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॥ विष्णुपुराणम् ॥ षष्ठः अंशः ॥ सप्तमोऽध्यायः ॥ केशिध्वज उवाच
न प्रार्थितं त्वया कस्मादस्मद्राज्यमकण्टकम् । राज्यलाभाद्विना नान्यत्क्षत्रियाणामतिप्रियम् ॥ १ ॥ केशिध्वज बोले-क्षत्रियोंको तो राज्य-प्राप्तिसे अधिक प्रिय और कुछ भी नहीं होता, फिर तुमने मेरा निष्कण्टक राज्य क्यों नहीं माँगा ? ॥ १ ॥ खाण्डिक्य उवाच
केशिध्वज निबोध त्वं मया न प्रार्थितं यतः । राज्यमेतदशेषं ते यत्र गृध्नन्त्यपण्डिताः ॥ २ ॥ खाण्डिक्य बोले-हे केशिध्वज ! मैंने जिस कारणसे तुम्हारा राज्य नहीं माँगा वह सुनो । इन राज्यादिकी आकांक्षा तो मूर्खोंको हुआ करती है ॥ २ ॥ क्षत्रियाणामयं धर्मो यत्प्रजापरिपालनम् ।
वधश्च धर्मयुद्धेन स्वराज्यपरिपन्थिनाम् ॥ ३ ॥ क्षत्रियोंका धर्म तो यही है कि प्रजाका पालन करें और अपने राज्यके विरोधियोंका धर्म युद्धसे वध करें ॥ ३ ॥ तत्राशक्तस्य मे दोषो नैवास्त्यपहृते त्वया ।
बन्धायैव भवत्येषा ह्यविद्याप्यक्रमोज्झिता ॥ ४ ॥ शक्तिहीन होनेके कारण यदि तुमने मेरा राज्य हरण कर लिया है, तो [असमर्थतावश प्रजापालन न करनेपर भी] मुझे कोई दोष न होगा । [किन्तु राज्याधिकार होनेपर यथावत् प्रजापालन न करनेसे दोषका भागी होना पड़ता है] क्योंकि यद्यपि यह (स्वकर्म) अविद्या ही है तथापि नियमविरुद्ध त्याग करनेपर यह बन्धनका कारण होती है ॥ ४ ॥ अल्पोपभोगलिप्सार्थमियं राज्यस्पृहा मम ।
अन्येषां दोषजा सैव धर्मं वै नानुरुध्यते ॥ ५ ॥ यह राज्यकी चाह मुझे तो जन्मान्तरके [कर्मोद्वारा प्राप्त] सुखभोगके लिये होती है; और वही मन्त्री आदि अन्य जनोंको राग एवं लोभ आदि दोषोंसे उत्पन्न होती है केवल धर्मानुरोधसे नहीं ॥ ५ ॥ न याच्ञा क्षत्रबन्धूनां धर्मयैतत्सतां मतम् ।
अतो न याचितं राज्यमविद्यान्तर्गतं तव ॥ ६ ॥ उत्तम क्षत्रियोंका [राज्यादिकी] याचना करना धर्म नहीं है' यह महात्माओंका मत है । इसीलिये मैंने अविद्या (पालनादि कर्म) के अन्तर्गत तुम्हारा राज्य नहीं माँगा ॥ ६ ॥ राज्ये गृध्नन्त्यविद्वांसो ममत्वाहृतचेतसः ।
अहंमानमहापानमदमत्ता न मादृशाः ॥ ७ ॥ जो लोग अहंकाररूपी मदिराका पान करके उन्मत्त हो रहे हैं तथा जिनका चित्त ममताग्रस्त हो रहा है वे मूढजन ही राज्यकी अभिलाषा करते हैं; मेरे जैसे लोग राज्यकी इच्छा नहीं करते ॥ ७ ॥ श्रीपराशर उवाच
प्रहृष्टःसाध्विति प्राह ततः केशिध्वजो नृपः । खाण्डिक्यजनकं प्रीत्या श्रूयतां वचनं मम ॥ ८ ॥ श्रीपराशरजी बोले-तब राजा केशिध्वजने प्रसन्न होकर खाण्डिक्य जनकको साधुवाद दिया और प्रीतिपूर्वक कहा, मेरा वचन सुनो- ॥ ८ ॥ अहं ह्यविद्यया मृत्युं तर्तुकामः करोमि वै ।
राज्यं यागांश्च विविधान्भोगैः पुण्यक्षयं तथा ॥ ९ ॥ मैं अविद्याद्वारा मृत्युको पार करनेकी इच्छासे ही राज्य तथा विविध यज्ञोंका अनुष्ठान करता हूँ और नाना भोगोंद्वारा अपने पुण्योंका क्षय कर रहा हूँ ॥ ९ ॥ तदिदं ते मनो दिष्ट्या विवेकैश्वर्यतां गतम् ।
तच्छ्रूयतामविद्यायाःस्वरूपं कुलनन्दन ॥ १० ॥ हे कुलनन्दन ! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम्हारा मन विवेकसम्पन्न हुआ है अतः तुम अविद्याका स्वरूप सुनो ॥ १० ॥ अनात्मन्यात्मबुद्धिर्या चास्वे स्वमिति या मतिः ।
संसारतरुसम्भूतिबीजमेतद्द्विधा स्थितम् ॥ ११ ॥ संसार-वृक्षकी बीजभूता यह अविद्या दो प्रकारकी है-अनात्मामें आत्मबुद्धि और जो अपना नहीं है उसे अपना मानना ॥ ११ ॥ पञ्चभूतात्मके देहे देही मोहतमोवृतः ।
