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॥ विष्णुपुराणम् ॥

षष्ठः अंशः

॥ षष्ठोऽध्यायः ॥

श्रीपराशर उवाच
स्वाध्यायसंयमाभ्यां स दृश्यते पुरुषोत्तमः ।
तत्प्राप्तिकारणं ब्रह्म तदेतदिति पठ्यते ॥ १ ॥
श्रीपराशरजी बोले- वे पुरुषोत्तम स्वाध्याय और संयमद्वारा देखे जाते हैं, ब्रह्मकी प्राप्तिका कारण होनेसे ये भी ब्रह्म ही कहलाते हैं ॥ १ ॥

स्वाध्यायाद्योगमासीत योगात्स्वाध्यायमावसेत् ।
स्वाध्याययोगसम्पत्त्या परमात्मा प्रकाशते ॥ २ ॥
स्वाध्यायसे योगका और योगसे स्वाध्यायका आश्रय करे । इस प्रकार स्वाध्याय और योगरूप सम्पत्तिसे परमात्मा प्रकाशित (ज्ञानके विषय) होते हैं ॥ २ ॥

तदीक्षणाय स्वाध्यायश्चक्षुर्योगस्तथा परम् ।
न मां स चक्षुषा द्रष्टुं ब्रह्मभूतःस शक्यते ॥ ३ ॥
ब्रह्मस्वरूप परमात्माको मांसमय चक्षुओंसे नहीं देखा जा सकता, उन्हें देखनेके लिये स्वाध्याय और योग ही दो नेत्र हैं ॥ ३ ॥

मैत्रेय उवाच
भगवंस्तमहं योगं ज्ञातुमिच्छामि तं वद ।
ज्ञाते यत्राखिलाधारं पश्येयं परमेश्वरम् ॥ ४ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-भगवन् ! जिसे जान लेनेपर मैं अखिलाधार परमेश्वरको देख सकूँगा उस योगको मैं जानना चाहता हूँ । उसका वर्णन कीजिये ॥ ४ ॥

श्रीपराशर उवाच
यथा केशिध्वजः प्राह खाण्डिक्याय महात्मने ।
नजकाय पुरा योग तमहं कथयामि ते ॥ ५ ॥
श्रीपराशरजी बोले-पूर्वकालमें जिस प्रकार इस योगका केशिध्वजने महात्मा खाण्डिक्य जनकसे वर्णन किया था मैं तुम्हें वही बतलाता हूँ ॥ ५ ॥

मैत्रेय उवाच
खाण्डिक्यः कोऽभवद्‍ब्रह्मन्को वा केशिध्वजः कृती ।
कथं तयोश्च संवादो योगसम्बन्धवानभूत् ॥ ६ ॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-ब्रह्मन् ! यह खाण्डिक्य और विद्वान् केशिध्वज कौन थे ? और उनका योगसम्बन्धी संवाद किस कारणसे हुआ था ? ॥ ६ ॥

श्रीपराशर उवाच
धर्मध्वजो वै जनकस्तस्य पुत्रोऽमितध्वजः ।
कृतध्वजश्च नाम्नासीत्सदाध्यात्मरतिर्नृपः ॥ ७ ॥
श्रीपराशरजी बोले- पूर्वकालमें धर्मध्वज जनक नामक एक राजा थे । उनके अमितध्वज और कृतध्वज नामक दो पुत्र हुए । इनमें कृतध्वज सर्वदा अध्यात्मशास्त्रमें रत रहता था ॥ ७ ॥

कृतध्वजस्य पुत्रोऽभूत् ख्यातः केशिध्वजो नृपः ।
पुत्रोमितध्वजस्यापि खाण्डिक्यजनकोऽभवत् ॥ ८ ॥
कृतध्वजका पुत्र केशिध्वज नामसे विख्यात हुआ और अमितध्वजका पुत्र खाण्डिक्य जनक हुआ ॥ ८ ॥

कर्ममार्गेण खाण्डिक्यः पृथिव्यामभवत्पतिः ।
केशिध्वजोऽप्यतीवासीदात्मविद्याविशारदः ॥ ९ ॥
पृथिवीमण्डलमें खाण्डिक्य कर्म-मार्गमें अत्यन्त निपुण था और केशिध्वज अध्यात्मविद्याका विशेषज्ञ था ॥ ९ ॥

तावुभावपि चैवास्तां विजिगीषू परस्परम् ।
केशिध्वजेन खाण्डिक्यःस्वराज्यादवरोपितः ॥ १० ॥
वे दोनों परस्पर एक-दूसरेको पराजित करनेकी चेष्टामें लगे रहते थे । अन्तमें, कालक्रमसे केशिध्वजने खाण्डिक्यको राज्यच्युत कर दिया ॥ १० ॥

