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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - तृतीयोऽध्यायः


सृष्टिनिरूपणे दुर्गास्तोत्रम् -
श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरंभ तथा नारायण द्वारा श्रीकृष्ण की स्तुति -


सौतिरुवाच
दृष्ट्‍वा शून्यमयं विश्वं गोलोकं च भयंकरम् ।
निर्जन्तुनिर्जलं घोरं निर्वातं तमसाऽऽवृतम् ॥ १॥
वृक्षशैलसमुद्रादिविहीनं विकृताकृतिम् ।
निर्मृत्तिकं च निर्धातुं निःसस्यं निस्तृणं द्विज ॥२॥
आलोच्य मनसा सर्वमेक एवासहायवान् ।
स्वेच्छया स्रष्टुमारेभे सृष्टिं स्वेच्छामयः प्रभुः ॥३॥
सौति बोले-द्विज ! स्वेच्छामय प्रभु ने देखा कि गोलोक भयंकर लग रहा है और विश्व शून्यमय, भयंकर, जीवजन्तुओं से रहित, जल-विहीन, दारुण, वायुशून्य, अंधकार से आवृत, वृक्ष, पर्वत एवं समुद्र आदि से विहीन, विकृताकार, मृत्तिका, धातु, सस्य और तृण से रहित हो गया है । मन ही मन सब बातों की आलोचना करके सहायक रहित, एकमात्र प्रभु ने स्वेच्छा से सृष्टि-रचना आरंभ की ॥ १-३ ॥

आविर्बभूवुः सर्गादौ पुंसो दक्षिणपार्श्वतः ।
भवकारणरूपाश्च मूर्तिमन्तस्त्रयो गुणाः ॥४॥
ततो महानहंकारः पञ्चतन्मात्र एव च ।
रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाश्चैवेति संज्ञकाः ॥५॥
आविर्बभूव तत्पश्चात्स्वयं नारायणः प्रभुः ।
श्यामो युवा पीतवासा वनमाली चतुर्भुजः ॥६॥
शङ्खचक्रगदापद्मधरः स्मेरमुखाम्बुजः ।
रत्‍नभूषणभूषाढ्यः शार्ङ्गी कौस्तुभभूषणः ॥७॥
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
शारदेन्दुप्रभामृष्टमुखेन्दुसुमनोहरः ॥८॥
कामदेवप्रभामृष्टरूपलावण्यसुन्दरः ।
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ॥९॥
सृष्टि के आदि मे उस परम पुरुष के दक्षिण पार्श्व से संसार के कारण रूप तीन मूर्तिमान् गुण प्रकट हुए । उन गुणों से महत्तत्त्व, अहंकार, पंचतन्मात्राएं और रूप, रस, गन्ध स्पर्श और शब्द क्रमशः उत्पन्न हुए । तत्पश्चात् स्वयं नारायण प्रभु प्रकट हुए जो श्यामवर्ण, तरुण, पीताम्बर, चतुर्भुज, शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए, मुखारविन्द पर मन्द मुसकान से युक्त, रत्‍नों के आभूषणों से सम्पन्न, शार्ङ्‌गधनुष धारण किए हुए, कौस्तुभ मणि से विभूषित, वक्षःस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह से युक्त, लक्ष्मी के निवास, शोभा के निधान, श्री के चिन्तक शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा की प्रभा से सेवित मुखचन्द्र के कारण अत्यन्त मनोहर और कामदेव की कान्ति से युक्त रूप-लावण्य के कारण सुन्दर थे । वे श्रीकृष्ण के सामने खडे होकर दोनो हाथ जोड कर उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४-९ ॥

नारायण उवाच
वरं वरेण्यं वरदं वरार्हं वरकारणम् ।
कारणं कारणानां च कर्म तत्कर्मकारणम् ॥ १०॥
तपस्तत्फलदं शश्वत्तपस्वीशं च तापसम् ।
वन्दे नवघनश्यामं स्वात्मारामं मनोहरम् ॥ ११॥
निष्कामं कामरूपं च कामघ्नं कामकारणम् ।
सर्वे सर्वेश्वरं सर्वबीजरूपमनुत्तमम् ॥ १२॥
वेदरूपं वेदबीजं वेदोक्तफलदं फलम् ।
वेदज्ञं तद्विधानं च सर्ववेदविदां वरम् ॥ १३॥
नारायण बोले-जो वर (श्रेष्ठ), वन्दनीय, वरदायक, वर देने में समर्थ, वर की प्राप्ति के कारण, कारणों के भी कारण, कर्मस्वरूप, उस कर्म के भी कारण, तपः स्वरूप, निरन्तर उस तप के फल देने वाले, तपस्वी, तपस्वियों के प्रभु, नवीन मेघ के समान श्याम, स्वात्माराम, मनोहर, निष्काम, कामरूप, कामना के नाशक, कामदेव की उत्पत्ति के कारण, सब, सब के ईश्वर, सर्वबीजस्वरूप, सर्वोत्तम, वेदस्वरूप, वेदों के बीज, वेदोक्त फल के दाता फलरूप, वेदों के ज्ञाता, उसके विधान को जानने वाले तथा सम्पूर्ण वेदवेत्ताओं के शिरोमणि हैं, उनकी मैं वन्दना करता हूँ ॥ १०-१३ ॥