अहं ममैतदित्युच्चैः कुरुते कुमतिर्मतिम् ॥ १२ ॥ यह कुमति जीव मोहरूपी अन्धकारसे आवृत होकर इस पंचभूतात्मक देहमें 'मैं' और 'मेरापन' का भाव करता है ॥ १२ ॥ आकाशवाय्वग्निजलपृथिवीभ्यः पृथक् स्थिते ।
आत्मन्यात्ममयं भावं कः करोति कलेवरे ॥ १३ ॥ जब कि आत्मा आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी आदिसे सर्वथा पृथक् है तो कौन बुद्धिमान् व्यक्ति शरीरमें आत्मबुद्धि करेगा ? ॥ १३ ॥ कलेवरोपभोग्यं हि गृहक्षेत्रादिकं च कः ।
अदेहे ह्यात्मनि प्राज्ञे ममेदमिति मन्यते ॥ १४ ॥ और आत्माके देहसे परे होनेपर भी देहके उपभोग्य गृहक्षेत्रादिको कौन प्राज्ञ पुरुष 'अपना' मान सकता है ॥ १४ ॥ इत्थं च पुत्रपौत्रेषु तद्देहोत्पादितेषु कः ।
करोति पण्डितःस्वाम्यमनात्मनि कलेवरे ॥ १५ ॥ इस प्रकार इस शरीरके अनात्मा होनेसे इससे उत्पन्न हुए पुत्रपौत्रादिमें भी कौन विद्वान् अपनापन करेगा ॥ १५ ॥ सर्वं देहोपभोगाय कुरुते कर्म मानवः ।
देहश्चान्यो यदा पुंसस्तदा बन्धाय तत्परम् ॥ १६ ॥ मनुष्य सारे कर्म देहके ही उपभोगके लिये करता है; किन्तु जब कि यह देह अपनेसे पृथक् है, तो वे कर्म केवल बन्धन (देहोत्पत्ति)के ही कारण होते हैं ॥ १६ ॥ मृण्मयं हि यथा गेहं लिप्यते वै मृदम्भसा ।
पार्थिवोऽयं तथा देहो मृदम्ब्वालेपनस्थितः ॥ १७ ॥ जिस प्रकार मिट्टीके घरको जल और मिट्टीसे लीपते-पोतते हैं उसी प्रकार यह पार्थिव शरीर भी मृत्तिका (मृण्मय अन्न) और जलकी सहायतासे ही स्थिर रहता है ॥ १७ ॥ पञ्जभूतत्मकैर्भोगोः पञ्चभूतात्मकं वपुः ।
आप्यायते यदि ततः पुंसो भोगोऽत्र किं कृतः ॥ १८ ॥ यदि यह पंचभूतात्मक शरीर पांचभौतिक पदार्थोंसे पुष्ट होता है तो इसमें पुरुषने क्या भोग किया ॥ १८ ॥ अनेकजन्मसाहस्रीं संसारपदवीं व्रजन् ।
मोहश्रमं प्रयातोऽसौ वासनारेणुकुण्ठितः ॥ १९ ॥ यह जीव अनेक सहस्र जन्मोंतक सांसारिक भोगोंमें पड़े रहनेसे उन्हींकी वासनारूपी धूलिसे आच्छादित हो जानेके कारण केवल मोहरूपी श्रमको ही प्राप्त होता है ॥ १९ ॥ प्रक्षाल्यते यदा सोऽस्य रेणुज्ञानोष्णवारिणा ।
तदा संसारपान्थस्य याति मोहश्रमः शमम् ॥ २० ॥ जिस समय ज्ञानरूपी गर्म जलसे उसकी वह धूलि धो दी जाती है तब इस संसार-पथके पथिकका मोहरूपी श्रम शान्त हो जाता है ॥ २० ॥ मोहश्रमे शमं याते स्वस्थान्तःकरणः पुमान् ।
अनन्यातिशयाबाधं परं निर्वाणमृच्छति ॥ २१ ॥ मोह-श्रमके शान्त हो जानेपर पुरुष स्वस्थ-चित्त हो जाता है और निरतिशय एवं निर्बाध परम निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है ॥ २१ ॥ निर्वाणमय एवायमात्मा ज्ञानमयोऽमलः ।
दुःखाज्ञानमया धर्माः प्रकृतेस्ते तु नात्मनः ॥ २२ ॥ यह ज्ञानमय निर्मल आत्मा निर्वाण-स्वरूप ही है, दु:ख आदि जो अज्ञानमय धर्म हैं वे प्रकृतिके हैं, आत्माके नहीं ॥ २२ ॥ जलस्य नाग्निसंसर्गः स्थालीसङ्गात्तथापि हि ।
शब्दोद्रेकादिकान्धर्मांस्तत्करोति यथा नृप ॥ २३ ॥ तथात्मा प्रकृतेःसङ्गादहंमानादिदूषितः । भजते प्राकृतान्धर्मान् अन्यस्तेभ्यो हि सोऽव्ययः ॥ २४ ॥ हे राजन् ! जिस प्रकार स्थाली (बटलोई)-के जलका अग्निसे संयोग नहीं होता तथापि स्थालीके संसर्गसे ही उसमें खौलनेके शब्द आदि धर्म प्रकट हो जाते हैं, उसी प्रकार प्रकृतिके संसर्गसे ही आत्मा अहंकारादिसे दूषित होकर प्राकृत धर्मोंको स्वीकार करता है; वास्तवमें तो वह अव्ययात्मा उनसे सर्वथा पृथक् है ॥ २३-२४ ॥ तदेतत्कथितं बीजमविद्याया मया तव ।
क्लेशानां च क्षयकरं योगादन्यन्न विद्यते ॥ २५ ॥ इस प्रकार मैंने तुम्हें यह अविद्याका बीज बतलाया; इस अविद्यासे प्राप्त हुए क्लेशोंको नष्ट करनेवाला योगसे अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है ॥ २५ ॥ खाण्डिक्य उवाच
