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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - अष्टमोऽध्यायः ब्रह्मनारदशापोपलम्भनम्
वेद, मनु आदि की सृष्टि का वर्णन - सौतिरुवाच ब्रह्मा विश्वं विनिर्माय सावित्र्यां वरयोषिति । चकार वीर्याधानं च कामुक्यां कामुको यथा ॥ १॥ सा दिव्यं शतवर्षं च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् । सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरान् ॥२॥ विविधाञ्शास्त्रसंघांश्च तर्कव्याकरणादिकान् । षट्त्रिंशत्संख्यका दिव्या रागिणीः सुमनोहराः ॥३॥ षड् रागान्सुन्दरांश्चैव नानातालसमन्वितान् । सत्यत्रेताद्वापरांश्च कलिं च कलहप्रियम् ॥४॥ सौति बोले -ब्रह्मा ने विश्व की रचना करके परम सुन्दरी सावित्री में उसी तरह वीर्याधान किया जैसे कोई कामुक पुरुष कामुकी स्त्री में करता है । अनन्तर उस सावित्री ने उस वीर्य को दिव्य सौ वर्षों तक धारणकर चार मनोहर वेदों को प्रकट किया । साथ ही न्याय, व्याकरण आदि शास्त्र समूह और छत्तीस प्रकार की दिव्य एवं अत्यन्त मनोहर रागिनियों को उत्पन्न किया । फिर अनेक प्रकार के तालों से युक्त छह सुन्दर राग प्रकट किये । सत्य, त्रेता, द्वापर और कलहप्रिय कलियुग को भी सावित्री ने उत्पन्न किया ॥ १-४ ॥ वर्षं मासमृतुं चैव तिथिं दण्डक्षणादिकम् । दिनं रात्रिं च वारांश्च संध्यामुषसमेव च ॥५॥ पुष्टिं च देवसेनां च मेधां च विजयां जयाम् । षट् कृत्तिकाश्च योगांश्च करणं च तपोधन ॥६॥ तपोधन ! वर्ष, मास, ऋतु, तिथि, दण्ड, क्षण आदि, दिन, रात्रि, वार, सन्ध्या, उषाकाल, पुष्टि, देवसेना, मेधा, विजया, जया, छह कृत्तिका, योग और करण को भी उन्होंने उत्पन्न किया ॥ ५-६ ॥ देवसेनां महाषष्टीं कार्तिकेयप्रियां सतीम् । मातृकासु प्रधाना सा बालानामिष्टदेवता ॥७॥ कार्तिकेय की प्रिया सती महाषष्ठी देवसेना -जो मातृकाओं में प्रधान और बालकों की इष्टदेवी हैं, इन सब को भी सावित्री ने उत्पन्न किया ॥ ७ ॥ ब्राह्म पाद्मं च वाराहं कल्पत्रयमिदं स्मृतम् । नित्यं नैमित्तिकं चैव द्विपरार्धं च प्राकृतम् ॥८॥ चतुर्विधं च प्रलयं कालं वै मृत्युकन्यकाम् । सर्वान्व्याधिगणाश्चैव सा प्रसूय स्तनं ददौ ॥९॥ ब्राह्म, पाद्म, और वाराह ये तीन कल्प, नित्य, नैमित्तिक, द्विपरार्द्ध और प्राकृत ये चार प्रकार के प्रलय-काल, मृत्यु-कन्या और समस्त व्याधियों को उत्पन्न करके सावित्री ने उन्हें अपना स्तन पान कराया ॥ ८-९ ॥ अथ धातुः पृष्ठदेशादधर्मः समजायत । अलक्ष्मीस्तद्वामर्पाश्वाद्बभूवात्यन्तकामिनी ॥१०॥ अनन्तर ब्रह्मा के पृष्ठभाग से अधर्म और उनके वाम पार्श्व से अत्यन्त कामिनी अलक्ष्मी (दरिद्रा) उत्पन्न हुई ॥ १० ॥ नाभिदेशाद्विश्वकर्मा जातो वै शिल्पिनां गुरुः । महान्तो वसवोऽष्टौ च महाबलपराक्रमाः ॥११॥ उनके नाभिप्रदेश से शिल्पियों के गुरु विश्वकर्मा और महान् बल-पराक्रम से उत्पन्न महान् आठ वसु उत्पन्न हुए ॥ ११ ॥ अथ धातुश्च मनस आविर्भूता कुमारकाः । चत्वारः पञ्जवर्षीया ज्वलन्तो ब्रह्मतेजसा ॥१२॥ पश्चात् ब्रह्मा के मन द्वारा चार कुमार उत्पन्न हुए, जो पाँच वर्ष की अवस्था वाले एवं ब्रह्मतेज से देदीप्यमान थे ॥ १२ ॥ सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः । सनत्कुमारो भगवांश्चतुर्थो ज्ञानिनां वरः ॥१३॥ उनमें से प्रथम सनक, दूसरे सनन्दन, तीसरे सनातन और चौथे ज्ञानिश्रेष्ठ भगवान् सनत्कुमार हैं ॥ १३ ॥ आविर्बभूव मुखतः कुमारः कनकप्रभः । दिव्यरूपधरः श्रीमान्सस्त्रीकः सुन्दरो युवा ॥१४॥ क्षत्रियाणां बीजरूपो नाम्ना स्वायंभुवो मनुः । या स्त्री सा शतरूपा च रूपाढ्या कमलाकला ॥१५॥ उनके मुख से एक कुमार उत्पन्न हुआ, जिसकी प्रभा सुवर्ण की भांति थी । वह दिव्य रूप धारण किये, श्रीमान्, स्त्री समेत, सुन्दर, युवा और क्षत्रियों का बीज रूप था । उसका नाम स्वायम्भुव मनु था और उस स्त्री का नाम शतरूपा था, जो परम रूपवती तथा लक्ष्मी की कलास्वरूपा थी ॥ १४-१५ ॥ सस्त्रीकश्च मनुस्तस्थौ धात्राज्ञापरिपालकः । स्वयं विधाता पुत्रांश्च तानुवाच प्रहर्षितान् ॥१६॥ सृष्टिं कर्तुं महाभागो महाभागवतान्द्विजः । जग्मुस्ते च नहीत्युक्त्वा तत्तु कृष्णपरायणाः ॥ १७॥ स्त्री समेत मनु ने ब्रह्मा की आज्ञा को शिरोधार्य किया । अनन्तर ब्रह्मा ने स्वयं अत्यन्त हर्षित उन महाभागवत कुमारों से भी सृष्टि करने के लिए गृहस्थ होने को कहा । द्विज ! किन्तु उन कुमारों ने महाभाग ब्रह्मा की आज्ञा का 'नहीं' कहकर उल्लंघन कर दिया और कृष्णपरायण वे कुमार तप करने के लिए चले गये ॥ १६-१७ ॥ चुकोप हेतुना तेन विधाता जगतां पतिः । कोपासक्तस्य च विधेर्ज्वलतो ब्रह्मतेजसा ॥ १८॥ आविर्भूता ललाटाच्च रुद्रा एकादश प्रभो । कालाग्निरुद्रः संहर्ता तेषामेकः प्रकीर्तितः ॥ १९॥ सर्वेषामेव विश्वानां स तामस इति स्मृतः । राजसश्च स्वयं ब्रह्मा शिवो विष्णुश्च सात्त्विकौ ॥२०॥ गोलोकनाथः कृष्णश्च निर्गुणः प्रकृतेः परः । परमज्ञानिनो मूर्खा वदन्ति तामसं शिवम् ॥२१॥ शुद्धसत्त्वस्वरूपं च निर्मलं वैष्णवाग्रणीम् । शृणु नामानि रुद्राणां वेदोक्तानि च यानि च ॥२२॥ उस कारण जगत्पति ब्रह्मा अत्यन्त क्रुद्ध हुए । प्रभो ! ब्रह्मतेज से देदीप्यमान विधाता के कुपित होने पर उनके ललाट से एकादश रुद्र उत्पन्न हुए । उनमें से एक को संहर्ता कालाग्निरुद्र कहा गया है । सम्पूर्ण लोकों में केवल वे ही, तामस या तमोगुणी, माने गये हैं । स्वयं ब्रह्मा 'राजस' तथा शिव और विष्णु 'सात्त्विक' कहे जाते हैं । गोलोकनाथ भगवान् कृष्ण निर्गुण और प्रकृति से परे हैं । परम अज्ञानी मूर्ख लोग शिवजी को तामस कहते हैं किन्तु वे शुद्ध सत्त्वस्वरूप, निर्मल, तथा वैष्णवों में अग्रणी हैं । अब रुद्रों के वेदोक्त नाम सूनो ॥ १८-२२ ॥ महान्महात्मा मतिमान्भीषणश्च भयंकरः । ऋतुध्वजश्चोर्ध्वकेशः पिङ्गलाक्षो रुचिः शुचिः ॥२३॥ महान्, महात्मा, मतिमान्, भीषण, भयंकर, ऋतुध्वज, उर्ध्वकेश, पिंगलाक्ष, रुचि और शुचि यही उनके नाम हैं ॥ २३ ॥ पुलस्यो दक्षकर्णाच्च पुलहो वामकर्णतः । दक्षनेत्रात्तथाऽत्रिश्च वामनेत्रात्क्रतुः स्वयम् ॥२४॥ अरणिर्नासिकारन्ध्रादङ्गिराश्च मुखाद्रुचिः । भृगुश्च वामपार्श्वाच्च दक्षो दक्षिणपार्श्वतः ॥२५॥ ब्रह्मा के दाहिने कान से पुलस्त्य, बायें से पुलह, दाहिने नेत्र से अत्रि, बाँयें नेत्र से स्वयंक्रतु (यज्ञ), नासाछिद्र से अरणि और अंगिरा, मुख से रुचि, बाँये पार्श्व से भृगु और दाहिने पार्श्व से दक्ष उत्पन्न हुए ॥ २४-२५ ॥ छायायाः कर्दमो जातो नाभेः पञ्चशिखस्तथा । वक्षसश्चैव वोढुश्च कण्ठदेशाच्च नारदः ॥२६॥ मरीचिः स्कन्धदेशाच्चैवापान्तरतमा गलात् । वसिष्ठो रसनादेशात्प्रचेता अधरोष्ठतः ॥२७॥ हंसश्च वामकुक्षेश्च दक्षकुक्षेर्यतिः स्वयम् । सृष्टिं विधातुं स विधिश्चकाराऽज्ञां सुतान्प्रति । पितुर्वाक्यं समाकर्ण्य तवमुवाच स नारदः ॥२८॥ छाया से कर्दम, नाभि से पञ्चशिख, वक्षःस्थल से वोढु, कण्ठ देश से नारद, स्कन्ध प्रदेश से मरीचि, गले से अपान्तरतमा, जिह्वा से वशिष्ठ, अधरोष्ठ से प्रचेता, वाम कुक्षि से हंस, दक्षिण कुक्षि से यति प्रकट हुए । ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना करने के लिए अपने पुत्रों को आज्ञा दी । (इस पर) पिता की बात सुनकर नारद ने उनसे कहा ॥ २६-२८ ॥ नारद उवाच पूर्वमानय मज्ज्येष्ठान्सनकादीन्पितामह । कारयित्वा दारयुक्तानस्मान्वद जगत्पते ॥२९॥ नारद बोले -पितामह, जगत्पते ! सर्वप्रथम आप हमारे ज्येष्ठ भाई सनकादिकों को यहां लाइये और उनका विवाह कीजिए । तत्पश्चात् हमें आज्ञा दीजिये ॥ २९ ॥ पित्रा ते तपसे युक्ताः संसाराय वयं कथम् । अहो हन्त प्रभोर्बुद्धिर्विपरीताय कल्पते ॥३०॥ जब पिता के ही द्वारा वे सब तप करने के लिए नियुक्त किये गये तो हमें संसार में क्यों फंसाया जा रहा है । आश्चर्य और खेद की बात है कि प्रभु की बुद्धि विपरीत भाव को प्राप्त हो रही है ॥ ३० ॥ कस्मै पुत्राय पीयूषात्परं दत्तं तपोऽधुना । कस्मै ददासि विषयं विषमं च विषाधिकम् ॥३१॥ क्योंकि किसी पुत्र को तो अमृत से भी उत्तम तप इस समय प्रदान किया जा रहा है और किसी को विष से भी अधिक विषम होने वाला विषय प्रदान किया जा रहा है ॥ ३१ ॥ अतीव निम्ने घोरे च भवाब्धौ यः पतेत्पितः । निष्कृतिस्तस्य नास्तीति कोटिकल्पे गतेऽपि च ॥३२॥ पिता जी ! अत्यन्त निम्न कोटि के घोर भव-सागर में जो गिर जायगा उसकी कोटि कल्पों में भी कोई निष्कृति (उद्धार होने का उपाय) नहीं है ॥ ३२ ॥ निस्तारबीजं सर्वेषां बीजं च पुरुषोत्तमम् । सर्वदं भक्तिदं दास्यप्रदं सत्यं कृपामयम् ॥३३॥ भक्तैकशरणं भक्तवत्सलं स्वच्छमेव च । भक्तप्रियं भक्तनाथं भक्तानुग्रहकारकम् ॥३४॥ भक्ताराध्यं भक्तसाध्यं विहाय परमेश्वरम् । मनो दधाति को मूढो विषये नाशकारणे ॥३५॥ क्योंकि सभी प्राणियों के निस्तार करने का कारण एकमात्र भगवान् पुरुषोत्तम ही हैं, जो समस्त वस्तुओं के दाता, भक्तिप्रद, दास्यप्रद, सत्य, कृपामय, भक्तों के एकमात्र शरणप्रद, भक्तवत्सल, स्वच्छ, भक्तों के प्रिय, भक्तनाथ, भक्त के ऊपर अनुग्रह करने वाले, भक्तों के आराध्य देव और भक्तसाध्य हैं । भला ! ऐसे परमेश्वर को छोड़कर कौन मूढ़ जन अपने मन को विनाशजनक विषय में लगायेगा ॥ ३३-३५ ॥ विहाय कृष्णसेवां च पीयूषादधिकां प्रियाम् । को मूढो विषमश्नाति विषमं विषयाभिधम् ॥ ३६॥ कौन मूढ़ प्राणी अमृत से भी अधिक मधुर भगवान् कृष्ण की सेवा को छोड़कर विषय नामक विषम विष का भक्षण करेगा ॥ ३६ ॥ स्वप्नवन्नश्वरं तुच्छमसत्यं मृत्युकारणम् । यथा दीपशिखाग्रं च कीटानां सुमनोहरम् ॥ ३७॥ जिस प्रकार दीपक की शिखा का अग्रभाग अत्यन्त मनोहर होते हुए भी पतिंगों के लिए मृत्युकारक है उसी प्रकार यह विषय भी स्वप्न की भाँति नश्वर, तुच्छ, असत्य और विनाशकारी है ॥ ३७ ॥ यथा बडिशमांसं च मत्स्यापातसुखप्रदम् । तथा विषयिणां तात विषयो मृत्युकारणम् ॥ ३८॥ हे तात ! जिस प्रकार बंसी में गुंथा हुआ मांस मछलियों को आपाततः सुखद जान पड़ता है, उसी प्रकार विषयी पुरुषों को विषय में सुख की प्रतीति होती है । किन्तु वास्तव में वह मृत्यु का कारण है ॥ ३८ ॥ इत्युक्त्वा नारदस्तत्र विरराम विधेः पुरः । तस्थौ तातं नमस्कृत्य ज्वलदग्निशिखोपमः ॥ ३९॥ प्रज्वलित अग्निशिखा की भाँति प्रदीप्त होने वाले नारद जी ब्रह्मा के सामने इस प्रकार कहकर चुप हो गये और उन्हें प्रणाम करके चुपचाप खड़े रहे ॥ ३९ ॥ ब्रह्मा कोपपरीतश्च शशाप तनयं द्विज । उवाच कम्पिताङ्गश्च रक्तास्यः स्फुरिताधरः ॥४० ॥ द्विज ! इस पर ब्रह्मा ने अत्यन्त कुपित होकर पुत्र नारद को शाप दे दिया । उस समय ब्रह्मा क्रोध से कांप रहे थे, उनका मुख लाल हो गया था और ओठ फड़क रहे थे । ॥ ४० ॥ ब्रह्मोवाच भविता ज्ञानलोपस्ते मच्छापेन च नारद । क्रीडामृगश्च त्वं साध्यो योषिल्लुब्धश्च लम्पटः ॥४१ ॥ ब्रह्मा बोले -नारद ! मेरे शाप से तुम्हारा ज्ञान लुप्त हो जायगा । तुम कामिनियों के क्रीड़ामृग, स्त्रीलोभी और लम्पट बन जाओगे ॥ ४१ ॥ स्थिरयौवनयुक्तानां रूपाढ्यानां मनोहरः । पञ्चाशत्कामिनीनां च भर्ता च प्राणवल्लभः ॥४२ ॥ शृङ्गारशास्त्रवेत्ता च महाशृङ्गारलोलुपः । नानाप्रकारशृङ्गारनिपुणानां गुरोर्गुरुः ॥४३ ॥ गन्धर्वाणां च सुवरः सुस्वरश्च सुगायनः । वीणावादनसंदर्भनिष्णातः स्थिरयौवनः ॥४४॥ तुम स्थिर यौवन वाली अत्यन्त सुन्दरी पचास कामिनियों के प्राणप्रिय एवं सुन्दर पति बनोगे । तुम शृंगारशास्त्र के वेत्ता, महाशृंगारी, लोलुप, अनेक भांति के श्रृंगारों में निपुण व्यक्तियों के गुरुओं के गुरु, गन्धर्वों में श्रेष्ठ, अच्छे स्वर वाले गायक तथा वीणा बजाने में सबसे निपुण होगे । तुम्हारा यौवन निरन्तर स्थिर रहेगा ॥ ४२-४४ ॥ प्राज्ञो मधुरवाक्शान्तः सुशीलः सुन्दरः सुधी । भविष्यसि न संदेहो नामतश्चोपबर्हणः ॥४५ ॥ ताभिर्दिव्यं लक्षयुगं विहृत्य निजने वने । पुनर्मदीयशापेन दासीपुत्रश्च तत्परः ॥४६॥ उसी भाँति विद्वान्, मधुरभाषी, शान्त, सुशील, सुन्दर और सुबुद्धि होगे । इसमे सन्देह नहीं । उम समय उपबर्हण नाम से तुम्हारी प्रसिद्धि होगी । उन कामिनियों के साथ निर्जन बन में एक लक्ष युग तक बिहार करने के अनन्तर मेरे शाप से दासीपुत्र होगे ॥ ४५-४६ ॥ वत्स वैष्णवसंसर्गाद्वैष्णवोच्छिष्टभोजनात् । पुनः कृष्णप्रसादेन भविष्यसि ममाऽऽत्मजः ॥४७॥ वत्स ! तदनन्तर वैष्णव महात्माओं के संसर्ग से और उनके उच्छिष्ट भोजन करने से तुम पुनः भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा प्राप्त करके मेरे पुत्र रूप में प्रतिष्ठित होगे ॥ ४७ ॥ ज्ञानं दास्यामि ते दिव्यं पुनरेव पुरातनम् । अधुना भव नष्टस्त्वं मत्सुतो निपत ध्रुवम् ॥४८॥ उस समय मैं तुम्हें पुरातन दिव्य ज्ञान प्रदान करूँगा । किन्तु इस समय मेरा पुत्र होते हुए भी तुम नष्ट हो जाओ और अवश्य ही नीचे गिरो ॥ ४८ ॥ ब्रह्मेत्युक्त्वा सुतं विप्र विरराम जगत्पतिः । रुरोद नारदस्तातमवोचत्संपुटाञ्जलिः ॥४९॥ विप्र ! जगत्पति ब्रह्मा इस प्रकार अपने पुत्र से कहकर चुप हो गये और नारद जी रुदन करते हुए हाथ जोड़कर अपने पिता से बोले ॥ ४९ ॥ नारद उवाच क्रोधं संहर संहर्तस्तात तात जगद्गुरो । स्रष्टुस्तपस्वीशस्याहो क्रोधोऽयं मय्यनाकरः ॥५०॥ नारद बोले -हे तात ! हे जगद्गुरो ! आप क्रोध को शान्त करें । आप स्रष्टा हैं । तपस्वियों के स्वामी हैं । अहो ! मुझ पर आपका यह क्रोध अकारण ही हुआ है । ॥ ५० ॥ शपेत्परित्यजेद्विद्वान्पुत्रमुत्पथगामिनम् । तपस्विनं सुतं शप्तुं कथमर्हसि पण्डित ॥५१॥ हे पण्डित ! विद्वान् पुरुष दुराचारी पुत्र को शाप देते हैं और उसका त्याग करते हैं । अतः आप अपने तपस्वी पुत्र को शाप देना कैसे उचित मानते हैं ॥ ५१ ॥ जनिर्भवतु मे ब्रह्मन्यासु यासु च योनिषु । न जहातु हरेर्भक्तिर्मामेवं देहि मे वरम् ॥५२॥ ब्रह्मन् ! जिन-जिन योनियों में मेरा जन्म हो, भगवान् की भक्ति मुझे कदापि न छोड़े, यह वरदान भी मुझे देने की कृपा करें ॥ ५२ ॥ पुत्रश्चेज्जगतां धातुर्नास्ति भक्तिर्हरेः पदे । सूकरादतिरिक्तश्च सोऽधमो भारते भुवि ॥५३॥ क्योंकि कोई जगत् के रचयिता का ही पुत्र क्यों न हो, यदि उसमें भगवच्चरण की भक्ति नहीं है तो वह भारत के भूमण्डल में सूकर से भी अधिक अधम है ॥ ५३ ॥ जातिस्मरो हरेर्भक्तियुक्तः सूकरयोनिषु । जनिर्लभेत्स प्रवरो गोलोकं याति कर्मणा ॥५४॥ पूर्वजन्म के स्मरण और भगवान् की भक्ति से युक्त रहने पर यदि उसका जन्म सूकर योनि में भी हो जाये तो वह श्रेष्ठ पुरुष अपने कर्म से गोलोक को प्राप्त कर लेता है ॥ ५४ ॥ गोविन्दचरणाम्भोजभक्तिमाध्वीकमीप्सितम् । पिबतां वैष्णवादीनां स्पर्शपूता वसुंधरा ॥५५॥ क्योंकि गोविन्द के चरणकमल की भक्तिरूप मनोवांछित मकरन्द का पान करने वाले वैष्णवों के स्पर्श से ही यह वसुन्धरा पृथ्वी पवित्र होती है ॥ ५५ ॥ तीर्थानि स्पर्शमिच्छन्ति वैष्णवानां पितामह । पापानां पापितत्त्वानां क्षालनायाऽऽत्मनामपि ॥५६॥ मन्त्रोपदेशमात्रेण नरा मुक्ताश्च भारते । परैश्च कोटिपुरुषैः पूर्वैः सार्धं हरेरहो ॥५७॥ पितामह ! तीर्थ-समूह पापियों के पाप से अपने को शुद्ध करने के लिए वैष्णवों का स्पर्श चाहते हैं । भारत में भगवान् के मन्त्रोपदेश मात्र से मनुष्य करोड़ों पूर्वजों तथा वंशजों के साथ मुक्त हो जाते हैं ॥ ५६-५७ ॥ कोटिजन्मार्जितात्पापान्मन्त्रग्रहणमात्रतः । मुक्ताः शुध्यन्ति यत्पूर्वं कर्म निर्मूलयन्ति च ॥५८॥ मन्त्र ग्रहण मात्र से मनुष्य करोड़ों जन्म के संचित पाप से मुक्त होकर शुद्ध हो जाता है क्योंकि वह (मंत्र) पूर्व के पापों को निर्मल कर देता है ॥ ५८ ॥ पुत्रान्दारांश्च शिष्यांश्च सेवकान्बान्धवांस्तथा । यो दर्शयति सन्मार्गं सद्गतिस्तं लभेद्ध्रुवम् ॥५९॥ इस प्रकार पुत्र, स्त्री, शिष्य, सेवक और बान्धवगणों को जो सन्मार्ग प्रदर्शित कराता है उसकी निश्चित सद्गति होती है ॥ ५९ ॥ यो दर्शयत्यसन्मार्ग शिष्यैर्विश्वासितो गुरुः । कुम्भीपाके स्थितिस्तस्य यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥६०॥ और जो शिष्य का विश्वास पात्र गुरु (शिष्य को) असन्मार्ग बताता है, वह कुम्भीपाक नरक में तब तक पड़ा रहता है जब तक सूर्य और चन्द्रमा का अस्तित्व रहता है ॥ ६० ॥ स किंगुरुः स किंतात स किंस्वामी स किंसुतः । यः श्रीकृष्णपदाम्भोजे भक्ति दातुमनीश्वरः ॥६१॥ वे गुरु, भाई, पिता, स्वामी और पुत्र निन्दनीय हैं जो भगवान् श्रीकृष्ण के चरण कमल की भक्ति प्रदान करने में असमर्थ हैं ॥ ६१ ॥ शप्तो निरपराधेन त्वयाऽहं चतुरानन । मया शप्तुं त्वमुचितो घ्नन्तं घ्नन्त्यपि पण्डिताः ॥६२॥ चतुरानन ! तुमने मुझे विना अपराध के ही शाप दिया है, अतः उचित है कि मैं भी तुम्हें शाप दूं; क्योंकि मारने वाले को पण्डितगण भी मारते हैं ॥ ६२ ॥ कवचस्तोत्रपूजाभिः सहितस्ते मनुर्मनोः । लुप्तो भवतु मच्छापात्प्रतिविश्वेषु निश्चितम् ॥६३॥ मेरे शाप से प्रत्येक विश्व में तुम्हारे कवच, स्तोत्र, पूजा और मन्त्र लुप्त रहेंगे ॥ ६३ ॥ अपूज्यो भव विश्वेषु यावत्कल्पत्रयं पितः । गतेषु त्रिषु कल्पेषु पूज्य पूज्यो भविष्यसि ॥६४॥ और हे पिता ! तुम सभी विश्वों में तीनों कल्पों तक अपूजनीय रहोगे (अर्थात् तुम्हारी पूजा कोई नहीं करेगा) । हाँ, तीनों कल्पों के व्यतीत होने पर तुम पूज्य के भी पूज्य हो जाओगे ॥ ६४ ॥ अधुना यज्ञभागस्ते व्रतादिष्वपि सुव्रत । पूजनं चास्तु नामैकं वन्द्यो भव सुरादिभिः ॥६५॥ हे सुव्रत ! इस समय तुम्हारा यज्ञभाग बंद हो और व्रतदिकों में भी तुम्हारा पूजन न हो, केवल तुम देवों के वन्दनीय बने रहोगे ॥ ६५ ॥ इत्युक्त्वा नारदस्तत्र विरराम पितुः पुरः । तस्थौ सभायां स विधिर्हृदयेन विदूयता ॥।६६॥ ऐसा कह कर नारद जी अपने पिता के सामने चुप हो गए और ब्रह्मा भी सन्तप्त हृदय से उस सभा में सुस्थिर भाव से बैठे रहे ॥ ६६ ॥ उपबर्हणगन्धर्वो नारदस्तेन हेतुना । दासीपुत्रश्च शापेन पितुरेव च शौनक ॥६७॥ ततः पुनर्नारदश्च स बभूव महानृषिः । ज्ञानं प्राप्य पितुः पश्चात्कथयिष्यामि चाधुना ॥६८॥ शौनक ! पिता के शाप से ही नारद उपबर्हण नामक गन्धर्व हुए और पुनः दासी पुत्र हुए । इसके पश्चात् पिता (ब्रह्मा) से ज्ञान प्राप्त करके वे महर्षि नारद हुए । इसका वर्णन मैं अभी करूँगा ॥ ६७-६८ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणे सैतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे ब्रह्मनारदशापोपलम्भनं नामाष्टमोऽध्यायः ॥८॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में ब्रह्म-नारद-शाप-प्राप्ति नामक आठवां अध्याय समाप्त ॥ ८ ॥ |