पुरोधसा मन्त्रिभिश्च समवेतोऽल्पसाधनः ।
राज्यान्निराकृतःसोऽथ दुर्गारण्यचरोऽभवत् ॥ ११ ॥
राज्यभ्रष्ट होनेपर खाण्डिक्य पुरोहित और मन्त्रियोंके सहित थोड़ी-सी सामग्री लेकर दुर्गम वनोंमें चला गया ॥ ११ ॥

इयाह सोऽपि सुबहून्यज्ञाञ्ज्ञानव्यपाश्रयः ।
ब्रह्मविद्यामधिष्ठाय तर्त्तु मृत्युमविद्यया ॥ १२ ॥
केशिध्वज ज्ञाननिष्ठ था तो भी अविद्या (कर्म)-द्वारा मृत्युको पार करनेके लिये ज्ञानदृष्टि रखते हुए उसने अनेकों यज्ञोंका अनुष्ठान किया ॥ १२ ॥

एकदा वर्त्तमानस्य यागो योगविदां वर ।
धर्मधेनुं जघानोग्रः शार्दुलो विजने वने ॥ १३ ॥
हे योगिश्रेष्ठ ! एक दिन जब राजा केशिध्वज यज्ञानुष्ठानमें स्थित थे उनकी धर्मधेनु (हविके लिये दूध

ततो राजा हतां श्रुत्वा धनुं व्याघ्रेण चर्त्विजः ।
प्रायश्चितं स पप्रच्छ किमत्रेति विधीयताम् ॥ १४ ॥
देनेवाली गौ)-को निर्जन वनमें एक भयंकर सिंहने मार डाला । ॥ १३ ॥

तेऽप्यूचुर्न वयं विद्म कशेरुः पृच्छतामिति ।
कशेरुरपि तेनोक्तस्तथैव प्राह भार्गवम् ॥ १५ ॥
शुनकं पृच्छ राजैन्द्र नाहं वेद्मि स वेत्स्यति ।
स गत्वा तमपृच्छच्च सोऽप्याह शृणु यन्मुने ॥ १६ ॥
व्याघ्रद्वारा गौको मारी गयी सन राजाने ऋत्विजोंसे पूछा कि 'इसमें क्या प्रायश्चित्त करना चाहिये ?' ॥ १४ ॥

न केशरुर्न चैवाहं न चैकःसाम्प्रतं भुवि ।
वेत्त्येक एव त्वच्छत्रुः खाण्डिक्यो यो जितस्त्वया ॥ १७ ॥
ऋत्विजोंने कहा-'हम [इस विषयमें] नहीं जानते; आप कशेरुसे पूछिये ।' जब राजाने कशेरुसे यह बात पूछी तो उन्होंने भी उसी प्रकार कहा कि 'हे राजेन्द्र ! मैं इस विषय में नहीं जानता । आप भृगुपुत्र शुनकसे पूछिये, वे अवश्य जानते होंगे ।' हे मुने ! जब राजाने शुनकसे जाकर पूछा तो उन्होंने भी जो कुछ कहा, वह सुनिये- ॥ १५-१६ ॥

स चाह तं व्रजाम्येष प्रष्टुमात्मरीपुं मुने ।
प्राप्त एव महायज्ञो यदि मां स हनिष्यति ॥ १८ ॥
"इस समय भूमण्डल में इस बातको न कशेरु जानता है, न मैं जानता हूँ और न कोई और ही जानता है, केवल जिसे तुमने परास्त किया है वह तुम्हारा शत्रु खाण्डिक्य ही इस बातको जानता है" ॥ १७ ॥

प्रायश्चित्तमशेषेण स चेत्पृष्टो वदिष्यति ।
ततश्चाविकलो योगो मुनिश्रेष्ठ भविष्यति ॥ १९ ॥
यह सुनकर केशिध्वजने कहा-'हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं अपने शत्रु खाण्डिक्यसे ही यह बात पूछने जाता हूँ । यदि उसने मुझे मार दिया तो भी मुझे महायज्ञका फल तो मिल ही जायगा और यदि मेरे पूछनेपर उसने मुझे सारा प्रायश्चित्त यथावत् बतला दिया तो मेरा यज्ञ निर्विघ्न पूर्ण हो जायगा' ॥ १८-१९ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा रथमारुह्य कृष्णाजिनधरो नृपः ।
वनं जगाम यत्रास्ते स खाण्डिक्यो महामतिः ॥ २० ॥
श्रीपराशरजी बोले-ऐसा कहकर राजा केशिध्वज कृष्ण मृगचर्म धारणकर रथपर आरूढ़ हो वनमें, जहाँ महामति खाण्डिक्य रहते थे, आये ॥ २० ॥