तं ब्रवीहि महाभाग योगं योगविदुत्तम । विज्ञातयोगशास्त्रार्थस्त्वमस्यां निमिसन्ततौ ॥ २६ ॥ खाण्डिक्य बोले-हे योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महाभाग केशिध्वज ! तुम निमिवंशमें योगशास्त्रके मर्मज्ञ हो, अतः उस योगका वर्णन करो ॥ २६ ॥ केशिध्वज उवाच
योगस्वरूपं खाण्डिक्य श्रूयतां गदतो मम । यत्र स्थितो न च्यवते प्राप्य ब्रह्मलयं मुनिः ॥ २७ ॥ केशिध्वज बोले-हे खाण्डिक्य ! जिसमें स्थित होकर ब्रह्ममें लीन हुए मुनिजन फिर स्वरूपसे च्युत नहीं होते, मैं उस योगका वर्णन करता हूँ; श्रवण करो ॥ २७ ॥ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
बन्धाय विषयासङ्गि मुक्त्यै निर्विषयं मनः ॥ २८ ॥ मनुष्यके बन्धन और मोक्षका कारण केवल मन ही है; विषयका संग करनेसे वह बन्धनकारी और विषयशून्य होनेसे मोक्षकारक होता है ॥ २८ ॥ विषयेभ्यः समाहृत्य विज्ञानात्मा मनो मुनिः ।
चिन्तयेन्मुक्तये तेन ब्रह्मभूतं परेश्वरम् ॥ २९ ॥ अतः विवेकज्ञानसम्पन्न मुनि अपने चित्तको विषयोंसे हटाकर मोक्षप्राप्तिके लिये ब्रह्मस्वरूप परमात्माका चिन्तन करे ॥ २९ ॥ आत्मभावं नयत्येनं तद्ब्रह्म ध्यायिनं मुनिम् ।
विकार्यमात्मनः शक्त्या लोहमाकर्षको यथा ॥ ३० ॥ जिस प्रकार अयस्कान्तमणि अपनी शक्तिसे लोहेको खींचकर अपने में संयुक्त कर लेता है उसी प्रकार ब्रह्मचिन्तन करनेवाले मुनिको परमात्मा स्वभावसे ही स्वरूपमें लीन कर देता है ॥ ३० ॥ आत्मप्रयत्नसापेक्षा विशिष्टा या मनोगतिः ।
तस्य ब्रह्मणि संयोगो योग इत्यभिधीयते ॥ ३१ ॥ आत्मज्ञानके प्रयत्नभूत यम, नियम आदिकी अपेक्षा रखनेवाली जो मनकी विशिष्ट गति है, उसका ब्रह्मके साथ संयोग होना ही 'योग' कहलाता है ॥ ३१ ॥ एवमत्यन्तवैशिष्ट्ययुक्तधर्मोपलक्षणः ।
यस्य योगःस वै योगी मुमुक्षुरभिधीयते ॥ ३२ ॥ जिसका योग इस प्रकारके विशिष्ट धर्मसे युक्त होता है वह मुमुक्षु योगी कहा जाता है ॥ ३२ ॥ योगयुक् प्रथमं योगी युञ्जानो ह्यभिधीयते ।
विनिष्पन्नसमाधिस्तु परं ब्रह्मोपलब्धिमान् ॥ ३३ ॥ जब मुमुक्षु पहले-पहले योगाभ्यास आरम्भ करता है तो उसे 'योगयुक्त योगी' कहते हैं और जब उसे परब्रह्मकी प्राप्ति हो जाती है तो वह 'विनिष्पन्नसमाधि' कहलाता है ॥ ३३ ॥ यद्यन्तरायदोषेण दूष्यते चास्य मानसम् ।
जन्मान्तरैरभ्यसतो मुक्तिः पुर्वस्य जायते ॥ ३४ ॥ यदि किसी विघ्नवश उस योगयुक्त योगीका चित्त दूषित हो जाता है तो जन्मान्तरमें भी उसी अभ्यासको करते रहनेसे वह मुक्त हो जाता है ॥ ३४ ॥ विनिष्पन्नसमाधिस्तु मुक्तिं तत्रैव जन्मनि ।
प्राप्नोति योगी योगाग्निदग्धकर्मचयोऽचिरात् ॥ ३५ ॥ विनिष्पन्नसमाधि योगी तो योगाग्निसे कर्मसमूहके भस्म हो जानेके कारण उसी जन्ममें थोड़े ही समयमें मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ॥ ३५ ॥ ब्रह्मचर्यमहिंसां च सत्यास्तेयापरिग्रहान् ।
सेवेत योगी निष्कामो योग्यतां स्वमनो नयन् ॥ ३६ ॥ योगीको चाहिये कि अपने चित्तको ब्रह्मचिन्तनके योग्य बनाता हुआ ब्रह्मचर्य, अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रहका निष्कामभावसे सेवन करे ॥ ३६ ॥ स्वाध्यायशौचसन्तोषतपांसि नियतात्मवान् ।
कुर्वीत ब्रह्मणि तथा परस्मिन्प्रवणं मनः ॥ ३७ ॥ तथा संयत चित्तसे स्वाध्याय, शौच, सन्तोष और तपका आचरण करे तथा मनको निरन्तर परब्रह्ममें लगाता रहे ॥ ३७ ॥ एते यमाःसनियमाः पञ्च पञ्च च कीर्तिताः ।
विशिष्टफलदाः काम्या निष्कामानां विमुक्तिदाः ॥ ३८ ॥ ये पाँच-पाँच यम और नियम बतलाये गये हैं । इनका सकाम आचरण करनेसे पृथक्पृथक् फल मिलते हैं और निष्कामभावसे सेवन करनेसे मोक्ष प्राप्त होता है ॥ ३८ ॥ एकं भद्रासनादीनां समास्थाय गुणैर्युतः ।
