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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - सप्तमोऽध्यायः सृष्टिनिरूपणम्
ब्रह्मा द्वारा पृथ्वी, पर्वत, समुद्र आदि का निर्माण - सौतिरुवाच तथा ब्रह्मा तपः कृत्वा सिद्धिं प्राप्य यथेप्सिताम् । ससृजे पृथिवीमादौ मधुकैटभमेदसा ॥ १॥ सौति बोले -पश्चात् ब्रह्मा ने तप करके मन अभिलषित सिद्धि प्राप्त की और सर्वप्रथम मधुकैटभ दैत्य के मेद (चर्बी) से मेदिनी (पृथिवी) का निर्माण किया ॥ १ ॥ भणे पर्वतानष्टौ प्रधानान्सुमनोहरान् । क्षुद्रानसंख्यान्किं ब्रूमः प्रधानाख्यां निशामय ॥२॥ अनन्तर आठ प्रधान और मनोहर पर्वतों एवं उनसे असंख्य छोटे-छोटे पर्वतों की रचना की । उनके नाम क्या बताऊँ ? प्रधानों की नामावली सुनिए ॥ २ ॥ सुमेरुं चैव कैलासं मलयं च हिमालयम् । उदयं च तथाऽस्तं च सुवेलं गन्धमादनम् ॥३॥ समुद्रान्ससृजे सप्त नदान्कतिविधा नदीः । वृक्षांश्च ग्रामनगरं समुद्राख्या निशामय ॥४॥ br>लवणेक्षुसुरासर्पिर्दधिदुग्धजलार्णवान् । लक्षयोजनमानेन द्विगुणांश्च परात्परान् ॥५॥ सुमेरु, कैलास, मलय, हिमालय, उदयाचल, अस्ताचल, सुवेल और गन्धमादन ये आठ प्रधान पर्वत हैं । फिर ब्रह्मा ने सात समुद्रों, अनेक नदों, कई नदियों, वृक्षों, ग्रामों और नगरों की सृष्टि की । लवण (सार), ईख, सुरा, घी, दही, दूध और (शुद्ध) जल के सात समुद्र हैं । उनमें से पहले की लम्बाई-चौड़ाई एक लक्ष योजन की है । बाद वाले उत्तरोत्तर दुगुने होते गये हैं ॥ ३-५ ॥ सप्तद्वीपांश्च तद्भूमिमण्डले कमलाकृते । उपद्वीपांस्तथा सप्त सीमाशैलांश्च सप्त च ॥६॥ निबोध विप्र द्वीपाख्यां पुरा या विधिना कृता । जम्बूशाककुशप्लक्षक्रौञ्चन्यग्रोधपौष्करान् ॥७॥ इन समुद्रों से घिरे हुए सात द्वीप हैं । उनके भूमण्डल कमलपत्र जैसे हैं । उनमें उपद्वीप और मर्यादापर्वत मी सात-सात ही हैं । हे विप्र ! उन द्वीपों का नाम बता रहा हूँ, सुनिए-जम्बू, शाक कुश, प्लक्ष, क्रौञ्च, न्यग्रोध और पुष्कर यही द्वीपों के नाम हैं ॥ ६-७ ॥ मेरोरष्टसु शृङ्गेषु ससृजेऽष्टौ पुरीः प्रभुः । अष्टानां लोकपालानां विहाराय मनोहराः॥८॥ अनन्तर ब्रह्मा ने आठों लोकपालों के विहार करने के लिए मेरु पर्वत के आठों शिखरों पर मनोहर आठ पुरियों का निर्माण किया ॥ ८ ॥ मूलेऽनन्तस्य नगरीं निर्माय जगतां पतिः । ऊर्ध्वे स्वर्गाश्च सप्तैव तेषामाख्यां निशामय ॥९॥ जगत्पति ने उसके मूल भाग (पाताल) में अनन्त (शेषनाग) की नगरी का निर्माण करके ऊपर सातों स्वर्गों की रचना की, जिन्हें बता रहा हूँ, सुनिए-- ॥ ९ ॥ भूर्लोकं च भुवर्लोकं स्वर्लोकं सुमनोहरम् । जनोलोकं तपोलोकं सत्यलोकं च शौनक ॥ १०॥ शृङ्गमूर्ध्नि ब्रह्मलोकं जरादिपरिवर्जितम् । तदूर्ध्वे ध्रुवलोकं च सर्वतः सुमनोहरम् ॥ ११॥ तदधः सन्त पातालान्निर्ममे जगदीश्वरः । स्वर्गातिरिक्तभोगाढ्यानधोऽधः क्रमतो मुने ॥ १२॥ शौनक ! भूर्लोक, भुवर्लोक, अत्यन्त मनोहर स्वर्ग लोक, जनोलोक, तपोलोक और सत्य लोक का निर्माण करके ब्रह्मा ने मेरु के शिखर के शिरोमाग में जरा-मृत्यु से रहित ब्रह्मलोक की रचना की । उसके ऊपर चारों ओर अत्यन्त मनोहर ध्रुव लोक बनाया और नीचे जगदीश्वर ने सात पाताल लोकों की रचना की । मुने ! वे स्वर्गलोक की अपेक्षा अधिक भोग-सामग्रियों से सम्पन्न हैं ॥ १०-१२ ॥ अतलं वितलं चैव सुतलं च तलातलम् । महातलं च पातालं रसातलमधस्ततः ॥ १३॥ (उनके नाम ये हैं-) अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, पाताल और रसातल ॥ १३ ॥ सप्तद्वीपैः सप्तनाकैः सप्तपातालसंज्ञकैः । एभिर्लोकैश्च ब्रह्माण्डं ब्रह्माधिकृतमेव च ॥ १४॥ सात द्वीप, सात स्वर्ग और सात पाताल लोकों से युक्त यह ब्रह्माण्ड ब्रह्मा के अधिकार में है ॥ १४ ॥ एवं चासंख्यब्रह्माण्डं सर्व कृत्रिममेव च । महाविष्णोश्च लोम्नां च विवरेषु च शौनक ॥ १५॥ शौनक ! इस प्रकार के असंख्य ब्रह्माण्ड, जो कृत्रिम हैं, भगवान महाविष्णु के लोम-वि्वरों में स्थित हैं ॥ १५ ॥ प्रतिविश्वेषु दिक्पाला ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः । सुरा नरादयः सर्वे सन्ति कृष्णस्य मायया ॥ १६॥ भगवान् श्रीकृष्ण की माया द्वारा प्रत्येक विश्व में दिक्पाल, ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, देवगण और मनुष्य आदि स्थित हैं ॥ १६ ॥ ब्रह्माण्डगणनां कर्तुं न क्षमो जगतां पतिः । न शंकरो न धर्मश्च न च विष्णुश्च के सुराः ॥ १७॥ जगत्पति ब्रह्मा ब्रह्माण्ड की गणना करने में असमर्थ हैं । (इतना ही नहीं) शंकर, धर्म, विष्णु और देवगण भी (उसकी गणना करने में) असमर्थ हैं ॥ १७ ॥ संख्यातुमीश्वरः शक्तो न संख्यातुं तथाऽपि सः । विश्वाकाशदिशां चैव सर्वतो यद्यपि क्षमः ॥ १८॥ यद्यपि ईश्वर उसकी गणना करने में समर्थ हैं, तथापि विश्व, आकाश और दिशाओं का सर्वथा संख्यान तो उनके लिए भी कठिन है ॥ १८ ॥ कृत्रिमाणि च विश्वानि विश्वस्थानि च यानि च । अनित्यानि च विप्रेन्द्र स्वप्नवन्नश्वराणि च ॥१९॥ विप्रेन्द्र ! कृत्रिम विश्व और उनके भीतर रहने वाली जो वस्तुएँ हैं, वे सब अनित्य और स्वप्न की भांति नश्वर हैं ॥ १९ ॥ वैकुण्ठः शिवलोकश्च गोलोकश्च तयोः परः । नित्यो विश्वबहिर्भूतश्चाऽऽत्माकाशदिशो यथा ॥२०॥ वैकृष्ट और शिवलोक तथा इन दोनों से परे जो गोलोक है - ये सब नित्य धाग हैं । आत्मा, आकाश और दिशा की भांति ये सब कृत्रिम विश्व से बाहर तथा नित्य हैं ॥ २० ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डं सृष्टिनिरूपणं नाम सप्तमोऽध्यायः ॥७॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में सृष्टिनिरूपण नामक सातवाँ अध्याय समाप्त ॥ ७ ॥ |