इत्युक्त्वा भक्तियुक्तश्च स उवास तदाज्ञया ।
रत्‍नसिंहासने रम्ये पुरतः परमात्मनः ॥१४॥
नारायणकृतं स्तोत्रं यः पठेत्सुसमाहितः ।
त्रिसंध्यं यः पठेन्नित्यं पापं तस्य न विद्यते ॥१५॥
पुत्रार्थी लभते पुत्रं भार्यार्थी लभते प्रियाम् ।
भ्रष्टराज्यो लभेद्‌राज्यं धनं भ्रष्टधनो लभेत् ॥ १६॥
कारागारे विपद्‌ग्रस्तः स्तोत्रेणानेन मुच्यते ।
रोगात्प्रमुच्यते रोगी वर्षं श्रुत्वा च संयतः ॥१७॥
इति ब्रह्मवैवर्तं नारायणकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।
ऐसा कह कर भक्ति से युक्त वे नारायण उनकी आज्ञा से परमात्मा कृष्ण के सामने रत्‍न-निर्मित रमणीय सिंहासन पर आसीन हो गये । जो एकाग्रचित्त होकर नारायण द्वारा किये गये इस स्तोत्र का पाठ करता है और जो नित्य, तीनो संध्याओं के समय इसको पढता है वह निष्पाप हो जाता है । इसके पाठ से पुत्र चाहने वाले को पुत्र मिलता है, पत्नी की कामना करने वाले को पत्नी मिलती है, राज्य से भ्रष्ट हुए को राज्य मिलता है और धन से वंचित हुए को धन की प्राप्ति होती है । कारागार के भीतर विपत्ति मे पडा हुआ व्यक्ति इस स्तोत्र के प्रभाव से कारागार से छूट जाता है । एक वर्ष तक संयमपूर्वक इस स्तोत्र को सुन कर रोगी रोग से मुक्त हो जाता है ॥ १४-१७ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण मे नारायणकृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौतिरुवाच
आविर्बभूव तत्पश्चादात्मनो वामपार्श्वतः ।
शुद्धस्फटिकसंकाशः पञ्चवक्त्रो दिगम्बरः ॥१८॥
तप्तकाञ्चनवर्णाभजटाभारधरो वरः ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्यस्त्रिनेत्रश्चन्द्रशेखरः ॥ १९॥
त्रिशूलपट्टिशधरो जपमालाकरः परः ।
सर्वसिद्धेश्वरः सिद्धो योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः ॥२०॥
मृत्योमृत्युरीश्वरश्च मृत्युर्मृत्युंजयः शिवः ।
ज्ञानानन्दो महाज्ञानी महाज्ञानप्रदः परः ॥२१॥
पूर्णचन्द्रप्रभामृष्टसुखदृश्यो मनोहरः ।
वैष्णवानां च प्रवरः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा ॥२२॥
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ।
पुलकाङ्कितसर्वाङ्गः साश्रुनेत्रोऽतिगद्‌गदः ॥२३॥
सौति बोले-अनन्तर उनके बायें पार्श्व से शुद्ध स्फटिक मणि के समान धवल, पांच मुख वाले, दिगम्बर (नग्न), तपाये हुए सुवर्ण की कान्ति के समान जटाओं को धारण किये हुए, श्रेष्ठ, मन्द मुसकान करते हुए प्रसन्नमुख, त्रिनेत्र, भाल पर चन्द्रमा को धारण किये हुए, हाथों मे त्रिशूल, पट्टिश और जपमाला लिए हुए, सर्वसिद्धेश्वर सिद्ध, योगीन्द्रों के गुरु के गुरु हैं, मृत्यु के मृत्यु, ईश्वर, मृत्यु रूप, मृत्यु को जीतने वाले, कल्याणकारक, ज्ञानानन्द, महाज्ञानी, श्रेष्ठ, महाज्ञानदाता, पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा से भूषित मुखवाले, मनोहर, वैष्णवों के शिरोमणि और ब्रह्म तेज से देदीप्यमान शंकर प्रकट हुए । उन्होनें भगवान् श्रीकृष्ण के सामने खडे होकर हाथ जोडकर उनकी स्तुति करना आरंभ किया । उस समय उनके शरीर मे रोमांच रहा था, आंखें आसुओं से भरी थी और वाणी अत्यन्त गद्‌गद हो रही थी ॥ १८-२३ ॥