यमाख्यैर्नियमाख्यैश्च युञ्जीत नियतो यतिः ॥ ३९ ॥ यतिको चाहिये कि भद्रासनादि आसनों से किसी एकका अवलम्बन कर यम-नियमादि गुणोंसे युक्त हो योगाभ्यास करे ॥ ३९ ॥ प्राणाख्यमनिलं वश्यमभ्यासात्कुरुते तु यत् ।
प्राणायामःसविज्ञेयःसबीजोऽबीज एव च ॥ ४० ॥ अभ्यासके द्वारा जो प्राणवायुको वशमें किया जाता है उसे 'प्राणायाम' समझना चाहिये । वह सबीज (ध्यान तथा मन्त्रपाठ आदि आलम्बनयुक्त) और निर्बीज (निरालम्ब) भेदसे दो प्रकारका है ॥ ४० ॥ परस्परेणाभिभवं प्राणापानौ यथानिलौ ।
कुरुतःसद्विधानेन तृतीयःसंयमात्तयोः ॥ ४१ ॥ सदगुरुके उपदेशसे जब योगी प्राण और अपानवायुद्वारा एक-दूसरेका निरोध करता है तो [क्रमश: रेचक और पूरक नामक] दो प्राणायाम होते हैं और इन दोनोंका एक ही समय संयम करनेसे [कुम्भक नामक] तीसरा प्राणायाम होता है ॥ ४१ ॥ तस्य चालम्बनवतः स्थूलरूपं द्विजोत्तम ।
आलम्बनमनन्तस्य योगिनोऽभ्यसतः स्मृतम् ॥ ४२ ॥ हे द्विजोत्तम ! जब योगी सबीज प्राणायामका अभ्यास आरम्भ करता है तो उसका आलम्बन भगवान् अनन्तका हिरण्यगर्भ आदि स्थूलरूप होता है । ॥ ४२ ॥ शब्दादिष्वनुरक्तानि निगृह्याक्षाणि योगवित् ।
कुर्याच्चित्तानुकारीणि प्रत्याहारपरायणः ॥ ४३ ॥ तदनन्तर वह प्रत्याहारका अभ्यास करते हुए शब्दादि विषयोंमें अनुरक्त हुई अपनी इन्द्रियोंको रोककर अपने चित्तकी अनुगामिनी बनाता है ॥ ४३ ॥ वश्यता परमा तेन जायतेऽतिचलात्मनाम् ।
इन्द्रियाणामवश्यैस्तैर्न योगी योगसाधकः ॥ ४४ ॥ ऐसा करनेसे अत्यन्त चंचल इन्द्रियाँ उसके वशीभूत हो जाती हैं । इन्द्रियोंको वशमें किये बिना कोई योगी योग-साधन नहीं कर सकता ॥ ४४ ॥ प्राणयामेन पवने प्रत्याहारेण चेन्द्रिये ।
वशीकृते ततः कुर्यात्स्थितं चेतः शुभाश्रये ॥ ४५ ॥ इस प्रकार प्राणायामसे वायु और प्रत्याहारसे इन्द्रियोंको वशीभूत करके चित्तको उसके शुभ आश्रयमें स्थित करे ॥ ४५ ॥ खाण्डिक्य उवाच
कथ्यतां मे महाभागा चेतसो यः शुभाश्रयः । यदाधारमशेषं तद्धन्ति दोषमलोद्भवम् ॥ ४६ ॥ खाण्डिक्य बोले-हे महाभाग ! यह बतलाइये कि जिसका आश्रय करनेसे चित्तके सम्पूर्ण दोष नष्ट हो जाते हैं वह चित्तका शुभाश्रय क्या है ? ॥ ४६ ॥ केशिध्वाज उवाच
आश्रयश्चेतसो ब्रह्म द्विधा तच्चस्वभावतः । भूप मूर्तममूर्तं च परं चापरमेव च ॥ ४७ ॥ केशिध्वज बोले-हे राजन् ! चित्तका आश्रय ब्रह्म है जो कि मूर्त और अमूर्त अथवा अपर और पर-रूपसे स्वभावसे ही दो प्रकारका है ॥ ४७ ॥ त्रिविधा भावना भूप विश्वमेतन्निबोधताम् ।
ब्रह्माख्या कर्मसंज्ञा च तथा चैवोभयात्मिका ॥ ४८ ॥ हे भूप ! इस जगत्में ब्रह्म, कर्म और उभयात्मक नामसे तीन प्रकारको भावनाएँ हैं ॥ ४८ ॥ कर्मभावात्मिका ह्येका ब्रह्मभावात्मिका परा ।
उभयात्मिका तथैवान्या त्रिविधा भावभावना ॥ ४९ ॥ इनमें पहली कर्मभावना, दूसरी ब्रह्मभावना और तीसरी उभयात्मिकाभावना कहलाती है । इस प्रकार ये त्रिविध भावनाएँ हैं ॥ ४९ ॥ सनन्दनादयो ये तु ब्रह्मभावनया युताः ।
कर्मभावनया चान्ये देवाद्याः स्थावरावराः ॥ ५० ॥ सनन्दनादि मुनिजन ब्रह्मभावनासे युक्त हैं और देवताओंसे लेकर स्थावर-जंगमपर्यन्त समस्त प्राणी कर्मभावनायुक्त हैं ॥ ५० ॥ हिरण्यगर्भादिषु च ब्रह्मकर्मात्मिका द्विधा ।
बोधाधिकारयुक्तेषु विद्यते भावभावना ॥ ५१ ॥ तथा [स्वरूपविषयक] बोध और [स्वर्गादिविषयक] अधिकारसे युक्त हिरण्यगर्भादिमें ब्रह्मकर्ममयी उभयात्मिकाभावना है ॥ ५१ ॥ अक्षीणेषु समस्तेषु विशेषज्ञानकर्मसु ।