तमापतन्तमालोक्य खाण्डिक्यो रिपुमात्मनः ।
प्रोवाच क्रोधताम्राक्षःसमारोपितकार्मुकः ॥ २१ ॥
खाण्डिक्यने अपने शत्रुको आते देखकर धनुष चढ़ा लिया और क्रोधसे नेत्र लाल करके कहा- ॥ २१ ॥

खाण्डिक्य उवाच
कृष्णाजिनं त्वं कवचमाबध्यास्मान्हनिष्यसि ।
कृष्णाजिनधरे वेत्सि न मयि प्रहरिष्यति ॥ २२ ॥
खाण्डिक्य बोले-अरे ! क्या तू कृष्णाजिनरूप कवच बाँधकर हमलोगोंको मारेगा ? क्या तू यह समझता है कि कृष्ण मृगचर्म धारण किये हुए मुझपर यह प्रहार नहीं करेगा ? ॥ २२ ॥

मृगाणां वद पृष्ठेषु मूढ कृष्णाजिनं न किम् ।
येषां मया त्वाय चोग्राः प्रहिताः शितसायकाः ॥ २३ ॥
हे मूढ़ ! मृगोंकी पीठपर क्या कृष्ण मृगचर्म नहीं होता, जिनपर कि मैंने और तूने दोनोंहीने तीक्ष्ण बाणोंकी वर्षा की है ॥ २३ ॥

स त्वामहं हनिष्यामि न मे जीवन्विमोक्ष्यसे ।
आतताय्यसि दुर्बुद्धे मम राज्यहरो रिपुः ॥ २४ ॥
अतः अब मैं तुझे अवश्य मारूँगा, तू मेरे हाथसे जीवित बचकर नहीं जा सकता । हे दुर्बुद्धे ! तू मेरा राज्य छीननेवाला शत्रु है, इसलिये आततायी है ॥ २४ ॥

केशिध्वज उवाच
खाण्डिक्य संशयं प्रष्टुं भवन्तमहामागतः ।
न त्वां हन्तुं विचार्यैतत्कोपं बाणं विमुञ्च वा ॥ २५ ॥
केशिध्वज बोले-हे खाण्डिक्य ! मैं आपसे एक सन्देह पूछने के लिये आया हूँ, आपको मारनेके लिये नहीं आया, इस बातको सोचकर आप मुझपर क्रोध अथवा बाण छोड़ दीजिये ॥ २५ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततःस मन्त्रिभिः सार्धमेकान्ते सपुरोहितः ।
मन्त्रयामास खाण्डिक्यःसर्वैरेव महामतिः ॥ २६ ॥
श्रीपराशरजी बोले- यह सुनकर महामति [खाण्डिक्यने अपने सम्पूर्ण पुरोहित और मन्त्रियोंसे एकान्तमें सलाह की ॥ २६ ॥

तमूचुर्मन्त्रिणो वध्यो रिपुरेष वशं गतः ।
हतेऽस्मिन् पृथिवी सर्वा तव वश्या भविष्यति ॥ २७ ॥
मन्त्रियोंने कहा कि 'इस समय शत्रु आपके वशमें है, इसे मार डालना चाहिये । इसको मार देनेपर यह सम्पूर्ण पृथिवी आपके अधीन हो जायगी' ॥ २७ ॥

खाण्डिक्यश्चाह तान्सर्वानेवमेतन्न संशयः ।
हतेस्मिन्पृतिवी सर्वा मम वश्या भविष्यति ॥ २८ ॥
परलोकजयस्तस्य पृथिवी सकला मम ।
न हन्मि चेल्लोकजयो मम तस्य वसुन्धरा ॥ २९ ॥
खाण्डिक्यने कहा-"यह निस्सन्देह ठीक है, इसके मारे जानेपर अवश्य सम्पूर्ण पृथिवी मेरे अधीन हो जायगी; किन्तु इसे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और मुझे सम्पूर्ण पृथिवी । परन्तु यदि इसे नहीं मारूँगा तो मुझे पारलौकिक जय प्राप्त होगी और इसे सारी पृथिवी ॥ २८-२९ ॥

