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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - चतुर्थोऽध्यायः सृष्टिनिरूपणम्
सावित्री, कामदेव, रति आदि के प्राकट्य का वर्णन - सौतिरुवाच आविर्बभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य रसनाग्रतः । शुद्धस्फटिकसंकाशा देवी चैका मनोहरा ॥ १॥ शुक्लवस्त्रपरीधाना सर्वालंकारभूषिता । बिभ्रती जपमालां च सावित्री सा प्रकीर्तिता ॥२॥ सौति बोले - उसके अनन्तर भगवान् श्री कृष्ण की जिह्वा के अग्र भाग से शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल वर्ण की एक मनोहारिणी देवी प्रकट हुई, जो शुक्ल वस्त्र पहने हुए, समस्त आभूषणों से विभूषित और हाथ मे जपमाला लिए हुई थी । उसे सावित्री कहा गया है ॥ १-२ ॥ सा तुष्टाव पुरः स्थित्वा परं ब्रह्म सनातनम् । पुटाञ्जलिपरा साध्वी भक्तिनम्रात्मकंधरा ॥३॥ वह पतिव्रता सामने खडी होकर हाथ जोड भक्ति से शिर झुकाकर सनातन परब्रह्म श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगी ॥ ३ ॥ सावित्र्युवाच नमामि सर्वबीजं त्वां ब्रह्मज्योतिः सनातनम् । परात्परतरं श्यामं निर्विकारं निरञ्जनम् ॥४॥ सावित्री बोली - सबके बीज (आदि कारण) उस सनातन ब्रह्म ज्योति को मैं नमस्कार करती हूं, जो पर से भी अत्यन्त परे, श्याम, निर्विकार और निरञ्जन (ब्रह्म) है ॥ ४ ॥ इत्युक्त्वा सस्मिता देवी रत्नसिंहासने वरे । उवास श्रीहरिं नत्वा पुनरेव श्रुतिप्रसूः ॥५॥ इतना कहकर मुसकराती हुई वह वेदमाता (सावित्री) भगवान् श्रीहरि को नमस्कार कर उस उत्तम रत्न-सिंहासन पर आसीन हो गई ॥ ५ ॥ आविर्बभूव तत्पश्चात्कृष्णस्य परमात्मनः । मानसाच्च पुमानेकस्तप्तकाञ्चनसंनिभः ॥६॥ मनो मथ्नाति सर्वेषां पञ्चबाणेन कामिनाम् । तन्नाम मन्मथं तेन प्रवदन्ति मनीषिणः ॥७॥ अनन्तर परमात्मा कृष्ण के मन से तपाये हुए सुवर्ण के समान एक पुरुष उत्पन्न हुआ, जो अपने पांच बाणों से समस्त कामियों के मन को मथ डालता है । इसीलिए बुद्धिमान् लोग उसे 'मन्मथ' ( कामदेव) कहते हैं ॥ ६-७ ॥ तस्य पुंसो वामपार्श्वात्कामस्य कामिनी वरा । बभूवातीवललिता सर्वेषां मोहकारिणी ॥८॥ उस कामदेव के वाम पार्श्व से एक अत्यन्त सुन्दरी एवं परमोत्तम कामिनी प्रकट हुई, जो समस्त पुरुषोंको मुग्ध करती है ॥ ८ ॥ रतिर्बभूव सर्वेषां तां दृष्ट्वा सस्मितां सतीम् । रतीति तेन तन्नाम प्रवदन्ति मनीषिणः ॥९॥ मन्द-मन्द मुसकराती हुई उस सती को देखकर सभी प्राणियों की उसमें रति हो गई । इसीलिए बुद्धिमानों ने उसका नाम 'रति' बताया हे ॥ ९ ॥ हरिं स्तुत्वा तया सार्द्धं स उवास हरेः पुरः । रत्नसिंहासने रम्ये पञ्चबाणो धनुर्धरः ॥१०॥ भगवान् के सामने उनकी स्तुति करने के उपरान्त बाण तथा (पुष्पमय) धनुष धारण करनेवाला कामदेव रत्नसिंहासन पर उस रति के साथ आसीन हुआ ॥ १० ॥ मारणं स्तम्भनं चैव जृम्भणं शोषणं तथा । उन्मादनं पञ्चबाणान्पञ्चबाणो बिभर्ति सः ॥११॥ मारण, स्तम्भन, जृम्भण, शोषण और उन्मादन, इन्हीं पांचो बाणों को वह सदैव अपनाये रहता हे ॥ ११ ॥ बाणांश्चिक्षेप सर्वांश्च कामो बाणपरीक्षया । सद्यः सर्वे सकामाश्च बभूवुरीश्वरेच्छया ॥१२॥ रतिं दृष्ट्वा ब्रह्मणश्च रेतःपातो बभूव ह । तत्र तस्थौ महायोगी वस्त्रेणाऽऽच्छाद्य लज्जया ॥१२अ॥ कामदेव नें अपने बाणों की परीक्षा करने के लिए सभी बाण चला दिये । फिर तो ईश्वर की इच्छा से उसी समय सब लोग कामुक हो गये । (यहां तक कि) रति को देखकर ब्रह्मा का वीर्यपात हो गया किन्तु महायोगी ब्रह्मा लज्जा वश उसे वस्त्र से आच्छादित कर वहीं खडे रहे ॥ १२-१३ ॥ वस्त्रं दग्ध्वा समुत्तस्थौ ज्वलवग्निः सुरेश्वरः । कोटितालप्रमाणश्च सशिखश्च समुज्ज्वलन् ॥१३॥ पश्चात् उस वस्त्र को जलाते हुए सुरेश्वर अग्निदेव बडीबडी लपटें उठाते हुए करोडों ताडों के समान विशाल रूप धारण करके प्रज्वलित होने लगे ॥ १४ ॥ कृष्णस्तद्वर्धन दृष्ट्वा ससर्जापः स्वलीलया । निःश्वासवायुना सार्धं मुखबिन्दूत्समुद्गिरन् ॥१५॥ भगवान् कृष्ण ने उस बहते हुए अग्निको देखकर अपनी लीला से जल उत्पन्न किया । अपने निःश्वास वायु के साथ मुख से जल की एक-एक बूँद गिराने लगे ॥ १५ ॥ विश्वौघं प्लावयामास मुखबिन्दुजलं द्विज । तत्रकिंचिज्जलकणं वह्निं शान्तं चकार ह ॥ १६॥ ततःप्रभृति तेनाग्निस्तोयान्निर्वाणतां व्रजेत् । आविर्भूतः पुमानेकस्ततस्तदधिदेवता ॥ १७॥ उत्तस्थौ तज्जलादेकः पुमान्स वरुणः स्मृतः । जलाधिष्ठातृदेवोऽसौ सर्वेषां यादसां पतिः ॥ १८॥ द्विज ! उसी मुखबिंदु के जल से समस्त विश्व आप्लावित (जलमग्न) हो गया । और उसी जल के कुछ कणों ने उस अग्नि को शान्त कर दिया । उसी समय से अग्नि जल से शान्त होने लगा । पश्चात् उसी जल से उसका अधिदेवता एक पुरुष रूप में प्रकट हुआ जिसे 'वरुण' कहा गया । वह जल का अधिष्ठाता देव सगस्त जल जीवों का अधिपति है ॥ १६-१८ ॥ आविर्बभूव कन्यैका तद्वह्नेऽर्वामपार्श्वतः । सा स्वाहा वह्निपत्नीं तां प्रवदन्ति मनीषिणः ॥ १९॥ अनन्तर अग्नि के वाम पार्श्व से एक कन्या प्रकट हुई, जो अग्नि की पत्नी हुई और मनीषी लोग उसे 'स्वाहा' कहते हैं ॥ १९ ॥ जलेशस्य वामपार्श्वात्कन्या चैका बभूव सा । वरुणानीति विख्याता वरुणस्य प्रिया सती ॥२०॥ जलेश्वर (वरुण) के वाम पार्श्व से भी एक कन्या उत्पन्न हुई, जो वरुण की प्रेयसी स्त्री वरुणानी कही जाती है ॥ २० ॥ बभूव पवनः श्रीमान्विभोर्निःश्वासवायुना । स च प्राणश्च सर्वेषां निःश्वासस्तत्कलोद्भवः ॥२१ ॥ पुनः उस प्रभु के निःश्वास वायु से श्रीमान् पवन देव की उत्पत्ति हुई, जो सभी के प्राण हैं । श्वास-प्रश्वास के रूप में उसी की कला प्रकट हुई है ॥ २१ ॥ तस्य वायोर्वामपार्श्वात्कन्या चैका बभूव ह । वायोः पत्नी च सा देवी वायवी परिकीर्तिता ॥२२॥ उस वायु के भी वाम पार्श्व से एक कन्या उत्पन्न हुई, जो वायु की पत्नी हुई और उस देवी को 'वायवी' कहा जाता है ॥ २२ ॥ कृष्णस्य कामबाणेन रेतः पातो बभूव हु । जले तद्रेचनं चक्रे लज्जया सुरसंसदि ॥२३॥ पश्चात् काम-बाण द्वारा भगवान् कृष्ण का वीर्यपात हुआ किन्तु उस देवसभा मे लज्जावश उन्होंने उसे जल मे डाल दिया ॥ २३ ॥ सहस्रवत्सरान्ते तड्डिम्भरूपं बभूव ह । ततो महान्विराड्जज्ञे विश्वोघाधार एव सः ॥२४॥ सहस्र वर्ष के उपरान्त वह एक अण्डे के रूप मे प्रकट हुआ । उसी से महान् विराट् उत्पन्न हुआ, जो समस्त विश्व का आधार है ॥ २४ ॥ यस्यैकलोमविवरे विश्वैकस्य व्यवस्थितिः । स्थूलात्स्थूलतरः सोऽपि महान्नान्यस्ततः परः ॥२५॥ जिसके एक लोम के विवर (छिद्र) में एक विश्व सुव्यवस्थित रहता हे । वह स्थूल से अत्यन्त स्थूल है और उससे बडा दूसरा कोई नहीं है ॥ २५ ॥ स एव षोडशांशोऽपि कृष्णस्य परमात्मनः । महाविष्णुः स विज्ञेयः सर्वाधारः सनातनः ॥२६॥ वह परमात्मा श्रीकृष्ण का सोलहवां अंश है । उसी को 'महाविष्णु' जानना चाहिए, जो सब के आधार और सनातन है ॥ २६ ॥ महार्णवे शयानः स पद्मपत्रं यथा जले । बभूवतुस्तौ द्वौ दैत्यौ तस्य कर्णमलोद्भवौ ॥२७॥ जल मे कमल के पत्ते की भांति वे महासागर मे शयन किये हुए हैं । जिनके कान के मल से दो दैत्य उत्पन्न हुए ॥ २७ ॥ तां जलाच्च समुत्थाय ब्रह्माणं हन्तुमुद्यतौ । नारायणश्च भगवाञ्जघने तौ जघान ह ॥२८॥ उन दैत्यों ने जल से उठकर ब्रह्मा की हत्या करनी चाही किन्तु नारायण भगवान् ने अपने जघन पर (उनकी इच्छा से) उनका वध किया ॥ २८ ॥ बभूव मेदिनी कृत्स्ना कार्त्स्न्येन मेदसा तयोः । तत्रैव सन्ति विश्वानि साच देवी वसुंधरा ॥२९॥ और उन्ही दोनों के मेद (चर्बी) से समस्त पृथ्वी निर्मित हुई । इसीलिये इसे 'मेदिनी' कहा जाता हे । उसी पर समस्त विश्व टिका हुआ हे । उसकी अधिष्ठात्री देवी का नाम वसुन्धरा है ॥ २९ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डं सौतिशौनकसंवादे सृष्टिनिरूपणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड मे सौतिशौनक-संवाद प्रकरण मे चौथा अध्याय समाप्त ॥ ४ ॥ |