विश्वमेतत्परं चान्यद्भेदभिन्नदृशां नृणाम् ॥ ५२ ॥ हे राजन् ! जबतक विशेष ज्ञानके हेतु कर्म क्षीण नहीं होते तभीतक अहंकारादि भेदके कारण भिन्न दृष्टि रखनेवाले मनुष्योंको ब्रह्म और जगत्की भिन्नता प्रतीत होती है ॥ ५२ ॥ प्रत्यस्तमितभेदं यत्सत्तामात्रमगोचरम् ।
वचसामात्मसंवेद्यं तज्ज्ञानं ब्रह्मसंज्ञितम् ॥ ५३ ॥ जिसमें सम्पूर्ण भेद शान्त हो जाते हैं, जो सत्तामात्र और वाणीका अविषय है तथा स्वयं ही अनुभव करनेयोग्य है, वही ब्रह्मज्ञान कहलाता है ॥ ५३ ॥ तच्च विष्णोः परं रूपमरूपाख्यमनुत्तमम् ।
विश्वस्वरूपवैरूप्यलक्षणं परमात्मनः ॥ ५४ ॥ वही परमात्मा विष्णुका अरूप नामक परम रूप है, जो उनके विश्वरूपसे विलक्षण है ॥ ५४ ॥ न तद्योगयुजा शक्यं नृप चिन्तयितुं यतः ।
ततःस्थूलं हरे रूपं चिन्तयेद्विश्वगोचरम् ॥ ५५ ॥ हे राजन् ! योगाभ्यासी जन पहले-पहल उस रूपका चिन्तन नहीं कर सकते, इसलिये उन्हें श्रीहरिके विश्वमय स्थूल रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥ ५५ ॥ हिरण्यगर्भो भगवान्वासुदेवः प्रजापतिः ।
मरुतो वसवो रुद्रा भास्करास्तारका ग्रहाः ॥ ५६ ॥ गन्धर्वयक्षदैत्याद्यःसकला देवयोनयः । मनुष्याः पशवः शैलाःसमुद्राःसरितो द्रुमाः ॥ ५७ ॥ भूप भूतान्यशेषाणि भूतानां ये च हेतवः । प्रधानादिविशेषान्तं चेतनाचेतनात्मकम् ॥ ५८ ॥ एकपादं द्विपादं च बहुपादमपादकम् । मूर्तमेतद्धरे रूपं भावनात्रितयात्मकम् ॥ ५९ ॥ हिरण्यगर्भ, भगवान् वासुदेव, प्रजापति, मरुत्, वसु, रुद्र, सूर्य, तारे, ग्रहगण, गन्धर्व, यक्ष और दैत्य आदि समस्त देवयोनियाँ तथा मनुष्य, पशु, पर्वत, समुद्र, नदी, वृक्ष, सम्पूर्ण भूत एवं प्रधानसे लेकर विशेष (पंचतन्मात्रा) पर्यन्त उनके कारण तथा चेतन, अचेतन, एक, दो अथवा अनेक चरणोंवाले प्राणी और बिना चरणोंवाले जीव-ये सब भगवान् हरिके भावनात्रयात्मक मूर्तरूप हैं ॥ ५६-५९ ॥ एतत्सर्वमिदं विश्वं जगदेतच्चराचरम् ।
परब्रह्मस्वरूपस्य विष्णोः शक्तिसमन्वितम् ॥ ६० ॥ यह सम्पूर्ण चराचर जगत्, परब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका, उनकी शक्तिसे सम्पन्न 'विश्व' नामक रूप है ॥ ६० ॥ विष्णुशक्तिः परा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथापरा ।
अविद्याकर्मसंज्ञान्या तृतीया शक्तिरिष्यते ॥ ६१ ॥ विष्णुशक्ति परा है, क्षेत्रज्ञ नामक शक्ति अपरा है और कर्म नामकी तीसरी शक्ति अविद्या कहलाती है ॥ ६१ ॥ यया क्षेत्रज्ञशक्तिःसा वेष्टिता नृपसर्वगा ।
संसारतापानखिलानवाप्नोत्यतिसन्ततान् ॥ ६२ ॥ हे राजन् ! इस अविद्या-शक्तिसे आवृत होकर वह सर्वगामिनी क्षेत्रज्ञ-शक्ति सब प्रकारके अति विस्तृत सांसारिक कष्ट भोगा करती है ॥ ६२ ॥ तया तिरोहितत्वाच्च शक्तिः क्षेत्रज्ञसंज्ञिता ।
सर्वभूतेषु भूपाल तारतम्येन लक्ष्यते ॥ ६३ ॥ हे भूपाल ! अविद्याशक्तिसे तिरोहित रहनेके कारण ही क्षेत्रज्ञ-शक्ति सम्पूर्ण प्राणियोंमें तारतम्यसे दिखलायी देती है । ६३ ॥ अप्राणवत्सुस्वल्पा सा स्थावरेषु ततोऽधिका ।
सरीसृपेषु तेभ्योऽपि ह्यतिशक्त्या पतत्त्रिषु ॥ ६४ ॥ वह सबसे कम जड पदार्थोंमें है, उनसे अधिक वृक्ष-पर्वतादि स्थावरोंमें, स्थावरोंसे अधिक सरीसृपादिमें और उनसे अधिक पक्षियोंमें है ॥ ६४ ॥ पातत्त्रिभ्यो मृगास्तेभ्यस्तच्छक्त्या पशवोऽधिकाः ।
पशुभ्यो मनुजाश्चातिशक्त्या पुंसः प्रभाविताः ॥ ६५ ॥ पक्षियोंसे मृगोंमें और मृगोंसे पशुओंमें वह शक्ति अधिक है तथा पशुओंकी अपेक्षा मनुष्य भगवानकी उस (क्षेत्रज्ञ) शक्तिसे अधिक प्रभावित हैं ॥ ६५ ॥ तेभ्योऽपि नागगन्धर्वयक्षाद्या देवता नृप ॥ ६६ ॥