महादेव उवाच
जयस्वरूपं जयदं जयेशं जयकारणम् ।
प्रवरं जयदानां च वन्दे तमपराजितम् ॥२४॥
विश्वं विश्वेश्वरेशं च विश्वेशं विश्वकारणम् ।
विश्वाधारं च विश्वस्थं विश्वकारणकारणम् ॥२५॥
विश्वरक्षाकारणं च विश्वघ्नं विश्वजं परम् ।
फलबीजं फलाधारं फलं च तत्फलप्रदम् ॥२६॥
महादेव बोले-जयस्वरूप, जय देने वाले, जय के कारण, जय देने वालों मे सर्वश्रेठ और अपराजित उस देव की मैं वन्दना कर रहा हूँ जो विश्वरूप, विश्वेश्वराधिपति, विश्व के ईश,विश्व के कारण, विश्व के आधार, विश्व मे स्थित, विश्वकारण के कारण, विश्व की रक्षा के कारण, विश्वहन्ता, विश्व की सृष्टि मे सर्वोत्तम, फल के बीज, फल के आधार, फलस्वरूप, फल के भी फलदाता, तेजःस्वरूप, तेजोदायक और समस्त तेजस्वियों मे श्रेष्ठ है ॥ २४-२६ ॥

तेजःस्वरूपं तेजोदं सर्वतेजस्विनां वरम् ।
इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्‍नसिंहासने वरे ।
नारायणं च संभाष्य उवास स तदाज्ञया ॥२७॥
इति शंभुकृतं स्तोत्रं यो जनः संयतः पठेत् ।
सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य विजयं च पदे पदे ॥२८॥
संततं वर्धते मित्रं धनमैश्वर्यमेव च ।
शत्रुसैन्यं क्षयं याति दुःखानि दुरितानि च ॥२९॥
इति ब्रह्मवैवर्ते शंभुकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।
ऐसा कह कर नमस्कार करके उनकी आज्ञा से श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर नारायण के साथ वार्तालाप करते हुए वे बैठ गए । जो मनुष्य संयतचित्त होकर इस शम्भु-रचित स्तोत्र का पाठ करता है उसके सभी कार्यों की सिद्धि और पग-पग पर विजय प्राप्त होती है । उसके मित्र, धन, ऐश्वर्य की सदा वृद्धि होती है और शत्रुओं की सेना, दुःख एवं पाप नष्ट होते हैं ॥ । २७-२९ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण मे शम्भुकृत श्रीकृष्ण-स्तोत्र समाप्त ।

सौतिरुवाच
आविर्बभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य नाभिपङ्कजात् ।
महातपस्वो वृद्धश्च कमण्डलुकरो वरः ॥३०॥
शुक्लवासाः शुक्लदन्तः शुक्लकेशश्चतुर्मुखः ।
योगीशः शिल्पिनामीशः सर्वेषां जनको गुरुः ॥३१॥
तपसां फलदाता च प्रदाता सर्वसंपदाम् ।
स्रष्टा विधाता कर्ता च हर्ता च सर्वकर्मणाम् ॥३२॥
धाता चतुर्णां वेदानां ज्ञाता वेदप्रसूपतिः ।
शान्तः सरस्वतीकान्तः सुशीलश्च कृपानिधिः ॥३३॥
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं पुटाञ्जलिः ।
पुलकाङ्‌कितसर्वाङ्गो भक्तिनम्रात्मकधरः ॥३४॥
सौाति बोले - तदनन्तर भगवान् कृष्ण के नाभि-कमल से महातपस्वी, श्रेष्ठ और हाथ मे कमण्डलु लिए वृद्ध ब्रह्मा प्रकट हुए । उनके वस्त्र, दांत आर केश धवल थे । चार मुख थे । वे योगिराज, शिल्पियों के अधीश्वर, सबके उत्पादक, गुरु, तपस्याओं के फलदाता समस्त सम्पत्तियों के प्रदायक, स्रष्टा, विधाता, समस्त कर्मों के कर्ता, हर्ता, धाता (धारण करने बाले), चारो वेदों के ज्ञाता, वेदों के प्रकट करने वाले और उनके पति, शान्त, सरस्वती के कान्त, सुशील तया कृपानिधान हैं । उन्होने भगवान् श्रीकृष्ण के सामने हाथ जोड कर उनका स्तवन किया । उस समय उनके सम्पूर्ण अगों में रोगांच हो आया तथा उनकी ग्रीवा भगवान् के सामने भक्तिभाव से झुक गई यी ॥ ३०-३४ ॥