नाहं मन्ये लोकजयादधिका स्याद्वसुन्धरा ।
परलोकजयोऽनन्तःस्वल्पकालो महीजयः ॥ ३० ॥
तस्मान्नैनं हनिष्यामि यत्पृच्छति वदामि तत् ॥ ३१ ॥
मैं पारलौकिक जयसे पृथिवीको अधिक नहीं मानता; क्योंकि परलोक-जय अनन्तकालके लिये होती है और पृथिवी तो थोड़े ही दिन रहती है । इसलिये मैं इसे मारूंगा नहीं, यह जो कुछ पूछेगा, बतला दूंगा" ॥ ३०-३१ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततस्तमभ्युपेत्याह खाण्डिक्यजनको रिपुम् ।
प्रष्टव्यं यत्त्वया सर्वं तत्पृच्छस्व वदाम्यहम् ॥ ३२ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब खाण्डिक्य जनकने अपने शत्रु केशिध्वजके पास आकर कहा-'तुम्हें जो कुछ पूछना हो पूछ लो, में उसका उत्तर दूंगा' ॥ ३२ ॥

श्रीपराशर उवाच
ततः सर्वं यथावृत्तं घर्मधेनुवधं द्विज ।
कथयित्वा स पप्रच्छ प्रायश्तित्तं हि तद्‍गतम् ॥ ३३ ॥
हे द्विज ! तब केशिध्वजने जिस प्रकार धर्मधेनु मारी गयी थी वह सब वृत्तान्त खाण्डिक्यसे कहा और उसके लिये प्रायश्चित्त पूछा ॥ ३३ ॥

स चाचष्ट यथान्यायं द्विज केशिध्वजाय तत् ।
प्रायश्चित्तमशेषेण यद्वै तत्र विधीयते ॥ ३४ ॥
खाण्डिक्यने भी वह सम्पूर्ण प्रायश्चित्त, जिसका कि उसके लिये विधान था, केशिध्वजको विधिपूर्वक बतला दिया ॥ ३४ ॥

विदितार्थःस तेनैव ह्यनुज्ञातो महात्मना ।
यागभूमिमुपागम्य चक्रे सर्वाः क्रियाः क्रमात् ॥ ३५ ॥
तदनन्तर पूछे हुए अर्थको जान लेनेपर महात्मा खाण्डिक्यकी आज्ञा लेकर वे यज्ञभूमिमें आये और क्रमशः सम्पूर्ण कर्म समाप्त किया ॥ ३५ ॥

क्रमेण विधिवद्यागं नीत्वा सोऽवभृथाप्लुतः ।
कृतकृत्यस्ततो भूत्वा चिन्तयामास पार्थिवः ॥ ३६ ॥
फिर कालक्रमसे यज्ञ समाप्त होनेपर अवभृथ (यज्ञान्त) स्नानके अनन्तर कृतकृत्य होकर राजा केशिध्वजने सोचा ॥ ३६ ॥

पूजिताश्च द्विजाःसर्वे सदस्या मानिता मया ।
तथैवार्थिजनोऽप्यर्थैर्योऽर्जितोऽभिमतैर्मया ॥ ३७ ॥
यथार्हमस्य लोकस्य मया सर्वं विचेष्टितम् ।
अनिष्पन्नक्रियं चेतस्तथापि मम किं यथा ॥ ३८ ॥
"मैंने सम्पूर्ण ऋत्विज ब्राह्मणों का पूजन किया, समस्त सदस्योंका मान किया, याचकोंको उनकी इच्छित वस्तुएँ दी, लोकाचारके अनुसार जो कुछ कर्तव्य था वह सभी मैंने किया, तथापि न जाने, क्यों मेरे चित्तमें किसी क्रियाका अभाव खटक रहा है ?" ॥ ३७-३८ ॥

इत्थं सञ्चिन्तयन्नैव सस्मार स महीपतिः ।
खाण्डिक्याय न दत्तेति मया वै गुरुदक्षिणा ॥ ३९ ॥
इस प्रकार सोचतेसोचते राजाको स्मरण हुआ कि मैंने अभीतक खाण्डिक्यको गुरु-दक्षिणा नहीं दी ॥ ३९ ॥

स जगाम तदा भूयो रथमारुह्य पार्थिवः ।
मैत्रेय दुर्गगहनं खाण्डिक्यो यत्र संस्थितः ॥ ४० ॥
हे मैत्रेय ! तब वे रथपर चढ़कर फिर उसी दुर्गम वनमें गये, जहाँ खाण्डिक्य रहते थे ॥ ४० ॥

खाण्डिक्योऽपि पुनर्दृष्ट्‍वा तमायान्तं धृतायुधम् ।
तस्थौ हन्तुं कृतमतिस्तमाह स पुनर्नृपः ॥ ४१ ॥
खाण्डिक्य भी उन्हें फिर शस्त्र धारण किये आते देख मारनेके लिये उद्यत हए । तब राजा केशिध्वजने कहा- ॥ ४१ ॥

