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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
दशमोऽध्यायः ॥ श्रीरामायणे युद्धकाण्डम् -
युद्धकाण्डकी संक्षिप्त कथा - नाराद उवाच - रामोक्तश्चाङ्गदो गत्वा रावणं प्राह जानकी । दीयतां राघवायाऽऽशु अन्यथा त्वं मरिष्यसि ॥ १ ॥ रावणो हन्तुमुद्युक्तः सङ्ग्रामोद्धतराक्षसः । रामायाऽऽह दशग्रीवो युद्धमेकं तु मन्यते ॥ २ ॥ रामो युद्धाय तच्छ्रुत्वा लङ्कां सकपिराययौ । वानरो हनूमान्मैन्दो द्विविदो जाम्बवान्नलः ॥ ३ ॥ नीलस्तारोऽङ्गदो धूम्रः सुषेणः केसरी गजः । पनसो विनतो रम्भः शरभः कंपनो बली ॥ ४ ॥ गवाक्षो दधिवक्त्रश्च गवयो गन्धमादनः । एते चान्ये च सुग्रीव एतैर्युक्तो ह्यसङ्ख्यकैः ॥ ५ ॥ रक्षसां वानराणां च युद्धं सङ्कुलमाबभौ । राक्षसा वानराञ्जघ्नुः शरशक्तिगदादिभिः ॥ ६ ॥ वानरा राक्षसाञ्जघ्नुः नखदन्तशिलादिभिः । हस्त्यश्वरथपादातं राक्षसानां बलं हतम् ॥ ७ ॥ हनूमान् गिरिशृङ्गेण धूम्राक्षं अवधीद् रिपुम् । अकम्पनं प्रहस्तं च युध्यन्तं नील आवधीत् ॥ ८ ॥ नारदजी कहते हैं - तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीके आदेशसे अङ्गद रावणके पास गये और बोले - ' रावण ! तुम जनककुमारी सीताको ले जाकर शीघ्र ही श्रीरामचन्द्रजीको सौप दो । अन्यथा मारे जाओगे । ' यह सुनकर रावण उन्हे मारनेको तैयार हो गया । अङ्गद राक्षसोको मार - पीटकर लौट आये और श्रीरामचन्द्रजीसे बोले - भगवन् ! रावण केवल युद्ध करना चाहता वै । ' अङ्गदकी बात सुनकर श्रीरामने वानरोकी सेना साथ ले युद्धके लिये लङ्कामें प्रवेश किया । हनुमान् मैन्द, द्विविद, जाम्बवान् नल, नील, तार, अङ्गद, धूम, सुषेण, केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन, गवाक्ष, दधिमुख, गवय और गन्धमादन - ये सब तो वहाँ आये ही, अन्य भी बहुत - से वानर आ पहुँचे । इन असंख्य वानरोसहित [ कपिराज] सुग्रीव भी युद्धके लिये उपस्थित थे । फिर तो राक्षसो और वानरोमें घमासान युद्ध छिड् गया । राक्षस वानरोको बाण, शक्ति और गदा आदिके द्वारा मारने लगे और वानर नख, दति एवं शिला आदिके द्वारा राक्षसोका संहार करने लगे । राक्षसोकी हाथी, घोडे, रथ और पैदलोसे युक्त चतुरङ्गिणी सेना नष्ट - भ्रष्ट हो गयी । हनुमान्ने पर्वतशिखरसे अपने वैरी धूम्राक्षका वध कर डाला । नीलने भी युद्धके लिये सामने आये हुए अकम्पन और प्रहस्तको मौतके घाट उतार दिया ॥ १ - ८ ॥ इन्द्रजिच्छरबन्धाच्च विमुक्तौ रामलक्ष्मणौ । तार्क्ष्यसन्दर्शनाद्बाणैर्जघ्नतू राक्षसं बलम् ॥ ९ ॥ रामः शरैः जर्जरितं रावणं चाकरोद् रणे । रावणः कुम्भकर्णं च बोधयामास दुःखितः ॥ १० ॥ कुम्भकर्णः प्रबुद्धोऽथ पीत्वा घटसहस्रकम् । मद्यस्य महिषादीनां भक्षयित्वाऽऽह रावणम् ॥ ११ ॥ सीताया हरणं पापं कृतन्त्वं हि गुरुर्यतः । अतो गच्छामि युद्धाय रामं हन्मि सवानरम् ॥ १२ ॥ श्रीराम और लक्ष्मण यद्यपि इन्द्रजित्के नागास्वसे वेध गये ये, तथापि गरुडकी दृष्टि पडते ही उससे मुक्त हो गय । तत्पश्चात् उन दोनो भाइयोने बाणोसे राक्षसी सेनाका संहार आरम्भ किया । श्रीरामने रावणको युद्धमें अपने बाणोकी मारसे जर्जरित कर डाला । इससे दुःखित होकर रावणने कुम्भकर्णको सोतेसे जगाया । जागनेपर कुम्भकर्णने हजार घडे मदिरा पीकर कितने ही भैस आदि पशुओंका भक्षण किया । फिर रावणसे कुम्भकर्ण बोला - ० सीताका हरण करके तुमने पाप किया वै । तुम मेरे बडे भाई हो, इसीलिये तुन्द्वारे कहनेसे युद्ध करने जाता ३ । मैं वानरोसहित गमको मार डालूँगा ' ॥ ९ - १२ ॥ इत्युक्त्वा वानरान्सर्वान्कुम्भकर्णो ममर्द ह । गृहीतस्तेन सुग्रीवः कर्णनासं चकर्त सः ॥ १३ ॥ कर्णनासाविहीनोऽसौ भक्षयामास वानरान् । रामोऽथ कुम्भकर्णस्य बाहू चिच्छेद सायकैः ॥ १४ ॥ ततः पादौ ततश्छित्वा शिरो भूमौ व्यपातयत् । अथ कुम्भो निकुम्भश्च मकराक्षश्च राक्षसः ॥ १५ ॥ महोदरो महापार्श्वो मत्त उन्मत्तराक्षसः । प्रघसो भासकर्णश्च विरूपाक्षश्च संगरे ॥ १६ ॥ देवान्तको नरान्तश्च त्रिशिराश्चातिकायकः । रामेण लक्ष्मणेनैते वानरैः सविभीषणैः ॥ १७ ॥ युध्यमानास्तया त्वन्ये राक्षसा भुवि पातिताः । इन्द्रजिन्मायया युध्यन्रामादीन्स बबन्ध ह ॥ १८ ॥ वरदत्तैर्नागपाशैरोषध्या तौ विशल्यकौ । विशल्ययाऽव्रणौ कृत्वा मारुत्यानीतपर्वते ॥ १९ ॥ हनूमान् धारयामास तत्रागं यत्र संस्थितः । निकुम्भिलायां होमादि कुर्वन्तं तं हि लक्ष्मणः ॥ २० ॥ शरैः इन्द्रजितं वीरं युद्धे तं तु व्यपातयत् । रावणः शोकसन्तप्तः सीतां हन्तुं समुद्यतः ॥ २१ ॥ अविन्ध्यवारितो राजा रथस्थः सबलो ययौ । इन्द्रोक्तो मातली रामं रथस्थं प्रचकार तम् ॥ २२ ॥ ऐसा कहकर कुम्भकर्णने समस्त वानरोको कुचलना आरम्भ किया । एक बार उसने सुग्रीवको पकड लिया, तब सुग्रीवने उसकी नाक और कान काट लिये । नाक और कानसे रहित होकर वह वानरोका भक्षण करने लगा । यह देख श्रीरामचन्द्रजीने अपने बाणोसे कुम्भकर्णकी दोनो भुजाएँ काट डालीं । इसके बाद उसके दोनो पैर तथा मस्तक काटकर उसे पृध्वीपर गिरा दिया । तदनन्तर कुम्भ, निकुम्भ, राक्षस मकराक्ष, महोदर, महापार्श्व, मत्त, राक्षसश्रेष्ठ उन्मत्त, प्रघस, भासकर्ण, विरूपाक्ष, देवान्तक, नरान्तकः त्रिशिरा और अतिकाय युद्धमें कूद पडे । तब इनको तथा और भी बहुत - से युद्धपरायण राक्षसोको श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण एवं वानरोने पृध्वीपर सुला दिया । तत्पश्चात् इन्द्रजित् (मेघनाद) - ने मायासे युद्ध करते हुए वरदानमें प्राप्त हुए नागपाशद्वारा श्रीराम और लक्ष्मणको बोध लिया । उस समय हनुमान्जीके द्वारा लाये हुए पर्वतपर उगी हुई ' विशल्या ' नामकी ओषधिसे श्रीराम और लक्ष्मणके घाव अच्छे हुए । उनके शरीरसे बाण निकाल दिये गये । हनुमान्जी पर्वतको जहाँसे लाये ये, वहीं उसे पुनः रख आये । इधर मेघनाद निकुस्थिलादेवीके मन्दिरमें होम आदि करने लगा । उस समय लक्ष्मणने अपने बाणोसे इन्द्रको भी परास्त कर देनेवाले उस वीरको युद्धमें मार गिराया । पुत्रकी मृत्युका समाचार पाकर रावण शोकसे संतप्त हो उठा और सीताको मार डालनेके लिये उद्यत हो उठा; किंतु अविन्धके मना करनेसे वह मान गया और रथपर बैलकर सेनासहित युद्धभूमिमें गया । तब इन्द्रके आदेशसे मातलिने आकर श्नीरघुनाथजीको भी देवराज इन्द्रके रथपर बिठाया ॥ १३ - २२ ॥ रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव । रावणो वानरान्हन्ति मारुत्याद्याश्च रावणम् ॥ २३ ॥ रामः शस्त्रैस्तमस्त्रैश्च ववर्ध जलदो यथा । तस्य ध्वजं स चिच्छेद रथमश्वांश्च सारथिम् ॥ २४ ॥ धनुर्बाहूञ्छिरांस्येव उत्तिष्ठन्ति शिरांसि हि । पैतामहेन हृदयं भित्वा रामेण रावणः ॥ २५ ॥ भूतले पातितः सर्वै राक्षसै रुरुदुः स्त्रियः । आश्वास्य तं च संस्कृत्य रामाज्ञप्तो विभीषणः ॥ २६ ॥ हनूमताऽऽनयद्रामः सीतां शुद्धां गृहीतवान् । रामो वह्नौ प्रविष्टां तां शुद्धामिन्द्रादिभिः स्तुतः ॥ २७ ॥ ब्रह्मणा दशरथेन त्वं विष्णू राक्षसमर्दनः । इन्द्रोऽर्थितोऽमृतवृष्ट्या जीवयामास वानरान् ॥ २८ ॥ रामेण पूजिता जग्मुः युद्धं दृष्ट्वा दिवं च ते । रामो विभीषणायादाल्लङ्कामभ्यर्च्य वानरान् ॥ २९ ॥ श्रीराम और रावणका युद्ध श्रीराम और रावणके युद्धके ही समान था - उसकी कहीं भी दूसरी कोई उपमा नहीं थी । रावण वानरोपर प्रहार करता था और हनुमान् आदि वानर रावणको चोट पहुँचाते थे । जैसे मेघ पानी बरसाता है, उसी प्रकार श्रीरघुनाथजीने रावणके ऊपर अस्त्र - शस्त्रोकी वर्षा आरम्भ कर दी । उन्द्वोंने रावणके रथ, ध्वज, अश्व, सारथि, धनुष, बाहु और मस्तक काट डाले । काटे हुए मस्तकोके स्थानपर दूसरे नये मस्तक उत्पन्न हो जाते थे । यह देखकर श्रीरामचन्द्रजीने ब्रह्मास्वके द्वारा रावणका वक्षःस्थल विदीर्ण करके उसे रणभूमिमें गिरा दिया । उस समय [ मरनेसे बचे हुए सब] राक्षसोके साथ रावणकी अनाथा स्त्रियौ विलाप करने लगीं । तब श्रीरामचन्द्रजीकी आज्ञासे विभीषणने उन सबको सात्त्वना दे, रावणके शवका दाह - संस्कार किया । तदनन्तर श्रीरामचन्द्रजीने हनुमान्जीके द्वारा सीताजीको