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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - नवमोऽध्यायः प्रसूतिवंशवर्णनम्
दक्ष कन्याओं की संतति आदि का वर्णन - सौतिरुवाच अथ ब्रह्मा स्वपुत्रांस्तानादिदेश च सृष्टये । सृष्टिं प्रचक्रुस्ते सर्वे विप्रेन्द्र नारदं विना ॥१॥ सौति बोले -हे विप्रेन्द्र ! इसके उपरान्त ब्रह्मा ने अपने पुत्रों को सृष्टि करने की आज्ञा प्रदान की और नारद को छोड़कर सभी पुत्रों ने सृष्टि करना आरम्भ भी किया ॥ १ ॥ मरीचेर्मनसो जातः कश्यपश्च प्रजापतिः । अत्रेर्नेत्रमलाच्चन्द्रः क्षीरोदे च बभूव ह ॥२॥ मरीचि के मन से कश्यप प्रजापति प्रकट हुए । अत्रि महर्षि के नेत्र के मल से क्षीरसागर में चन्द्रमा का आविर्भाव हुआ ॥ २ ॥ प्रचेतसोऽपि मनसो गौतमश्च बभूव ह । पुलस्त्यमनसः पुत्रो मैत्रावरुण एव च ॥३॥ प्रचेता के मन से गौतम और पुलस्त्य के मन से मैत्रावरुण उत्पन्न हुए ॥ ३ ॥ मनोश्च शतरूपायां तिस्रः कन्याः प्रजज्ञिरे । आकूतिर्देवहूतिश्च प्रसूतिस्ताः पतिव्रताः ॥४॥ प्रियव्रतोत्तानपादौ द्वौ च पुत्रौ मनोहरौ । उत्तानपादतनयो ध्रुवः परमधार्मिकः ॥५॥ मनु-शतरूपा से आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन कन्यायें तथा प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो मनोहर पुत्र उत्पन्न हुए । उत्तानपाद के पुत्र परम धार्मिक ध्रुव हुए ॥ ४-५ ॥ आकूतिं रुचये प्रादाद्दक्षायाथ प्रसूतिकाम् । देवहूतिं कर्दमाय यत्पुत्रः कपिलः स्वयम् ॥६॥ आकूति रुचि को, प्रसूति दक्ष को तथा देवहूति कर्दम प्रजापति को प्रदान की गई । देवहूति से स्वयं कपिल उत्पन्न हुए ॥ ६ ॥ प्रसूत्यां दक्षबीजेन षष्टिकन्याः प्रजज्ञिरे । अष्टौ धर्माय स ददौ रुद्रायैकादश स्मृताः ॥७॥ शिवायैकां सतीं प्रादात्कश्यपाय त्रयोदश । सप्तविंशतिकन्याश्च दक्षश्चन्द्राय दत्तवान् ॥८॥ दक्ष के वीर्य और प्रभूति के गर्भ से साठ कन्याओं को उत्पत्ति हुई, जिनमें से उन्होंने आठ कन्यायें धर्म को, ग्यारह रुद्र को, एक सती शिव को, तेरह कश्यप को तथा सत्ताईस कन्याएँ चन्द्रमा को प्रदान की ॥ ७-८ ॥ नामानि धर्मपत्नीनां मत्तो विप्र निशामय । शान्तिः पुष्टिर्धृतिस्तुष्टिः क्षमा श्रद्धा मतिः स्मृतिः ॥९॥ विप्र ! धर्म की पत्नियों के नाम मैं कह रहा हूँ, सुनो--शान्ति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, क्षमा, श्रद्धा, मति और स्मृति उनके नाम हैं ॥ ९ ॥ शान्तेः पुत्रश्च संतोषः पुष्टेः पुत्रो महानभूत् । धृतेधैर्यं च तुष्टेश्च हर्षदर्पौ सुतौ स्मृतौ ॥ १ ०॥ शान्ति का पुत्र सन्तोष और पुष्टि का महान् हुआ । धृति के धैर्य और तुष्टि के हर्ष तथा दर्प नामक पुत्र हुए ॥ १० ॥ क्षमापुत्रः सहिष्णुश्च श्रद्धापुत्रश्च धार्मिक । मतेर्ज्ञानाभिधः पुत्रः स्मृतेर्जातिस्मरो महान् ॥ ११ ॥ इसी प्रकार क्षमा के सहिष्णु, श्रद्धा के धार्मिक, मति के ज्ञान और स्मृति के महान् जातिस्मर नामक पुत्र हुआ ॥ ११ ॥ पूर्वपत्न्यां च मूर्त्यां च नरनारायणावृषी । बभूवुरेते धर्मिष्ठा धर्मपुत्राश्च शौनक ॥ १२ ॥ शौनक ! धर्म की पहली पत्नी मूर्ति में नर-नारायण नामक दो ऋषि और अन्य भी धार्मिक पुत्र हुए ॥ १२ ॥ नामानि रुद्रपत्नीनां सावधानं निबोध मे । कला कलावती काष्ठा कालिका कलहप्रिया ॥ १३ ॥ कंदली भीषणा रास्ना प्रमोचा भूषणा शुकी । एतासां बहवः पुत्रा बभूवुः शिवपार्षदाः ॥ १४॥ अब मैं रुद्र की पत्नियों के नाम बता रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ! कला, कलावती, काष्ठा, कालिका, कलहप्रिया, कन्दली, भीषणा, रास्ना, प्रमोचा, भूषणा और शुकी -ये उनके नाम हैं । उनके अनेक पुत्र उत्पन्न हुए, जो शिव के पार्षद हैं ॥ १३-१४ ॥ सा सती स्वामिनिन्दायां तनुं तत्याज्य यज्ञतः । पुनर्भूत्वा शैलपुत्री लेभे सा शंकरं पतिम् ॥ १५॥ सती ने (अपने पिता के) यज्ञ में स्वामी (शंकर) की निन्दा होने के कारण अपना शरीर छोड़ दिया और पुनः हिमालय के यहाँ उत्पन्न होकर शंकर को पति के रूप में वरण किया ॥ १५ ॥ कश्यपस्य प्रियाणां च नामानि शृणु धार्मिक । अदितिर्देवमाता वै दैत्यमाता दितिस्तथा ॥ १६॥ सर्पमाता तथा कद्रूर्विनता पक्षिसूस्तथा । सुरभिश्च गवां माता महिषाणां च निश्चित्तम् ॥ १७॥ सारमेयादिजन्तूनां सरमा सूश्चतुष्पदाम् । दनुः प्रसूर्दानवानामन्याश्चेत्येवमादिकाः ॥१८॥ धार्मिक ! अब कश्यप की पत्नियों के नाम सुनो ! देवमाता अदिति, दैत्यमाता दिति, सर्पों की माता कद्रु, पक्षियों की माता विनता, गौओं और महिषों की माता सुरभि, कुत्ते आदि चार पैर वाले जन्तु की माता सरमा, दानवों की मातादनु और अन्य पत्नियाँ भी इसी प्रकार अन्यान्य सन्तानों की जननी थीं ॥ १६-१८ ॥ इन्द्रश्च द्वादशादित्या उपेन्द्राद्याः सुरा मुने । कथिताश्चादितेः पुत्रा महाबलपराक्रमाः ॥ १९॥ मुने ! इन्द्र द्वादश आदित्य और उपेन्द्र (विष्णु) आदि देवगण अदिति के पुत्र कहे गये हैं, जो महापराक्रमी एवं महाबली हैं ॥ १९ ॥ इन्द्रपुत्रो जयन्तश्च ब्रह्मञ्शच्यामजायत । आदित्यस्य सवर्णायां कन्यायां विश्वकर्मणः ॥२०॥ शनैश्चरयमौ पुत्रौ कालिन्दी कन्यका तथा । उपेन्द्रवीर्यात्पृथ्व्यां तु मङ्गल समजायत ॥२१॥ ब्रह्मन् ! इन्द्र-पत्नी शचि से जयन्त उत्पन्न हुआ । विश्वकर्मा की पुत्री सवर्णा में सूर्य द्वारा शनि, यम ये दो पुत्र और यमुना नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई । उसी भांति उपेन्द्र के वीर्य से पृथ्वी में मंगल नामक (ग्रह) उत्पन्न हुआ ॥ २०-२१ ॥ शौनक उवाच कथं सौते स चोपेन्द्रान्मङ्गलः समजायत । वसुंधरायां बलवान्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥२२॥ शौनक बोले -सूतपुत्र ! उपेन्द्र के वीर्य से वसुंधरा में बलवान् मंगल कैसे उत्पन्न हुआ ? हमें बताने की कृपा करें ! ॥ २२ ॥ सौतिरुवाच उपेन्द्ररूपमालोक्य कामार्ता च वसुंधरा । विधाय सुन्दरीवेषमक्षता प्रौढयौवना ॥२३॥ मलये निर्जने रम्ये चारुचन्दनपल्लवे । चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं रत्नभूषणभूषितम् ॥२४॥ तं सुशीलं शयानं च शान्तं सस्मितमीप्सितम् । सस्मिता तस्य तल्पे च सहसा समुपस्थिता ॥२५॥ सुरम्यां मालतीमालां ददौ तस्मै वरानना । सुगन्धि चन्दनं चारु कस्तूरीकुङ्कुमान्वितम् ॥२६॥ सौति बोले -एक बार उपेन्द्र के रूप को देख कर पृथ्वी अत्यन्त काम-पीड़ित हुई । उसने अक्षुण्ण प्रौढ़ यौवन वाली एक सुन्दरी स्त्री का वेष बना कर मलयाचल के निर्जन स्थान में, जो रमणीक एवं चन्दन के सुन्दर पल्लवों से विभूषित था, सम्पूर्ण शरीर में चन्दन का लेप लगाए हुए, रत्नों के आभूषणों से विभूषित, सुशील, शान्त और मन्द मुसकान से युक्त अपने हृदयवल्लभ (उपेन्द्र) को सोते हुए देख कर स्वयं भी मुसकराती हुई पृथ्वी सहसा उनकी शय्या पर पहुँच गयी । उस सुन्दरी ने उन्हें अत्यन्त रमणीक एक मालती-माला तथा कस्तूरी और केसर से युक्त सुगन्धित चन्दन प्रदान किया ॥ २३-२६ ॥ उपेन्द्रस्तन्मनो ज्ञात्वा कामिनीं कामपीडिताम् । नानाप्रकारशृङ्गारं चकार च तया सह ॥२७॥ उपेन्द्र ने काम-पीड़ित उस कामिनी के मनोभाव को समझ कर उसके साथ नाना प्रकार की कामक्रीड़ायें की ॥ २७ ॥ तदङ्गसङ्गसंसक्ता मूर्छां प्राप सती तदा । मृतेव निद्रितेवासौ बीजाधाने कृते हरौ ॥२८॥ उनके अंगों में अपने अंग मिलाने से ही वह सती मूर्च्छित-सी होने लगी और उपेन्द्र (विष्णु) के वीर्याधान करने पर तो वह निद्रित अथवा मृतक की भाँति हो गयी ॥ २८ ॥ तां विलग्नां च सुश्रोणीं सुखसंभोगमूर्छिताम् । बृहन्मुक्तनितम्बां च सस्मितां विपुलस्तनीम् ॥२९॥ क्षणं वक्षसि कृत्वा तां तदोष्ठं च चुचुम्ब ह । विहाय तत्र रहसि जगाम पुरुषोत्तमः ॥३०॥ अनन्तर विशाल नितम्बों एवं स्तनों वाली घरा को, जो संभोग-सुख से मूर्च्छित होने के उपरान्त मुसकरा रही थी, उपेन्द्र ने अपनी छाती से लगा कर उसका अधर-पान किया । पश्चात् वहीं एकान्त में उसे छोड़कर पुरुषोत्तम चले गये ॥ २९-३० ॥ उर्वशी पथि गच्छन्ती बोधयामास तां मुने । सा च पप्रच्छ वृत्तान्तं कथयामास भूश्च ताम् ॥३१॥ मुने ! उसी मार्ग से उर्वशी जा रही थी । उसने उसे सचेत किया और वृत्तान्त पूछा । पृथ्वी ने उससे समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ ३१ ॥ ईर्यसंवरणं कर्तु सा चाशक्ता च दुर्बला । प्रवालस्याऽऽकरे त्रस्ता वीर्यन्यासं चकार सा ॥३२॥ तेन प्रवालवर्णश्च कुमारः समपद्य च । तेजसा सूर्यसदृशो नारायणसुतो महान् ॥३३॥ पश्चात् उस दुर्बला पृथ्वी उस वीर्य को धारण करने में असमर्थ हो गयी । तब उसने भयभीत प्रवालों (मूंगों) की खान में उस वीर्य को रख दिया । उससे प्रवाल के रंग का कुमार (मंगल) उत्पन्न हुआ । वह नारायण का पुत्र महान् और सूर्य के समान तेजस्वी हुआ ॥ ३२-३३ ॥ मङ्गलस्य प्रिया मेधा तस्य घण्टेश्वरो महान् । व्रणदाताऽतितेजस्वी विष्णुतुल्यो बभूव ह ॥३४॥ मंगल की प्रिया का नाम मेधा था, जिसके पुत्र महान् घंटेश्वर तथा विष्णु के समान अति तेजस्वी व्रणदाता हुए ॥ ३४ ॥ दितेर्हिरण्यकशिपुहिरण्याक्षौ महाबलौ । कन्या च सिंहिका विप्र सैंहिकेयश्चः तत्सुतः ॥३५॥ विप्र ! दिति के महाबली हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई । सिंहिका के संहिकेय (राहु) नामक पुत्र हुआ ॥ ३५ ॥ निर्ऋतिः सिंहिका सा च तेन राहुश्च नैर्ऋतः । सूकरेण हिरण्याक्षोऽप्यनपत्यो मृतो युवा ॥३६॥ सिंहिका का नाम निर्ऋति भी था । इसीलिए राहु को नैर्ऋत कहा गया है । हिरण्याक्ष को कोई संतान नहीं थी । वह युवावस्था में ही वराहावतार के द्वारा मारा गया ॥ ३६ ॥ हिरण्यकशिपोः पुत्रः प्रह्लादो वैष्णवाग्रणीः । विरोचनश्च तत्पुत्रस्तत्पुत्रश्च बलिः स्वयम् ॥३७॥ हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रहलाद वैष्णवों में सर्वश्रेष्ठ था । विरोचन उनके पुत्र हुए और विरोचन का पुत्र स्वयं बलि हुआ ॥ ३७ ॥ बलेः पुत्रो महायोगी ज्ञानी शंकरकिंकरः । दितेर्वंशश्च कथितः कद्रूवंशं निबोध मे ॥३८॥ बलि का पुत्र (बाणासुर) हुआ, जो महायोगी, ज्ञानी और शंकर का बहुत बड़ा सेवक था । इस प्रकार दिति के वंश का वर्णन मैंने कर दिया और कद्रू के वंश का वर्णन कर रहा हूँ, सुनो ॥ ३८ ॥ अनन्तं वासुकिं चैव कालीयं च धनंजयम् । कर्कोटकं तक्षकं च पद्ममैरावतं तथा ॥३९॥ महापद्मं च शङ्कुं च शङ्खं च संवरणं तथा । धृतराष्ट्रं च दुर्धर्षं दुर्जयं दुर्मुखं बलम् ॥४०॥ मोक्षं गोकामुकं चैव विरूपादींश्च शौनक । एतेषां प्रवरांश्चैव यावत्यः सर्पजातयः ॥४१॥ अनन्त, वासुकि, कालीय, धनञ्जय, कर्कोटक, तक्षक, पद्म, ऐरावत, महापद्म, शंकु शंख, संवरण धृतराष्ट्र, दुर्द्धर्ष, दुर्जय, दुर्मुख, बल, गोक्ष, गोकार्मुक और विरूप आदि नाम हैं । शौनक ! जितनी सर्पजातियां हैं, उन सब में प्रधान ये ही हैं ॥ ३९-४१ ॥ कन्यका मनसा देवी कमलांशसमुद्भवा । तपस्विनीनां प्रवरा महातेजस्विनी शुभा ॥४२॥ लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न होने वाली कन्या का नाम 'मनसा देवी' है, जो तपस्विनियों में अतिश्रेष्ठ, महातेजस्विनी और शुभमूर्ति है ॥ ४२ ॥ यत्पतिश्च जरत्कारुर्नारायणबलोद्भवः । आस्तीकस्तनयो यस्या विष्णुतुल्यश्च तेजसा ॥४३॥ नारायण की कला से उत्पन्न जरत्कारु मुनि उसके पति हैं, और उसके पुत्र का नाम आस्तीक है, जो विष्णु के समान तेजस्वी है ॥ ४३ ॥ एतेषां नाममात्रेण नास्ति नागभयं नृणाम् । कद्रूवंशो निगदितो विनतायाः शृणुष्व मे ॥४४॥ इन सब के नाममात्र (उच्चारण करने से मनुष्यों को नाग-भय नहीं होता है । कद्रु के वंश का परिचय दे दिया, अब वनिता का वंश-वर्णन सुनिए ॥ ४४ ॥ वैनतेयारुणौ पुत्रौ विष्णुतुल्यपराक्रमौ । तौ बभूवुः क्रमेणैव यावत्यः पक्षिजातयः ॥४५॥ वनिता के दो पुत्र हुए---अरुण और गरुड़ । दोनों ही विष्णु के समान पराक्रमी थे । उन्हीं से सभी पक्षि-जातियों का प्रादुर्भाव हुआ है । ॥ ४५ ॥ गावश्च महिषाश्चैव सुरभिप्रवरा इमे । सर्वे वै सारमेयाश्च बभूवुः सरमासुताः ॥४६॥ दानवाश्च दनोर्वंश्या अन्याः सामान्यजातयः । उक्तः कश्यपवंशश्च चन्द्राख्यानं निबोध मे ॥४७॥ गौ और महिष (भैंसे) सुरभी से उत्पन्न हुए । एवं सभी सारमय (कुत्ते) सरमा के पुत्र हैं । दनु के वंश में दानव हए और अन्य स्त्रियों के वंशज अन्यान्य जातियाँ । इस प्रकार कश्यप वंश का वर्णन कर के अब चन्द्र वंश का आख्यान कर रहा हूँ, सुनो ! ॥ ४६-४७ ॥ नामानि चन्द्रपत्नीनां सावधानं निशामय । अत्यपूर्वं च चरितं पुराणेषु पुरातनम् ॥४८॥ सर्वप्रथम चन्द्रमा की पत्नियों के नाम और पुराणों में वर्णित उनका अपूर्व पुरातन चरित्र भी सावधान होकर सुनो ॥ ४८ ॥ अश्विनी भरणी चैव कृत्तिका रोहिणी तथा । मृगशीर्षा तथाऽऽर्द्रा च पूज्या साध्वी पुनर्वसुः ॥४९॥ पुष्याऽऽश्लेषा मघा पूर्वफल्गुन्युत्तरफल्गुनी । हस्ता चित्रा तथा स्वाती विशाखा चानुराधिका ॥५०॥ ज्येष्ठा मूला तथा पूर्वाषाढा चैवोत्तरा स्मृता । श्रवणा च धनिष्ठा च तथा शतभिषक्छुभा ॥५१ ॥ पूर्वा भाद्रोत्तरा भाद्रा रेवत्यन्ता विधुप्रियाः । तासां मध्ये च सुभगा रोहिणी रसिका वरा ॥५२॥ संततं रसभावेन चकार शशिनं वशम् । रोहिण्युपगतश्चन्द्रो न यात्यन्यां च कामिनीम् ॥५३॥ अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पूज्या, साध्वी पुनर्वसु, पुष्या, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तरा-फाल्गुनी, हस्ता, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूला, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवणा, धनिष्ठा, शुभा शतभिषा, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तरा भाद्रपदा और रेवती -ये सत्ताईस चन्द्र की प्रेयसी पत्नियां हैं । किन्तु इनके मध्य सुन्दरी और रसिकशिरोमणि रोहिणी चन्द्रमा को अति प्रिय है । क्योंकि उसने अपने अनुराग-रस से चन्द्रमा को निरन्तर अपने वश में कर लिया । तब चन्द्रमा ने अन्य पत्नियों की बड़ी अवहेलना की ॥ ४९-५३ ॥ सर्वा भगिन्यः पितरं कथयामासुरादृताः । सपत्नीकृतसंतापं प्राणनाशकरं परम् ॥५४॥ अनन्तर सभी बहिनों ने आपस में मिल कर अपने पिता से अपना वह दुःख प्रकट किया, जो सपत्नी (सौत) के द्वारा उत्पन्न किया गया था और अत्यन्त प्राणनाशक था ॥ ५४ ॥ दक्षः प्रकुपितश्चन्द्रमशपन्मन्त्रपूर्वकम् । द्रुतं श्वशुरशापेन यक्ष्मग्रस्तो बभूव सः ॥५५॥ (पिता) दक्ष ने क्रुद्ध होकर चन्द्रमा को मन्त्रपूर्वक शाप दे दिया । श्वशुर के शाप देने से चन्द्रमा अत्यन्त शीघ्र यक्ष्मा रोग से पीड़ित हो गए ॥ ५५ ॥ दिने दिने यक्ष्मणा स क्षीयमाणश्च दुःखितः । वपुष्यर्धं क्षीयमाणे शंकरं शरणं ययौ ॥५६॥ दिन-प्रतिदिन यक्ष्मा रोग से दुःखी और क्षीण काय होते हुए चन्द्रमा ने आधे शरीर के क्षीण हो जाने पर शंकर की शरण प्राप्त की ॥ ५६ ॥ दृष्ट्वा चन्द्रं शंकरश्च क्लेशितं शरणागतम् । करुणासागरस्तस्मै कृपया चाभयं ददौ ॥५७॥ करुणासागर शंकर ने शरण में आये हुए चन्द्रमा को दुःखी देख कर कृपा कर उन्हें अभयदान दिया ॥ ५७ ॥ निर्मुक्तं यक्ष्मणा कृत्वा स्वकपाले स्थलं ददौ । अपरो निर्भयो भूत्वा स तस्थौ शिवशेखरे ॥५८॥ और यक्ष्मा रोग से मुक्त करके उन्हें अपने मस्तक पर स्थान दिया । जिससे चन्द्रमा भी अमर और निर्भय होकर शिव के शिखर पर विराजमान हो गए ॥ ५८ ॥ तं शिवः शेखरे कृत्वा चाभवच्चन्द्रशेखरः । नास्ति लोकेषु देवेषु शिवाच्छरणपञ्जरः ॥५९॥ तब से शंकर भी उन्हें अपने शिखर पर रख लेने के कारण चन्द्रशेखर कहलाने लगे । देवों तथा अन्य लोगों में शिव से बढ़ कर शरणागत-पालक दूसरा कोई नहीं है ॥ ५९ ॥ दक्षकन्याः पतिं मुक्तं दृष्ट्वा च रुरुदुः पुनः । आजग्मुः शरणं तातं दक्षं तेजस्विनां वरम् ॥६०॥ उच्चैश्च रुरुदुर्गत्वा निहत्याङ्गं पुनः पुनः । तमूचुः कातरं दीना दीनानाथं विधेः सुतम् ॥६१ ॥ पश्चात् दक्ष की कन्याएँ अपने पति (चन्द्रमा) को रोग-मुक्त देखकर पुनः रोने लगी और तेजस्वियों में श्रेष्ठ पिता दक्ष की शरण पहुँचीं । वहाँ जाकर बार-बार अपने (शिर आदि) अंगों को पीटती हुई वे उच्च स्वर से रोने लगी और दीन होकर कातर भाव से दीनानाथ ब्रह्मपुत्र दक्ष से कहने लगीं ॥ ६०-६१ ॥ दक्षकन्या ऊचुः स्वामिसौभाग्यलाभाय त्वमुक्तोऽस्माभिरेव च । सौभाग्यमस्तु नस्तात गतः स्वामी गुणान्वितः ॥६२॥ दक्ष-कन्याओं ने कहा -तात ! हम लोगों ने स्वामी की प्राप्ति रूप सौभाग्य पाने के लिए आपसे निवेदन किया था । किन्तु सौभाग्य तो दूर रहा हमारे गुणवान् स्वामी ही हमें छोड़कर चले गए ॥ ६२ ॥ स्थिते चक्षुषि हे तात दृष्टं ध्वान्तमयं जगत् । विज्ञातमधुना स्त्रीणां पतिरेव हि लोचनम् ॥६३॥ तात ! नेत्रों के रहते हुए भी हमें सारा जगत् अन्धकारपूर्ण दिखायी पड़ रहा है । इस समय यह बात भलीभांति समझ में आ रही है कि पति ही स्त्रियों का नेत्र है ॥ ६३ ॥ पतिरेव गतिः स्त्रीणां पतिः प्राणाश्च संपदः । धर्मार्थकाममोक्षाणां हेतुः सेतुर्भवार्णवे ॥६४॥ (इतना ही नहीं) प्रत्युत स्त्रियों की गति, प्राण और सम्पत्ति भी पति ही है । उनके धर्म अर्थ काम और मोक्ष का हेतु तथा भवसागर को पार करने का सेतु पति ही है ॥ ६४ ॥ पतिर्नारायणः स्त्रीणां व्रतं धर्मः सनातनः । सर्वं कर्म वृथा तासां स्वामिनो विमुखाश्च याः ॥६५॥ पति ही स्त्रियों के नारायण, व्रत और सनातनधर्म है । इसलिए पति से विमुख रहने वाली स्त्रियों के सभी धर्म-कर्म व्यर्थ हैं ॥ ६५ ॥ स्नानं च सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दक्षिणा । सर्वदानानि पुण्यानि व्रतानि नियमाश्च ये ॥६६॥ देवार्चनं चानशनं सर्वाणि च तपांसि च । स्वामिनः पादसेवायाः कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥६७॥ समी तीर्थों के स्नान, समस्त यज्ञों की दक्षिणा, सब भाँति के दान, पुण्य, व्रत, नियम, देव-पूजा, व्रतोपवास, सभी तप पति की चरण-सेवा की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं है ॥ ६६-६७ ॥ सर्वेषां बान्धवानां च प्रियः पुत्रश्च योषिताम् । स एव स्वामिनोंऽशश्च शतपुत्रात्परः पतिः ॥६८॥ समस्त बन्धुओं और स्त्रियों का प्रिय पुत्र होता है किन्तु वह पुत्र स्वामी का अंश मात्र रहता है । इसलिए (स्त्रियों के लिए) पति सैकड़ों पुत्रों से भी बढ़ कर है ॥ ६८ ॥ असद्वंशप्रसूता या सा द्वेष्टि स्वामिनं सदा । यस्या मनश्चलं दुष्टं सततं परपूरुषे ॥६९॥ असत्कुल में उत्पन्न होने वाली स्त्री अपने पति से सदा वैरभाव ही रखती है क्योंकि उसका मन सदैव चलायमान, दुष्ट और पर पुरुष में लगा रहता है ॥ ६९ ॥ पतितं रोगिणं दुष्टं निर्धनं गुणहीनकम् । युवानं चैव वृद्धं वा भजेत्तं न त्यजेत्सती ॥७०॥ किन्तु सती स्त्रियाँ पतित, रोगी, दुष्ट, निर्धन, गुणहीन, युवा या वृद्ध कैसा भी पति क्यों न हो उसकी भी सेवा करती हैं ॥ ७० ॥ सगुणं निर्गुणं वाऽपि द्वेष्टि या संत्यजेत्पतिम् । पच्यते कालसूत्रे सा यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥७१॥ जो स्त्री गुणी अथवा निर्गुण पति से द्वेष या उनका त्याग करती हैं वे कालसूत्र में तब तक पकायी जाती हैं जब तक सूर्य-चन्द्रमा की सत्ता रहती है ॥ ७१ ॥ कीटैः शुनकतुल्यैश्च भक्षिता सा दिवानिशम् । भुङ्क्ते मृतवसामांसे पिबेन्मूत्रं च तृष्णया ॥७२॥ वहाँ कुत्ते के समान कीड़े उसे दिनरात खाया करते हैं । क्षुधा लगने पर वह स्त्री मृतक का मांस खाती है और न्यास लगने पर मूत्र पान करती है ॥ ७२ ॥ गृध्रः कोटिसहस्राणि शतजन्मानि सूकरः । श्वापदः शतजन्मानि सा भवेद्बन्धुहा ततः ॥७३॥ अनन्तर करोड़ जन्मों तक गीध, सौ जन्मों तक सूकरी, सौ जन्मों तक हिंसक जीव होकर अन्त में बन्धु का नाश करती है ॥ ७३ ॥ ततो मानवजन्मानि लभेच्चेत्पूर्वकर्मणः । विधवा धनहीना च रोगयुक्ता भवेद्ध्रुवम् ॥७४॥ पुनः पूर्व कर्मों के अनुसार यदि मानव-जन्म प्राप्त किया तो विधवा, दरिद्रा, और रोगिणी होती है, यह निश्चित है ॥ ७४ ॥ देहि नः कान्तदानं च कामपूरं विधेः सुत । विधात्रा सदृशस्त्वं च पुनः स्रष्टुं क्षमो जगत् ॥७५॥ अतः हे ब्रह्मपुत्र ! हमें पति-दान देने की कृपा करें ! क्योंकि आप ब्रह्मा के समान ही समस्त जगत् की सृष्टि करने में समर्थ हैं ॥ ७५ ॥ कन्यानां वचनं श्रुत्वा दक्षः शंकरसंनिधिम् । जगाम शंभुस्तं दृष्ट्वा समुत्थाय ननाम च ॥७६॥ कन्याओं की ऐसी बातें सुनकर दक्ष शंकर के पास गए और शिव ने उन्हें देखते ही उठ कर प्रणाम किया ॥ ७६ ॥ दक्षस्तस्याऽऽशिषं कृत्वा समुवाच कृपानिधिम् । तत्याज कोपं दुर्धर्षं दृष्ट्वा च प्रणतं शिवम् ॥७७॥ कृपानिधान शंकर को दक्ष ने आशीर्वाद प्रदान किया और (साथ ही) शिव को प्रणत देख कर अपना क्रोध भी त्याग दिया ॥ ७७ ॥ दक्ष उवाच देहि जामातरं शंभो मदीयं प्राणवल्लभम् । मत्सुतानां च प्राणानां परमेव प्रियं पतिम् ॥७८॥ दक्ष बोले-शम्भो ! आप मेरे प्राणप्रिय जामाता को लौटा दें, जो मेरी कन्याओं के परम प्राणप्रिय पति हैं ॥ ७८ ॥ न चेद्ददासि जामातर्मम जामातरं विधुम् । दास्यामि दारुणं शापं तुभ्यं त्वं केन मुच्यसे ॥७९॥ आप भी मेरे जामाता हैं । तथापि यदि मेरे जामाता चन्द्रमा को नहीं लौटाते हैं तो मैं आपको दारुण शाप दे दूंगा, फिर तो उससे मुक्त नहीं हो सकेंगे ॥ ७९ ॥ दक्षस्य वचनं श्रुत्वा तमुवाच कृपानिधिः । सुधाधिकं च वचनं ब्रह्मञ्शरणपञ्जरः ॥८०॥ ब्रह्मन् ! दक्ष की बातें सुनकर कृपानिधि एवं शरणागत पालक शिव से अमृत से भी बढ़कर (मधुर) वचन उनसे कहा ॥ ८० ॥ शिव उवाच करोषि भस्मसाच्चेन्मां दत्त्वा वा शापमेव च । नाहं दातुं समर्थश्च चन्द्रं च शरणागतम् ॥८१ ॥ शिवस्य वचनं श्रुत्वा दक्षस्तं शप्तुमुद्यतः । शिवः सस्मार गोविन्दं विपन्मोक्षणकारकम् ॥८२ ॥ शिव बोले- मुझे भस्म कीजिए या शाप प्रदान कीजिए, किन्तु शरणागत चन्द्रमा को मैं देने में असमर्थ हूँ । शिव की बात सुनकर दक्ष उन्हें शाप देने को तैयार हो गये । उस समय शिव विपत्ति से मुक्त कराने वाले गोविन्द का स्मरण करने लगे ॥ ८१-८२ ॥ एतस्मिन्नन्तरे कृष्णो वृद्धब्राह्मणरूपधृक् । समाययौ तयोर्मूलं तौ तं च नमतुः क्रमात् ॥८३ ॥ उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण एक वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण कर वहाँ आ गये, जो उन दोनों के भी मूल कारण हैं । उन दोनों ने उन्हें क्रमशः नमस्कार किया ॥ ८३ ॥ दत्त्वा शुभाशिषं तौ स ब्रह्मज्योतिः सनातनैः । उवाच शंकरं पूर्वं परिपूर्णतमो द्विज ॥८४॥ द्विज ! उन सनातन एवं परिपूर्णतम ब्रह्मज्योति ने उन दोनों को शुभाशीर्वाद दिया और पहले शंकर से कहा ॥ ८४ ॥ श्रीभगवानुवाच न चाऽऽत्मनः प्रियः कश्चिच्छर्व सर्वेषु बन्धुषु । आत्मानं रक्ष दक्षाय देहि चन्द्र सुरेश्वर ॥८५ ॥ श्री भगवान बोले- शिव ! समस्त बन्धुओं में भी आत्मा से बढ़कर कोई प्रिय नहीं होता है, अतः हे सुरेश्वर ! दक्ष को चन्द्रमा प्रदान कर अपनी रक्षा कीजिये ॥ ८५ ॥ तपस्विनां वरः शान्तस्त्वमेवं वैष्णवाग्रणीः । समः सर्वेषु जीवेषु हिंसाक्रोधविर्वजितः ॥८५ ॥ तुम तपस्वियों में श्रेष्ठ, शान्त, वैष्णवों में प्रमुख और सभी जीवों में समभाव रखने वाले एवं हिंसा तथा क्रोध से हीन हो ॥ ८६ ॥ दक्षः क्रोधी च दुर्धर्षस्तेजस्वी ब्रह्मणःसुतः । शिष्टौ बिभेति दुर्धर्षं न दुर्धर्षश्च कञ्चन ॥८७॥ दक्ष क्रोधी, दुर्द्धर्ष (उद्धत) तथा तेजस्वी ब्रह्मपुत्र हैं । शिष्ट व्यक्ति दुर्द्धर्ष प्राणी से भयभीत होता है और दुर्द्धर्ष किसी से भी भयभीत नहीं होता है ॥ ८७ ॥ नारायणवचः श्रुत्वा हसित्वा शंकरः स्वयम् । उवाच नीतिसारं च नीतिबीजं परात्परम् ॥८८॥ नारयण की ऐसी बातें सुनकर स्वयं शंकर ने हँसकर नीतिशास्त्र का निचोड़ तथा बीजरूप परमोत्तम वचन कहा ॥ ८८ ॥ शंकर उवाच तपो दास्यामि तेजश्च सर्वसिद्धिं च संपदम् । प्राणांश्च न समर्थोऽहं प्रदातुं शरणागतम् ॥८९॥ शंकर बोले- मैं तप, तेज, समस्त सिद्धियाँ, सम्पत्ति और प्राण भी दे सकता हूँ किन्तु शरणागत का त्याग करने में असमर्थ हूँ ॥ ८९ ॥ यो ददाति भयेनैव प्रपन्नं शरणागतम् । तं च धर्मः परित्यज्य याति शप्त्वा सुदारुणम् ॥ ९० ॥ क्योंकि जो भयवश शरणागत का त्याग करता है, उसे भी धर्म त्याग देता है और घोर शाप देकर चला जाता है ॥ ९० ॥ सर्वं त्यक्तं समर्थोऽहं न स्वधर्म जगत्प्रभो । यः स्वधर्मविहीनश्च स च सर्वबहिष्कृतः ॥९१ ॥ इसलिए हे जगत्प्रभो ! मैं सब का त्याग कर सकता हूँ किन्तु धर्म का नहीं । क्योंकि जो अपने धर्म से हीन है, वह समस्त धर्मों से बहिष्कृत है ॥ ९१ ॥ यश्च धर्मं सदा रक्षेद्धर्मस्तं परिरक्षति । धर्मं वेदेश्वर त्वं च किं मां ब्रूहि स्वमायया ॥९२॥ और जो सदैव धर्म की रक्षा करता है, धर्म भी उसकी रक्षा करता है । ईश्वर ! तुम धर्म को जानते हो । अतः अपनी माया से मोहित करते हुए मुझे यह क्यों कह रहे हो ? ॥ ९२ ॥ त्वं सर्वमाता स्रष्टा च हन्ता च परिणामतः । त्वयि भक्तिर्दृढा यस्य तस्य कस्माद्भयं भवेत् ॥९३॥ तुम्ही सबकी माता, स्रष्टा और परिणामतः (अन्त में) हन्ता भी हो । तुममें जिसकी दृढ भक्ति होती है, उसे किससे भय हो सकता है ॥ ९३ ॥ शंकरस्य वचः श्रुत्वा भगवान्सर्वभाववित् । चन्द्रं चन्द्राद्विनिष्कृष्य दक्षाय प्रददौ हरिः ॥९४॥ समस्त भावों के जानने वाले भगवान् ने शंकर की बातें सुनकर(सर्वांगपूर्ण) चन्द्रमा से (आधे) चन्द्रमा को निकाल कर दक्ष को सौंप दिया ॥ ९४ ॥ प्रतस्थावर्धचन्द्रश्च निर्व्याधिः शिवशेखरे । निजग्राह परं चन्द्रं विष्णुदत्तं प्रजापतिः ॥९५॥ चन्द्रमा का अर्धभाग रोगहीन होकर शिव के शिखर पर स्थित हुआ और विष्णुद्वारा दिये गये दूसरे भाग को प्रजापति दक्ष ने ग्रहण किया ॥ ९५ ॥ यक्ष्मग्रस्तं च तं दृष्ट्वा दक्षस्तुष्टाव माधवम् । पक्षे पूर्णं क्षतं पक्षे तं चकार हरिः स्वयम् ॥९६॥ कृष्ण एवं वरं दत्त्वा जगाम स्वालयं द्विज । दक्षश्चन्द्रं गृहीत्वा च कन्याभ्यः प्रददौ पुनः ॥९७॥ दक्ष ने उस चन्द्रमा को यक्ष्मा रोग से पीड़ित जानकर श्रीकृष्ण की स्तुति की । इस पर भगवान् ने चन्द्रमा को एक पक्ष में पूर्ण और दूसरे पक्ष में क्षीण (काय) बना दिया । द्विज ! इस प्रकार भगवान् कृष्ण उन्हें वर देकर अपने घर चले गये और दक्ष ने उस चन्द्रमा को लेकर पुनः अपनी कन्याओं को सौंप दिया ॥ ९६-९७ ॥ चन्द्रस्ताश्च परिप्राप्य विजहार दिवानिशम् । समं ददर्श ताः सर्वास्तत्प्रभृत्येव कम्पितः ॥९८॥ चन्द्रमा भी अपनी पत्नियों को पाकर दिन-रात विहार करने लगे और उसी दिन से उन सबको समभाव से देखने लगे ॥ ९८ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं किंचित्सृष्टिक्रमं मुने । श्रुतं च गुरुवक्त्रेण पुष्करे मुनिसंसदि ॥९९॥ मुने ! इस प्रकार मैंने पुष्करतीर्थ में मुनियों की सभा में गुरु के मुख से सृष्टिक्रम के संबंध में जो कुछ सुना था, वह तुम्हें बता दिया ॥ ९९ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे प्रसूतिवंशवर्णनं नाम नवमोऽध्यायः ॥९॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में नवां अध्याय समाप्त ॥ ९ ॥ |