शक्रःसमस्तदेवेभ्यस्ततश्चातिप्रजापतिः । हिरण्यगर्भोऽपि ततः पुंसः शक्त्युपलक्षितः ॥ ६७ ॥ मनुष्योंसे नाग, गन्धर्व और यक्ष आदि समस्त देवगणोंमें, देवताओंसे इन्द्रमें, इन्द्रसे प्रजापतिमें और प्रजापतिसे हिरण्यगर्भ में उस शक्तिका विशेष प्रकाश है ॥ ६६-६७ ॥ एतान्यशेषरूपाणि तस्य रूपाणि पार्थिव ।
यतस्तच्छक्तियोगेन युक्तानि नभसा यथा ॥ ६८ ॥ हे राजन् ! ये सम्पूर्ण रूप उस परमेश्वरके ही शरीर हैं, क्योंकि ये सब आकाशके समान उनकी शक्तिसे व्याप्त हैं ॥ ६८ ॥ द्वितीयं विष्णुसंज्ञस्य योगिध्येयं महामते ।
अमूर्तं ब्रह्मणो रूपं यत्सदित्युच्यते बुधैः ॥ ६९ ॥ हे महामते ! विष्णु नामक ब्रह्मका दूसरा अमूर्त (आकारहीन) रूप है, जिसका योगिजन ध्यान करते हैं और जिसे बुधजन 'सत्' कहकर पुकारते हैं ॥ ६९ ॥ समस्ताः शक्तयश्चैता नृप यत्र प्रतिष्ठिताः ।
तद्विश्वरूपवैरूप्यं रूपम् अन्यद्धरेर्महत् ॥ ७० ॥ हे नृप ! जिसमें कि ये सम्पूर्ण शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं वही भगवान्का विश्वरूपसे विलक्षण द्वितीय रूप है ॥ ७० ॥ समस्तशक्तिरूपाणि तत्करोति जनेश्वर ।
देवतिर्यङ्मनुष्यादिचेष्टावन्ति स्वलीलया ॥ ७१ ॥ हे नरेश ! भगवान्का वही रूप अपनी लीलासे देव, तिर्यक् और मनुष्यादिकी चेष्टाओंसे युक्त सर्वशक्तिमय रूप धारण करता है ॥ ७१ ॥ जगतामुपकाराय न सा कर्मनिमित्तजा ।
चेष्टा तस्याप्रमेयस्य व्यापिन्यव्याहतात्मिका ॥ ७२ ॥ इन रूपोंमें अप्रमेय भगवान्की जो व्यापक एवं अव्याहत चेष्टा होती है वह संसारके उपकारके लिये ही होती है, कर्मजन्य नहीं होती ॥ ७२ ॥ तद्रूपं विश्वरूपस्य तस्य योगयुजा नृप ।
चिन्त्यमात्मविशुद्ध्यर्थं सर्वकिल्बिषनाशनम् ॥ ७३ ॥ हे राजन् ! योगाभ्यासीको आत्म-शुद्धिके लिये भगवान् विश्वरूपके उस सर्वपापनाशक रूपका ही चिन्तन करना चाहिये ॥ ७३ ॥ यथाग्निरुद्धतशिखः कक्षं दहति सानिलः ।
तथा चित्तस्थितो विष्णुर्योगिनां सर्वकिल्बिषम् ॥ ७४ ॥ जिस प्रकार वायुसहित अग्नि ऊँची ज्वालाओंसे युक्त होकर शुष्क तृणसमूहको जला डालता है उसी प्रकार चित्तमें स्थित हुए भगवान् विष्णु योगियोंके समस्त पाप नष्ट कर देते हैं । ७४ ॥ तस्मात्समस्तशक्तीनामाधारे तत्र चेतसः ।
कुर्वीत संस्थितिं सा तु विज्ञेया शुद्धधारणा ॥ ७५ ॥ इसलिये सम्पूर्ण शक्तियोंके आधार भगवान् विष्णुमें चित्तको स्थिर करे, यही शुद्ध धारणा है ॥ ७५ ॥ शुभाश्रयस्य चित्तस्य सर्वगस्याचलात्मनः ।
त्रिभावभावनातीतो मुक्तये योगिनो नृप ॥ ७६ ॥ हे राजन् ! तीनों भावनाओंसे अतीत भगवान् विष्णु ही योगिजनोंकी मुक्तिके लिये उनके [स्वतः] चंचल तथा [किसी अनूठे विषयमें] स्थिर रहनेवाले चित्तके शुभ आश्रय हैं ॥ ७६ ॥ अन्ये तु पुरुषव्याघ्र चेतसो ये व्यापाश्रयाः ।
अशुद्धास्ते समस्तास्तु देवाद्याः कर्मयोनयः ॥ ७७ ॥ हे पुरुषसिंह ! इसके अतिरिक्त मनके आश्रयभूत जो अन्य देवता आदि कर्मयोनियाँ हैं, वे सब अशुद्ध हैं ॥ ७७ ॥ मूर्तं भगवतो रूपं सर्वापाश्रयनिःस्पृहम् ।
एषा वै धारणा प्रोक्ता यच्चित्तं तत्र धार्यते ॥ ७८ ॥ भगवान्का यह मूर्तरूप चित्तको अन्य आलम्बनोंसे नि:स्पृह कर देता है । इस प्रकार चित्तका भगवान्में स्थिर करना ही धारणा कहलाती है । ७८ ॥ यच्च मूर्तं हरे रूपं यादृक्चिन्त्यं नराधिप ।
तच्छ्रूयतामनाधारा धारणा नोपपद्यते ॥ ७९ ॥ हे नरेन्द्र ! धारणा बिना किसी आधारके नहीं हो सकती; इसलिये भगवान्के जिस मूर्तरूपका जिस प्रकार ध्यान करना चाहिये, वह सुनो ॥ ७९ ॥ प्रसन्नवदनं चारुपद्मपत्रोपमेक्षणम् ।