बुलवाया । यद्यपि वे स्वरूपसे ही नित्य शुद्ध थीं, तो भी उन्होने अग्निमें प्रवेश करके अपनी विशुद्धताका परिचय दिया । तत्पश्चात् रघुनाथजीने उन्हें स्वीकार किया । इसके बाद इन्द्रादि देवताओंने उनका स्तवन किया । फिर ब्रह्माजी तथा स्वर्गवासी महाराज दशरथने आकर स्तुति करते हुए कहा - ऽ श्रीराम ! तुम राक्षसोका संहार करनेवाले साक्षात् श्रीविष्णु हो । ' फिर श्रीरामके अनुरोधसे इन्द्रने अमृत ब्ररसाकर मरे हुए वानरोको जीवित कर दिया । समस्त देवता युद्ध देखकर, श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा पूजित हो, स्वर्गलोकमें चले गये । श्रीरामचन्द्रजीने लङ्काका राज्य विभीषणको दे दिया और वानरोका विशेष सम्मान किया ॥ २३ - २९ ॥ ससीतः पुष्पके स्थित्वा गतमार्गेण वै गतः । दर्शयन्वनदुर्गाणि सीतायै हृष्टमानसः ॥ ३० ॥ भरद्वाजं नमस्कृत्य नन्दिग्रामं समागतः । भरतेन नतश्चागाद् अयोध्यां तत्र संस्थितः ॥ ३१ ॥ वसिष्ठादीन्नमस्कृत्य कौसल्यां चैव कैकयीम् । सुमित्रां प्राप्तराज्योऽथ द्विजादीन्सोऽभ्यपूजयत् ॥ ३२ ॥ वासुदेवं स्वमात्मानं अश्वमेधैरथायजत् । सर्वदानानि स ददौ पालयामास सः प्रजाः ॥ ३३ ॥ पुत्रवद्धर्मकामादीन् दुष्टनिग्रहणे रतः । सर्वधर्मपरो लोकः सर्वशस्या च मेदिनी ॥ ३४ ॥ नाकालमरणञ्चासीद् रामे राज्यं प्रशासति ॥ ३५ ॥ फिर सबको साथ ले, सीतासहित पुष्पक विमानपर बैलकर श्रीराम जिस मार्गसे आये ये, उसीसे लौट चले । मार्गमें वे सीताको प्रसन्नचित्त होकर वनो और दुर्गम स्थानोको दिखाते जा रहे थे । प्रयागमें महर्षि भरद्वाजको प्रणाम करके वे अयोध्याके पास नन्दिग्राममें आये । वहाँ भरतने उनके चरणोमें प्रणाम किया । फिर वे अयोध्यामें आकर वहीं रहने लगे । सबसे पहले उन्होंने महर्षि वसिष्ठ आदिको नमस्कार करके क्रमश' कौसल्या, कैकेयी और सुमित्राके चरणोमें मस्तक ह्युकाया । फिर राज्य - ग्रहण करके ब्राह्मणो आदिका पूजन किया । अश्वमेध - यज्ञ करके उन्द्वोंने अपने आत्मस्वरूप श्रीवासुदेवका यजन किया, सब प्रकारके दान दिये और प्रजाजनोका पुत्रवत् पालन करने लगे । उन्होंने धर्म और कामादिका भी सेवन किया तथा वे दुष्टोको सदा दण्ड देते रहे । उनके राज्यमें सब लोग धर्मपरायण थे तथा पुध्वीपर सब प्रकारकी खेती फली - कूली रहती थी । श्रीरघुनाथजीके शासनकालमें किसीकी अकालमृत्यु भी नहीं होती थी ॥ ३० - ३५ ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये रामायणे युद्धकाण्डवर्णनं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय ' ' रामायण - कथाके अन्तर्गत युद्धकाण्डकी कथाका वर्णन ' नामक दसवा अध्याय पूरा हुआ ॥ १० ॥ हरिः ॐ तत्सत् |