ब्रह्मोवाच
कृष्णं वन्दे गुणातीतं गोविन्दमेकमक्षरम् ।
अव्यक्तमव्ययं व्यक्तं गोपवेषविधायिनम् ॥३५॥
किशोरवयसं शान्तं गोपीकान्तं मनोहरम् ।
नवीननीरदश्यामं कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ॥३६॥
वृन्दावनवनाभ्यर्णे रासमण्डलसंस्थितम् ।
रासेश्वरं रासवासं रासोल्लाससमुत्सुकम् ॥३७॥
ब्रह्मा बोले- भगवान् कृष्ण की वन्दना करता हूँ, जौ गुणों से परे, एकमात्र गोविन्द, अविनाशी, अव्यय (नित्य एक रस रहने वाले), व्यक्त, गोपवेषधारी, किशोर अवस्था वाले, शान्त, गोपियों के कान्त, मनोहर, नवीनघन की भांति श्यामल, करोडों काम से सुन्दर, वृन्दावन के भीतर रास-मण्डल मे विराजमान, रासेश्वर, रास मे सदैव रहने वाले और रासजनित उल्लास के लिए सदा उत्सुक रहने वाले हैं ॥ ३५-३७ ॥

इत्येवमुक्त्वा तं नत्वा रत्‍नसिंहासने वरे ।
नारायणेशौ संभाष्य स उवास तदाज्ञया ॥३८॥
इति ब्रह्मकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
पापानि तस्य नश्यन्ति दुःस्वप्नः सुस्वप्नो भवेत् ॥३९॥
भक्तिर्भवति गोविन्दे श्रीपुत्रपौत्रवर्धिनी ।
अकीर्तिः क्षयमाप्नोति सत्कीतिर्वर्धते चिरम् ॥४०॥
इति ब्रह्मवैवर्ते ब्रह्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।
ऐसा कहकर श्रीकृष्ण को नमस्कार करके उनकी आज्ञा से नारायण और शिव के साथ संभाषण करते हुए ब्रह्मा श्रेष्ठ रत्‍नसिंहासन पर बैठ गये । जो प्रातःकाल उठकर ब्रह्मा द्वारा किए गए इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके पाप नष्ट हो जाते है और दुःस्वप्न सुस्वप्न हो जाता है । उसे श्री, पुत्र एवं पौत्र बढाने वाली गोविन्द की भक्ति प्राप्त होती है । उसकी अपकीर्ति नष्ट हो जाती है और सत्कीर्ति चिरकाल तक बहती रहती है ॥ । ३८-४० ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण मे ब्रह्मकृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौतिरुवाच
आविर्बभूव तत्पश्चाद्वक्षसः परमात्मनः ।
सस्मितः पुरुषः कश्चिच्छुक्लवर्णो जटाधरः ॥४१॥
सर्वसाक्षी च सर्वज्ञः सर्वेषां सर्वकर्मणाम् ।
समः सर्वत्र सदयो हिंसाकोपविवर्जितः ॥४२॥
धर्मज्ञानयुतो धर्मो धर्मिष्ठो धर्मदो भवेत् ।
स एव धर्मिणां धर्मः परमात्मा फलोद्‌भवः ॥४३॥
श्रीकृष्णपुरतः स्थित्वा प्रणम्य दण्डवद्‌भुवि ।
तुष्टाव परमात्मानं सर्वेशं सर्वकामदम् ॥४४॥
सौति बोले - तत्पश्चात् उस परमात्मा के वक्षःस्थल से शुक्ल वर्ण का कोई एक जटाधारी पुरुष प्रकट हुआ जो मन्द मुसकान कर रहा था और सभी जीवों के समस्त कर्मों का साक्षी, सर्वज्ञाता, सर्वत्र समभाव से रहने वाला, सहृदय, हिंसा और क्रोध से हीन, धर्मज्ञान से युक्त, धर्ममूर्ति, धर्मिष्ठ, धर्मियों का धर्म, परमात्मा तथा फलदाता था । उन्होनें भगवान् श्री कृष्ण के सामने खडे होकर भूमि मे दण्डवत् प्रणाम किया और सबके प्रभु एवं समस्त कामनाओं के देने वाले उन परमात्मा की स्तुति करना आरम्भ किया ॥ ४१-४४ ॥

श्रीधर्म उवाच
कृष्णं विष्णुं वासुदेवं परमात्मानमीश्वरम् ।
गोविन्दं परमानन्दमेकमक्षरमच्युतम् ॥४५॥
गोपेश्वरं च गोपीशं गोपं गोरक्षकं विभुम् ।
गवामीशं च गोष्ठस्थं गोवत्सपुच्छधारिणम् ॥४६॥
गोगोपगोपीमध्यस्थं प्रधानं पुरुषोत्तमम् ।
वन्देऽनवद्यमनघं श्यामं शान्तं मनोहरम् ॥४७॥
धर्म बोले - कृष्ण, विष्णु, वासुदेव, परमात्मा, ईश्वर, गोविन्द, परमानन्दरूप, एक, अविनाशी, अच्युत, गोपेश्वर गोपीश, गोप, गोरक्षक, व्यापक, गौओं के ईश, गोष्ठ (गोशाला) में रहने वाले, गौओं के बछडों की पूछ धारण करने वाले तथा गौ, गोप और गोपियों के मध्य रहने वाले, प्रधान, पुरुषोत्तम, अनवद्य, अनघ, श्याम, शान्त और मनोहर (परमात्मा) की मैं वन्दना करता हूँ ॥ ४५-४७ ॥