भो नाहं तेऽपराधाय प्राप्तः खाण्डिक्य मा क्रुधः ।
गुरोर्निक्रयदानाय मामवेहि त्वमागतम् ॥ ४२ ॥
"खाण्डिक्य ! तुम क्रोध न करो, मैं तुम्हारा कोई अनिष्ट करनेके लिये नहीं आया, बल्कि तुम्हें गुरु-दक्षिणा देनेके लिये आया हूँ-ऐसा समझो ॥ ४२ ॥

निष्पादितो मया यागः सम्यक्त्वदुपदेशतः ।
सोऽहं ते दातुमिच्छामि वृणीष्व गुरुदक्षिणाम् ॥ ४३ ॥
मैंने तुम्हारे उपदेशानुसार अपना यज्ञ भली प्रकार समाप्त कर दिया है, अब मैं तुम्हें गुरु-दक्षिणा देना चाहता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो" ॥ ४३ ॥

श्रीपराशर उवाच
भूयस्य मन्त्रिभिः सार्धं मन्त्रयामास पार्थिवः ।
गुरुनिष्क्रयकामोऽयं किं मया प्रार्थ्यतामिति ॥ ४४ ॥
श्रीपराशरजी बोले-तब खाण्डिक्यने फिर अपने मन्त्रियोंसे परामर्श किया कि "यह मुझे गुरु-दक्षिणा देना चाहता है, मैं इससे क्या माँगू ?" ॥ ४४ ॥

तमूचुर्मन्त्रिणो राज्यमशेषं प्रार्थ्यतामयम् ।
शत्रिभिः प्रार्थ्यते राज्यमनायासितसैनिकैः ॥ ४५ ॥
मन्त्रियोंने कहा-"आप इससे सम्पूर्ण राज्य माँग लीजिये, बुद्धिमान् लोग शत्रुओंसे अपने सैनिकोंको कष्ट दिये बिना राज्य ही माँगा करते हैं" ॥ ४५ ॥

प्रहस्य तानाह नृपःस खाण्डिक्यो महामतिः ।
स्वल्पकालं महीपाल्यं मादृशैः प्रार्थ्यते कथम् ॥ ४६ ॥
तब महामति राजा खाण्डिक्यने उनसे हँसते हुए कहा-"मेरे-जैसे लोग कुछ ही दिन रहनेवाला राज्यपद कैसे मांग सकते हैं ? ॥ ४६ ॥

एवमेतद्‍भवन्तोऽत्र ह्यर्थसाधनमन्त्रिणः ।
परमार्थः कथं कोऽत्र यूयं नात्र विचक्षणाः ॥ ४७ ॥
यह ठीक है आपलोग स्वार्थ-साधनके लिये ही परामर्श देनेवाले हैं; किन्तु 'परमार्थ क्या और कैसा है ?' इस विषयमें आपको विशेष ज्ञान नहीं है" ॥ ४७ ॥

श्रीपराशर उवाच
इत्युक्त्वा समुपेत्यैनं स तु केशिध्वजं नृपः ।
उवाच किमवश्यं त्वं ददासि गुरुदक्षिणाम् ॥ ४८ ॥
श्रीपराशरजी बोले-यह कहकर राजा खाण्डिक्य केशिध्वजके पास आये और उनसे कहा, 'क्या तुम मुझे अवश्य गुरु-दक्षिणा दोगे ?' ॥ ४८ ॥

बाढमित्येव तेनोक्तः खाण्डिक्यस्तमथाब्रवीत् ।
भवानद्यात्म विज्ञानपरमार्थविचक्षणः ॥ ४९ ॥
जब केशिध्वजने कहा कि 'मैं अवश्य दूंगा' तो खाण्डिक्य बोले-"आप आध्यात्मज्ञानरूप परमार्थ-विद्या में बड़े कुशल हैं ॥ ४९ ॥

यदि चेद्दीयते मह्यं भवता गुरुनिष्क्रयः ।
तत्क्लेशप्रशमायालं यत्कर्म तदुदीरय ॥ ५० ॥
सो यदि आप मुझे गुरु-दक्षिणा देना ही चाहते हैं तो जो कर्म समस्त क्लेशोंकी शान्ति करनेमें समर्थ हो वह बतलाइये" ॥ ५० ॥

इति श्रीविष्णुमहापुराणे षष्ठेंऽशे षष्ठोऽध्यायः (६)
इति श्रीविष्णुपुराणे षष्ठंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥



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