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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥

॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥

एकादशोऽध्यायः ॥

श्रीरामायणे उत्तरकाण्डम् -
उत्तरकाण्डकी संक्षिप्त कथा -


नारद उवाच -
राज्यस्थं राघवं जग्मुः अगस्त्याद्याः सुपूजिताः ।
धन्यस्त्वं विजयी यस्माद् इन्द्रजिद्विनिपातितः ॥ १ ॥
ब्रह्मात्मजः पुलस्त्योभूत् विश्रवास्तस्य कैकसी ।
पुष्पोत्कटाभूत् प्रथमा तत्पुत्रोभूद्धनेश्वरः ॥ २ ॥
कैकस्यां रावणो जज्ञे विंशद्बाहुर्दशाननः ।
तपसा ब्रह्मदत्तेन वरेण जितदैवतः ॥ ३ ॥
कुम्भकर्णः सनिद्रोऽभूद् धर्मिष्ठोऽभूद्विभीषणः ।
स्वसा शूर्पणखा तेषां रावणान्मेघनादकः ॥ ४ ॥
इन्द्रं जित्वेन्द्रजिच्चाभूद् रावणादधिको बली ।
हतस्त्वया लक्ष्मणेन देवादेः क्षेममिच्छता ॥ ५ ॥
इत्युक्त्वा ते गता विप्रा अगस्त्याद्या नमस्कृताः ।
देवप्रार्थितरामोक्तः शत्रुघ्नो लवणार्दनः ॥ ६ ॥
अभूत् पूर्मथुरा काचित् रामोक्तो भरतोऽवधीत् ।
कोटित्रयञ्च शैलूष- पुत्राणां निशितैः शरैः ॥ ७ ॥
शैलूषं दुष्टगन्धर्वं सिन्धुतीरनिवासिनम् ।
तक्षञ्च पुष्करं पुत्रं स्थापयित्वाऽथ देशयोः ॥ ८ ॥
नारदजी कहते हैं- जब रघुनाथजी अयोध्याके राजसिंहासनपर आसीन हो गये, तब अगस्त्य आदि महर्षि उनका दर्शन करनेके लिये गये । वहाँ उनका भलीभाँति स्वागत-सत्कार हुआ । तदनन्तर उन ऋषियोंने कहा-'भगवन् ! आप धन्य हैं, जो लङ्‌कामें विजयी हुए और इन्द्रजित्जैसे राक्षसको मार गिराया । [अब हम उनकी उत्पत्ति-कथा बतलाते हैं, सुनिये-] ब्रह्माजीके पुत्र मुनिवर पुलस्त्य हुए और पुलस्त्यसे महर्षि विश्रवाका जन्म हुआ । उनकी दो पत्नियाँ थींपुण्योत्कटा और कैकसी । उनमें पुण्योत्कटा ज्येष्ठ थी । उसके गर्भसे धनाध्यक्ष कुबेरका जन्म हुआ । कैकसीके गर्भसे पहले रावणका जन्म हुआ, जिसके दस मुख और बीस भुजाएँ थीं । रावणने तपस्या की और ब्रह्माजीने उसे वरदान दिया, जिससे उसने समस्त देवताओंको जीत लिया । कैकसीके दूसरे पुत्रका नाम कुम्भकर्ण और तीसरेका विभीषण था । कुम्भकर्ण सदा नींदमें ही पड़ा रहता था; किंतु विभीषण बड़े धर्मात्मा हुए । इन तीनोंकी बहन शूर्पणखा हुई । रावणसे मेघनादका जन्म हुआ । उसने इन्द्रको जीत लिया था, इसलिये 'इन्द्रजित्' के नामसे उसकी प्रसिद्धि हुई । वह रावणसे भी अधिक बलवान् था । परंतु देवताओं आदिके कल्याणकी इच्छा रखनेवाले आपने लक्ष्मणके द्वारा उसका वध करा दिया । ' ऐसा कहकर वे अगस्त्य आदि ब्रह्मर्षि श्रीरघुनाथजीके द्वारा अभिनन्दित हो अपने-अपने आश्रमको चले गये । तदनन्तर देवताओंकी प्रार्थनासे प्रभावित श्रीरामचन्द्रजीके आदेशसे शत्रुघ्नने लवणासुरको मारकर एक पुरी बसायी, जो 'मथुरा' नामसे प्रसिद्ध हुई । तत्पश्चात् भरतने श्रीरामकी आज्ञा पाकर सिन्धु-तीर-निवासी शैलूष नामक बलोन्मत्त गन्धर्वका तथा उसके तीन करोड़ वंशजोंका अपने तीखे बाणोंसे संहार किया । फिर उस देशके [गान्धार और मद्र] दो विभाग करके, उनमें अपने पुत्र तक्ष और पुष्करको स्थापित कर दिया ॥ १-८ ॥

