष्टिसमष्टिरूपो निर्मलमेकरूपम्
व्यक्तस्वरूपोऽप्रकटस्वरूपः । सर्वेश्वरःसर्वदृक् सर्वविच्च समस्तशक्तिः परमेश्वराख्यः ॥ ८६ ॥ वे ईश्वर ही समष्टि और व्यष्टिरूप हैं, वे ही व्यक्त और अव्यक्तस्वरूप हैं, वे ही सबके स्वामी, सबके साक्षी और सब कुछ जाननेवाले हैं तथा उन्हीं सर्वशक्तिमान्की परमेश्वर संज्ञा है ॥ ८६ ॥ संज्ञायते येन तदस्तदोषं
शुद्धं परं । सन्दृश्यते वाप्यवगम्यते वा तज्ज्ञानमज्ञानमतोन्यदुक्तम् ॥ ८७ ॥ जिसके द्वारा वे निर्दोष, विशुद्ध, निर्मल और एकरूप परमात्मा देखे या जाने जाते हैं उसीका नाम ज्ञान परा विद्या है और जो इसके विपरीत है वही अज्ञान अपरा विद्या है ॥ ८७ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे षष्ठेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः (५)
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेंऽशे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ |