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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
नवमोऽध्यायः ॥ श्रीरामायणे सुन्दरकाण्डम् -
सुंदरकाण्डकी संक्षिप्त कथा - नारद उवाच - सम्पातिवचनं श्रुत्वा हनुमानङ्गदादयः । अब्धिं दृष्ट्वाब्रुवंस्तेऽब्धिं लङ्घयेत् को नु जीवयेत् ॥ १ ॥ कपीनां जीवनार्थाय रामकार्यप्रसिद्धये । शतयोजनविस्तीर्णं पुप्लुवेऽब्धिं स मारुतिः ॥ २ ॥ दृष्ट्वोत्थितञ्च मैनाकं सिंहिकां विनिपात्य च । लङ्कां दृष्ट्वा राक्षसानां गृहाणि वनिता गृहे ॥ ३ ॥ दशग्रीवस्य कुम्भस्य कुम्भकर्णस्यरक्षसः । विभीषणस्येन्द्रजितो गृहेऽन्येषां च रक्षसो ॥ ४ ॥ नापश्यत्पानभूम्यादौ सीतां चिन्तापरायणः । अशोकवनिकां गत्वा दृष्टवाञ्छिंशपातले ॥ ५ ॥ राक्षसीरक्षितां सीतां भव भार्येतिवादिनम् । रावणं शिंशपास्थोऽथ नेति सीतां सुवादिनीम् ॥ ६ ॥ भव भार्या रावणस्य राक्षसीर्वादिनीः कपिः । गते तु रावणे प्राह राजा दशरथोऽभवत् ॥ ७ ॥ रामोऽस्य लक्ष्मणः पुत्रौ वनवासं गतौ वरौ । रामपत्नी जानकी त्वं रावणेन हृता बलात् ॥ ८ ॥ रामः सुग्रीवमित्रस्त्वां मार्गयन्प्रेषयच्च माम् । साभिज्ञानं चाङ्गुलीयं रामदत्तं गृहाण वै ॥ ९ ॥ नारदजी कहते है - सम्पातिकी बात सुनकर हनुमान् और अङ्गद आदि वानरोंने समुद्रकी ओर देखा । फिर वे कहने लगे - ' कौन समुद्रको लाँघकर समस्त वानरोंको जीवन - दान देगा ? ' वानरोंकी जीवनरक्षा और श्रीरामचन्द्रजीके कार्यकी प्रकृष्ट सिद्धिके लिये पवनकुमार हनुमान्जी सौ योजन विस्तृत समुद्रको लाँघ गये । लाँघते समय अवलम्बन देनेके लिये समुद्रसे मैनाक पर्वत उठा । हनुमान्जीने दृष्टिमात्रसे उसका सत्कार किया । फिर [ छायाग्राहिणी] सिंहिकाने सिर उठाया । [ वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी इसलिये] हनुमान्जीने उसे मार गिराया । समुद्रके पार जाकर उन्द्वोंने लङ्कापुरी देखी । राक्षसोंके घरोंमें खोज की; रावणके अन्तपुरमें तथा कुम्भ, कुम्भकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित् तथा अन्य राक्षसोंके गृहोमें जा जाकर तलाश की; मद्यपानके स्थानो आदिमें भी चक्कर लगाया; किंतु कहीं भी सीता उनकी दृष्टिमें नहीं पडी । अव वे बडी चिन्तामे पडे । अन्तमें जब अशोकवाटिकाकी ओर गये तो वहां शिंशपावृक्षके नीचे सीताजी उन्हे बैठी दिखायी दीं । वहां राक्षसियाँ उनकी रखवाली कर रही थी । हनुमान्जीने शिंशपा वृक्षपर चढकर देखा । रावण सीताजीसे कह रहा था - 'तू मेरी स्त्री हो जा'; किंतु वे स्पष्ट शब्दोमें ' ना ' कर रही थी । वहाँ बैठी हुई राक्षसियां भी यही कहती थी - 'तू रावणकी स्त्री हो जा ।' जब रावण चला गया तो हनुमान्जीने इस प्रकार कहना आरम्भ किया - 'अयोध्यामें दशरथ नामवाले एक राजा थे । उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवासके लिये गये । वे दोनो भाई श्रेष्ठ पुरुष हैं । उनमें श्रीरामचन्द्रजीकी पत्नी जनककुमारी सीता तुम्ही हो । रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया है । श्रीरामचन्द्रजी इस समय वानरराज सुग्रीवके मित्र हो गये हैं । उन्होंने तुम्हारी खोज करनेके लिये ही मुझे भेजा है । पहचानके लिये गूढ संदेशके साथ श्रीरामचन्द्रजीने अँगूठी दी है । उनकी दी हुई यह अँगूठी ले लो ' ॥ १ - ९ ॥ सीताऽङ्गुलीयं जग्राह साऽपश्यन्मारूतिं तरौ । भूयोऽग्रे चोपविष्टं तं उवाच यदि जीवति ॥ १० ॥ रामः कथं न नयति शङ्कितामब्रवीत् कपिः ॥ ११ ॥ हनूमानुवाच रामः सीते न जानीते ज्ञात्वा त्वां स नयिष्यति । रावणं राक्षसं हत्वा सबलं देवि मा शुच ॥ १२ ॥ साभिज्ञानं देहि मे त्वं मणिं सीताऽददत्कपौ । उवाच मां यथा रामो नयेच्छीघ्रं तथा कुरु ॥ १३ ॥ काकाक्षिपातनकथां प्रतियाहि हि शोकहा । मणि कथां गृहीत्वाऽऽह हनूमान्नेष्यते पतिः ॥ १४ ॥ अथवा ते त्वरा काचित्पृष्ठमारुह मे शुभे । अद्य त्वां दर्शयिष्यामि ससुग्रीवं च राघवम् ॥ १५ ॥ सीताऽब्रवीद्धनूमन्तं नयतां मां हि राघवः । सीताजीने अँगूठी ले ली । उन्होंने वृक्षपर बैठे हुए हनुमान्जीको देखा । फिर हनुमान्जी वृक्षसे उतरकर उनके सामने आ बैठे, तब सीताने उनसे कहा - यदि श्रीरघुनाथजी जीवित हैं तो वे मुझे यहाँसे ले क्यो नहीं जाते ?' इस प्रकार शङ्का करती हुई सीताजीसे हनुमान्जीने इस प्रकार कहा - देवि सीते ! तुम यहाँ हो, यह बात श्रीरामचन्द्रजी नहीं जानते । मुझसे यह समाचार जान लेनेके पश्चात् सेनासहित राक्षस रावणको मारकर वे तुम्हें अवश्य ले जायेंगे । तुम चिन्ता न करो । मुझे कोई अपनी पहचान दो । ' तब सीताजीने हनुमान्जीको अपनी चूडामणि उतारकर दे दी और कहा - भैया । अब ऐसा उपाय करो, जिससे श्रीरघुनाथजी शीघ्र आकर मुझे यहाँसे ले चले । उन्हें कौएकी आँख नष्ट कर देनेवाली घटनाका स्मरण दिलाना; [ आज यहीं रहो] कल सबेरे चले जाना; तुम मेरा शोक दूर करनेवाले हो । तुम्हारे आनेसे मेरा दुःख बहुत कम हो गया वै । ' चूडामणि और काकवाली कथाको पहचानके रूपमें लेकर हनुमान्जीने कहा - ' कल्याणि ! तुन्द्वारे पतिदेव अब तुम्हें शीघ्र ही ले जायँगे । अथवा यदि तुम्हें चलनेकी जल्दी हो, तो मेरी पीठपर बैठ जाओ । मैं आज ही तुम्हें श्रीराम और सुग्रीवके दर्शन कराऊँगा । ' सीता बोलीं - ' नहीं, श्रीरघुनाथजी ही आकर मुझे ले जाये ' ॥ १० - १५.५ ॥ हनूमान्स दशग्रीवदर्शनोपायमाकरोत् ॥ १६ ॥ वनं बभञ्ज तत्पालान्हत्वा दन्तनखादिभिः । हत्वातु किङ्करान्सर्वान्सप्त मन्त्रिसुतानपि ॥ १७ ॥ पुत्रमक्षं कुमारञ्च शक्रजिच्च बबन्ध तम् । नागपाशेन पिङ्गाक्षं दर्शयामास रावणम् ॥ १८ ॥ उवाच रावणः कस्त्वं मारुतिः प्राह रावणम् ॥ १९ ॥ हनूमानुवाच रामदूतो राघवाय सीतां देहि मरिष्यसि । रामबाणैर्हतः सार्धं लङ्कास्थै राक्षसैः ध्रुवम् ॥ २० ॥ रावणो हन्तुमुद्युक्तो विभीषणनिवारितः । दीपयामास लाङ्गलं दीप्तपुच्छः स मारुतिः ॥ २१ ॥ दग्ध्वा लङ्कां राक्षसांश्च दृष्ट्वा सीतां प्रणम्य ताम् । समुद्रपारमागम्य दृष्ट्वा सीतेति चाब्रवीत् ॥ २२ ॥ अङ्गदादीनङ्गदाद्यैः पीत्वा मधुवने मधु । जित्वा दधिमुखादींश्च दृष्ट्वा रामं च तेऽब्रुवन् ॥ २३ ॥ दृष्टा सीतेति रामोऽपि हृष्टः पप्रच्छ मारुतिम् ॥ २४ ॥ तदनन्तर हनुमान्जीने रावणसे मिलनेकी युक्ति सोच निकाली । उन्होने रक्षकोंको मारकर उस वाटिकाको उजाड डाला । फिर दाँत और नख आदि आयुधोंसे वहाँ आये हुए रावणके समस्त सेवकोंको मारकर सात मन्त्रिकुमारो तथा रावणपुत्र अक्षयकुमारको भी यमलोक पहुँचा दिया । तत्पश्चात् इन्द्रजित्ने आकर उन्हे नागपाशसे बांध लिया और उन वानरवीरको रावणके पास ले जाकर उससे मिलाया । उस समय रावणने पूछा - तू कौन है ? ' तब हनुमान्जीने रावणको उत्तर दिया - मैं श्रीरामचन्द्रजीका दूत हूँ । तुम श्रीसीताजीको श्रीरघुनाथजीकी सेवामें लौटा दो; अन्यथा लङ्कानिवासी समस्त राक्षसोंके साथ तुम्हें श्रीरामके बाणोंसे घायल होकर निश्चय ही मरना पडेगा । ' यह सुनकर रावण हनुमान्जीको मारनेके लिये उद्यत हो गया; किंतु विभीषणने उसे रोक दिया । तब रावणने उनकी पूँछमें आग लगा दी । पूँछ जल उठी । यह देख पवनपुत्र हनुमान्जीने राक्षसोंकी पुरी लङ्काको जला डाला और सीताजीका पुनः दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया । फिर समुद्रके पार आकर अङ्गद आदिसे कहा - 'मैंने सीताजीका दर्शन कर लिया है । ' तत्पश्चात् अङ्गद आदिके साथ सुग्रीवके मधुवनमें आकर, दधिमुख आदि रक्षकोंको परास्त करके, मधुपान करनेके अनन्तर वे सब लोग श्रीरामचन्द्रजीके पास आये और बोले - 'सीताजीका दर्शन हो गया । ' श्रीरामचन्द्रजीने भी अत्यन्त प्रसन्न होकर हनुमान्जीसे पूछा - ॥ १६ - २४ ॥ श्रीराम उवाच कथं दृष्ट्वा त्वया सीता किमुवाच च मां प्रति । सीताकथामृतेनैव सिञ्च मां कामवह्निगम् ॥ २५ ॥ श्रीरामचन्द्रजी बोले - कपिवर । तुम्हें सीताका दर्शन कैसे हुआ ? उसने मेरे लिये क्या संदेश दिया है ? मैं विरहकी आगमें जल रहा हूँ । तुम सीताकी अमृतमयी कथा सुनाकर मेरा संताप शान्त करो ॥ २५ ॥ हनूमानब्रवीद्रामं लङ्घयित्वाब्धिमागतः । सीतां दृष्ट्वा पुरीं दग्ध्वा सीतामणिं गृहाण वै ॥ २६ ॥ हत्वा त्वं रावणं सीतां प्राप्स्यसे राम मा शुच । गृहीत्वा तं मणिं रामो रुरोद विरहातुरः ॥ २७ ॥ मणिं दृष्ट्वा जानकी मे दृष्टा सीता नयस्व माम् । तया विना न जीवामि सुग्रीवाद्यैः प्रबोधितः ॥ २८ ॥ समुद्रतीरं गतवांस्तत्र रामं विभीषणः । गतस्तिरस्कृतो भ्रात्रा रावणेन दुरात्मना ॥ २९ ॥ रामाय देहि सीतां त्वं इत्युक्तेनासहायवान् । रामो विभीषणं मित्रं लङ्कैश्वर्येऽभ्यषेचयत् ॥ ३० ॥ समुद्रं प्रार्थयन्मार्गं यदा नायात्तदा शरैः । भेदयामास रामञ्च उवाचब्धिः समागतः ॥ ३१ ॥ समुद्र उवाच नलेन सेतुं बध्वाब्धौ लङ्कां व्रज गभीरकः अहं त्वया कृतः पूर्वं रामोऽपि नलसेतुना ॥ ३२ ॥ कृतेन तरुशैलाद्यैर्गतः पारं महोदधेः । वानरैः स सुवेलस्थः सह लङ्कां ददर्श वै ॥ ३३ ॥ नारदजी कहते हैं - यह सुनकर हनुमान्जीने रघुनाथजीसे कहा - भगवन् ! मैं समुद्र लाँघकर लङ्कामें गया था । वहाँ सीताजीका दर्शन करके, लङ्कापुरीको जलाकर यहाँ आ रहा हूँ । यह सीताजीकी दी हुई चूडामणि लीजिये । आप शोक न करे रावणका वध करनेके पश्चात् निश्चय ही आपको सीताजीकी प्राप्ति होगी । ' श्रीरामचन्द्रजी उस मणिको हाथमें ले, विरहसे व्याकुल होकर रोने लगे और बोले - 'इस मणिको देखकर ऐसा जान पडता है, मानो मैंने सीताको ही देख लिया । अब मुझे सीताके पास ले चलो; मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता । ' उस समय सुग्रीव आदिने श्रीरामचन्द्रजीको समझा-बुझाकर शान्त किया । तदनन्तर श्रीरघुनाथजी समुद्रके तटपर गये । वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले । विभीषणके भाई दुरात्मा रावणने उनका तिरस्कार किया था । विभीषणने इतना ही कहा था कि ' भैया ! आप सीताको श्रीरामचन्द्रजीकी सेवामें समर्पित कर दीजिये । ' इसी अपराधके कारण उसने इन्हें ठुकरा दिया था । अब वे असहाय थे । श्रीरामचन्द्रजीने विभीषणको अपना मित्र बनाया और लङ्काके राजपदपर अभिषिक्त कर दिया । इसके बाद श्रीरामने समुद्रसे लङ्का जानेके लिये रास्ता माँगा । जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणोंसे उसे बींध डाला । अब समुद्र भयभीत होकर श्रीरामचन्द्रजीके पास आकर बोला 'भगवन् ! नलके द्वारा मेरे ऊपर पुल बँधाकर आप लङ्कामें जाइये । पूर्वकालमें आपहीने मुझे गहरा बनाया था । ' यह सुनकर श्रीरामचन्द्रजीने नलके द्वारा वृक्ष और शिलाखण्डोंसे एक पुल बँधवाया और उसीसे वे वानरोंसहित समुद्रके पार गये । वहाँ सुवेल पर्वतपर पडाव डालकर वहींसे उन्होंने लङ्कापुरीका निरीक्षण किया ॥ २६ - ३३ ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये रामायणे सुन्दरकाण्डवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥ ९ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'रामायण - कथाके अन्तर्गत सुन्दरकाण्डकी कथाका वर्णन ' नामक नवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ९ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |