![]() |
॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
अष्टमोऽध्यायः ॥ श्रीरामायणे किष्किन्धाकाण्डम् -
किष्किन्धाकाण्डकी संक्षिप्त कथा - नारद उवाच - रामः पम्पासरो गत्वा शोचन् स शर्वरीं गतः । हनूमताऽथ सुग्रीवं नीतो मित्रं चकार ह ॥ १ ॥ सप्त तालान्विनिर्भिद्य शरेणैकेन पश्यतः । पादेन दुन्दुभेः कायं चिक्षेप दशयोजनम् ॥ २ ॥ तद्रिपुं बालिनं हत्वा भ्रातरं वैरकारिणम् । किष्किन्धां कपिराज्यं च रुमां तारां समर्पयत् ॥ ३ ॥ ऋष्यमूके हरीशाय किष्किन्धेशोऽब्रवीदथ । सीतां त्वं प्राप्स्यसे यद्वत्तथा राम करोमि ते ॥ ४ ॥ तच्छ्रुत्वा माल्यवत्पृष्ठे चातुर्मास्यं चकार सः । किष्किन्धायां च सुग्रीवो यदा नाऽऽयाति दर्शनम् ॥ ५ ॥ तदाऽब्रवीत्तं रामोक्तं लक्ष्मणो व्रज राघवम् । न स सङ्कुचितः पन्था येन वाली हतो गतः ॥ ६ ॥ समये तिष्ठ सुग्रीव मा वालिपथमन्वगाः । सुग्रीव आह संसक्तो गतं कालं न बुद्धवान् ॥ ७ ॥ नारदजी कहते हैं - श्रीरामचन्द्रजी पम्पासरोवरपर जाकर सीताके लिये शोक करने लगे । वहाँ वे शबरीसे मिले । फिर हनुमान्जीसे उनकी भेट हुई । हनुमान्जी उन्हें सुग्रीवके पास ले गये और सुग्रीवके साथ उनकी मित्रता करायी । श्रीरामचन्द्रजीने सबके देखते - देखते ताडके सात वृक्षोंको एक ही बाणसे बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानवके विशाल शरीरको पैरकी ठोकरसे दस योजन दूर फेक दिया । इसके बाद सुग्रीवके शत्रू वालीको, जो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापुरी, वानरोंका साम्राज्य, रुमा एवं तारा - इन सबको ऋष्यमूक पर्वतपर वानरराज सुग्रीवके अधीन कर दिया । तदनन्तर किष्किन्धापुरीके स्वामी सुग्रीवने कहा - 'श्रीराम । आपको सीताजीकी प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ । ' यह सुननेके बाद श्रीरामचन्द्रजीने माल्यवान् पर्वतके शिखरपर वर्षाके चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धामें रहने लगे । चौमासेके बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे लक्ष्मणने किष्किन्धामें जाकर कहा - 'सुग्रीव ! तुम श्रीरामचन्द्रजीके पास चलो । अपनी प्रतिज्ञापर अटल रहो, नहीं तो वाली मरकर जिस मार्गसे गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है । अतएव वालीके पथका अनुसरण न करो ।' सुग्रीवने कहा - 'सुमित्रानन्दन ! विषयभोगमें आसक्त हो जानेके कारण मुझे बीते हुए समयका भान न रहा । [ अतः मेरे अपराधको क्षमा कीजिये] ' ॥ १ - ७ ॥ इत्युक्त्वा स गतो रामं नत्वोवाच हरीश्वरः ॥ ८ ॥ सुग्रीव उवाच आनीता वानराः सर्वे सीतायाश्च गवेषणे । त्वन्मताः प्रेषयिष्यामि विचिन्वन्तु च जानकीम् ॥ ९ ॥ पूर्वादौ मासपर्यंतं मासादूर्ध्वं निहन्मि तान् । इत्युक्ता वानराः पूर्व-पश्चिमोत्तरमार्गगाः ॥ १० ॥ जग्मू रामं ससुग्रीवमपश्यन्तस्तु जानकीम् । रामाङ्गुलीयं सङ्गृह्य हनूमान्वानरैः सह ॥ ११ ॥ दक्षिणे मार्गयामास सुप्रभाया गुहान्तिके । मासादूर्ध्वञ्च विन्ध्यस्था अपश्यन्तस्तु जानकीम् । ॥ १२ ॥ ऊचुर्वृथा मरिष्यामो जटायुर्धन्य एव सः । सीतार्थे योऽत्यजत्प्राणान्रावणेन हतो रणे ॥ १३ ॥ ऐसा कहकर वानरराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजीके पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले - ' भगवन् ! मैने सब वानरोंको बुला लिया है । अब आपकी इच्छाके अनुसार सीताजीकी खोज करनेके लिये उन्हें भेजूँगा । वे पूर्वादि दिशाओमें जाकर एक महीनेतक सीताजीकी खोज करे । जो एक महीनेके बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा । ' यह सुनकर बहुतसे वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओंके मार्गपर चल पडे तथा वहां जनककुमारी सीताको न पाकर नियत समयके भीतर श्रीराम और सुग्रीवके पास लौट आये । हनुमान्जी श्रीरामचन्द्रजीकी दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरोंके साथ दक्षिण दिशामें जानकीजीकी खोज कर रहे थे । वे लोग सुप्रभाकी गुफाके निकट विंध्यपर्वतपर ही एक माससे अधिक कालतक दूँढते फिरे; किंतु उन्हें सीताजीका दर्शन नहीं हुआ । अन्तमें निराश होकर आपसमें कहने लगे - ' हमलोगोको व्यर्थ ही प्राण देने पडेंगे । धन्य है वह जटायु जिसने सीताके लिये रावणके द्वारा मारा जाकर युद्धमें प्राण त्याग दिया था ' ॥ ८ - १३ ॥ तच्छ्रुत्वा प्राह सम्पातिः विहाय कपिभक्षणम् । भ्राताऽसौ मे जटायुर्वै मयोड्डीनोऽर्कमण्डलम् ॥ १४ ॥ अर्कतापाद्रक्षितोऽगाद्दग्धपक्षोऽहमत्रगः । रामवार्ताश्रवात्पक्षौ जातौ भूयोऽथ जानकीम् ॥ १५ ॥ पश्याम्यशोकवनिकागतां लङ्कागतां किल । शतयोजनविस्तीर्णे लवणाब्धौ त्रिकूटके ॥ १६ ॥ ज्ञात्वा रामं ससुग्रीवं वानराः कथयन्तु वै ॥ १७ ॥ उनकी ये बाते सम्पाति नामक गृध्रके कानोमें पडीं । वह वानरोंके (प्राणत्यागकी चर्चासे उनके) खानेकी ताकमें लगा था । किंतु जटायुकी चर्चा सुनकर रुक गया और बोला - 'वानरो ! जटायु मेरा भाई था । वह मेरे ही साथ सूर्यमण्डलकी ओर उडा चला जा रहा था । मेने अपनी पाँखोकी ओटमें रखकर सूर्यकी प्रखर किरणोके तापसे उसे बचाया । अतः वह तो सकुशल बच गया; किंतु मेरी पाँखें जल गयी, इसलिये मैं यहीं गिर पडा । आज श्रीरामचन्द्रजीकी वार्ता सुननेसे फिर मेरे पंख निकल आये । अेब मैं जानकीको देखता हूँ; वे लङ्कामें अशोकवाटिकाके भीतर हैं । लवणसमुद्रके द्वीपमें त्रिकूट पर्वतपर लङ्का बसी हुई है । यहाँसे वहाँतकका समुद्र सौ योजन विस्तृत है । यह जानकर सब वानर श्रीराम और सुग्रीवके पास जाये और उन्हें सब समाचार बता दे ' ॥ १ ४ - १७ ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये रामायाणे किष्किन्धाकाण्डवर्णनं नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'रामायणकथाके अन्तर्गत किष्किन्धाकाण्डकी कथाका वर्णन' नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |