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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - षष्ठोऽध्यायः सृष्टिनिरूपणम्
श्रीकृष्ण द्वारा नारायण आदि को लक्ष्मी आदि का पत्नीरूप में दान- - सौतिरुवाच अथ कृष्णो महालक्ष्मीं सादरं च सरस्वतीम् । नारायणाय प्रददौ रत्नेन्द्रं मालया सह ॥ १॥ सावित्रीं ब्रह्मणे प्रादान्मूर्तिं धर्माय सादरम् । रतिं कामाय रूपाढ्यां कुबेराय मनोरमाम् ॥२॥ अन्याश्च या या अन्येभ्यो याश्च येभ्यः समुद्भवाः । तस्मै तस्मै ददौ कृष्णस्तां तां रूपवतीं सतीम् ॥३॥ ततः शंकरमाहूय सर्वेशो योगिनां गुरुम् । उवाच प्रियमित्येवं गृहणीयाः सिंहवाहिनीम् ॥४॥ सौति बोल-पश्चात भगवान कृष्ण ने नारायण को सादर महालक्ष्मी सरस्वती एवं परमोत्तमरत्नों की माला भी सौंप दी । उसी भाँति ब्रह्मा को सावित्री, धर्म को मूर्ति, काम को रति, कुबेर को रूपवती मनोरमा सादर समर्पित की । और इसी प्रकार भगवान् कृष्ण ने अन्य स्त्रियों को भी पतियों के हाथ में दिया । जो जिससे उत्पन्न हुई थी, उस रूपवती सती को उसी पति को सौंप दिया । अनन्तर सर्वाधीश्वर कृष्ण ने योगियों के गुरु शंकर जी को बुला कर अत्यन्त प्रेम से कहा-'आप इस सिंहवाहिनी को ग्रहण कीजिए' ॥ १-४ ॥ श्रीकृष्णस्य वचः श्रुत्वा प्रहसन्नीललोहितः । उवाच भीतः प्रणतः प्राणेशं प्रभुमच्युतम् ॥५॥ भगवान् श्रीकृष्ण की बात सुनकर नीललोहित शिव हँसे और डरते हुए विनीत भाव से उन प्राणेश, प्रभ, अच्युत भगवान् से बोले ॥ ५ ॥ श्रीमहेश्वर उवाच अधुनाऽहं च गृह्णामि प्रकृतिं प्राकृतो यथा । त्वद्भक्त्यैकव्यवहितां दास्यमार्गविरोधिनीम् ॥६॥ तत्त्वज्ञानसमाच्छन्नां योगद्वारकपाटिकाम् । मुक्तीच्छाध्वंसरूपां च सकामां कामवर्धिनीम् ॥७॥ श्री महेश्वर ने कहा- साधारण पुरुष की भांति मैं भी इस समय इस प्रकृति का ग्रहण करने में असमर्थ हूँ । क्योंकि यह आपकी भक्ति को दूर करने वाली, सेवा मार्ग की विरोधिनी, तत्त्वज्ञान को आच्छन्न करने वाली, योगरूपी द्वार का किवाड़, मुक्ति की इच्छा का ध्वंस करने वाली, कामुकी तथा काम (भोग) को बढ़ाने वाली है ॥ ६-७ ॥ तपस्याच्छन्नरूपां च महामोहकरण्डिकाम् । भवकारागृहे घोरे दृढां निगडरूपिणीम् ॥८॥ शश्वद्विबुद्धिजननीं सद्बुद्धिच्छेदकारिणीम् । शश्वद्विभोगसारां च विषयेच्छाविवर्द्धिनीम् ॥९॥ यह तपस्या का लोप करने वाली, महामोह की टोकी, संसार रूपी भयंकर कारागार की सुदृढ़ बेड़ी, निरन्तर दुर्बुद्धि की जननी, सद्बुद्धि का नाश करने वाली, निरन्तर भोगतत्त्व से हीन और विषयेच्छा को बढ़ाने वाली है ॥ ८-९ ॥ नेच्छामि गृहिणीं नाथ वरं देहि मदीप्सितम् । यस्य यद्वाञ्छितं तस्मै तद्ददाति तदीश्वरः ॥ १०॥ नाथ ! इसलिए मुझे गृहिणी की इच्छा नहीं है । मैं कुछ मनइच्छित वरदान चाहता हूँ उसे देने की कृपा करें । क्योंकि जिसकी जो वस्तु अभिलषित होती है, ईश्वर उसे वही प्रदान करता है ॥ १० ॥ त्वद्भक्तिविषये दास्ये लालसा वर्धतेऽनिशम् । तृप्तिर्न जायते नामजपने पादसेवने ॥ ११॥ आपकी भक्ति के विषय में मेरी लालसा दिनरात बढ़ती रहती है, एवं आपके चरण की सेवा और नाम जपने से मुझे कभी तृप्ति नहीं होती है ॥ ११ ॥ त्वन्नाम पञ्चवक्त्रेण गुणं सन्मङ्गलालयम् । स्वप्ने जागरणे शश्वद्गायन्गायन्भ्रमाम्यहम् ॥ १२॥ शयन करते और जागते -हर समय मैं अपने पाँचों मुखों से सन्मंगलों के धाम आपके नाम-गुण का गान गाते हुए चारों ओर घूमता रहता हूँ ॥ १२ ॥ आकल्पकोटि कोटिं च त्वद्रूपध्यानतत्परम् । भोगेच्छाविषये नैव योगे तपसि मन्मनः ॥ १३॥ कोटि-कोटि कल्पों तक मैं आपके रूप के ध्यान में तल्लीन रहता हूँ, इसलिए मुझे विषय-भोग की इच्छा नहीं है । योग और तप में मेरा मन लगा रहता है ॥ १३ ॥ त्वत्सेवने पूजने च वन्दने नामकीर्तने । सदोल्लसितमेषा च विरतौ विरतिं लभेत् ॥१४॥ आपकी सेवा, पूजा, वन्दना और नाम-कीर्तन में मेरा मन सदैव उल्लसित रहता है । इनसे विरत होने पर यह उद्विग्न हो उठता है ॥ १४ ॥ स्मरणं कीर्तनं नामगुणयोः श्रवणं जपः । त्वच्चारुरूपध्यानं त्वत्पादसेवाभिवन्दनम् ॥ १५॥ समर्पणं चाऽऽत्मनश्च नित्यं नैवेद्यभोजनम् । वरं वरेश देहीदं नवधाभक्तिलक्षणम् ॥ १६॥ वरों के ईश्वर ! आपके नाम और गुण का स्मरण करना, कीर्तन, श्रवण, जप, आपके सुन्दर रूप का ध्यान, आपके चरणों की सेवा, वन्दना, आत्म-समर्पण, नित्य नैवेद्य का भोजन ---यही नव प्रकार की भक्ति मुझे प्रदान करने की कृपा करें ॥ १५-१६ ॥ सार्ष्टिसालोक्यसारूप्यसामीप्यं साम्यलीनताम् । वदन्ति षड्विधां मुक्तिं मुक्ता मुक्तिविदो विभो ॥ १७॥ विभो ! मोक्ष और अमोक्ष के वेत्ताओं ने सार्ष्टि (ईश्वर के समान सृष्टि करने को शक्ति). सालोक्य (ईश्वर के समान लोक में रहना), सामीप्य (ईश्वर के समीप रहना), सारूप्य (ईश्वर के समान स्वरूप प्राप्त करना) साम्य (आपकी समता की प्राप्ति) और लीन होना -यही छह प्रकार की मुक्ति बतायी है । ॥ १७ ॥ अणिमा लघिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा । ईशित्वं च वशित्वं च सर्वकामावसायिता ॥ १८॥ सार्वज्ञं दूरश्रवणं परकायप्रवेशनम् । वाक्सिद्धिः कल्पवृक्षत्वं स्रष्टुं संहर्तुमीशता ॥ १९॥ अमरत्वं च सर्वाग्र्यं सिद्धयोऽष्टादश स्मृताः । योगास्तपांसि सर्वाणि दानानि च व्रतानि च ॥२०॥ यशः कीर्तिर्वचः सत्यं धर्माण्यनशनानि च । भ्रमणं सर्वतीर्थेषु स्नानमन्यसुरार्चनम् ॥२१ ॥ सुरार्चादर्शनं सप्तद्वीपसप्तप्रदक्षिणम् । स्नानं सर्वसमुद्रेषु सर्वस्वर्गप्रदर्शनम् ॥२२॥ ब्रह्मत्वं चैव रुद्रत्वं विष्णुत्वं च परं पदम् । अतोऽनिर्वचनोयानि वाञ्छनीयानि सन्ति ता ॥२३॥ सर्वाण्येतानि सर्वेश कथितानि च यानि च । तव भक्तिकलांशस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥२४॥ अणिमा (सूक्ष्म रूप), लघिमा (लघु होना), प्राप्ति (किसी भी वस्तु को प्राप्त कर लेना), प्राकाम्य (इच्छा का अभिघात न होना), महिम, (महान् बन जाना), ईशित्व (अधीश्वर होना), वशित्व (वश में करना), सर्वकामावसायिता (समस्त कामनाओं को नष्ट करना), सर्वज्ञता, दूर श्रवण (अत्यन्त दूर से भी सभी बातें सुनना), परकायप्रवेश (दूसरे के शरीर में प्रवेश करना), वाक्सिद्धि (सभी बातें सत्य होना), कल्पवृक्षत्व (कल्पवृक्ष की भांति मनइच्छित फल प्रदान करना), सृष्टि और संहार की क्षमता, अमर होना और सब का अग्रणी या सर्व होना, ये अठारह प्रकार की सिद्धियाँ हैं । योग, तप, सब प्रकार के दान, व्रत, यश, कीर्ति, सत्यवाणी, उपवास, समस्त तीर्थोंमें भ्रमण और स्नान, अन्य देवों की अर्चना, देव-पूजा, दर्शन, सातों द्वीपों की सात प्रदक्षिणा, सभी समुद्रों के स्नान, सभी स्वर्गों के दर्शन, ब्रह्मपद, रुद्रपद, विष्णुपद एवं परम पद तथा सभी अनिर्वचनीय अभिलषित पदार्थ, आपकी भक्ति के कलांश की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं ॥ १८-२४ ॥ शर्वस्य वचनं श्रुत्वा कृष्णस्तं योगिनां गुरुम् । प्रहस्योवाच वचनं सत्यं सर्वसुखप्रदम् ॥२५॥ योगियों के गुरु (महादेव) की बातें सुन कर उनसे भगवान् कृष्ण हंसते हुए समस्त सुखदायक सत्य वचन बोले ॥ २५ ॥ श्रीभगवानुवाच मत्सेवां कुरु सर्वेश शर्व सर्वविदां वर । कल्पकोटिशतं यावत्पूर्णं शश्वदहर्निशम् ॥२६॥ श्री भगवान बोले -निखिल ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सर्वेश्वर शिव ! तुम सौ करोड़ कल्पों तक दिनरात निरन्तर मेरी सेवा करो ॥ २६ ॥ वरस्तपस्विनां त्वं च सिद्धानां योगिनां तथा । ज्ञानिनां वैष्णवानां च सुराणां च सुरेश्वर ॥२७॥ सुरेश्वर ! तुम तपस्वियों, सिद्धों, योगियों, ज्ञानियों, वैष्णवों और देवों में सर्वश्रेष्ठ हो ॥ २७ ॥ अमरत्वं लभ भव भव मृत्युंजयो महान् । सर्वसिद्धिं च वेदांश्च सर्वज्ञत्वं च मद्वरात् ॥ २८॥ असंख्यं ब्रह्मणां पात्रं लीलया वत्स पश्यसि । अद्यप्रभृति ज्ञानेन तेजसा वचसा शिव ॥ २९ ॥ पराक्रमेण यशसा महता मत्समो भव । प्राणानामधिकस्त्वं च न भक्तस्त्वपरो मम ॥ ३० ॥ भव ! अमरत्व प्राप्त करो और महान् मृत्युजेता बनो । उसी भांति हमारे वरदान द्वारा समस्त सिद्धियाँ, चारों वेद (का ज्ञान) तथा सर्वज्ञता प्राप्त करो । वत्स ! उससे असंख्य ब्रह्माओं का पतन अनायास ही देखते रहोगे । शिव ! आज से ही तुम मेरे समान ज्ञान, तेज, अवस्था, पराक्रम, यश तथा तेज प्राप्त करो । क्योंकि तुम मेरे प्राण से भी अधिक प्रिय हो, अतः तुमसे बढ़ कर मेरा कोई भक्त नहीं है ॥ २८-३० ॥ त्वत्परो नास्ति मे प्रेयांस्त्वं मदीयात्मनः परः । ये त्वां निन्दन्ति पापिष्ठा ज्ञानहीना विचेतनाः ॥ ३१ ॥ पच्यन्ते ते कालसूत्रे तावच्चतन्द्रदिवाकरौ । कल्पकोटिशतान्ते च ग्रहीष्यसि शिवां शिव ॥ ३२॥ तुम मेरे आत्मा से भी बढ़ कर हो । (इसलिए) तुमसे अधिक प्रिय मेरा कोई नहीं है । जो पापिष्ठ, अज्ञानी और चेतनाहीन मनुष्य तुम्हारी निन्दा करते हैं, वे तब तक काल में पकाये जाते हैं जबतक सूर्य और चन्द्रमा की स्थिति रहती है । शिव ! सौ करोड़ कल्प के उपरांत तुम शिवा (प्रकृति) का ग्रहण करोगे ॥ ३१-३२ ॥ ममाव्यर्थ त्व वचनं पालनं कर्तुमर्हसि । त्वन्मुखान्निर्गतं वाक्यं न करोम्यधुनेति च ॥ ३३ ॥ मद्वाक्यं च तव्याक्यं च पालनं तत्करिष्यसि । गृहीत्वा प्रकृतिं शंभो दिव्यं वर्षसहस्रकम् ॥ ३४॥ सुखं महच्च शृङ्गारं करिष्यसि न संशयः । न केवलं तपस्वी त्वमीश्वरो मत्समो महान् ॥ ३५ ॥ अतः मेरे इन सार्थक वचनों का पालन करो । मैं तुम्हारी इस समय की बात मानने को तैयार नहीं हूँ । शम्भो ! मेरी बात और अपनी उस बात का पालन उस समय करोगे, जब प्रकृति को अपनाकर दिव्य सहस्र वर्षों तक महान् सुख और श्रृंगार रस का आस्वादन करोगे, इसमें संशय नहीं । तुम केवल तपस्वी ही नहीं हो प्रत्युत मेरे समान महान् ईश्वर भी हो ॥ ३३-३५ ॥ काले गृही तपस्वी च योगी स्वेच्छामयो हि यः । दुःखं च दारसंयोगे यत्त्वया कथितं शिव ॥ ३६ ॥ कुस्त्री ददाति दुःखं च स्वामिने न पतिव्रता । कुले महति या जाता कुलजा कुलपालिका ॥ ३७॥ करोति पालनं स्नेहात्सत्पुत्रस्य समं पातम् । पतिर्बन्धुर्गतिर्भर्ता दैवतं कुलयोषिताम् ॥ ३८॥ पतितोऽपतितो वाऽपि कृपणश्चेश्वरोऽथवा । असत्कुलप्रसूता याः पित्रोर्दुःशीलमिश्रिताः ॥ ३९॥ ध्रुवं ताः परभोग्याश्च पतिं निन्दन्ति संततम् । आवयोरतिरिक्तं च या पश्यति पतिं सती ॥४०॥ गोलोके स्वामिना सार्द्धं कोटिकल्पं प्रमोदते । भविता सा शिवा शैवी प्रकृतिवैष्णवी शिव ॥४१ ॥ जो स्वेच्छामय ईश्वर है वह समय पर गृही, तपस्वी और योगी हुआ करता है । शिव ! स्त्री के साथ रहने में जो दुःख आपने बताया है उसमें निन्दित स्त्रियाँ ही अपने पति को दुःख देती हैं न कि पतिव्रता । जो प्रतिष्ठित कुल में उत्पन्न हुई है, कुलीना और कुल-मर्यादा का पालन करने वाली है, वह अच्छे पुत्र की भाँति अधिक स्नेह से पति का पालन करती है । क्योंकि सत्कुल में उत्पन्न होनेवाली स्त्रियों का पति ही बन्धु, पति ही भर्ता और पति ही देवता है चाहे वह पतित, अपतित, दीन-हीन अथवा ऐश्वर्यशाली क्यों न हो । और असत्कुल में उत्पन्न होने वाली स्त्रियाँ, जिनमें उनके माँ-बाप का बुरा स्वभाव मिश्रित रहता है, निश्चित ही परभोग्या (व्यभिचारिणी) होती हैं तथा वे ही सदैव पति की निन्दा भी करती हैं । जो सती स्त्री हम दोनों से भी बढ़कर पति को देखती है, वह गोलोक में अपने पति समेत कोटिकल्प तक सुख प्राप्त करती है । शिव ! वह वैष्णवी प्रकृति शिवप्रिया होकर तुम्हारे लिए कल्याणमयी होगी ॥ ३६-४१ ॥ मदाज्ञया च तां साध्वीं ग्रहीष्यसि भवाय च । प्रकृत्या योनिसंयुक्तं त्वल्लिङ्गं तीर्थमृत्कृतम् ॥४२॥ तीर्थे सहस्रं संपूज्य भक्त्या पञ्चोपचारतः । सदक्षिणं संयतो यः पवित्रश्च जितेन्द्रियः ॥४३॥ कोटिकल्पं च गोलोके मोदते च मया सह । लक्षं तीर्थे पूजयेद्यो विधिवत्साधुदक्षिणम् ॥४४॥ न च्युतिस्तस्य गोलोकात्स भवेदावयोः समः । मृद्भस्मगोशकृत्पिण्डैस्तीर्तवालुकयाऽपि वा ॥४५॥ कृत्वा लिङ्गं सकृत्पूज्य वसेत्कल्पायुतं दिवि । प्रजावान्भूमिमान्विद्वान्पुत्रवान्धनवांस्तथा ॥४६॥ ज्ञानवान्मुक्तिमान्साधुः शिवलिङ्गार्चनाद्भवेत् । शिवलिङ्गार्चनस्थानमतीर्थं तीर्थमेव तत् । भवेत्तत्र मृतः पापी शिवलोकं स गच्छति ॥४७॥ मेरी आज्ञा से तुम लोक-कल्याण के निमित्त उस पतिव्रता को पत्नीरूप में ग्रहण करो । तीर्थों की मिट्टियों से प्रकृति के साथ योनि युक्त तुम्हारे लिंग का निर्माण कर जो संयमी जितेन्द्रिय पुरुष तीर्थ-स्थानों में उसकी एक सहस्र संख्या का पंचोपचार से विधिपूर्वक दक्षिणा समेत पूजन करता है वह गोलोक में मेरे साथ एक करोड़ कल्प तक आनन्द करता है । इसी भांति जो तीर्थ में सविधान और उचित दक्षिणा समेत एक लक्ष शिवलिंग (पार्थिव) का पूजन करता है, उसकी च्युति गोलोक से कभी नहीं होती है और वह हम लोगों के समान हो जाता है । इसलिए मिट्टी, भस्म, गोबर अथवा तीर्थ की बालुका से लिंग बना कर एक बार पूजन करने से दश सहस्र कल्प तक स्वर्ग में निवास प्राप्त होता है । सज्जन पुरुष शिवलिंग की अर्चना करने से प्रजा, भूमि, विद्या, पुत्र, धन, ज्ञान और मुक्ति प्राप्त करता है । शिवलिंग की पूजा होने से अतीर्थ भी तीर्थ हो जाता है और वहाँ पापी की मृत्यु होने पर शिवलोक को जाता है ॥ ४२-४७ ॥ महादेव महादेव महादेवेति वादिनः । पश्चाद्यामि महास्तोत्रनामश्रवणलोभतः ॥४८॥ 'महादेव, महादेव, महादेव' ऐसा कहने वाले के पीछे महान् स्तोत्र रूप नाम सुनने के लोभ से मैं जाता हूँ ॥ ४८ ॥ शिवेति शब्दमुच्चार्य प्राणांस्त्यजति यो नरः । कोटिजन्माजितात्पापान्मुक्तोमुक्ति प्रयाति सः ॥४९॥ 'शिव-शिव' शब्द का उच्चारण करते हुए जो मनुष्य प्राण त्याग करता है वह कोटि जन्मों के संचित पापों से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त करता है । ॥ ४९ ॥ शिवकल्याणवचनं कल्याणं मुक्तिवाचकम् । यतस्तत्प्रभवेत्तेन स शिवः परिकीर्तितः ॥५०॥ 'शिव' शब्द कल्याण का वाचक है और 'कल्याण' शब्द मोक्ष का । शिव के उच्चारण से मोक्ष या कल्याण की प्राप्ति होती है, इसीलिए महादेव को शिव कहा गया है ॥ ५० ॥ विच्छेदे धनबन्धूनां निमग्नः शोकसागरे । शिवेति शब्दमुच्चार्य लभेत्सर्वशिवं नरः ॥५१॥ धन और बन्धुओं के नाश हो जाने पर शोकसागर में निमग्न होने वाला मनुष्य 'शिव' शब्द के उच्चारण करने से कल्याण का भागी होता है । ॥ ५१ ॥ पापघ्ने वर्तते शिश्च वश्च मुक्तिप्रदे तथा । पापघ्नो मोक्षदो नृणां शिवस्तेन प्रकीर्तितः ॥५२॥ (शिव शब्द में) 'शि' वर्ण पापनाशक और 'व' मुक्तिप्रदायक है । इसलिए मनुष्यों के पापनाशक एवं मोक्षदाता होने के कारण वे 'शिव' कहे गये हैं ॥ ५२ ॥ शिवेति च शिवं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते । कोटिजन्मार्जितं पापं तस्य नश्यति निश्चितम् ॥५३॥ शिव का यह 'शिव' नाम जिसकी वाणी में (सदैव) वर्तमान रहता है, उसका कोटिजन्मों का अर्जित पाप निश्चित रूप से नष्ट हो जाता है ॥ ५३ ॥ इत्युक्त्वा शूलिने कृष्णो दत्त्वा कल्पतरुं मनुम् । तत्त्वज्ञानं मृत्युजयमवोचत्सिंहवाहिनीम् ॥५४॥ इस प्रकार भगवान् कृष्ण ने शूलधारी शंकर से कहकर उन्हें कल्पवृक्ष के समान मंत्र और मृत्युञ्जय तत्त्वज्ञान प्रदान किया । पश्चात् सिंहवाहिनी प्रकृति से वे बोले ॥ ५४ ॥ श्रीभगवानुवाच अधुना तिष्ठ वत्से त्वं गोलोके मम संनिधौ । काले भजिष्यसि शिवं शिवदं च शिवायनम् ॥५५॥ श्री भगवान बोले -वत्से ! इस समय तुम मेरे साथ गोलोक में रहो । फिर समय आने पर तुम कल्याणप्रद और कल्याण-निधि शंकर की सेवा करोगी ॥ ५५ ॥ तेजःसु सर्वदेवानामाविर्भूय वरानने । संहृत्य दैत्यान्सर्वांश्च भविता सर्वपूजिता ॥५६॥ समस्त देवों की तेजोराशि से प्रकट होकर समस्त दैत्यों का वध करके तुम सबकी पूजनीया होगी ॥ ५६ ॥ ततः कल्पविशेषे च सत्यं सत्ययुगे सति । भविता दक्षकन्या त्वं सुशीला शंभुगेहिनी ॥५७॥ पश्चात् किसी विशेष कल्प में सत्य युग के आने पर तुम दक्ष की कन्या होकर शिव की भार्या बनोगी ॥ ५७ ॥ ततः शरीरं संत्यज्य यज्ञे भर्तुश्च निन्दया । मेनायां शैलभार्यायां भविता पार्वतीति च ॥५८॥ अनन्तर दक्ष के यज्ञ में पति की निन्दा से तुम शरीर का त्याग करके हिमालयपत्नी मेना की पार्वती नामक पुत्री होगी ॥ ५८ ॥ दिव्यं वर्षसहस्रं च विहरिष्यसि शंभुना । पूर्णं ततः सर्वकालमभेदं त्वं लभिष्यसि ॥५९॥ शिव के साथ एक सहस्र दिव्य वर्षों तक विहार करने के उपरान्त तुम सर्वदा के लिए पति के साथ पूर्णतः अभिन्नता प्राप्त कर लोगी ॥ ५९ ॥ काले सर्वेषु विश्वेषु महापूजा सुपूजिते । भविता प्रतिवर्षे च शारदीया सुरेश्वरि ॥६०॥ ग्रामेषु नगरेष्वेव पूजिता ग्रामदेवता । भवती भवितेत्येवं नामभेदेन चारुणा ॥६१॥ सुरेश्वरी ! प्रतिवर्ष प्रशस्त समय में समस्त लोकों में तुम्हारी शरत्कालिक पूजा होगी । ग्रामों और नगरों में तुम ग्रामदेवता के रूप में पूजित होगी तथा विभिन्न स्थानों में तुम्हारे पृथक्-पृथक् मनोहर नाम होंगे ॥ ६०-६१ ॥ मदाज्ञया शिवकृतैस्तन्त्रैर्नानाविधैरपि । पूजाविधिं विधास्यामि कवचं स्तोत्रसंयुतम् ॥६२॥ मेरी आज्ञा से शिव द्वारा रचित अनेक भांति के तन्त्रों से तुम्हारी पूजा की जाएगी । मैं तुम्हारे लिए स्तोत्र और कवच का विधान करूँगा ॥ ६२ ॥ भविष्यन्ति महान्तश्च तवैव परिचारकाः । धर्मार्थकाममोक्षाणां सिद्धाश्च फलभागिनः ॥६३॥ जिससे तुम्हारी ही सेवा करने वाले सेवकगण महत्ता प्राप्त करेंगे तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप फल के भागी होंगे ॥ ६३ ॥ ये त्वां मातर्भजिष्यन्ति पुण्यक्षेत्रे च भारते । तेषां यशश्च कीर्तिश्च धर्मैश्वर्यं च वर्द्धते ॥६४॥ मातः ! पुण्य क्षेत्र भारतवर्ष में जो लोग तुम्हारी सेवा करेंगे, उनके यश, कीर्ति, धर्म और ऐश्वर्य की वृद्धि होगी ॥ ६४ ॥ इत्युक्त्वा प्रकृतिं तस्यै मन्त्रमेकादशाक्षरम् । दत्त्वा सकामबीजं च मन्त्रराजमनुत्तमम् ॥६५॥ इतना कह कर भगवान् कृष्ण ने उसे कामबीज (क्लीं) सहित एकादशाक्षर मन्त्र प्रदान किया, जो परमोत्तम एवं मन्त्रराज है ॥ ६५ ॥ चकार विधिना ध्यानं भक्तं भक्तानुकम्पया । श्रीमायाकामबीजाढ्यं ददौ मन्त्रं दशाक्षरम् ॥६६॥ सृष्ट्यौपयौगिकीं शक्तिं सर्वसिद्धिं च कामदाम् । तद्विशिष्टोत्कृष्टतत्त्वं ज्ञानं तस्यै ददौ विभुः ॥६७॥ पुनः विधिपूर्वक ध्यान का उपदेश दिया तथा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए श्री (श्रीं) माया (ह्रीं) तथा काम (क्लीं) बीज सहित दशाक्षर मन्त्र का उपदेश दिया । साथ ही सृष्टि की उपयोगी शक्ति, कामनाओं को सफल करने वाली समस्त सिद्धियाँ और उत्कृष्ट तत्त्वज्ञान भी उसे प्रदान किये ॥ ६६-६७ ॥ त्रयोदशाक्षरं मन्त्रं दत्त्वा तस्मै जगत्पतिः । कवचं स्तोत्रसहितं शंकराय तथा द्विज ॥६८॥ द्विजों, उसी प्रकार विभु जगदीश्वर ने शंकरजी को त्रयोदशाक्षर मंत्र और स्तोत्रसमेत कवच प्रदान किया । ॥ ६८ ॥ दत्त्वा धर्माय तं मन्त्रं सिद्धिज्ञानं तदेव च । कामाय वह्नये चैव कुबेराय च वायवे ॥६९॥ पुनः धर्म को वही मन्त्र एवं सिद्धि-ज्ञान देकर उन्होंने कामदेव, अग्नि, कुबेर और वायु को भी मन्त्र आदि प्रदान किये ॥ ६९ ॥ एवं कुबेरादिभ्यस्तु दत्त्वा मन्त्रादिकं परम् । विधिं प्रोवाच सृष्ट्यर्थं विधातुर्विधिरेव सः ॥७०॥ इस प्रकार कुबेरादिकों को मन्त्रादि प्रदान करने के उपरान्त विधाता के भी विधाता भगवान् श्रीकृष्ण ने सृष्टि करने के लिए ब्रह्मा से कहा ॥ ७० ॥ श्रीभगवानुवाच मदीयं च तपः कृत्वा दिव्यं वर्षसहस्रकम् । सृष्टिं कुरु महाभाग विधे नानाविधां पराम् ॥७१॥ श्री भगवान् बोले -महाभाग ! विधे ! सहस्र दिव्य वर्षों तक मेरा तप करके तुम अनेक भांति की सृष्टि करो ॥ ७१ ॥ इत्युक्त्वा ब्रह्मणे कृष्णो ददौ मालां मनोरमाम् । जगाम सार्धं गोपीभिर्गोपैर्वृन्दावनं वनम् ॥७२॥ इतना कहकर भगवान् कृष्ण ने उन्हें एक मनोरम माला प्रदान की । पश्चात् गोप-गोपियों को साथ लेकर वे (दिव्य) वृन्दावन में चले गये ॥ ७२ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे सृष्टिनिरूपणं नाम षष्ठोऽध्यायः ॥६॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में सृष्टिनिरूपण नामक छठा अध्याय समाप्त ॥ ६ ॥ |