इत्युच्चार्य समुत्तिष्ठन्‌रत्‍नसिंहासने वरे ।
ब्रह्मविष्णुमहेशांस्तान्संभाष्य स उवास ह ॥४८॥
ऐसा कह कर धर्म उठकर खडे हुए । फिर वे भगवान् की आज्ञा से ब्रह्मा, विष्णु और महादेव के साथ वार्तालाप करते हुए उस श्रेष्ठ रत्‍नमय सिंहासन पर बैठे ॥ ४८ ॥

चतुर्विंशतिनामानि धर्मवक्त्रोद्‌गतानि च ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय स सुखी सर्वतो जयी ॥४९॥
जो प्रातःकाल उठकर धर्म के मुख से निकले हुए इन चौवीस नामों का पाठ करता है वह सर्वत्र सुखी और विजयी होता है ॥ ४९ ॥

मृत्युकाले हरेर्नाम तस्य साध्यं भवेद्ध्रुवम् ।
स यात्यन्ते हरेः स्थानं हरिदास्यं भवेद्ध्रुवम् ॥५०॥
मृत्यु के समय उसके मुख से हरिनाम का उच्चारण निश्चित रूप से होता है ओर अन्त काल मे भगवान् के स्थान मे जाकर वह भगवान् की दास्य-भक्ति अवश्य प्राप्त करता है ॥ ५० ॥

नित्यं धर्मस्तं घटते नाधर्मे तद्‌रतिर्भवेत् ।
चतुर्वर्गफलं तस्य शश्वत्करगतं भवेत् ॥५१॥
नित्य उसे धर्म की ही प्राप्ति होती है और अधर्म मे उसकी रुचि कभी नहीं होती है । चारों वर्गों (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) का फल सदा के लिए उसके हाथ मे आ जाता है ॥ ५१ ॥

तं दृष्ट्‌वा सर्वपापानि पलायन्ते भयेन च ।
भयानि चैव दुःखानि वैनतेयमिवोरगाः ॥५२॥
इति ब्रह्मवैवर्ते धर्मकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।
उसे देखते ही समस्त पाप, भय तथा दुःख भयभीत होकर उसी तरह भाग खडे होते हैं जैसे गरुड को देख कर सांप भाग जाते हैं ॥ ५२ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण मे धर्मकृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौतिरुवाच
आविर्बभूव कन्यैका धर्मस्य वामपार्श्वतः ।
मूर्तिर्मूर्तिमती साक्षाद्‌द्वितीया कमलालया ॥५३॥
सौति बोले - तत्पश्चात् धर्म के वाम पार्श्व से एक रूपवती कन्या प्रकट हुई, जो साक्षात् दूसरी लक्ष्मी के समान थी । वह मूर्ति नाम से विख्यात हुई ॥ ५३ ॥

आविर्बभूव तत्पश्चान्मुखतः परमात्मनः ।
एका देवी शुक्लवर्णा वीणापुस्तकधारिणी ॥५४॥
कोटिपूर्णेन्दुशोभाढ्या शरत्पङ्कजलोचना ।
वह्निशुद्धांशुकाधाना रत्‍नभूषणभूषिता ॥५५॥
उसके अनन्तर परमात्मा के मुख से वीणा और पुस्तक लिए हुए एक शुक्ल वर्ण की देवी प्रकट हुई, जो करोडों पूर्णचन्द्रमा की शोभा से सम्पन्न थी । उसके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान थे । वह अग्नि मे तपाये हुए सुवर्ण की भांति वस्त्र और रत्नों के भूषणों से विभूषित थी ॥ ५४-५५ ॥

सस्मिता सुदती श्यामा सुन्दरीणां च सुन्दरी ।
श्रेष्ठा श्रुतीनां शास्त्राणां विदुषां जननी परा ॥५६॥
वागधिष्ठातृदेवी सा कवीनामिष्टदेवता ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपा च शान्तरूपा सरस्वती ॥५७॥
गोविन्दपुरतः स्थित्वा जगौ प्रथमतः सुखम् ।
तन्नामगुणकीर्तिं च वीणया सा ननर्त च ॥५८॥
कृतानि यानि कर्माणि कल्पे कल्पे युगे युगे ।
तानि सर्वाणि हरिणा तुष्टाव च पुटाञ्जलिः ॥५९॥
वह मन्द मुसकान करती थी एवं उसके दांत बडे सुन्दर ये । वह श्यामा (सोलह वर्ष की युवती) सुन्दरियोमें भी श्रेष्ठ सुन्दरी, श्रुतियों, शास्त्रों और विद्वानों की परमोत्तम जननी, वाणी की अधिष्ठात्री देवी, कवियों की इष्ट देवी, शुद्ध सत्त्व स्वरूप वाली और शान्तरूपिणी सरस्वती थी । उसने भगवान् कृष्ण के सामने स्थित होकर सर्वप्रथम वीणावादन के साथ उनके नाम और गुणों का सुन्दर कीर्तन किया । फिर वह नृत्य करने लगी । उसने हाथ जोड कर प्रत्येक कल्प और युगों मे किए हुए भगवान् के सभी कार्यों का गान करते हुए उनकी स्तुति की ॥ ५६-५९ ॥

