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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - पञ्चमोऽध्यायः सृष्टिनिरूपणम्
गोलोक आदि के नित्यानित्यत्व की व्यवस्था तथा राधा से गोपांगनाओं का प्रादुर्भाव - शौनक उवाच गोगोपगोप्यो गोलोके किं नित्याः किं नु कल्पिताः । ममसंदेहभेदार्थं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १॥ शौनक बोले- गोलोक में गायें, गोप और गोपियां क्या नित्य (सदैव) रहती हैं या कल्पित हैं ? मेरे सन्देह के निवारणार्थ आप इसको बताने की कृपा करें ॥ १ ॥ सौतिरुवाच सर्वादिसृष्टौ ताः क्लृप्ताः प्रलय कृष्णसंस्थिताः । सर्वादिसृष्टिकथनं यन्मया कथितं द्विज ॥२॥ सर्वादिसृष्टौ कॢप्तौ च नारायणमहेश्वरौ । प्रलये प्रलये व्यक्तौ स्थितौ तौ प्रकृतिश्च सा ॥३॥ सौति बोले- द्विज ! सब की आदि सृष्टि में, जिसका वर्णन मैं कर चुका हूँ, वे गायें, गोप तथा गोपियाँ प्रकट रूप से रहती हैं और प्रलयकाल में वे कृष्ण में अवस्थित हो जाती हैं । सबकी आदि सृष्टि में नारायण और महेश्वर प्रकट रूप से रहते हैं । प्रलयकाल में भी ये दोनों तथा प्रकृति व्यक्त रूप से रहती हैं ॥ २-३ ॥ सर्वादौ ब्रह्मकल्पस्य चरितं कथितं द्विज । वाराहपाद्मकल्पौ द्वौ कथयिष्यामि श्रोष्यसि ॥४॥ हे द्विज ! (इस पुराण में) मैंने सब से पहले ब्रह्मकल्प के चरित्र का वर्णन किया है । अब वाराह कल्प और पाद्मकल्प इन दोनों का वर्णन करूँगा, सुनिए ॥ ४ ॥ ब्रह्मवाराहपाद्माश्च कल्पाश्च त्रिविधा मुने । यथा युगानि चत्वारि क्रमेण कथितानि च ॥५॥ सत्यं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुर्युगम् । त्रिशतैश्च षष्ट्यधिकैर्युगैर्दिव्यं युगं स्मृतम् ॥६॥ हे मुने ! ब्राह्म, वाराह, पाद्म के भेद से कल्प तीन प्रकार के होते हैं । जैसे सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि-ये चारों युग क्रम से कहे गए हैं, वैसे ही वे कल्प भी हैं । तीन सौ साठ युगों का एक 'दिव्य युग' होता है ॥ ५-६ ॥ मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः । चतुर्दशेषु मनुषु गतेषु ब्रह्मणो दिनम् ॥७॥ एकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है और चौदह मनुओं के व्यतीत हो जाने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है ॥ ७ ॥ त्रिशतैश्च षष्ट्यधिकैदिनैर्वर्षं च ब्रह्मणः । अष्टोत्तरं वर्षशतं विधेरायुनिरूपितम् ॥८॥ एतन्निमेषकालस्तु कृष्णस्य परमात्मनः । ब्रह्मणश्चाऽऽयुषा कल्पः कालविद्भिनिरूपितः ॥९॥ ऐसे तीन सौ साठ दिनों के बीतने पर ब्रह्मा का एक वर्ष पूरा होता है । इस तरह के एक सौ आठ वर्षों की ब्रह्मा की आयु बतायी गयी है । परमात्मा कृष्ण का यही निमेष-काल कहा गया है । कालवेत्ताओं ने ब्रह्मा की आयु के बराबर 'कल्प' का मान निश्चित किया है ॥ ८-९ ॥ क्षुद्रकल्पा बहुतरास्ते संवर्तादयः स्मृताः । सप्तकल्पान्तजीवी च मार्कण्डेयश्च तन्मतः ॥ १०॥ संवर्त आदि छोटे-छोटे कल्प तो अनेक हैं । मार्कण्डेय जी सात कल्पों तक जीनेवाले बताये गए हैं ॥ १० ॥ ब्रह्मणश्च दिनेनैव स कल्पः परिकीर्तितः । विधेश्च सप्तदिवसैर्मुनेरायुर्निरूपितम् ॥ ११॥ किन्तु वह कल्प ब्रह्मा के एक दिन के बराबर ही बताया गया है । अतः ब्रह्मा के सात दिनों में मुनि (मार्कण्डेय) की आयु पूरी हो जाती है ॥ ११ ॥ ब्रह्मवाराहपाद्माश्च त्रयः कल्पा निरूपिताः । कल्पत्रये यथा सृष्टिः कथयामि निशामय ॥ १२॥ ब्राह्म, वाराह और पाद्म यही तीन कल्प हैं और इन तीनों कल्पों में जिस प्रकार सृष्टि होती है, वह बताता हूँ, सुनो ! ॥ १२ ॥ ब्राह्मे च मेदिनीं सृष्ट्वा स्रष्टा सृष्टिं चकार सः । मधुकैटभयोश्चैव मेदसा चाऽऽज्ञया प्रभोः ॥ १३॥ ब्राह्म कल्प में मधु और कैटभ नामक दैत्यों के मेद (चर्बी) से पृथिवी का निर्माण करके स्रष्टा ने प्रभु श्रीकृष्ण की आज्ञा से सृष्टि-रचना की ॥ १३ ॥ वाराहे तां समुद्धृत्य लुप्ता मग्नां रसातलात् । विष्णोर्वराहरूपस्य द्वारा चातिप्रयत्नतः ॥ १४॥ वाराह कल्प में जलमग्न एवं लुप्त हुई पृथिवी को वाराह रूपधारी भगवान् विष्णु के द्वारा अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक रसातल से उसका उद्धार करवाया और सृष्टि-रचना की ॥ १४ ॥ पाद्मे विष्णोर्नाभिपद्मे स्रष्टा सृष्टिं विनिर्ममे । त्रिलोकीं ब्रह्मलोकान्तां नित्यलोकत्रयं विना ॥ १५॥ पश्चात् पाद्म कल्प में भगवान् विष्णु की नाभि-कमल पर स्रष्टा ने सृष्टि का निर्माण किया । ब्रह्मलोकपर्यन्त जो त्रिलोकी है, उसी की रचना की, ऊपर के जो नित्य तीन लोक हैं, उनकी नहीं ॥ १५ ॥ एतत्तु कालसंख्यानमुक्तं सृष्टिनिरूपणे । किंचिन्निरूपणं सृष्टेः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १६॥ सृष्टि-निरूपण के प्रसंग में मैंने यह कालगणना बतायी है और अंशत: सृष्टि का निरूपण किया है । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥ १६ ॥ शौनक उवाच अतः परं किं चकार भगवान्सात्वतां पतिः । एतान्सृष्ट्वा किं चकार तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ १७॥ शौनक बोले- इसके उपरान्त भगवान् श्रीकृष्ण ने क्या किया- किसकी सृष्टि की- बताने की कृपा करें ॥ १७ ॥ सौतिरुवाच अतः परं तु गोलोके गोलोकेशो महान्प्रभुः । एतान्सृष्ट्वा जगामासौ रम्यं वै रासमण्डलम् । एतैः समेतैर्भगवानतीव कमनीयकम् ॥ १८॥ रम्याणां कल्पवृक्षाणां मध्येऽतीवमनोहरम् । सुविस्तीर्णं च सुसमं सुस्निग्धं मण्डलाकृति ॥ १९॥ सौति बोले-इसके उपरान्त गोलोकेश भगवान् श्रीकृष्ण गोलोक में इन सब की सृष्टि करके अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर रासमण्डल में गए । वह रमणीय कल्पवृक्षों के मध्य मण्डलाकार रासमण्डल अत्यन्त मनोहर दिखायी देता था ॥ १८-१९ ॥ चन्दनागुरुकस्तूरीकुङ्कुमैश्च सुसंस्कृतम् । दधिलाजसक्तुधान्यदूर्वापर्णपरिप्लुतम् ॥२०॥ पट्टसूत्रग्रन्थियुक्तं नवचन्दनपल्लवैः । संयुक्तरम्भास्तम्भानां समूहैः परिवेष्टितम् ॥२१॥ सद्रत्नसारनिर्माणमण्डपानां त्रिकोटिभिः । रत्नप्रदीपज्वलितैः पुष्पभूपाधियासितैः ॥२२॥ चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुंकुम से उसको सजाया गया था । उस पर दधि, लावा, सत्तू, धान्य और दूर्वादल बिखेरे गये थे । रेशमी सूत में गुंथे हुए नूतन चन्दन-पल्लवों की बन्दनवारों और केले के स्तम्भों से वह घिरा हुआ था । उत्तम रत्नों के सार भाग से सुरचित तीन करोड़ मंडप उस भूमि की शोभा बढ़ा रहे थे । उनके भीतर रत्नमय प्रदीप जल रहे थे । वे पुष्प और धूप से वासित थे ॥ २०-२२ ॥ शृङ्गारार्हभोगवस्तुसमूहपरिवेष्टितम् । अतीवललिताकल्पतल्पयुक्तैः सुशोभितम् ॥२३॥ उनके भीतर अत्यन्त ललित प्रसाधन-सामग्री रखी हुई थी ॥ २३ ॥ तत्र गत्वा च तैः सार्धं समुवास जगत्पतिः । दृष्ट्वा रासं विस्मितास्ते बभूवुर्मुनिसत्तम ॥२४॥ उन सब को साथ लिए भगवान् जगतीपति कृष्णचन्द्र वहाँ जाकर ठहरे । मुनिश्रेष्ठ ! उस रास को देखकर वे सब अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे ॥ २४ ॥ आविर्बभूव कन्यैका कृष्णस्य वामपार्श्वतः । धावित्वा पुष्पमानीय ददावर्घ्यं प्रभो पदे ॥२५ ॥ उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण के वाम पार्श्व से एक कन्या उत्पन्न हुई । वह दौड़ कर तुरन्त पुष्प ले आई और प्रभु कृष्ण को पग-पग पर अर्घ्य प्रदान करने लगी ॥ २५ ॥ रासे संभूय गोलोके सा दधाव हरे पुरः । तेन राधा समाख्याता पुराविद्भिर्द्विजोत्तम ॥२६॥ द्विजोत्तम ! रास में उत्पन्न होकर गोलोक में भगवान् के सामने दौड़ने के कारण विद्वानों ने उसे 'राधा' कहा है । ॥ २६ ॥ प्राणाधिष्ठातृदेवी सा कृष्णस्य परमात्मनः । आविर्बभूव प्राणेभ्यः प्राणेभ्योऽपि गरीयसी ॥२७॥ वह परमात्मा कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठात्री देवी उनके प्राणों से प्रकट होने के कारण उन्हें प्राणों से भी अधिक प्रिय हुई ॥ २७ ॥ देवी षोडशवर्षीया नवयौवनसंयुता । वह्निशुद्धांशुकाधाना सस्मिता सुमनोहरा ॥२८॥ वह देवी सोलह वर्ष की अवस्था एवं नवीन यौवन से सम्पन्न थी । अग्नि में तपाये हुए सुवर्ण की भांति वस्त्रों को पहने हुए वह अत्यन्त रूपवती देवी मुसकरा रही थी ॥ २८ ॥ सुकोमलाङ्गी ललिता सुन्दरीषु च सुन्दरी । बृहन्नितम्बभारार्ता पीनश्रोणिपयोधरा ॥ २९ ॥ बन्धुजीवजितारक्तसुन्दरोष्ठाधरानना । मुक्तापङ्क्तिजिताचारुदन्तपङ्क्तिर्मनोहरा ॥ ३० ॥ शरत्पार्वणकोटीन्दुशोभामृष्टशुभानना । चारुसीमन्तिनी चारुशरत्पङ्कचलोचना ॥ ३१ ॥ खगेन्द्रचञ्चुविजितचारुनासामनोहरा । स्वर्णगण्डूकविजिते गण्डयुग्मे च बिभ्रती ॥ ३२ ॥ दधती चारुकर्णे च रत्नाभरणभूषिते । चन्दनागरुकस्तूरीयुक्तकुङ्कुमबिन्दुभिः ॥ ३३ ॥ सिन्दूरबिन्दुसंयुक्तसुकपोला मनोहरा । सु संस्कृतं केशपाशं मालतीमाल्यभूषितम् ॥ ३४ ॥ सुगन्धकबरीभारं सुन्दरं दधती सती । स्थलपद्मप्रभामुष्टं पादयुग्मं च बिभ्प्नती ॥ ३५ ॥ गमनं कुर्वती सा च हंसखञ्जनगञ्जनम् । सद्रत्नसारनिर्माणां वनमालां मनोहराम् ॥ ३६ ॥ हारं हरिकनिर्माणं रत्नयूरक ङ्कणम् । सद्रत्नसारनिर्माणं पाशकं सुमनोहरम् ॥ ३७ ॥ अमूत्यरत्ननिर्माणं क्वणन्मञ्जीररञ्जितम् । नानाप्रकारचित्राढ्यं सुन्दर परिबिभ्रती ॥ ३८ ॥ सा च संभाष्य गोविन्दं रत्नसिंहासने वरे । उवास सस्मिता भर्तुः पश्यन्ती मुखपङ्कजम् ॥ ३९ ॥ उसके अंग अत्यन्त कोमल थे । वह सुन्दरियों में भी सुन्दरी थी । वह विशाल नितम्ब के भार से थकी और स्थूल श्रोणी तथा स्तनों से शोभित थी । उसके बन्धूक (दुपहरिये) के पुष्प की भाँति रक्ताभ और सुन्दर ओष्ठ थे, मोतियों की पंक्ति के समान अत्यन्त मनोहर दाँतों की पंक्ति थी और शरत्कालीन कोटि चन्द्रों की शोभा को तिरस्कृत करने वाला मुख था । सीमन्त भाग बड़ा मनोहर था । शारदीय सुन्दर कमल की भाँति नेत्र दिखाई देते थे । उसकी मनोहर नासिका के सामने पक्षिराज गरुड़ की चोंच हार मान चुकी थी । वह बाला अपने दोनों कपोलों द्वारा सुनहरे दर्पण की शोभा को तिरस्कृत कर रही थी । रत्नों के आभूषणों से विभूषित दोनों कान बड़े सुन्दर लगते थे । सुन्दर कपोलों पर चन्दन, अगुरु, कस्तूरी, कुंकुम और सिन्दूर की बूंदों से पत्र-रचना की गई थी, जिससे वह बड़ी सुन्दरी जान पड़ती थी । उसके सँवारे हुए केशपाश मालती की सुन्दर माला से अलंकृत थे । वह सती-साध्वी बाला अपने सिर पर सुन्दर एवं सुगन्धित वेणी धारण किये हुई थी । उसके दोनों चरण स्थल-कमलों की प्रभा को चुरा रहे थे । उसकी चाल हंस तथा खंजन के गर्व को चूर करने वाली थी । वह उत्तम रत्नों के सारभाग से बनी हुई मनोहर वनमाला, हीरे का बना हुआ हार, रत्न-निर्मित केयूर, कंगन, सुन्दर रत्नों के सारभाग से निर्मित अत्यन्त मनोहर पाशक (गले की जंजीर या कान का पासा), बहुमूल्य रत्नों का बना झनकारता हुआ मंजीर तथा अन्य नाना प्रकार के चित्रांकित सुन्दर जड़ाऊ आभूषण धारण किये हुई थी । वह श्रीकृष्ण से वार्तालाप करके उनकी आज्ञा पा मुसकराती हुई तथा स्वामी के मुखारविन्द को देखती हुई श्रेष्ठ रत्नमय सिंहासन पर बैठ गई ॥ २९-३९ ॥ तस्याश्च लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपाङ्गनागणः । आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः ॥ ४० ॥ उसी समय उसके लोम-कूपों से गोपांगनाओं का आविर्भाव हुआ, जो रूप और वेश में उसी के समान थीं ॥ ४० ॥ लक्षकोटीपरिमितः शश्वत्सुस्थिरयौवनः । संख्याविद्भिश्च संख्यातो गोलोके गोपिकागणः ॥ ४१ ॥ एक लाख करोड़ उनकी संख्या थी और वे नित्य सुस्थिरयौवना थी । विद्वानों ने गोलोक में गोपियों की उक्त संख्या ही बतायी हैं ॥ ४१ ॥ कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यो गोपगणो मुने । आविर्बभूव रूपेण वेषेणैव च तत्समः ॥४२॥ मुने ! उसी प्रकार भगवान् कृष्ण के लोम विवर से भी तुरन्त गोपगण प्रकट हुए, जो रूप और वेश में उन्हीं के समान थे ॥ ४२ ॥ त्रिंशत्कोटिपरिमितः कमनीयो मनोहरः । संख्याविद्भिश्च संख्यातो बल्लवानां गणः श्रुतौ ॥४३॥ विद्वानों का कहना है कि श्रुति में गोलोक के कमनीय एवं मनोहर रूप वाले गोपों की संख्या तीस करोड़ बतायी गई है ॥ ४३ ॥ कृष्णस्य लोमकूपेभ्यः सद्यश्चाऽऽविर्बभूव ह । नानावर्णो गोगणश्च शश्वत्सुस्थिरयौवनः ॥४४॥ उसी प्रकार तत्काल हो भगवान् कृष्ण के लोम-कूप से नित्य सुस्थिर यौवन वाली अनेक वर्ण की गौएँ प्रकट हुई । ॥ ४४ ॥ बलीवर्दाः सुरभ्यश्च वत्सा नानाविधाः शुभाः । अतीवललिताः श्यामा बह्व्योवै कामधेनवः ॥४५॥ उनमें बलीवर्द (साँड), सुरभी जाति की गौएँ और अनेक भाँति के सुन्दर बछड़े थे तथा अत्यन्त ललित अनेकों श्यामा कामधेनु गौएँ थीं ॥ ४५ ॥ तेषामेकं बलीवर्दं कोटिसिंहसमं बले । शिवाय प्रददौ कृष्णो वाहनाय मनोहरम् ॥४६॥ भगवान् कृष्ण ने उन्हीं में से एक मनोहर बैल को, जो करोड़ों सिंह के समान बलवान् था, शंकर को सवारी के लिए दे दिया ॥ ४६ ॥ कृष्णाङ्घ्रिनखरन्ध्रेभ्यो हंसपङ्क्तिर्मनोहरा । आविर्बभूव सहसा स्त्रीपुंवत्ससमन्विता ॥४७॥ तेषामेकं राजहंसं महाबलपराक्रमम् । वाहनाय ददौ कृष्णो ब्रह्मणे च तपस्विने ॥४८॥ पुनः भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-नख के छिद्रों से सहसा सुन्दर हंसों की पंक्ति उत्पन्न हुई, जिसमें स्त्री-पुरुष (नर-मादा) सभी थे । उनमें से एक महापराक्रमी राजहंस को भगवान् कृष्ण ने तपस्वी ब्रह्मा को वाहनार्थ प्रदान किया ॥ ४७-४८ ॥ वामकर्णस्य विवरात्कृष्णस्य परमात्मनः । गणः श्वेततुरङ्गाणामाविर्भूतो मनोहरः ॥४९॥ परमात्मा कृष्ण के बायें कर्ण विवर से श्वेत वर्ण के अश्वों का समूह उत्पन्न हुआ ॥ ४९ ॥ तेषासेकं- च श्वेताश्वं धर्मार्थं वाहनाय च । ददौ गोपाङ्गनेशश्च संप्रीत्या सुरसंसदि ॥५०॥ गोपांगनाओं के अधिपति भगवान् कृष्ण ने उस सभा के भीतर बड़ी प्रसन्नता से एक श्वेत अश्व देवसभा में विराजमान धर्म को वाहन के लिए प्रदान किया ॥ ५० ॥ दक्षकरास्य विवरात्पुंसश्च सुरसंसदि । आविर्भूता सिंहपङ्क्तिर्महाबलपराक्रमा ॥५१॥ पुनः उस पुरुष के दाहिने कर्ण-विवर से उस सुर-सभा के भीतर ही महाबली और पराक्रमी सिंहों की श्रेणी उत्पन्न हुई । ॥ ५१ ॥ तेषामेकं ददौ कृष्णः प्रकृत्यै परमादरम् । अमूल्यरत्नमाल्यं च वरं यदभिवाञ्छितम् ॥५२॥ उनमें से एक को कृष्ण ने प्रसन्नता वश प्रकृति (दुर्गा) को सौंप दिया और अमूल्य रत्नों की माला एवं इच्छित वरदान भी दिया ॥ ५२ ॥ कृष्णो योगेन योगीन्द्रश्चकार रथपञ्चकम् । शुद्धरत्नेन्द्रनिर्माणं, मनोयायि मनोहरम् ॥५३॥ अनन्तर योगीन्द्र कृष्ण ने योगबल से पांच रथ उत्पन्न किए, जो शुद्ध रत्नों के बने, मनोहर और मन के समान चलने वाले थे ॥ ५३ ॥ लक्षयोजनमूर्ध्वे च प्रस्थे च शतयोजनम् । लक्षचक्रं वायुरहं लक्षक्रीडागृहान्वितम् ॥५४॥ शृङगारार्हं भोगवस्तुतल्पासंख्यसमन्वितम् । रत्नप्रदीपलक्षाणां राजिभिश्च विराजितम् ॥५५॥ उनकी ऊँचाई एक लाख योजन की थी और विस्तार सौ योजन का था । उनमें एक लाख चक्के थे जो वायु के समान चलने वाले थे और उनमें एक-एक लाख क्रीड़ा-गृह, श्रृंगारोचित भोग-वस्तुएँ और असंख्य शय्यायें थीं । लाखों रत्नमय प्रदीपों और अश्वों से वे (रथ) सुसज्जित थे ॥ ५४-५५ ॥ नानाचित्रविचित्राढ्यं सद्रत्नकलशोज्ज्वलम् । रत्नदर्पणभूषाढ्यं शोभितं श्वेतचामरैः ॥५६॥ अनेक भाँति के विचित्र चित्र उनमें अंकित थे । वे उत्तम रत्नों के कलशों से उज्ज्वल तथा रत्न के दर्पणों एवं आभूषणों और श्वेत चामरों से सुशोभित थे ॥ ५६ ॥ वह्निशुद्धांशुकैश्चित्रैर्मुक्ताजालैर्विभूषितम् । मणीन्द्रमुक्तामाणिक्यहीरहारविराजितम् ॥५७॥ अग्नि में तपाये गये (सुवर्ण) की भाँति वस्त्रों, चित्र-विचित्र मुक्तामालाओं तथा मणियों, मोतियों और हीरों के हारों से विभूषित थे ॥ ५७ ॥ आरक्तवर्णरत्नेन्द्रसारनिर्माणकृत्रिमैः । पङ्कजानामसंख्यैश्च सुन्दरैश्च सुशोभितम् ॥५८॥ रक्तवर्ण के उत्तम रत्नों के तत्त्वों से सुरचित, असंख्य एवं सुन्दर कमलों से वे अलंकृत थे ॥ ५८ ॥ ददौ नारायणायैकं तेषां मध्ये द्विजोत्तम । एकं दत्त्वा राधिकायै ररक्ष शेषमात्मने ॥५९॥ द्विजोत्तम ! भगवान् कृष्ण ने उनमें से एक नारायण को और एक श्रीराधा जी को देकर शेष अपने लिए सुरक्षित रख लिए ॥ ५९ ॥ आविर्बभूव कृष्णस्य गुह्यदेशात्ततः परम् । पिङ्गलश्च पुमानेकः पिङ्गलैश्च गणैः सह ॥६०॥ अनन्तर भगवान् कृष्ण के गुह्य स्थान से एक पिंगल वर्ण का पुरुष पिंगलगणों के साथ उत्पन्न हुआ ॥ ६०॥ श्राविर्भूता यतो गुह्यात्तेन ते गुह्यकाः स्मृताः । यः पुमान्स कुबेरश्च धनेशो गुह्यकेश्वरः ॥६१॥ गुप्त स्थान से प्रकट होने के कारण वे सब 'गुह्यक' कहलाये । उनमें वह पुरुष धन का ईश और गुह्यकों का अधिपति हुआ ॥ ६१ ॥ बभूव कन्यका चैका कुबेरवामपार्श्वतः । कुबेरपत्नी सा देवी सुन्दरीणां मनोरमा ॥६२॥ कुबेर के वाम पार्श्व से एक कन्या उत्पन्न हुई । वह अत्यन्त सुन्दरी देवी कुबेर की पत्नी हुई ॥ ६२ ॥ भूतप्रेतपिशाचाश्च कूष्माण्डब्रह्मराक्षसाः । वेताला विकृतास्तस्याऽऽविर्भूता गुह्यदेशतः ॥६३॥ भूत, प्रेत, पिशाच, कुष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस और वेताल भी उन्हीं के गुह्य स्थान से प्रकट हुए ॥ ६३ ॥ शह्नःचक्रगदापद्मधारिणो वनमालिनः । पीतवस्त्रपरीधानाः सर्वे श्यामचतुर्भुजाः ॥६४॥ मुने ! तदनन्तर श्रीकृष्ण के मुख से कुछ पार्षदों का प्राकट्य हुआ । वे सब शंख, चक्र, गदा, पद्म, वनमाला और पीताम्बर धारण किए हुए श्यामवर्ण और चतुर्भुज थे ॥ ६४ ॥ किरीटिनः कुण्डलिनो रत्नभूषणभूषिताः । आविर्भूताः पार्षदाश्च कृष्णस्य मुखतो मुने ॥ ६५॥ किरीट, कुण्डल और रत्नों के आभूषण उनकी शोभा बढ़ा रहे थे ॥ ६५ ॥ चतुर्भुजान्पार्षदांश्च ददौ नारायणाय च । गुह्यकान्मुह्यकेशाय भूतादीञ्छंकराय च ॥६६॥ भगवान् ने चार भुजाधारी पार्षद नारायण को दे दिए । उसी प्रकार गुह्य कुबेर को और भूत, प्रेत आदि शंकर को समर्पित किए ॥ ६६ ॥ द्विभुजाः श्यामवर्णाश्च जपमालाकरा वराः । ध्यायन्तश्चरणाम्भोजं कृष्णस्य सततं मुदा ॥६७॥ दास्ये नियुक्ता दासाश्चैवार्घ्यमादाय यत्नतः । आविर्भूता वैष्णवाश्च सर्वे कृष्णपरायणाः ॥६८॥ पुलकाङ्कितसर्वाङ्गाः साश्रुनेत्राः सगद्गदा । आविर्भूताः पादपद्मात्पादपद्मैकमानसाः ॥६९॥ तदुपरान्त श्रीकृष्ण के चरणारविन्द से द्विभुज पार्षद प्रकट हुए, जो श्याम वर्ण के थे और हाथों में जपमाला लिये हुए थे । वे श्रेष्ठ पार्षद निरन्तर आनन्दपूर्वक भगवान् के चरणकमलों का ही चिन्तन करते थे । श्रीकृष्ण ने उन्हें दास्यकर्म में नियुक्त किया । वे दास यत्नपूर्वक अर्घ्य लिए प्रकट हुए थे । वे सभी श्रीकृष्णपरायण वैष्णव थे । उनके सारे अंग पुलकित थे, नेत्रों से आँसू झर रहे थे और वाणी गदगद थी । उनका चित्त केवल भगवच्चरणारविन्दों के चिन्तन में ही संलग्न था ॥ ६७-६९ ॥ आविर्बभूवुः कृष्णस्य दक्षनेत्राद्भयङ्कराः । त्रिशूलपट्टिशधरास्त्रिनेत्राश्चन्द्रशेखराः ॥७०॥ दिगम्बरा महाकाया ज्वलदग्निशिखोपमाः । ते भैरवा महाभागाः शिवतुल्याश्च तेजसा ॥७१॥ भगवान् कृष्ण के दाहिने नेत्र से ऐसे भीषण लोगों की उत्पत्ति हुई, जो हाथों में त्रिशुल और पट्टिश लिए हुए थे । उन सब के तीन नेत्र थे और वे सिर पर चन्द्राकार मुकुट धारण किये हुए थे । वे सब के सब महाकाय, दिगम्बर और प्रज्वलित अग्नि के समान (तेजस्वी) थे । वे महाभाग भैरव कहलाये । वे तेज में शिव के समान ही थे ॥ ७०-७१ ॥ रुरुसंहारकालाख्या असितक्रोधभीषणाः । महाभैरवखट्वाङ्गावित्यष्टौ भैरवाः स्मृताः ॥७२॥ रुद्र, संहार, काल, असित, क्रोध, भीषण, महाभैरव और खट्वांग, ये आठ भैरव बताये गए हैं ॥ ७२ ॥ आविर्बभूव कृष्णस्य वामनेत्राद्भयंकरः । त्रिशूलपट्टिशव्याघ्रचर्माम्बरगदाधरः ॥७३॥ दिगम्बरो महाकायस्त्रिनेत्रश्चन्द्रशेखरः । स ईशानो महाभागो दिक्यालानामधीश्वरः ॥७४॥ भगवान् कृष्ण के बायें नेत्र से एक भयंकर पुरुष की उत्पत्ति हुई, जो त्रिशूल, पटिट्श, बाघम्बर और गदा धारण किए हुए था । वह दिगम्बर, महाकाय, त्रिनेत्र और चन्द्राकार मुकुट धारण करने वाला था । उस महाभाग को ईशान कहा गया है । वहीं दिक्पालों का अधिनायक भी है ॥ ७३-७४ ॥ डाकिन्यश्चैव योगिन्यः क्षेत्रपालाः सहस्रशः । आविर्बभूवुः कृष्णस्य नासिकाविवरोदरात् ॥७५॥ भगवान् कृष्ण के नासिका छिद्र से डाकिनियाँ, योगिनियाँ और सहस्रों क्षेत्रपाल प्रकट हुए ॥ ७५ ॥ सुरास्त्रिकोटिसंख्याता दिव्यमूर्तिधरा वराः । आविर्बभूवुः सहसा पुंसो वै पृष्ठदेशतः ॥७६॥ उसी भाँति उनके पृष्ठदेश से तीन करोड़ की संख्या में देवगण उत्पन्न हुए, जो दिव्य मूर्ति एवं श्रेष्ठ थे ॥ ७६ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डं सृष्टिनिरूपणं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥ श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में सृष्टि-निरूपण नामक पाँचवाँ अध्याय समाप्त ॥ ५ ॥ |