सुकपोलं सुविस्तीर्णललाटफलकोज्ज्वलम् ॥ ८० ॥ समकर्णान्तविन्यस्तचारुकुण्डलभूषणम् । कम्बुग्रीवं सुवीस्तीर्णश्रीवत्सांकितवक्षसम् ॥ ८१ ॥ वलित्रिभङ्गिना मग्ननाभिना ह्युदरेण च । प्रलम्बाष्टभुजं विष्णुमथवापि चतुर्भुजम् ॥ ८२ ॥ समस्थितोरुजङ्घं च सुस्थिताङ्घ्रिवराम्बुजम् । चिन्तयेद्ब्रह्मभूतं तं पीतनिर्मलवाससम् ॥ ८३ ॥ जो प्रसन्नवदन और कमलदलके समान सुन्दर नेत्रोंवाले हैं, सुन्दर कपोल और विशाल भालसे अत्यन्त सुशोभित हैं तथा अपने सुन्दर कानोंमें मनोहर कुण्डल पहने हुए हैं, जिनकी ग्रीवा शंखके समान और विशाल वक्षःस्थल श्रीवत्सचिह्नसे सुशोभित है, जो तरंगाकार त्रिवली तथा नीची नाभिवाले उदरसे सुशोभित हैं, जिनके लम्बी-लम्बी आठ अथवा चार भुजाएँ हैं तथा जिनके जंघा एवं ऊरु समानभावसे स्थित हैं और मनोहर चरणारविन्द सुघरतासे विराजमान हैं उन निर्मल पीताम्बरधारी ब्रह्मस्वरूप भगवान् विष्णुका चिन्तन करे ॥ ८०-८३ ॥ किरीटहारकेयूरकटकादिविभूषितम् ॥ ८४ ॥
शार्ङ्गशङ्खगदाखड्गचक्राक्षवलयान्वितम् । वरदाभयहस्तं च मुद्रिकारत्नभूषितम् ॥ ८५ ॥ चिन्तयेत्तन्मयो योगी समाधायात्ममानसम् । तावद्यावदृढीभूता तत्रैव नृप धारणा ॥ ८६ ॥ हे राजन् ! किरीट, हार, केयूर और कटक आदि आभूषणोंसे विभूषित, शार्ङ्गधनुष, शंख, गदा, खड्ग, चक्र तथा अक्षमालासे युक्त वरद और अभययुक्त हाथोंवाले* [तथा अँगुलियोंमें धारण की हुई] रत्नमयी मुद्रिकासे शोभायमान भगवान्के दिव्य रूपका योगीको अपना चित्त एकाग्र करके तन्मयभावसे तबतक चिन्तन करना चाहिये जबतक यह धारणा दृढ़ न हो जाय ॥ ८४-८६ ॥ व्रजतस्तिष्ठतोन्यद्वा स्वेच्छया कर्म कुर्वतः ।
नापयाति यदा चित्तत्सिद्धां मन्येत तां तदा ॥ ८७ ॥ जब चलते-फिरते, उठते-बैठते अथवा स्वेच्छानुकूल कोई और कर्म करते हुए भी ध्येय मूर्ति अपने चित्तसे दूर न हो तो इसे सिद्ध हुई माननी चाहिये ॥ ८७ ॥ ततः शङ्खगदाचक्रशर्ङ्गीदिरहितं बुधः ।
चिन्तयेद्भगवद्रूपं प्रशान्तं साक्षसूत्रकम् ॥ ८८ ॥ इसके दृढ़ होनेपर बुद्धिमान् व्यक्ति शंख, चक्र, गदा और शार्ङ्ग आदिसे रहित भगवान्के स्फटिकाक्षमाला और यज्ञोपवीतधारी शान्त स्वरूपका चिन्तन करे ॥ ८८ ॥ सा यदा धारणा तद्वदवस्थानवती ततः ।
किरिटकेयूरमुखैर्भूषणै रहितं स्मरेत् ॥ ८९ ॥ जब यह धारणा भी पूर्ववत् स्थिर हो जाय तो भगवान्के किरीट, केयूरादि आभूषणोंसे रहित रूपका स्मरण करे ॥ ८९ ॥ तदेकावयवं देवं चेतसा हि पुनर्बुधः ।
कुर्यात्ततोऽवयविनि प्रणिधानपरो भवेत् ॥ ९० ॥ तदनन्तर विज्ञ पुरुष अपने चित्तमें एक (प्रधान) अवयव-विशिष्ट भगवान्का हृदयसे चिन्तन करे और फिर सम्पूर्ण अवयवोंको छोड़कर केवल अवयवीका ध्यान करे ॥ ९० ॥ तद्रूपप्रत्यया चैका सन्ततिश्चान्यनिःस्पृहा ।
तद्ध्यानं प्रथमैरङ्गैः षड्भिर्निष्पाद्यते नृप ॥ ९१ ॥ हे राजन् ! जिसमें परमेश्वरके रूपकी ही प्रतीति होती है, ऐसी जो विषयान्तरकी स्पृहासे रहित एक अनवरत धारा है उसे ही ध्यान कहते हैं; यह अपनेसे पूर्व यम नियमादि छः अंगोंसे निष्पन्न होता है । ९१ ॥ तस्यैव कल्पनाहीनं स्वरूपग्रहणं हि यत् ।
मनसा ध्याननिष्पाद्यं समाधिः सोऽभिधीयते ॥ ९२ ॥ उस ध्येय पदार्थका ही जो मनके द्वारा ध्यानसे सिद्ध होनेयोग्य कल्पनाहीन (ध्याता, ध्येय और ध्यानके भेदसे रहित) स्वरूप ग्रहण किया जाता है उसे ही समाधि कहते हैं ॥ ९२ ॥ विज्ञानं प्रापकं प्राप्ये परे ब्रह्मणि पार्थिव ।
प्रापणीयस्तथैवात्मा प्रक्षीणाशेषभावनः ॥ ९३ ॥ हे राजन् ! [समाधिसे होनेवाला भगवत्साक्षात्काररूप] विज्ञान ही प्राप्तव्य परब्रह्मतक पहुँचानेवाला है तथा सम्पूर्ण भावनाओंसे रहित एकमात्र आत्मा ही प्रापणीय (वहाँतक पहुँचनेवाला) है ॥ ९३ ॥ क्षेत्रज्ञः करणी ज्ञानं करणं तस्य तेन तत् ।