सरस्वत्युवाच
रासमण्डलमध्यस्थं रासोल्लाससमुत्सुकम् ।
रत्‍नसिंहासनस्थं च रत्‍नभूषणभूषितम् ॥६०॥
रासेश्वरं रासकरं वरं रासेश्वरीश्वरम् ।
रासाधिष्ठातृदेवं च वन्दे रासविनोदिनम् ॥६१॥
रासायासपरिश्रान्तं रासरासविहारिणम् ।
रासोत्सुकानां गोपीनां कान्तं शान्तं मनोहरम् ॥६२॥
प्रणम्य च तमित्युक्त्वा प्रहृष्टवदना सती ।
उवास सा सकामा च रत्‍नसिंहासने वरे ॥६३॥
सरस्वती बोली - रास-मण्डल के मध्य मे स्थित, रासोल्लास के लिए अत्यन्त उत्सुक, रत्‍नजडित सिंहासन पर सुशोभित, रत्नों के भूषणों से विभूषित, रासेश्वर, श्रेष्ठ रास करने वाले, रासेश्वरी (श्री राधिका जी) के प्राणवल्लभ, रास के अधिष्ठाता देव और रासविनोदी आप की मैं वन्दना करती हूँ । जो रास-क्रीडा से श्रान्त हैं, प्रत्येक रास मे विहार करने वाले हैं तथा रास से उत्कण्ठित हुई गोपियों के प्राणवल्लभ हैं, उन शान्त मनोहर श्रीकृष्ण को मैं प्रणाम करती हूं । इस प्रकार उन्हें प्रणाम करके वह सती सरस्वती प्रसन्नचित्त एवं सफल मनोरथ होकर उस उत्तम रत्न सिंहासन पर समासीन हो गई ॥ ६०-६३ ॥

इति वाणीकृतं स्तोत्रं प्रातरुत्थाय यः पठेत् ।
बुद्धिमान्धनवान्सोऽपि विद्यावान्पुत्रवान्सदा ॥६४॥
इति ब्रह्मवैवर्ते सरस्वतीकृतं श्रीकृष्णस्तोत्रम् ।
प्रातःकाल उठ कर जो इस सरस्वती कृत स्तोत्र का पाठ करेगा वह सदा बुद्धिमान्, धनवान्, विद्वान् और पुत्रवान् होगा ॥ ६४ ॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण मे सरस्वती कृत श्रीकृष्णस्तोत्र समाप्त ।

सौतिरुवाच
आविर्बभूव मनसः कृष्णस्य परमात्मनः ।
एका देवी गौरवर्णा रत्‍नालंकारभूषिता ॥६५॥
पीतवस्त्रपरीधाना सस्मिता नवयौवना ।
सर्वेश्वर्याधिदेवी सा सर्वसंपत्फलप्रदा ।
स्वर्गे च स्वर्गलक्ष्मीश्च राजलक्ष्मीश्च राजसु ॥६६॥
सा हरेः पुरतः स्थित्वा परमात्मानमीश्वरम् ।
तुष्टाव प्रणता साध्वी भक्तिनम्रात्मकंधरा ॥६७॥
सौति बोले - भगवान् कृष्ण के मन से एक गौर वर्णा देवी प्रकट हुई, जो रत्नों के अलंकारो से भूषित पीताम्बर धारण किये हुए तथा मंद मुसकान से युक्त नवयुवती थी । वह समस्त ऐश्वर्यों की अधिष्ठात्री देवी और समस्त सम्पत्ति का फल प्रदान करने वाली है । वही स्वर्ग मे स्वर्ग की लक्ष्मी एवं राजाओं के यहां राजलक्ष्मी कही जाती है । उसने भगवान् के सामने खडी होकर उन्हे प्रणाम किया और भक्तिभावसे ग्रीवा को झुका कर परमात्मा की स्तुति की ॥ ६५-६७ ॥

महालक्ष्मीरुवाच
सत्यस्वरूपं सत्येशं सत्यबीजं सनातनम् ।
सत्याधारं च सत्यज्ञं सत्यमूलं नमाम्यहम् ॥६८॥
महालक्ष्मी बोली - सत्य स्वरूप, सत्य के स्वामी, सत्य के बीज, सनातन, सत्य के आधार, सत्य के ज्ञाता और उस सत्य के कारण को मैं नमस्कार कर रही हूं ॥ ६८ ॥

इत्युक्त्या श्रीहरिं नत्वा सा चोवास सुखासने ।
तप्तकाञ्चनवर्णाभा भासयन्ती दिशस्त्विषा ॥६९॥
तपाये हुए सुवर्ण की भांति प्रभा से पूर्ण और दिशाओं को अपनी कान्ति से प्रकाशित करती हुई वह ( महालक्ष्मी) भी हरि को नमस्कार कर के उस सुखमय सिंहासन पर बैठ गयी ॥ ६९ ॥

आविर्बभूव तत्पश्चाद्‌बुद्धेश्च परमात्मनः ।
सर्वाधिष्ठातृदेवी सा मूलप्रकृतिरीश्वरी ॥७०॥
अनन्तर उस परमात्मा की बुद्धि से मूल प्रकृति प्रकट हुई, जो सब की अधिष्ठात्री देवी और ईश्वरी है ॥ ७० ॥

तप्तकाञ्चनवर्णाभा सूर्यकोटिसमप्रभा ।
ईषद्धास्यप्रसन्नास्या शरत्पङ्कजलोचना ॥७१॥
रक्तवस्त्रपरीधाना रत्‍नाभरणभूषिता ।
निद्रातृष्णाक्षुत्पिपासादयाश्रद्धाक्षमादिकाः ॥७२॥
तासां च सर्वशक्तीनामीशाऽधिष्ठातृदेवता ।
भयंकरी शतभुजा दुर्गा दुर्गार्तिनाशिनी ॥७३॥
आत्मनः शक्तिरूपा सा जगतां जननी परा ।
त्रिशूलशक्तिशार्ङ्ग च धनुःखड्गशराणि च ॥७४॥
शङ्खचक्रगदापद्ममक्षमालां कमण्डलुम् ।
वज्रमङ्कुशपाशं च भुशुण्डीदण्डतोमरम् ॥७५॥
नारायणास्त्रं ब्रह्मास्त्रं रौद्रं पाशुपतं तथा ।
पार्जन्यं वारुणं वाह्नं गान्धर्व बिभृती सती ।
कृष्णस्य पुरतः स्थित्वा तुष्टाव तं मुदाचन्विता ॥ ७६ ॥
वह तपाये हुए सुवर्ण के समान कान्ति वाली वह देवी करोडों सूर्यों का तिरस्कार कर रही थी । उसका मुख मंद मुसकान से प्रसन्न दीख रहा था । उसके नेत्र शारदीय कमल के समान थे । वह लाल रंग के वस्त्र पहने हुये थी तथा रत्‍नों के आभूषणों से भूषित थी । निद्रा, तृष्णा, क्षुधा, पिपासा, दया, श्रद्धा, क्षमा आदि जो देवियां हैं, उन सब की तथा समस्त शक्तियों की वह अधिष्ठात्री देवी है । वह भयंकरी, सौ भुजाएँ धारण करने वाली और दुर्ग के समान दुःखों का नाश करने वाली दुर्गा है । वह आत्मा की शक्तिरूपा और समस्त जगत् की श्रेष्ठ जननी है । त्रिशूल, शक्ति, धनुष, खड्ग, बाण, शंख, चक्र, गदा, पद्म, अक्षमाला, कमण्डलु, वज्र, अंकुश, पाश, भुशुण्डी, दण्ड, तोमर, नारायणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, रौद्रास्त्र, पाशुपतास्त्र, पार्जन्यास्त्र, वारुणास्त्र, आग्नेयास्त्र तथा गान्धर्वास्त्र - इन सब को हाथों मे धारण किये वह सती भगवान् कृष्ण के सामने खडी होकर प्रसन्न चित्त से उनकी स्तुति करने लगी ॥ ७१-७६ ॥

प्रकृतिरुवाच
अहं प्रकृतिरीशाना सर्वेशा सर्वरूपिणी ।
सर्वशक्तिस्वरूपा च मया च शक्तिमज्जगत् ॥७७॥
प्रकृति बोली - मैं प्रकृति, ईश्वरी, सर्वेश्वरी, सर्वरूपिणी और सर्वशक्तिस्वरूपा कहलाती हूँ । मुझसे यह जगत् शक्तिमान् है ॥ ७७ ॥

त्वया सृष्टा न स्वतन्त्रा त्वमेव जगतां पतिः ।
गतिश्च पाता स्रष्टा च संहर्ता च पुनर्विधिः ॥७८॥
आप इस जगत् के स्वतन्त्र स्रष्टा नहीं हैं, किन्तु इसके पति, गति, रक्षक, स्रष्टा, संहारक एवं पुनः सृष्टि करने वाले हैं ॥ ७८ ॥