भरतोऽगात्सशत्रुघ्नो राघवं पूजयन् स्थितः ।
रामो दुष्टान्निहत्याजौ शिष्टान् सम्पाल्य मानवः ॥ ९ ॥
पुत्रौ कुशलवौ जातौ वाल्मीकेराश्रमे वरौ ।
लोकापवादात्त्यक्तायां ज्ञातौ सुचरितश्रवात् ॥ १० ॥
राज्येभिषिच्य ब्रह्माहं अस्मीति ध्यानतत्परः ।
दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च ॥ ११ ॥
राज्यं कृत्वा क्रतून् कृत्वा स्वर्गं देवार्चितो ययौ ।
सपौरः सानुजः सीता-पुत्रो जनपदान्वितः ॥ १२ ॥
अग्निरुवाच -
वाल्मीकिः नारदाच्छ्रुत्वा रामायणमकारयत् ।
सविस्तरं यदेतच्च शृणुयात्स दिवं व्रजेत् ॥ १३ ॥
इसके बाद भरत और शत्रुघ्न अयोध्यामें चले आये और वहाँ श्रीरघुनाथजीकी आराधना करते हुए रहने लगे । श्रीरामचन्द्रजीने दुष्ट पुरुषोंका युद्धमें संहार किया और शिष्ट पुरुषोंका दान आदिके द्वारा भलीभाँति पालन किया । उन्होंने लोकापवादके भयसे अपनी धर्मपत्नी सीताको वनमें छोड़ दिया था । वहाँ वाल्मीकि मुनिके आश्रममें उनके गर्भसे दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जिनके नाम कुश और लव थे । उनके उत्तम चरित्रोंको सुनकर श्रीरामचन्द्रजीको भलीभाँति निश्चय हो गया कि ये मेरे ही पुत्र हैं । तत्पश्चात् उन दोनोंको कोसलके दो राज्योंपर अभिषिक्त करके, 'मैं ब्रह्म हूँ' इसकी भावनापूर्वक ध्यान-योगमें स्थित होकर उन्होंने देवताओंकी प्रार्थनासे भाइयों और पुरवासियोंसहित अपने परमधाममें प्रवेश किया । अयोध्यामें ग्यारह हजार वर्षांतक राज्य करके वे अनेक यज्ञोंका अनुष्ठान कर चुके थे । उनके बाद सीताके पुत्र कोसल जनपदके राजा हुए । अग्निदेव कहते हैं-वसिष्ठजी ! देवर्षि नारदसे यह कथा सुनकर महर्षि वाल्मीकिने विस्तारपूर्वक रामायण नामक महाकाव्यकी रचना की । जो इस प्रसङ्‌गको सुनता है, वह स्वर्गलोकको जाता है ॥ ९-१३ ॥

इति आदिमहापुराणे आग्नेये रामायणे
उत्तरकाण्डवर्णनं नाम एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
इस प्रकार आदि आग्नेय पुराणमें रामायण-कथाके अन्तर्गत उतरकाण्डकी कथाका वर्णन नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११ ॥



हरिः ॐ तत्सत्


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