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भविष्य महापुराणम् प्रथमं ब्राह्मपर्वम् - तृतीयोऽध्यायः गर्भाधानादारभ्य समासात्सर्वसंस्कारवर्णनमाचमनादिविधिवर्णनञ्च
गर्भाधान से लेकर संक्षेप में समस्त संस्कारों एवं आचमन आदि की विधियों का वर्णन - शतानीक उवाच - जातकर्मादिसंस्कारान्वर्णानामनुपूर्वशः । आश्रमाणां च मे धर्मं कथयस्व द्विजोत्तम ॥ १ ॥ शतानीक बोले-हे द्विजोत्तम ! सभी वर्गों के जातकर्म आदि जितने संस्कार एवं आश्रमों के धर्म है, उन्हें हमें क्रमशः बतलाने की कृपा कीजिये ॥ १ सुमन्तुरुवाच - गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तोन्नयनं तथा । जातकर्मान्नप्राशश्च चूडामौञ्जीनिबन्धनम् ॥ २ ॥ बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते । स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया श्रुतैः ॥ ३ ॥ महायज्ञैश्च ब्राह्मीयं यज्ञैश्च क्रियते तनुः । शृणुष्वैकमना राजन्यथा सा क्रियते तनुः ॥ ४ ॥ सुमन्तु ने कहा-राजन् ! गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, अन्नप्राशन, चूडाकरण और उपनयन इन संस्कारों के करने से द्विजों के बीज एवं गर्भ सम्बन्धी दोष दूर हो जाते हैं । स्वाध्याय, व्रत; हवन, तीनों वेदों के अध्ययन, महान् यज्ञों एवं सामान्य यज्ञों के अनुष्ठान से यह शरीर ब्रह्मवर्चस् से संयुक्त किया जाता है । हे राजन् ! एकाग्रचित्त होकर सुनिये कि इन संस्कारों से वह शरीर किस प्रकार ब्रह्मतेजोमय होता है ॥ २-४ ॥ प्राङ्नाभिकर्तनात्पुंसो जातकर्म विधीयते । मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम् ॥ ५ ॥ पुरुष संतान के नाल काटने से पहिले ही जातकर्म संस्कार किया जाता है और वैदिक मन्त्रों का उच्चारण करते हुए सुवर्ण, मधु और घृत प्राशन कराया जाता है ॥ ५ ॥ नामधेयं दशम्यां तु केचिदिच्छन्ति पार्थिव । द्वादश्यामपरे राजन्मासि पूर्णे तथा परे ॥ ६ ॥ हे पार्थिव, हे राजन् ! कोई कोई आचार्य दसवीं तिथि को नामकरण संस्कार करने की इच्छा करते हैं, कुछ लोग बारहवीं तिथि को तथा कुछ लोग एक मास पूरे होने पर ॥ ६ ॥ अष्टादशेऽहनि तथाऽन्ये वदन्ति मनीषिणः । पुण्ये तिथौ मुहूर्ते च नक्षत्रे च गुणान्विते ॥ ७ ॥ मङ्गल्यं तात विप्रस्य शिवशर्मेति पार्थिव । राजन्यस्य विशिष्टं तु इन्दुवर्मेति कथ्यते ॥ ८ ॥ कुछ अन्य पण्डित लोग अठारहवें दिन के लिए बतलाते हैं । पुण्य तिथि, अच्छे नक्षत्र, शुभमुहूर्त में, जबकि सब प्रकार के गुण संयुक्त हों, हे तात ! ब्राह्मण का शिव-शर्मा इस प्रकार मांगलिक नामकरण संस्कार करना चाहिए, क्षत्रियों का इन्द्रवर्मा ऐसा विशिष्ट नामकरण करना चाहिए ॥ ७-८ ॥ वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य च जुगुप्सितम् । धनवर्धनेति वैश्यस्य सर्वदासेति हीनजे ॥ ९ ॥ वैश्य का धन संयुक्त नाम रखना चाहिये । शद का कछ जगप्सित नामकरण करना चाहिये जैसे वैश्य का नाम धनवर्धन और शूद्र का नाम सर्वदास ॥ ९ ॥ मनुना च तथा प्रोक्तं नाम्नो लक्षणमुत्तमम् । शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम् ॥ १० ॥ वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम् । स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थमनोरमम् ॥ ११ ॥ मङ्गल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत् । द्वादशेऽहनि राजेन्द्र शिशोर्निष्कमणं गृहात् ॥ १२ ॥ मनुने नाम के ये उत्तम लक्षण बतलाये हैं कि ब्राह्मण के नाम के साथ शर्मा, क्षत्रिय के साथ रक्षार्थक (वी वैश्य के साथ पुष्टिप्रदायक नाम (कोई संज्ञा) तथा शूद्र के साथ (दास्यभाव) युक्त कोई नाम होस्त्रियो के नाम सुख देने वाले, मृदु भावना के प्रतीक, सरल, स्पष्ट, मनोहारी, मांगलिक, अन्त में दीर्घवर्ण यत तथा आशीर्वाद व्यजित करने वाले हों । हे राजेन्द्र ! बारहवे दिन शिशु का घर से बाहर के लिए निष्क्रमण होता है ॥ १०-१२ ॥ चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं तथान्येषां मतं विभो । षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यथेष्टं मङ्गलं कुले ॥ १३ ॥ हे विभो ! कुछ अन्य आचार्यों का मत है कि शिशु को चौथे मास घर में बाहर निकालना चाहिये । छठे मास में अन्नप्राशन करने से परिवार में यथेष्ट मङ्गल की प्राप्ति होती है ॥ १३ ॥ चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामनुपूर्वशः । प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्तव्यं कुरुनन्दन ॥ १४ ॥ हे करुनन्दन ! सभी द्विज कही जाने वाली जातियों में क्रमशः शिशुओं का चडाकर्म संस्कार प्रथम अथवा तीसरे वर्ष में करना चाहिए ॥ १४ ॥ गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गर्भादेकादशे राजन्क्षत्रियस्य विनिर्दिशेत् ॥ १५ ॥ ब्राह्मण शिशु का उपनयन संस्कार गर्भ से आठवें वर्ष में करना चाहिये । हे राजन ! क्षत्रिय का उपनयन संस्कार गर्भ से ग्यारहवे वर्ष में करना चाहिये ॥ १५ ॥ द्वादशेऽब्देऽपि गर्भात्तु वैश्यस्य व्रतमादिशेत् । ब्रह्मवर्चसकामेन कार्यं विप्रस्य पञ्चमे ॥ १६ ॥ वैश्यों के लिए यह व्रत बारहवें वर्ष में भी वैध माना गया है । किन्तु इसके अतिरिक्त अधिक ब्रह्मवर्चस की कामना हो तो ब्रह्मण शिश का यज्ञोपवीत संस्कार पांचवें वर्ष में करना चाहिये ॥ १६ ॥ बलार्थिना तथा राज्ञः षष्ठे ऽब्दे कार्यमेव हि । अर्थकामेन वैश्यस्य अष्टमे कुरुनन्दन ॥ १७ ॥ राजाओं के शिशओं को अधिक बली होने की कामना से छठे वर्ष में यज्ञोपवीत करा देना चाहिये । हे कुरुनन्दन ! इसी प्रकार विशेष धन उपार्जित करने की कामना से वैश्य का आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार सम्पन्न करना चाहिये ॥ १७ ॥ आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते । द्वाविंशतेः क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः ॥ १८ ॥ सोलह वर्ष की अवस्था तक ब्राह्मण कुमार की सावित्री अतिक्रमण नहीं करती (अर्थात १५ वर्ष तक भी ब्राह्मण कुमारों का यज्ञोपवीत संस्कार हो सकता है ॥ ) उसी प्रकार क्षत्रियों का बाईस वर्ष में पूर्व तथा वैश्यों का चौबीस वर्ष की अवस्था तक भी उपनयन संस्कार हो सकता है ॥ १८ ॥ अत ऊर्ध्वं तु ये राजन्यथाकालमसंस्कृताः । सावित्रीपतिता व्रात्या व्रात्यस्तोमादृते क्रतोः ॥ १९ ॥ हे राजन ! किन्त इससे ऊपर हो जाने पर भी जिनका उपनयन संस्कार नहीं होता वे असंस्कृत हैं । सावित्री के पतित होने पर वे व्रात्य होते हैं, और वात्यस्तोम यज्ञ के बिना कुछ नहीं हो सकता ॥ १९ ॥ न चाप्येभिरपूतैस्तु आपद्यपि हि कर्हिचित् । ब्राह्मं यौनं च सम्बन्धमाचरेद्ब्राह्मणैः सह ॥ २० ॥ ऐसे अपवित्र के साथ कभी आपत्ति में भी अध्ययन, अध्यापन, अथवा यौन सम्बन्ध ब्राह्मण को नहीं रखना चाहिये ॥ २० ॥ भवन्ति राजंश्चर्माणि व्रतिनां त्रिविधानि च । कार्ष्णरौरववास्तानि ब्रह्मक्षत्रविशां नृप ॥ २१ ॥ हे राजन् ! उपनयन व्रत पालन करने वाले व्रतियों के लिए तीन प्रकार के चर्म भी होते हैं, ब्राह्मण के लिए कृष्ण मृग चर्म, क्षत्रिय के लिए रुरु मृग चर्म और वैश्य के लिए बकरे का चर्म ॥ २१ ॥ वशीरंश्चानुपूर्व्येण वस्त्राणि विविधानि तु । ब्रह्मक्षत्रविशो राजञ्छाणक्षौमादिकानि च ॥ २२ ॥ हे राजन् ! इसी प्रकार ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को सन, रेशमी आदि विविध प्रकार के वस्त्र क्रमानुसार धारण करने चाहिये ॥ २२ ॥ मौञ्जी त्रिवृत्समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला । क्षत्रियस्य च मौर्वीज्या वैश्यस्य शणतान्तवी ॥ २३ ॥ (इन उपनयन संस्कार में) ब्राह्म की मेखला मूंज की बनी हुई त्रिसूती तीन लड़ियों वाली, समान तथा चिकनी करनी चाहिए ! क्षत्रिय के लिए मूर्वा की बनी होनी चाहिये । तथा वैश्य के लिए सन् के रेशों की होनी चाहिये ॥ २३ ॥ मुञ्जालाभे तु कर्तव्या कुशाश्मन्तकबल्वजैः । त्रिवृत्ता ग्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव च ॥ २४ ॥ मूंज न मिलने पर ब्राह्मणों के लिए कुश, अश्मन्तक अथवा बल्वज (बगही) की मेंखला बनानी चाहिये । उसे एक गाँठ बाँधकर तीन लड़ की बना लेनी चाहिये अथवा तीन गाँठ या पाँच गाँठ बाँधनी चाहिये ॥ २४ ॥ कार्पासमुपवीतं स्याद्विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत् । शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम् ॥ २५ ॥ ब्राह्मण का उपवीत कपास का (अर्थात् सूती) होना चाहिये, जो तीन लड़ियों में हो और ऊर्ध्ववृत हो राजाओं अर्थात् क्षत्रियों का यज्ञोपवीत सन के सूतों से बना हुआ तथा वैश्यों का भेंड के रोम के सूतों का बना हुआ होना चाहिये ॥ २५ ॥ पुष्कराणि तथा चैषां भवन्ति त्रिविधानि तु । ब्रह्मणो बैल्वपालाशौ तृतीयं प्लक्षजं नृप ॥ २६ ॥ इन तीनों वर्गों में ब्रह्मचारियों के दण्ड भी तीन प्रकार के होने चाहिये । नृप ! ब्राह्मण बेल, पलाश अथवा पाकर का दण्ड ग्रहण करे ॥ २६ ॥ वाटखादिरौ क्षत्रियस्तु तथान्यं वेतसोद्भवम् । पैलवोदुम्बरौ वैश्यस्तथाश्वत्थजमेव हि ॥ २७ ॥ क्षत्रिय बरगद, खदिर (खैर) अथवा बेंत का तथा वैश्य, पीलु वृक्ष का, गूलर अथवा पीपल का दण्ड ग्रहण करें ॥ २७ ॥ दण्डानेतान्महाबाहो धर्मतोऽर्हन्ति धारितुम् । केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमाणतः ॥ २८ ॥ हे महाबाहु ! इन दण्डों को (उपनयन संस्कार के समय) धर्मतः धारण करना चाहिये । ब्राह्मणों का दण्डमाप उनके केशांत (भाग) तक होना चाहिये ॥ २८ ॥ ललाटसम्मितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः । ऋजवस्ते तू सर्वे स्युर्ब्राह्मणाः सौम्यदर्शनाः ॥ २९ ॥ अनुद्वेगकरा नॄणां सत्वचो नाग्निदूषिताः । प्रगृह्य चेप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम् ॥ ३० ॥ सम्यग्गुरुं तथा पूज्य चरेद्भैक्ष्यं यथाविधि । भवत्पूर्वं चरेद्भैक्ष्यमुपनीतो द्विजोत्तमः ॥ ३१ ॥ भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्य भवदुत्तरम् । मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनीं निजाम् ॥ ३२ ॥ भिक्षेत भैक्ष्यं प्रथमं या चैनं नावमानयेत् । सुवर्णं रजतं चान्नं सा पात्रेऽस्य विनिर्दिशेत् ॥ ३३ ॥ राजाओं का दण्ड ललाट पर्यन्त का तथा वैश्यों का नासिका के अन्त तक का होना चाहिये । वे सब दण्ड देखने में सीधे तथा सुन्दर हों जिनके देखने से मनुष्यों के मन में किसी प्रकार की उद्वेग-भावना न फैले । उन पर उत्तम बकला लगा हो, कहीं अग्नि से जले हुए न हों । इस प्रकार अपनी इच्छानुसार दण्ड ग्रहण कर भास्कर की उपासना कर भली-भाँति गुरु की पूजा कर ब्रह्मचारी यथाविधि भिक्षाटन करे । उपनीत ब्राह्मण पहले भवत् शब्द का प्रयोग कर भिक्षाटन करे, क्षत्रिय वाक्य के मध्य में भवत् शब्द का प्रयोग करे और वैश्य वाक्य के अन्त में भवत् शब्द का प्रयोग करे । माता, वहिन, अथवा अपनी मौसी से सर्वप्रथम भिक्षा की याचना करनी चाहिये । जो ब्रह्मचारी की अवमानना न करे । उसे अर्थात् देने वाली को सुवर्ण या चाँदी के पात्र में अन्न रखकर दान करने का निर्देश है ॥ २९-३३ ॥ समाहृत्य ततो भैक्ष्यं यावदर्थममायया । निवेद्य गुरवेऽश्नीयादाचम्य प्राङ्मुखः शुचिः ॥ ३४ ॥ इस प्रकार भिक्षाटन कर ब्रह्मचारी मायारहित हो सब धन गुरु को समर्पित कर पवित्र भाव से आचमन कर पूर्वाभिमुख हो भोजन करे ॥ ३४ ॥ आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः । श्रियं प्रत्यङ्मुखो भुङ्क्ते ऋतं भुङ्क्ते उदङ्मुखः ॥ ३५ ॥ पूर्वाभिमुख भोजन करने से दीर्घायु की प्राप्ति होती है, दक्षिण मुख से यश की प्राप्ति होती है, पश्चिम मुख करने से लक्ष्मो की प्राप्ति होती है । तथा उत्तर मुख करने से ऋत की प्राप्ति होती है ॥ ३५ ॥ उपस्पृश्य द्विजो राजन्नन्नमद्यात्समाहितः । भुक्त्वा चोपस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत् ॥ ३६ ॥ हे राजन् ! द्विज समाहित चित्त होकर विधिपूर्वक आचमन कर अन्नं का भक्षण करे । भोजन करने के उपरान्त भी जल से अच्छी तरह आचमन कर सब इन्द्रियों का स्पर्श करे ॥ ३६ ॥ तथान्नं पूजयेन्नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन् । दर्शनात्तस्य हष्येद्वै प्रसीदेच्चापि भारत ॥ ३७ ॥ अन्न की सर्वदा पूजा करे, कुत्सित भावना का सर्वथा परित्याग कर उसका भक्षण करे । हे भरत ! उसको देखकर प्रसन्नता और सन्तोष प्रकट करे ॥ ३७ ॥ अभिनन्द्य ततोऽश्नीयादित्येवं मनुरब्रवीत् । पूजितं त्वशनं नित्यं बलमोजश्च यच्छति ॥ ३८ ॥ अन्न का अभिनन्दन (प्रशंसा) करने के बाद भोजन करे-ऐसा मनु ने कहा है । पूजित अन्न सर्वदा बल एवं ओज प्रदान करता है ॥ ३८ ॥ अपूजितं तु तद्भुक्तमुभयं नाशयेदिदम् ६। नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याच्चैतत्तथान्तरा ॥ ३९ ॥ और अपूजित अन्य के भोजन से वह उन दोनो का विनाश होता है । अपना जूठ किसी को न दें और न स्वयं किसी का जूठा खाय ॥ ३९ ॥ यस्त्वन्नमन्तरा कृत्वा लोभादत्ति नृपोत्तम । विनाशं याति स नर इह लोके परत्र च ॥ यथाभवत्पुरा वैश्यो धनवर्द्धनसंज्ञितः ॥ ४० ॥ इसी प्रकार बचे हुए अपने ही जूठे अन्न को कुछ देर बाद फिर से न खाय । हे नृपोत्तम ! लोभवश जो अपने ही जूठे अन्न को दूसरे समय में खाता है, वह दोनों लोकों में नष्ट होता है, जैसे प्राचीन काल में धनवर्धन नामक वैश्य का नाश हुआ था ॥ ४० ॥ शतानीक उवाच - स कथमन्तरं पूर्वमन्नस्य द्विजसत्तम । किमन्तरं तथान्नस्य कथं वा तत्कृतं भवेत् ॥ ४१ ॥ शतानीक बोले-हे द्विजसत्तम ! अन्न शब्द होने के पहले वह कैसा था वह और अन्न शब्द के पीछे वह कैसा हुआ तथा उससे क्या हुआ ॥ ४१ ॥ सुमन्तुरुवाच - पुरा कृतयुगे राजन्वैश्यो वसति पुष्करे । धनवर्धननामा वै समृद्धौ धनधान्यतः ॥ ४२ ॥ सुमन्तु ने कहा-हे राजन् ! बहुत दिन पहले की बात है, सतयुग में पुष्कर नामक नगर में धनवर्धन नामक एक वैश्य निवास करता था, जो धन धान्यादि से परिपूर्ण था ॥ ४२ ॥ निदाघकाले राजेन्द्र स कृत्वा वैश्वदेविकम् । सपुत्रभ्रातृभिः सार्धं तथा वै मित्रबन्धुभिः ॥ आहारं कुरुते राजन्भक्ष्यभोज्यसमन्वितम् ॥ ४३ ॥ अथ तद्भुञ्जतस्तस्य अन्नं शब्दो महानभूत् । करुणः कुरुशार्दूल अथ तं स प्रधावितः ॥ ४४ ॥ हे राजेन्द्र ! (एक बार) ग्रीष्म ऋतु में वह अपने मित्र, बन्धु-बान्धव, पुत्र, भाई आदि के साथ वैश्वदेवादि का विधान सम्पन्न कर विविध प्रकार के भक्ष्य भोज्य पदार्थों का आहार कर रहा था कि बीच में ही अन्न शब्द हुआ जो उसे सुनाई पड़ा । हे कुरुवंश सिंह ! (धन वर्धन उस शब्द को सुनकर) उसी ओर दौड़ पड़ा ॥ ४३-४४ ॥ त्यक्त्वा स भोजनं यावन्निष्क्रान्तो गृहबाह्यतः । अथ शब्दस्तिरोभूतः स भूयो गृहमागतः ॥ ४५ ॥ अपने भोजन को छोड़कर जब तक वह घर से बाहर निकला तब तक वह शब्द तिरोहित हो गया, जिससे वह फिर अपने घर लौट आया ॥ ४५ ॥ तमेव भाजनं गृह्य आहारं कृतवान्नृप । भुक्तशेषं महाबाहो आहारं स तु भुक्तवान् ॥ ४६ ॥ हे राजेन्द्र ! घर आकर उसने वही पात्र लेकर फिर आहार किया । हे महाबाहु उस शेष भोजन का ही भक्षण उसने किया ॥ ४६ ॥ भुक्त्वा स शतधा जातस्तस्मिन्नेव क्षणे नृप । तस्मादन्नं न राजेन्द्र अश्नीयादन्तरा क्वचित् ॥ ४७ ॥ किन्तु भोजन करने के क्षण में ही वह सौ टुकड़ों में परिणत हो गया । हे राजेन्द्र ! इसलिए भोजन कभी भी बीच में व्यवधान करके नहीं करना चाहिये ॥ ४७ ॥ न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद्व्रजेत् । रसो भवत्यत्यशनाद्रसाद्रोगः प्रवर्तते ॥ ४८ ॥ इसीलिए कभी भी अधिक भोजन नहीं करना चाहिए और न जूठ मुँह रखकर कहीं जाना ही चाहिये । अत्यन्त ठूस ठूस कर भोजन करने से शरीर में रस की वृद्धि होती है, और रस से रोगों की उत्पत्ति होती है ॥ ४८ ॥ स्नानं दानं जपो होमः पितृदेवाभिपूजनम् । न भवन्ति रसे जाते नराणां भरतर्षभ ॥ ४९ ॥ हे भरतवर्य ! शरीर में रस की वृद्धि होने पर स्नान, दान, जप, हवन और देव-पितृ-पूजा मनुष्यों द्वारा नहीं हो पाती ॥ ४९ ॥ अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनम् । अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥ ५० ॥ अत्यन्त भोजन करना आरोग्य, आयुष्य और स्वर्ग इन सबको न देने वाला है । उससे पुण्य की भी हानि होती है एवं लोक में भी द्वेष बढ़ता है । इसलिए (मनुष्य को) अत्यन्त भोजन करने की प्रवृत्ति को छोड़ देनी चाहिये ॥ ५० ॥ यक्षभूतपिशाचानां रक्षसां च नृपोत्तम । गम्यो भवति वै विप्र उच्छिष्टो नात्र संशयः ॥ ५१ ॥ इसी प्रकार हे राजन् ! उच्छिष्ट ब्राह्मण यक्ष, भूत, पिशाच राक्षसों का गम्य बन जाता है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५१ ॥ शुचित्वमाश्रयेत्तस्माच्छुचित्वान्मोदते दिति । सुखेन चेह रमते इतीयं वैदिकी श्रुतिः ॥ ५२ ॥ अतएव शुद्धता को अपनाना चाहिए । शुद्धता से ही दिति प्रसन्न होती हैं । मनुष्य यहाँ पर भी सुखपूर्वक आनन्दित होता है । ऐसा वेदवाङ्मय में कहा गया है ॥ ५२ ॥ शतानीक उवाच - शुचितामियात्कथं विप्रः कथं चाशुचितामियात् । एतन्मे इहि विप्रेन्द्र कौतुकं परमं मम ॥ ५३ ॥ शतनीक ने कहा-हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! ब्राह्मण कैसे पवित्रता को प्राप्त होता है कैसे अपवित्रता को प्राप्त होता है, यह मुझे बताइये, मेरे मन में महान् कौतूहल हो रहा है ॥ ५३ ॥ सुमन्तुरुवाच - उपस्पृश्य शुचिर्विप्रो भवते भरतर्षभ । विधिवत्कुरुशार्दूल भवेद्विधिपरो ह्यतः ॥ ५४ ॥ सुमन्तु ने कहा-हे भरतवंश में उत्पन्न होने वाले कुरुशार्दूल ! ब्राह्मण उपस्पर्श करके पवित्र होता है तथा इसी से ही विधिपूर्वक विधिज्ञाता होता है ॥ ५४ ॥ शतानीक उवाच - उपस्पर्शविधिं विप्र कथय त्वं ममाखिलम् । शुचित्वमाप्नुयाद्येन आचान्तो ब्राह्मणो द्विजः ॥ ५५ ॥ शतनीक ने कहा-हे ब्राह्मण ! तुम मुझे सारी उपस्पर्शविधि को बताओ । जिससे आचार्य ब्राह्मण एवं द्विज पवित्रता को प्राप्त करते हैं ॥ ५५ ॥ सुमन्तुरुवाच - साधु पृष्टोऽस्मि राजेन्द्र शृणु विप्रो यथा भवेत् । शुचिर्भरतशार्दूल विधिना येन वा विभो ॥ ५६ ॥ सुमन्तु ने कहा-हे भरतशार्दूल श्रेष्ठ राजेन्द्र ! तुमने सही पूछा है । सुनो, जैसे अथवा जिस विधि से ब्राह्मण पवित्र हो जाता है ॥ ५६ ॥ प्रक्षाल्य हस्तौ पादौ च प्राङ्मुखोदङ्मुखोऽपि वा । उपविश्य शुचौ देशे बाहुं कृत्वा च दक्षिणम् ॥ ५७ ॥ जान्वन्तरे महाबाहो ब्रह्मसूत्रसमन्वितः १ । सुसमौ चरणौ कृत्वा तथा बद्धशिखो नृप ॥ ५८ ॥ न तिष्ठन्न च संजल्पंस्तथा चानवलोकयन् । न त्वरन्कुपितो वापि त्यक्त्वा राजन्सुदूरतः ॥ ५९ ॥ प्रसन्नाभिस्तथाद्भिस्तु आचान्तः शुचितामियात् । नोष्णाभिर्न सफेनाभिर्युक्ताभिः कलुषेण च ॥ ६० ॥ वर्णेन रसगन्धाभ्यां हीनाभिर्न च भारत । सबुद्बुदाभिश्च तथा नाचामेत्पण्डितो नृप ॥ ६१ ॥ अपने हाथ पैर को धोकर पूरब की ओर या उत्तर की ओर मुंह करके पवित्र स्थान पर बैठकर दाहिनी भुजा को दक्षिण की ओर करके, कन्धे पर यज्ञोपवीत (ब्रह्मसूत्र) को धारण करके अपने चरणों को समान करके शिखा को बाँध करके न तो बैठते हुए न तो बात करते हुए, न तो देखते हुए, न तो क्रुद्ध होकर, न तो दूर से किसी वस्तु का परित्याग कर अत्यन्त निर्मल एवं समुज्ज्वल जल से आचमन करके, हे महाबाहु राजन् ! ब्राह्मण पवित्र हो जाता है । हे भरतवंशी राजन् ! न तो गर्म, न तो फेनयुक्त, न तो कलुषित, न तो वर्ण एवं रसगन्ध से हीन तथा न तो बुबुद् करती हुई जलबिन्दुओं से पण्डित को आचमन करना चाहिए ॥ ५७-६१ ॥ पञ्चतीर्थानि विप्रस्य श्रूयन्ते दक्षिणे करे । देवतीर्थं पितृतीर्थं ब्रह्मतीर्थं च मानद ॥ ६२ ॥ प्राजापत्यं तथा चान्यत्तथान्यत्सौम्यमुच्यते । अङ्गुष्ठमूलोत्तरतो येयं रेखा महीपते ॥ ६३ ॥ ब्राह्मं तीर्थं वदन्त्येतद्वसिष्ठाद्या द्विजोत्तमाः । कायं कनिष्ठिकामूले अङ्गुल्यग्रे तु दैवतम् ॥ ६४ ॥ हे सम्माननीय राजन् ! ब्राह्मण के दाहिने हाथ में पाँच तीर्थ सुने जाते हैं जिन्हें देवतीर्थ, पितृतीर्थ, ब्राह्मतीर्थ, प्रजापत्यतीर्थ तथा सौम्यतीर्थ कहा जाता है । अंगूठे के मूल भाग से जो रेखा प्रारम्भ होती है उसे वशिष्ठ आदि द्विजोत्तम ब्राह्मतीर्थ कहा करते हैं । कनिष्ठिका के मूल में (कायतीर्थ) प्राजापत्यतीर्थ एवं अंगुलियों के अग्रभाग में देवतीर्थ विद्यमान है ॥६२-६४ ॥ तर्जन्यङ्गुष्ठयोरन्तः पित्र्यं तीर्थमुदाहृतम् । करमध्ये स्थितं सौम्यं प्रशस्तं देवकर्मणि ॥ ६५ ॥ तर्जनी एवं अगूठे के मध्य का भाग पितृतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है । देवकार्य में प्रशस्त सौम्यतीर्थ हाथ के मध्य में स्थित है ॥ ६५ ॥ देवार्चाबलिहरणं प्रविक्षपणमेव च । एतानि देवतीर्थेन कुर्यात्कुरुकुलोद्वह ॥ ६६ ॥ हे कुरुकुल में उत्पन्न ! देवता की अर्चना करना, बलि का हरण तथा उसका प्रक्षेपण करना इत्यादि कार्यों को देवतीर्थ से करना चाहिए ॥ ६६ ॥ अन्ननिर्वपणं राजंस्तथा सपवनं नृप । लाजाहोमं तथा सौम्यं प्राजापत्येन कारयेत् ॥ ६७ ॥ अन्न का दान (भेंट करना) सञ्चय तथा लाजाहोम (लावे की आहुति) इत्यादि सौम्य कार्य प्राजापत्य तीर्थ से करना चाहिए ॥ ६७ ॥ कमण्डलूपस्पर्शनं दधिप्राशनमेव च । सौम्यतीर्थेन राजेन्द्र सदा कुर्याद्विचक्षणः ॥ ६८ ॥ हे राजेन्द्र ! कमण्डलु का उपस्पर्श एवं दधि का सेवन विचक्षण व्यक्ति को सदैव सौम्यतीर्थ से करना चाहिए ॥ ६८ ॥ पितॄणां तर्पणं कार्यं पितृतीर्थेन धीमता । ब्राह्मेण चापि तीर्थेन सदोषस्पर्शनं परम् ॥ ६९ ॥ बुद्धिमान व्यक्ति के द्वारा पितरोंकातर्पण (पिण्डदान आदि) पितृतीर्थ से करना चाहिए । श्रेष्ठ उपस्पर्श को सदैव ब्रह्मतीर्थ से करना चाहिए ॥ ६९ ॥ घनाङ्गुलिकरं कृत्वा एकाग्रः सुमना द्विजः । त्रिः कृत्वा यः पिबेदापो मुखशब्दविवर्जितः ॥ ७० ॥ शृणु यत्फलमाप्नोति प्रीणाति च यथा सुरान् । प्रथमं यत्पिबेदाप ऋग्वेदस्तेन तृप्यति ॥ ७१ ॥ यद्द्वितीयं यजुर्वेदस्तेन प्रीणाति भारत । यत्तृतीयं सामवेदस्तेन प्रीणाति भारत ॥ ७२ ॥ अंगुलियों को घना करने एकाग्र होकर सुन्दर मन से जो वाह्मण बिना मुख से शब्द किये हुए तीन बार जल को पीता है, वह जो फल प्राप्त करता है तथा जिस प्रकार देवताओं को प्रसन्न करता है, उसे सुनो । पहले जोजलपीता है उससे ऋग्वेद तृप्त होता है । हे भारत ! दूसरी बार जोजल पीता है उससे यजुर्वेद तृप्त होता है, तीसरी बार जो जल पीता है उससे सामवेद प्रसन्न होता है ॥ ७०-७२ ॥ प्रथमं यन्मृजेदास्यं दक्षिणाङ्गुष्ठमूलतः । अथर्ववेदः प्रीणाति तेन राजन्नसंशयः ॥ ७३ ॥ पहले पहल जो दाहिने हाथ के अंगूठे के मूलभाग से मुख को साफ करता है, हे राजन् ! उससे निश्चित रूप से अथर्ववेद प्रसन्न हो जाता है ॥ ७३ ॥ इतिहासपुराणानि यद्द्वितीयं प्रमार्जति । यन्मूर्धानं हि राजेन्द्र अभिषिञ्चति वै द्विजः ॥ ७४ ॥ तेन प्रीणाति वै रुद्रं शिखामालभ्य वै ऋषीन् । यदक्षिणी चालभते रविः प्रीणाति तेन वै ॥ ७५ ॥ जो दो बार मार्जन करता है ॥ (कुशादि से जल छिड़कता है) उससे इतिहासपुराण प्रसन्न होते हैं । हे राजेन्द्र ! जो व्राह्मण अपने मस्तक का अभिषेक करता है, तथा अपनी शिखा का स्पर्श करता है उससे रुद्र एवं ऋषिगण प्रसन्न हो जाते हैं । जो अपनी आँखों का स्पर्श करता है, उससे सूर्य देवता प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ७४-७५ ॥ नासिकालम्भनाद्वायुं प्रीणात्येव न संशयः । यच्छ्रोत्रमालभेद्विप्रो दिशः प्रीणाति तेन वै ॥ ७६ ॥ नातिका का स्पर्श करके वह निःसन्दिग्ध रूप से वाय को प्रसन्न कर देता है । जो ब्राह्मण अपने कान का स्पर्श करता है, उससे दिशायें प्रसन्न हो जाती हैं ॥ ७६ ॥ यमं कुबेरं वरुणं वासवं चाग्निमेव च । यद्बाहुमन्वालभते एतान्प्रीणाति तेन वै ॥ ७७ ॥ जो अपनी भुजाओं का स्पर्श करता है उससे यम, कुबेर, दसु, वरुण तथा अग्नि प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ७७ ॥ यन्नाभिमन्वालभते प्राणानां ग्रन्थिमेव च । तेन प्रीणाति राजेन्द्र इतीयं वैदिकी श्रुतिः ॥ ७८ ॥ जो प्राणों की ग्रन्धि एवं नाभि का स्पर्श करता है, उससे राजेन्द्र प्रसन्न हो जाते हैं, ऐसा वैदिक साहित्य से बोध होता है ॥ ७८ ॥ अभिषिञ्चति यत्पादौ विष्णुं प्रीणाति तेन वै । यद्भूम्याच्छादकं वारि विसर्जयति मानद ॥ ७९ ॥ वासुकिप्रमुखान्नागांस्तेन प्रीणाति भारत । यद्बिन्दवोऽन्तरे भूमौ पतन्तीह नराधिप ॥ ८० ॥ भूतग्रामं ततस्तस्तु प्रीणन्तीह चतुर्विधम् । अङ्गुष्ठेन प्रदेशिन्या लभेत चाक्षिणी नृप ॥ ८१ ॥ जो अपने पैरों का अभिषेक करता है उससे विष्णु प्रसन्न हो जाते हैं । हे सम्मान्य ! जो पृथ्वी पर, चारों तरफ से ढक लेने वाले जल का विसर्जन करता है, उससे वासुकि प्रमुख सूर्य प्रसन्न हो जाते हैं । हे नरेश भारत ! जिसके जल की बूंदें पृथ्वी के अन्तरतम में गिरती हैं, उससे चारों प्रकार के भूतग्राम प्रसन्न हो जाते हैं । हे राजन् ! अँगूठे एवं अंगुली से आँख का स्पर्श करना चाहिए ॥ ७९-८१ ॥ अनामिकाङ्गुष्ठिकाभ्यां नासिकामालभेन्नृप । मध्यमाङ्गुष्ठाभ्यां मुखं संस्पृशेद्भरतर्षभ ॥ ८२ ॥ हे राजन् ! अनामिका एवं अँगूठे से नाक का स्पर्श करना चाहिए । हे भरतवंश में उत्पन्न ! मध्यमा एवं अँगूठे से मुख का स्पर्श करना चाहिए ॥ ८२ ॥ कनिष्ठिकाङ्गुष्ठकाभ्यां कर्णमालभते नृप । अङ्गुलीभिस्तथा बाहुमङ्गुष्ठेन तु मङ्गलम् ॥ ८३ ॥ हे राजन् कनिष्ठिका एवं अँगूठे से कान का स्पर्श करना चाहिए । अंगुली से हाथ का तथा अँगूठे से समूचे मण्डल का स्पर्श करना चाहिए ॥ ८३ ॥ नाभिं कुरुकुलश्रेष्ठ शिरः सर्वाभिरेव च । अङ्गुष्ठोग्निर्महाबाहो प्रोक्तो वायुः प्रदेशिनी ॥ ८४ ॥ अनामिका तथा सूर्यः कनिष्ठा माघवा विभो । प्रजापतिर्मध्यमा ज्ञेया तस्माद्भरतसत्तम ॥ ८५ ॥ नाभि एवं सिर का स्पर्श सभी अंगुलियों से करना चाहिए । हे कुरुकुल में श्रेष्ठ महाबाहु ! अँगूठा अग्नि कहा गया है तथा तर्जनी वायु कही गयी है । हे श्रेष्ठ ! अनामिका सूर्य कही गयी है तथा कनिष्ठा इन्द्र कही गयी है । हे भरतवंश में श्रेष्ठ ! मध्यमा को प्रजापति कहा गया है ॥ ८४-८५ ॥ एवमाचम्य विप्रस्तु प्रीणाति सततं जगत् । सर्वाश्च देवतास्तात लोकांश्चापि न संशयः ॥ ८६ ॥ हे बन्धु ! इस प्रकार आचमन करके ब्राह्मण समग्रलोक को, संसार को, देवताओं को निःसन्दिग्ध रूप से निरन्तर प्रसन्न करता है ॥ ८६ ॥ तस्मात्पूज्यः सदा विप्रः सर्वदेवमयो हि सः । ब्राह्मेण विप्रतीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत् ॥ ८७ ॥ कायत्रैदेशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन । हृद्गाभिः पूयते विप्रः कण्ठगाभिस्तु भूमिपः ॥ ८८ ॥ इसलिए सर्वदेवमय ब्राह्मण सदैव पूज्य हैं । ब्राह्म विप्ररूपी तीर्थ के द्वारा प्रतिदिन काल का उपस्पर्श करना चाहिए इस पैत्रिक शरीर एवं त्रैदेशिक (मन) द्वारा कभी भी नहीं । हृदय के गीतों (स्तोत्रों) द्वारा ब्राह्मण पवित्र (सन्तुष्ट) होते हैं । कण्ठ में विद्यमान गीतों (स्तोत्रों) द्वारा राजा पवित्र (सन्तुष्ट) होता है ॥ ८७-८८ ॥ वैश्योद्भिः प्राशिताभिस्तु शूद्रः स्पृष्टाभिरन्ततः । उद्धृते दक्षिणे पाणावुपवीत्युच्यते बुधः ॥ ८९ ॥ वैश्य जल से पवित्र होता है तथा अन्त में स्पष्ट मुक्त जल से शूद्र पवित्र होता है । दक्षिण (दाहिने) हाथ के उद्धृत होने पर (उठने पर) विद्वान् लोग उपवीती की स्थिति बताते हैं ॥ ८९ ॥ सव्येन प्राचीनावीती निवीती कण्ठसंज्ञिते । मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम् ॥ ९० ॥ अस्तु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवित् । उपवीत्याचमेन्नित्यमन्तर्जानु महीपते ॥ ९१ ॥ एवं तु विप्रो ह्याचान्तः शुचितां याति भारत । यास्त्वेताः करमध्ये तु रेखा विप्रस्य भारत ॥ ९२ ॥ गङ्गाद्याः सरितः सर्वा ज्ञेया भारतसत्तम । यान्यङ्गुलिषु पर्वाणि गिरयस्तानि विद्धि वै ॥ ९३ ॥ सव्य होने पर प्राचीनावीती और कण्ठ में लटकते रहने पर निवीती कहते हैं । मेखला, चर्म, दण्ड, उपवीत और कमण्डलु–इनमें से किसी के नष्ट होने पर मन्त्रोच्चारणपूर्वक जल प्राशन करने से पवित्रता प्राप्त होती है । हे राजन् ! यज्ञोपवीत को बाएँ कन्धे पर रखकर दाहिने हाथ को दोनों जानुओं के मध्य भाग में रखकर आचमन करने वाला ब्राह्मण पवित्रता को प्राप्त होता है । हे भरतवंश सिंह ! ये ब्राह्मण के हाथ में जो रेखाएँ दिखाई पड़ती हैं, उन्हें गङ्गा आदि पुण्य सलिला नदियाँ जानना चाहिये । उनकी अँगुलियों में पोर दिखाई पड़ते हैं उन्हें पुण्य पर्वत जानना चाहिये ॥ ९०-९३ ॥ सर्वदेवमयो राजन्करो विप्रस्य दक्षिणः । हस्तोपस्पर्शनविधिस्तवाख्यातो महीपते ॥ ९४ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार ब्राह्मण का दाहिना हाथ सर्वदेवमय कहा है । हे महीपति ! हाथ से आचमन करने की विधि तुम्हें बतला चुका ॥ ९४ ॥ एषु सर्वेषु लोकेषु येनाचान्तो दिवं व्रजेत् ॥ ९५ ॥ इस प्रकार विधिपूर्वक आचमन करके इस सभी लोकों में निवास करने वाला स्वर्ग प्राप्त करता है ॥ ९५ ॥ इति श्रीभविष्ये महापुराणे शतार्द्धसाहस्र्यां संहितायां ब्राह्मे पर्वण्युपस्पर्शनविधिवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ श्री भविष्य महापुराण के ब्राह्मपर्व में आचमनविधि नामक तीसरा अध्याय समाप्त ॥ ३ ॥ |