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॥ ॐ परमात्मने नमः ॥
॥ श्रीअग्निपुराणम् ॥
त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ सामान्य आदिमूर्त्यादिदेवतानां पूजाविधिः -
देवताओं तथा भगवान् विष्णुकी सामान्य पूजा-विधि - नारद उवाच - वक्ष्ये पूजाविधिं विप्रा यत् कृत्वा सर्वमाप्नुयात् । प्रक्षालिताङ्घ्रिराचम्य वाग्यतः कृतरक्षकः ॥ १ ॥ प्राङ्मुखः स्वस्तिकं बद्ध्वा पद्माद्यपरमेव च । यं बीजं नाभिमध्यस्थं धूम्रं चण्डानिलात्मकम् ॥ २ ॥ विशेषयेदशेषन्तु ध्यायेत् कायात्तु कल्मषम् । क्षौं हृत्पङ्कजमध्यस्थं बीजं तेजोनिधिं स्मरन् ॥ ३ ॥ अधोर्ध्वतिर्यग्गाभिस्तु ज्वालाभिः कल्मषं दहेत् । शशाङ्काकृतिवद्ध्यायेद् अम्बरस्थं सुधाम्बुभिः ॥ ४ ॥ हृत्पद्मव्यापिभिर्देहं स्वकमाप्लावयेत्सुधीः । सुषुम्नायोनिमार्गेण सर्वनाडीविसर्पिभिः ॥ ५ ॥ शोधयित्वा न्यसेत्तत्त्वं करशुद्धिरथास्त्रकम् । व्यापकं हस्तयोरादौ दक्षिणाङ्गुष्ठतोङ्गकम् ॥ ६ ॥ नारदजी बोले- ब्रह्मर्षियो ! अब मैं पूजाकी विधिका वर्णन करूँगा, जिसका अनुष्ठान करके मनुष्य सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेता है । हाथ-पैर धोकर, आसनपर बैठकर आचमन करे । फिर मौनभावसे रहकर सब ओरसे अपनी रक्षा करे । पूर्व दिशाकी ओर मुँह करके स्वस्तिकासन या पद्मासन आदि कोई-सा आसन बाँधकर स्थिर बैठे और नाभिके मध्यभागमें स्थित धूएंके समान वर्णवाले, प्रचण्ड वायुरूप 'यं' बीजका चिन्तन करते हुए अपने शरीरसे सम्पूर्ण पापोंको भावनाद्वारा पृथक् करे । फिर हदय-कमलके मध्यमें स्थित तेजकी राशिभूत 'क्षौं' बीजका ध्यान करते हुए ऊपर, नीचे तथा अगल-बगलमें फैली हुई अग्निकी प्रचण्ड ज्वालाओंसे उस पापको जला डाले । इसके बाद बुद्धिमान् पुरुष आकाशमें स्थित चन्द्रमाकी आकृतिके समान किसी शान्त ज्योतिका ध्यान करे और उससे प्रवाहित होकर हृदय-कमलमें व्याप्त होनेवाली सुधामय सलिलकी धाराओंसे, जो सुषम्रा-योनिके मार्गसे शरीरकी सब नाडियोंमें फैल रही हैं, अपने निष्पाप शरीरको आप्लावित करे । इस प्रकार शरीरकी शुद्धि करके तत्त्वोंका नाश करे । फिर हस्तशुद्धि करे । इसके लिये पहले दोनों हाथोंमें अस्त्र एवं व्यापकमुद्रा करे और दाहिने अंगूठेसे आरम्भ करके करतल और करपृष्ठतक न्यास करे ॥ १-६ ॥ मूलं देहे द्वादशाङ्गं न्यसेन्मन्त्रैः द्विषट्ककैः । हृदयं च शिरश्चैव शिखा वर्मास्त्रलोचने ॥ ७ ॥ उदरं च तथा पृष्ठं बाहुरू जानुपादकम् । मुद्रां दत्त्वा स्मरेत् विष्णुं जप्त्वाष्टशतमर्चयेत् ॥ ८ ॥ इसके बाद एक-एक अक्षरके क्रमसे बारह अङ्गोवाले द्वादशाक्षर मूल-मन्त्रका अपने देहमें बारह मन्त्र-वाक्योंद्वारा न्यास करे । हृदय, सिर, शिखा, कवच, अस्त्र, नेत्र, उदर, पीठ, बाहु, ऊरु, घुटना, पैर-ये शरीरके बारह स्थान हैं, इनमें ही द्वादशाक्षरके एक-एक वर्णका न्यास करे । (यथाॐ ॐ नमः हृदये । ॐ नं नमः शिरसि । ॐ मों नमः शिखायाम् । इत्यादि) । फिर मुद्रा समर्पणकर भगवान् विष्णुका स्मरण करे और अष्टोत्तरशत (१०८) मन्त्रका जप करके पूजन करे ॥ ७-८ ॥ वामे तु वर्धनीं न्यस्य पूजाद्रव्यं तु दक्षिणे । प्रक्षाल्यास्त्रेण चार्घ्येण गन्धपुष्पान्विते न्यसेत् ॥ ९ ॥ चैतन्यं सर्वगं ज्योतिरष्टजप्तेन वारिणा । फडन्तेन तु संसिच्य हस्ते ध्यात्वा हरिं परे ॥ १० ॥ धर्मं ज्ञानं च वैराग्यं ऐश्वर्यं वह्निदिङ्मुखाः । अधर्मादीनि गात्राणि पूर्वादौ योगपीठके ॥ ११ ॥ कूर्मं पीठे ह्यनन्तञ्च यमं सूर्यादिमण्डलम् । विमलाद्याः केशरस्थानुग्रहा कर्णिका स्थिताः ॥ १२ ॥ पूर्वं स्वहृदये ध्यात्वा आवाह्यार्चैश्च मण्डले । अर्घ्यं पाद्यं तथाचामं मधुपर्कं पुनश्च तत् ॥ १३ ॥ स्नानं वस्त्रोपवीतञ्च भूषणं गन्धपुष्पकम् । धूपदीप नैवेद्यानि पुण्डरीकाक्षविद्यया ॥ १४ ॥ बायें भागमें जलपात्र और दाहिने भागमें पूजाका सामान रखकर 'अस्त्राय फट् । ' मन्त्रसे उसको धो दे; इसके पश्चात् गन्ध और पुष्प आदिसे युक्त दो अर्घ्यपात्र रखे । फिर हाथमें जल लेकर 'अस्त्राय फट् । ' इस मन्त्रसे अभिमन्त्रित कर योगपीठको सींच दे । उसके मध्य भागमें सर्वव्यापी चेतन ज्योतिर्मय परमेश्वर श्रीहरिका ध्यान करके उस योगपीठपर पूर्व आदि दिशाओंके क्रमसे धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य, अग्नि आदि दिक्पाल तथा अधर्म आदिके विग्रहकी स्थापना करे । उस पीठपर कच्छप, अनन्त, पद्म, सूर्य आदि मण्डल और विमला आदि शक्तियोंकी कमलके केसरके रूपमें और ग्रहोंकी कर्णिकामें स्थापना करे । पहले अपने हृदयमें ध्यान करे । फिर मण्डलमें आवाहन करके पूजन करे । (आवाहनके अनन्तर) क्रमश: अर्घ्य, पाद्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान, वस्त्र, यज्ञोपवीत, आभूषण, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य आदिको पुण्डरीकाक्षविद्या ('ॐ नमो भगवते पुण्डरीकाक्षाय । ' इस मन्त्र)-से अर्पण करे ॥ ९-१४ ॥ यजेदङ्गानि पूर्वादौ द्वारि पूर्वे परेऽण्डजम् । दक्षे चक्रं गदां सौम्ये कोणे शङ्खं धनुर्न्यसेत् ॥ १५ ॥ देवस्य वामतो दक्षे चेषुधी खड्गमेव च । वामे चर्म श्रियं दक्षे पुष्टिं वामेऽग्रतो न्यसेत् ॥ १६ ॥ वनमालाञ्च श्रीवत्सकौस्तुभौ दिक्पतीन् बहिः । स्वमन्त्रैः पूजयेत् सर्वान् विष्णुरर्घोवसानतः ॥ १७ ॥ मण्डलके पूर्व आदि द्वारोंपर भगवान्के विग्रहकी सेवामें रहनेवाले पार्षदोंकी पूजा करे । पूर्वके दरवाजेपर गरुडकी. दक्षिणद्वारपर चक्रकी, उत्तरवाले द्वारपर गदाकी और ईशान तथा अग्निकोणमें शङ्ख एवं धनुषकी स्थापना करे । भगवान्के बायें-दायें दो तूणीर, बायें भागमें तलवार और चर्म (ढाल), दाहिने भागमें लक्ष्मी और वाम भागमें| पुष्टि देवीकी स्थापना करे । भगवान्के सामने वनमाला, श्रीवत्स और कौस्तुभको स्थापित करे । मण्डलके बाहर दिक्पालोंकी स्थापना करे । मण्डलके भीतर और बाहर स्थापित किये हुए सभी देवताओंकी उनके नाम-मन्त्रोंसे पूजा करे । सबके अन्तमें भगवान् विष्णुका पूजन करना चाहिये ॥ १५-१७ ॥ व्यस्तेन च समस्तेन अङ्गैः बीजेन वै यजेत् । जप्त्वा प्रदक्षिणीकृत्य स्तुत्त्वार्ध्यञ्च समर्प्य च ॥ १८ ॥ हृदये विन्यसेद्ध्यात्वा अहं ब्रह्म हरिस्त्विति । आगच्छावाहने योज्यं क्षमस्वेति विसर्जने ॥ १९ ॥ अङ्गोसहित पृथक्-पृथक् बीज-मन्त्रोंसे और सभी बीज-मन्त्रोंको एक साथ पढ़कर भी भगवानका अर्चन करे । मन्त्र-जप करके भगवानकी परिक्रमा करे और स्तुतिके पश्चात् अर्घ्य-समर्पण कर हृदयमें भगवान्की स्थापना कर ले । फिर यह ध्यान करे कि 'परब्रह्म भगवान् विष्णु मैं ही हूँ' (-इस प्रकार अभेदभावसे चिन्तन करके पूजन करना चाहिये) । भगवानका आवाहन करते समय 'आगच्छ' (भगवन् ! आइये । ) इस प्रकार पढ़ना चाहिये और विसर्जनके समय 'क्षमस्व' (हमारी त्रुटियोंको क्षमा कीजियेगा । )-ऐसी योजना करनी चाहिये ॥ १८-१९ ॥ एवमष्टाक्षराद्यैश्च पूजां कृत्वा विमुक्तिभाक् । एकमूर्त्यर्चनं प्रोक्तं नवव्यूहार्चनं शृणु ॥ २० ॥ इस प्रकार अष्टाक्षर आदि मन्त्रोंसे पूजा करके मनुष्य मोक्षका भागी होता है । यह भगवान्के एक विग्रहका पूजन बताया गया । अब नौ व्यूहोंके पूजनकी विधि सुनो ॥ २० ॥ अङ्गुष्ठकद्वये न्यस्य वासुदेवं बलादिकान् । तर्जन्यादौ शरीरेऽथ शिरोललाटवक्त्रके ॥ २१ ॥ हृन्नाभिगुह्यजान्वङ्घ्रौ मध्ये पूर्वादिकं यजेत् । एकपीठं नवव्यूहं नवपीठञ्च पूर्ववत् ॥ २२ ॥ नवाब्जे नवमूर्त्या च नवव्यूहञ्च पूर्ववत् । इष्टं मध्ये ततः स्थाने वासुदेवञ्च पूजयेत् ॥ २३ ॥ दोनों अंगूठों और तर्जनी आदिमें वासुदेव, बलभद्र आदिका न्यास करे । इसके बाद शरीरमें अर्थात् सिर, ललाट, मुख, हृदय, नाभि, गुह्य अङ्ग, जानु और चरण आदि अङ्गोंमें न्यास करे । फिर मध्यमें एवं पूर्व आदि दिशाओंमें पूजन करे । इस प्रकार एक पीठपर एक व्यूहके क्रमसे पूर्ववत् नौ व्यूहोंके लिये नौ पीठोंकी स्थापना करे । नौ कमलोंमें नौ मूर्तियोंके द्वारा पूर्ववत् नौ व्यूहोंका पूजन करे । कमलके मध्यभागमें जो भगवानका स्थान है, उसमें वासुदेवकी पूजा करे ॥ २१-२३ ॥ इति आदिमहापुराणे आग्नेये सामान्य आदिमूर्त्यादिपूजाविधिकथनं नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें 'सामान्य पूजा-विषयक वर्णन' नामक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३ ॥ हरिः ॐ तत्सत् |