स्रष्टुं स्रष्टा च संहर्तुं संहर्ता वेधसा विधिः ।
परमानन्दरूपं त्वां वन्दे चाऽऽनन्दपूर्वकम् ।
चक्षुर्निमेषकाले च ब्रह्मणः पतनं भवेत् ॥७९॥
आप सर्जन करने के लिए स्रष्टा, संहार करने के लिए संहर्ता एवं ब्रह्मा के भी उत्पादक हैं । ऐसे परमानन्द रूप आपकी मैं सहर्ष वन्दना करती हूं । है विभो ! आपके पलक भाँजते ही ब्रह्मा का पतन हो जाता है । जो अपनी भ्रूभङ्‌गकी लीला मात्र से करोडों विष्णु को उत्पन्न कर सकता है ऐसे आपके अनुपम प्रभाव का वर्णन करने मे कौन समर्थ हो सकता हे ? ॥ ७९-८० ॥

तस्य प्रभावमतुलं वर्णितुं कः क्षमो विभो ।
भ्रूभङ्गलीलामात्रेण विष्णुकोटिं सृजेत्तु यः ॥८०॥
चराचरांश्च विश्वेषु देवान्ब्रह्मपुरोगमान् ।
मद्विधाः कति वा देवीः स्रष्टुं शक्तश्च लीलया ॥८१॥
उसी प्रकार आप सारे ब्रह्माण्ड मे चर-अचर प्राणियों, ब्रह्मा आदि देवगणों और मेरे समान कितनी देवियोंको लीला मात्र से उत्पन्न करने मे समर्थ हैं ॥ ८१ ॥

परिपूर्णतमं स्वीड्यं वन्दे चाऽऽनन्दपूर्वकम् ।
महान्विराड् यत्कलांशो विश्वसंख्याश्रयो विभो ।
वन्दे चाऽऽनन्दपूर्व तं परमात्मानमीश्वरम् ॥८२॥
अतः परिपूर्णतम एवं अपने से स्तुति के योग्य आपकी मैं सानन्द वन्दना करती हूं । असंख्य विश्व का आश्रयभूत महान् विराट् पुरुष जिनकी कालामात्र का अंश है, उन परमात्मा (श्रीकृष्ण) की मैं सहर्ष वन्दना करती हूं ॥ ८२ ॥

यं च स्तोतुमशक्ताश्च ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।
वेदा अहं च वाणी च वन्दे तं प्रकृतेः परम् ॥८३॥
जिसकी स्तुति करने मे ब्रह्मा, विष्णु, शिव, वेद, मैं और वाणी (सरस्वती) असमर्थ हैं तथा जो प्रकृति से परे हैं उन (ईश) की मैं वन्दना करती हूं ॥ ८३ ॥

वेदाश्च विदुषां श्रेष्ठाः स्तोतुं शक्ताश्च लक्ष्यतः ।
निर्लक्ष्यं कः क्षमः स्तोतुं तं निरीहं नमाम्यहम् ॥८४॥
श्रेष्ठ विद्वान् तथा वेद भी जिनकी स्तुति करने मे समर्थ नहीं हैं और जो लक्ष्यहीन एवं निरीह हैं, उनकी स्तुति करने मे कौन समर्थ हो सकता है ? अतः मैं उन परमात्मा को प्रणाम कर रही हूं ॥ ८४ ॥

इत्येवमुक्त्वा सा दुर्गा रत्‍नसिंहासने वरे ।
उवास नत्वा श्रीकृष्णं तुष्टुवुस्तां सुरेश्वराः ॥८५॥
इस प्रकार कह कर और भगवान् श्रीकृष्ण को प्रणाम करके वह दुर्गा देवी रत्‍न-सिंहासन पर बैठ गई । उपरान्त देवनायकों ने दुर्गा की स्तुति की ॥ ८५ ॥

इति दुर्गाकृतं स्तोत्रं कृष्णस्य परमात्मनः ।
यः पठेदर्चनाकाले स जयी सर्वतः सुखी ॥८६॥
इस प्रकार जो पूजाकाल मे दुर्गा रचित परमात्मा श्रीकृष्ण के इस स्तोत्र का पाठ करता है वह सभी स्थानों मे विजयी और सुखी होता है ॥ ८६ ॥

दुर्गा तस्य गृहं त्यक्त्वा नैव याति कदाचन ।
भवाब्धौ यशसा भाति यात्यन्ते श्रीहरेः पुरम् ॥८७॥
दुर्गा उसका गृह छोड कर कभी नहीं जाती हैं । इस संसार-सागर मे उसका यश सुशोभित रहता है और अन्त काल मे वह भगवान् श्री हरि की पुरी मे जाता है ॥ ८७ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डं सौतिशौनकसंवादे
सृष्टिनिरूपणे दुर्गास्तोत्रं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड मे सौति-शौनक-संवाद के द्वारा सृष्टि-निरूपण के प्रसंग मे दुर्गास्तोत्र नामक तीसरा अध्याय समाप्त ॥ ३ ॥

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