निष्पाद्य मुक्तिकार्यं वै कृतकृत्यो निवर्तते ॥ ९४ ॥ मुक्ति-लाभमें क्षेत्रज्ञ कर्ता है और ज्ञान करण है; [ज्ञानरूपी करणके द्वारा क्षेत्रज्ञके] मुक्तिरूपी कार्यको सिद्ध करके वह विज्ञान कृतकृत्य होकर निवृत्त हो जाता है ॥ ९४ ॥ तद्भावभावमापन्नस्ततोऽसौ परमात्मना ।
भवत्यभेदी भेदश्च तस्याज्ञानकृतो भवेत् ॥ ९५ ॥ उस समय यह भगवद्भावसे भरकर परमात्मासे अभिन्न हो जाता है । इसका भेद ज्ञान तो अज्ञानजन्य ही है ॥ ९५ ॥ विभेदजनकेऽज्ञाने नाशमात्यन्तिकं गते ।
आत्मनो ब्रह्मणो भेदमसन्तं कः करीष्यति ॥ ९६ ॥ भेद उत्पन्न करनेवाले अज्ञानके सर्वथा नष्ट हो जानेपर ब्रह्म और आत्मामें असत् (अविद्यमान) भेद कौन कर सकता है ? ॥ ९६ ॥ इत्युक्तस्ते मया योगः खाण्डिक्य परिपृच्छतः ।
संक्षेपविस्तराभ्यां तु किमन्यत्क्रियतां तव ॥ ९७ ॥ हे खाण्डिक्य ! इस प्रकार तुम्हारे पूछनेके अनुसार मैंने संक्षेप और विस्तारसे योगका वर्णन किया; अब मैं तुम्हारा और क्या कार्य करूँ ? ॥ ९७ ॥ खाण्डिक्य उवाच
कथिते योगसद्भावे सर्वमेव कृतं मम । तवोपदेशेनाशेषो नष्टश्चित्तमलो यतः ॥ ९८ ॥ खाण्डिक्य बोले- आपने इस महायोगका वर्णन करके मेरा सभी कार्य कर दिया, क्योंकि आपके उपदेशसे मेरे चित्तका सम्पूर्ण मल नष्ट हो गया है ॥ ९८ ॥ ममेति यन्मया चोक्तमसदेतन्न चान्यथा ।
नरेद्र गदितुं शक्यमपि विज्ञेयवेदिभिः ॥ ९९ ॥ हे राजन् ! मैंने जो 'मेरा' कहा यह भी असत्य ही है, अन्यथा ज्ञेय वस्तुको जाननेवाले तो यह भी नहीं कह सकते ॥ ९९ ॥ अहं ममेत्यविद्येयं व्यवहारस्तथानयोः ।
परमार्थस्त्वसंलापो गोचरे वचसां न यः ॥ १०० ॥ 'मैं' और 'मेरा' ऐसी बुद्धि और इनका व्यवहार भी अविद्या ही है, परमार्थ तो कहने-सुननेकी बात नहीं है क्योंकि वह वाणीका अविषय है ॥ १०० ॥ तद्गच्छ श्रेयसे सर्वं ममैतद्भवता कृतम् ।
यद्विमुक्तिप्रदो योगः प्रोक्तः केशिध्वजाव्ययः ॥ १०१ ॥ हे केशिध्वज ! आपने इस मुक्तिप्रद योगका वर्णन करके मेरे कल्याणके लिये सब कुछ कर दिया, अब आप सुखपूर्वक पधारिये ॥ १०१ ॥ श्रीपराशर उवाच
यथार्हं पूजया तेन खाण्डिक्येन स पूजितः । आजगाम पुरं ब्रह्मंस्ततः केशिध्वजो नृपः ॥ १०२ ॥ श्रीपराशरजी बोले-हे ब्रह्मन् ! तदनन्तर खाण्डिक्यसे यथोचित पूजित हो राजा केशिध्वज अपने नगरमें चले आये ॥ १०२ ॥ खाण्डिक्योऽपि सुतं कृत्वा राजानं योगसिद्धये ।
वनं जगाम गोविन्दे विनिवेशितमानसः ॥ १०३ ॥ तथा खाण्डिक्य भी अपने पुत्रको राज्य दे* श्रीगोविन्दमें चित्त लगाकर योग सिद्ध करनेके लिये [निर्जन] वनको चले गये ॥ १०३ ॥ तत्रैकान्तमतिर्भूत्वा यमादिगुणसंयुतः ।
विष्ण्वाख्ये निर्मले ब्रह्मण्यवाप नृपतिर्लयम् ॥ १०४ ॥ वहाँ यमादि गुणोंसे युक्त होकर एकाग्रचित्तसे ध्यान करते हुए राजा खाण्डिक्य विष्णु नामक निर्मल ब्रह्ममें लीन हो गये ॥ १०४ ॥ केशिध्वजो विमुक्त्यर्थं स्वकर्मक्षपणोन्मुखः ।
बुभुजे विषयान्कर्म चक्रे चानभिसंहितम् ॥ १०५ ॥ किन्तु केशिध्वज विदेहमुक्तिके लिये अपने कर्मोंको अय करते हुए समस्त विषय भोगते रहे । उन्होंने फलकी इच्छा न करके अनेकों शुभ-कर्म किये ॥ १०५ ॥ अकल्याणोपभोगैश्च क्षीणपापोऽमलस्तथा ।
अवाप सिद्धिमत्यन्तां तापक्षयफलां द्विज ॥ १०६ ॥ हे द्विज ! इस प्रकार अनेकों कल्याणप्रद भोगोंको भोगते हुए उन्होंने पाप और मल (प्रारब्ध-कर्म) का क्षय हो जानेपर तापत्रयको दूर करनेवाली आत्यन्तिक सिद्धि प्राप्त कर ली ॥ १०६ ॥ इति श्रीविष्णुमहापुराणे षष्ठेंऽशे सप्तमोऽध्यायः (७)
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठेंऽशे सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥ |