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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - दशमोऽध्यायः जातिसंबन्धनिर्णयः
जाति और संबंध का निर्णय - सौतिरुवाच भृगोः पुत्रश्च च्यवनः शुक्रश्च ज्ञानिनां वर । क्रतोरपि क्रिया भार्या वालखिल्यानसूयत ॥ १॥ सौति बोले- ज्ञानियों में श्रेष्ठ भृगु के पुत्र च्यवन और शुक्र हुए । ऋतु की क्रिया नामक भार्या ने बालखिल्य नामक ऋषियों को उत्पन्न किया ॥ १ ॥ त्रयः पुत्राश्चाङ्गिरसो बभूवुर्मुनिसत्तमाः । बृहस्पतिरुतथ्यश्च शम्बरश्चापि शौनक ॥२॥ शौनक ! अंगिरा से मुनिश्रेष्ठ बृहस्पति, उतथ्य और शम्बर नामक तीन पुत्र हुए ॥ २ ॥ वसिष्ठस्य सुतः शक्तिः शक्तेः पुत्रः पराशरः । पराशरसुतः श्रीमान्कृष्णद्वैपायनो हरिः ॥३॥ वशिष्ठ के पुत्र शक्ति, शक्ति के पुत्र पराशर और पराशर के श्रीमान् कृष्ण द्वैपायन (व्यास) पुत्र हुए, जो विष्णु के अंशावतार माने जाते हैं ॥ ३ ॥ व्यासपुत्रः शिवांशश्च शुकश्च ज्ञानिनां वरः । विश्वश्रवाः पुलस्त्यस्य यस्य पुत्रो धनेश्वरः ॥४॥ व्यास के ज्ञानिप्रवर शुक पुत्र हुए, जो शिव के अंश माने जाते हैं । पुलस्त्य के विश्वश्रवा और विश्वश्रवा के धनेश्वर (कुबेर) पुत्र हुए ॥ ४ ॥ शौनक उवाच अहो पुराणविदुषामत्यन्तं दुर्गमं वचः । न बुद्धं वचनं किंचिद्धनेशोत्पत्तिपूर्वकम् ॥५॥ अधुना कथितं जन्म धनेशस्येश्वरादिदम् । पुनर्भिन्नक्रमं जन्म ब्रवीषि कथमेव माम् ॥६॥ शौनक बोले- आश्चर्य है कि पुराणवेत्ताओं की बातें अत्यन्त दुर्बोध होती हैं । धनेश कुबेर की उत्पत्ति आदि की बातें मैं कुछ समझ नहीं सका । क्योंकि अभी आपने कुबेर की उत्पत्ति ईश्वर (श्रीकृष्ण) से बतायी है, तो फिर उनके जन्म के बारे में दूसरा क्रम आप मुझसे कैसे बता रहे हैं (अर्थात् कुबेर विश्वश्रवा के पुत्र कैसे हुए) ? ॥ ५- ६ ॥ सौतिरुवाच बभूवुरेते दिक्पालाः पुरा च परमेश्वरात् । पुनश्च ब्रह्मशापेन स च विश्रवसः सुतः ॥७॥ सौति बोले- प्राचीन काल में ये सब परमेश्वर द्वारा उत्पन्न होकर दिक्पाल हुए थे, किन्तु पुनः ब्रह्मा के शाप से विश्वश्रवा के पुत्र हुए ॥ ७ ॥ गुरवे दक्षिणां दातुमुतथ्यश्च धनेश्वरम् । ययाचे कोटिसौवर्णं यत्नतश्च प्रचेतसे ॥८॥ धनेशो विरसो भूत्वा तस्मै तद्दातुमुद्यतः । चकार भस्मसाद्विप्र पुनर्जन्म ललाम सः ॥९॥ (एक बार) उतथ्य ने अपने गुरु प्रचेता को दक्षिणा देने के लिए कुबेर से एक करोड़ सुवर्ण मुद्रायें मांगी । कुबेर ने उनके साथ निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार किया । विप्र ! इस पर उतथ्य ने उन्हें भस्म कर दिया, जिससे कुबेर को पुनर्जन्म ग्रहण करना पड़ा ॥ ८-९ ॥ तेन विश्रवसः पुत्रः कुबेरश्च धनाधिपः । रावणः कुम्भकर्णश्च धार्मिकश्च विभीषणः ॥ १०॥ इस प्रकार विश्वश्रवा के घनाधीश्वर कुबेर, रावण, कुम्भकर्ण और धार्मिक विभीषण पुत्र हुए ॥ १० ॥ पुलहस्य सुतो वात्स्यः शाण्डिल्यश्च रुचेः सुतः । सावर्णिगौतमाज्जज्ञे मुनिप्रवर एव सः ॥ ११॥ पुलह के वात्स्य, रुचि के शाण्डिल्य और गौतम के मुनिश्रेष्ठ सावर्णि पुत्र हुए ॥ ११ ॥ काश्यपः कश्यपाज्जातो भरद्वाजो बृहस्पतेः । स्वयं वात्स्यश्च पुलहात्सावर्णिगौतमात्तथा ॥ १२॥ शाण्डिल्यश्च रुचेः पुत्रो मुनिस्तेजस्विनां वरः । बभूवुः पञ्चगोत्राश्च एतेषां प्रवरा भवे ॥ १३॥ कश्यप के काश्यप और बृहस्पति के भारद्वाज, पुत्र हुए । स्वयं वात्स्य पुलह से उत्पन्न हुए, गौतम से सावर्णि और रुचि से महातेजस्वी मुनि शाण्डिल्य आविर्भूत हुए ॥ १२- १३ ॥ बभूवुर्ब्रह्मणो वक्त्रादन्या ब्राह्मणजातयः । ताः स्थिता देशभेदेषु गोत्रशून्याश्च शौनक ॥ १४॥ इन मुनियों के पांच गोत्र परम प्रसिद्ध हुए । शौनक ! फिर ब्रह्मा के मुख से अन्य ब्राह्मण- जातियाँ उत्पन्न हुई । वे विभिन्न देशों में अवस्थित हुई और वे गोत्रशुन्य हैं ॥ १४ ॥ चन्द्रादित्यमनूनां च प्रवराः क्षत्रियाः स्मृताः । ब्रह्मणो बाहुदेशाच्चैवान्याः क्षत्रियजातयः ॥ १५॥ उसी प्रकार चन्द्र, सूर्य और मनु द्वारा उत्पन्न क्षत्रिय- गण श्रेष्ठ हैं और अन्य क्षत्रिय जाति के लोग ब्रह्मा के बाहु से उत्पन्न हुए ॥ १५ ॥ ऊरुदेशाच्च वैश्याश्च पादतः शूद्रजातयः । तासां संकरजातेन बभूवुर्वर्णसंकराः ॥ १६॥ उनके ऊरु देश से वैश्य और चरण में शूद्रों की उत्पत्ति हुई - इन शुद्र जातियों के कार्य से (अर्थात् एक जाति की स्त्री में दूसरी जाति के पुरुष द्वारा) वर्णसंकर उत्पन्न हुए ॥ १६ ॥ गोपनापितभिल्लाश्च तथा मोदककूबरौ । ताम्बूलिस्वर्णकारौ च वणिग्जातय एव च ॥ १७॥ इत्येवमाद्या विप्रेन्द्र सच्छूद्राः परिकीर्तिताः । शूद्राविशोस्तु करणोऽम्बष्ठो वैश्याद्द्विजन्मनोः ॥ १८॥ विप्रवर ! गोप, नापित (नाई), भील, हलवाई, कुबर (सूत ?), तमोली, सोनार और बनिया - ये सब सत् शूद्र कहलाते हैं । शूद्र में वैश्य से उत्पन्न जाति को करण और वैश्य से द्विजाति की स्त्री में उत्पन्न जाति को अम्बष्ठ कहते हैं ॥ १७-१८ ॥ विश्वकर्मा च विद्यायां वीर्याधानं चकार सः । ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः ॥ १९॥ विश्वकर्मा ने विद्या में वीर्याधान किया । उससे नव पुत्रों की उतात्ति हुई, जो शिल्पी कहे जाते हैं ॥ १९ ॥ मालाकारः कर्मकारः शङ्खकारः कुविन्दकः । कुम्भकारः कांस्यकारः षडेते शिल्पिनां वराः ॥२०॥ जैसे माली, बढ़ई, शंख बनाने वाला, जुलाहा, कुम्हार और ठठेरा, ये छहों, शिल्पियों में श्रेष्ठ कहे गये हैं ॥ २० ॥ सूत्रधारश्चित्रकारः स्वर्णकारस्तथैव च । पतितास्ते ब्रह्मशापादयाज्या वर्णसंकराः ॥२१॥ सूत्रधार (बढ़ई), चित्रकार (मूर्ति बनाने वाला) और सोनार, ये तीनों ब्रह्मा के शाप से पतित, वर्णसंकर एवम् अयाज्य (यज्ञ आदि न कराने योग्य) माने गए है ॥ २१ ॥ शौनक उवाच कथं देवो विश्वकर्मा वीर्याधानं चकार सः । शूद्रायामधमायां च कथं ते पतितास्त्रयः ॥२२॥ कथं तेषु ब्रह्मशापो ह्यभवत्केन हेतुना । हे पुराणविदां श्रेष्ठ तन्नः शंसितुमर्हसि ॥२३॥ शौनक बोले- विश्वकर्मा ने देव होकर अधम शूद्र स्त्री में वीर्याधान कैसे किया ? ये तीनो (सूत्रधार आदि) पतित कैसे हो गये ? ब्रह्मा ने उन्हें शाप क्यों दिया ? पुराणवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! यह सब हमें बताने की कृपा करें ॥ २२- २३ ॥ सौतिरुवाच घृताची कामतः कामं वेषं चक्रे मनोहरम् । तामपश्यद्विश्वकर्मा गच्छन्तीं पुष्करे पथि ॥२४॥ सौति बोले- (एक बार) घृताची (नामक अमरा) कामवश कमनीय वेश बनाकर कामदेव के पास जा रही थी । पुष्कर के पास मार्ग में विश्वकर्मा ने उसे देख लिया ॥ २४ ॥ आगच्छत्तद्विलोकाच्च प्रसादोत्फुल्लमानसः । तां ययाचे स शृङ्गारं कामेन हृतचेतनः ॥२५॥ देखते ही विश्वकर्मा का मन आनन्द से खिल उठा और कामासक्त होकर उन्होंने उससे सहवास की याचना की ॥ २५ ॥ रत्नालङ्कारभूषाढ्यां सर्वावयवकोमलाम् । यथा षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥२६॥ बृहन्नितम्बभारार्तां मुनिमानसमोहिनीम् । अतिवेगकटाक्षेण लोलां कामातिपीडिताम् ॥२७॥ तच्छ्रोणीं कठिनां दृष्ट्वा वायुनाऽपहृताञ्शुकाम् । अतीवोच्चैः स्तनयुगं कठिनं वर्तुलं परम् ॥२८॥ सुस्मितं चारु वक्त्रं च शरच्चन्द्रविनिन्दकम् । पक्वबिम्बफलारक्तस्वोष्ठाधरमनोहरम् ॥२९॥ सिन्दुरबिन्दुसंयुक्तं कस्तूरीबिन्दुसंयुतम् । कपोलमुज्ज्वलं शश्वन्महार्हमणिकुण्डलम् ॥३०॥ तामुवाच प्रियां शान्तां कामशास्त्रविशारदः । कामाग्निवर्धनोद्योगि वचनं श्रुतिसुन्दरम् ॥३१ ॥ उस समय यह समस्त अलंकारों से विभूषित थी । उसके सभी अंग कोमल थे । नित्य सुस्थिर यौवन वाली वह सोलह वर्ष की बाला दीख रही थी । उसके नितम्ब विशाल थे । वह मुनियों के भी मन को मोहित करने वाली थी । वह अत्यन्त वेग से कटाक्ष करने के कारण चंचल तथा अत्यन्त कामपीडित मालूम हो रही थी । उसका नितम्ब कटोर था । वायु उसके वस्त्र को उड़ा देता था । उसके दोनों कुच उन्नत, गोले और कठोर थे । शारदीय चन्द्रमा को लज्जित करने वाला उसका मुख मधुर मुसकान से युक्त था । उसके मनोहर ओंठ पके बिम्बफल के समान लाल थे । कस्तुरी मिश्रित सिन्दूरबिन्दु उसके ललाट पर शोभित हो रहा था । उसके उज्ज्वल कपोलों पर बहुमूल्यक मणियों के बने कुण्डल चमक रहे थे । उस शान्त प्रिया से कामशास्त्र के पंडित विश्वकर्मा ने कामाग्निवर्धक तथा सुनने में सुन्दर (यह) वचन कहा- ॥ २६- ३१ ॥ विश्वकर्मोवाच मयि क्व यासि ललिते मम प्राणाधिके प्रिये । मम प्राणांश्चाच्चहृत्य तिष्ठ कान्ते क्षणं शुभे ॥३२॥ विश्वकर्मा बोले- - सुन्दरी ! प्राणप्रिये ! मेरे प्राणों का अपहरण करके कहाँ जा रही हो ? कान्ते ! क्षणभर ठहरो ॥ ३२ ॥ तववान्वेषणं कृत्वा भ्रमामि जगतीतलम् । स्वप्राणांस्त्यक्तुमिष्टोऽहं त्वां न दृष्ट्वा हुताशने ॥३३॥ मैं तुम्हें खोजने के लिए मारे भूमण्डल में घूम रहा हूँ और तुम्हारे न मिलने पर सोच लिया है कि अग्नि में (कूद कर) मर जाऊँगा ॥ ३३ ॥ त्वं कामलोकं यासीति श्रुत्वारम्भामुखान्मया । आगच्छमहमेवाद्य चास्मिन्वर्त्मन्यवस्थितः ॥३४॥ मैंने रम्भा के मुख से सुना कि तुम काम के पास जा रही हो । इसीलिए आज मैं इस मार्ग में आकर ठहर गया हूँ ॥ ३४ ॥ अहो सरस्वतीतीरे पुष्पोद्याने मनोहरे । सुगन्धिमन्दशीतेन वायुना सुरभीकृते ॥३५ ॥ रम कान्ते मया सार्द्धं यूना कान्तेन शोभने । विदग्धाया विदग्धेन संगमो गुणवान्भवेत् ॥३६॥ सुन्दरी ! सरस्वती के तट पर मनोहर पुष्पवाटिका में, जो शीतल, मंद, सुगंध, वायु से सुगंधित हो उठी है, मुझ सुन्दर एवं युवक कान्त के साथ सहवास करो; क्योंकि चतुर पुरुष के साथ चतुर स्त्री का समागम अत्यन्त सुखप्रद होता है ॥ ३५-३६ ॥ स्थिरयौवनसंयुक्ता त्वमेव चिरजीविनी । कामुकी कोमलाङ्गी च सुन्दरीषु च सुन्दरी ॥३७॥ तुम चिरजीविनी एवं नित्ययौवना हो । तुम कामुकी, कोमलांगी और सुन्दरियों में भी सुन्दरी हो ॥ ३७ ॥ मृत्युंजयवरेणैव मृत्युकन्या जिता मया । कुबेरभवनं गत्वा धनं लब्धं कुबेरतः ॥३८॥ रत्नमाला च वरुणाद्वायोः स्त्रीरत्नभूषणम् । वह्निशुद्धं वस्त्रयुगं वह्नेः प्राप्तं महौजसः ॥३९॥ कामशास्त्रं कामदेवाद्योषिद्रञ्जनकारणम् । शृङ्गारशिल्पं यत्किंचिल्लब्धं चन्द्राच्च दुर्लभम् ॥४०॥ मैंने मृत्युञ्जय (शिव) के वरदान से मृत्यु की कन्या को जीत लिया है । कुबेर के घर जाकर उनसे धन प्राप्त किया है । उसी प्रकार वरुण से रत्न की माला, वायु से स्त्री समुचित रत्नों के भूषण, महान् ओजस्वी अग्नि से शुद्ध किये दो वस्त्र और कामदेव से कामशास्त्र प्राप्त किया है जो स्त्रियों के लिए मनोरञ्जन की वस्तु है । चन्द्रमा से दुर्लभ श्रृंगारकला प्राप्त की है ॥ ३८-४० ॥ रत्नमालां वस्त्रयुग्मं सर्वाण्याभरणानि च । तुभ्यं दातुं हृदि कृतं प्राप्तं तत्क्षणमेव च ॥४१॥ वह रत्नमाला, दोनों वस्त्र और समस्त आभूषण तुम्हें देने के लिए मैंने उसी समय मन में सोच लिया था ॥ ४१ ॥ गृहे तानि च संस्थाप्य चाऽऽगतोऽन्वेषणे भवे । विरामे सुखसंभोगे तुभ्यं दास्यामि सांप्रतम् ॥४२॥ उन वस्तुओं को घर में रखकर तुम्हें खोजने के लिए मैं यहाँ आया । इस समय तुम्हारे साथ सुखसम्भोग करके पश्चात् तुम्हें वह सब सौंप दूंगा ॥ ४२ ॥ कामुकस्य वचः श्रुत्वा घृताची सस्मिता मुने । ददौ प्रत्युत्तरं शीघ्रं नीतियुक्तं मनोहरम् ॥४३॥ मुने ! कामुक की बातें सुनकर मुसकुराती हुई घृताची उसे नीतियुक्त सुन्दर उत्तर तुरन्त देने लगी ॥ ४३ ॥ घृताच्युवाच त्वया यदुक्तं भद्रं तत्स्वीकरोभ्यधुना परम् । किंतु सामयिकं वाक्यं ब्रवीष्यामि स्मरातुर ॥४४॥ घृताची बोली- हे कामातुर ! तुमने जो सुन्दर बात कही है, उसे मैं स्वीकार करती हूँ; किन्तु इस समय मैं तुमसे कुछ सामयिक बातें कहना चाहती हूँ ॥ ४४ ॥ कामदेवालयं यामि कृतवेषा च तत्कृते । यद्दिने यत्कृते यामो वयं तेषां च योषितः ॥४५॥ अद्याहं कामपत्नी च गुरुपत्नी तवाधुना । त्वयोक्तमधुनेदं च पठितं कामदेवतः ॥४६॥ मैं कामदेव के लिए सुन्दर वेश बनाकर उसी के घर जा रही हूँ; क्योंकि हम लोग जिस दिन जिसके लिए (वेष बनाकर) जाती हैं, उस दिन उसी की स्त्रियाँ हो जाती हैं । आज मैं काम की पत्नी और तुम्हारी गुरुपत्नी हूँ । क्योंकि तुमने अभी कहा है कि मैंने कामदेव से पढ़ा है ॥ ४५-४६ ॥ विद्यादाता मन्त्रदाता गुरुर्लक्षगुणैः पितुः । मातुः सहस्रगुणवान्नास्त्यन्यस्तत्समो गुरुः ॥४७॥ विद्यादाता और मन्त्रदाता गुरु पिता से लाख गुना और माता से सहस्र गुना अधिक (मान्य) है । दूसरा उसके समान गुरु नहीं है ॥ ४७ ॥ गुरोः शतगुणैः पूज्या गुरुपत्नी श्रुतौ श्रुता । पितुः शतगुणं पूज्या यथा माता विचक्षणः ॥४८॥ विद्वन् ! वेद में यह बात सुनी गयी है कि गुरु से गुरुपत्नी उसी तह सौ गुना अधिक पूज्य है जैसे पिता से सौ गना अधिक माता ॥ ४८ ॥ मात्रा समागमे सूनोर्यावान्दोषः श्रुतौ श्रुता । ततो लक्षगुणो दोषो गुरुपत्नीसमागमे ॥४९॥ माता के साथ समागम करने पर पुत्र के लिए जितने दोष वेद में सुने गये हैं, उससे लाख गुना अधिक दोष गुरुपत्नी के समागम से प्राप्त होता है ॥ ४९ ॥ मातरित्येव शब्देन यां च संभाषते नरः । सा मातृतुल्याः सत्येन धर्मः साक्षी सतामपि ॥५०॥ मनुष्य जिसको 'माता' शब्द से संबोधित करके बातचीत करता है, वह यथार्थ में उसकी माता के तुल्य है; क्योंकि सज्जनों का भी साक्षी धर्म ही है ॥ ५० ॥ तया हि संगतो यः स्यात्कालसूत्रं प्रयाति सः । तत्र घोरे वसत्येव यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥५१ ॥ इसलिए उसके साथ जो समागम करता है, वह कालसूत्र (नरक) को प्राप्त होकर वहाँ घोर यातना तब तक भोगता है जब तक सूर्य और चन्द्रमा का अस्तित्व रहता है ॥ ५१ ॥ मात्रा सह समायोगे ततो दोषश्चतुर्गुणः । सार्द्धं च गुरुपत्न्या च तल्लक्षगुण एव च ॥५२॥ माता के साथ समागम करने से उससे चौगुना और गुरुपत्नी के साथ समागम करने से उससे लाख गुना अधिक दोष लगता है ॥ ५२ ॥ कुम्भीपाकं पतत्येव यावद्वै ब्रह्मणो वयः । प्रायश्चित्तं पापिनश्च तस्य नैव श्रुतौ श्रुतम् ॥५३॥ और वह ब्रह्मा की आयु की अवधि तक कुम्भीपाक नरक में पड़ा रहता है । ऐसे पापियों का प्रायश्चित्त वेद में सुना ही नहीं गया है । ॥ ५३ ॥ चक्राकारं कुलालस्य तीक्ष्णधारं च खड्गवत् । वसामूत्रपुरीषैश्च परिपूर्णं सुदुस्तरम् ॥५४॥ शूलवत्कृमिसंयुक्तं तप्तमग्निसमं द्रवत् । पापिनां तद्विहारं च कुम्भीपाकं प्रकीर्तितम् ॥५५॥ कुम्हार के चक्के के समान गोलाकार, खड्ग के समान तीक्ष्ण धार वाला, मांस, मूत्र और मल से भरा हुआ अत्यन्त दुस्तर, शूल के समान कीड़ों से युक्त और प्रज्वलित अग्नि के समान तपता एवं पिघलता हुआ वह कुम्भीपाक नरक पापियों के लिए कर्मभोग का स्थान बताया गया है ॥ ५४- ५५ ॥ यावान्दोषो हि पुंसां च गुरुपत्नीसमागमे । तावांश्च गुरुपत्न्या वै तत्र चेत्कामुकी यदि ॥५६॥ गुरुपत्नी के साथ समागम करने पर पुरुषों को जितना दोष लगता है उतना ही दोष गुरुपत्नी को भी लगता है, यदि वह कामुकी होकर उस पुरुष के साथ सहवास करती है ॥ ५६ ॥ अद्य यास्यामि कामस्य मन्दिरं तस्य कामिनी । वेषं कृत्वाऽऽगमिष्यामि त्वत्कृतेऽहं दिनान्तरे ॥५७॥ आज मैं कामदेव की कामिनी हूँ, अतः उसी के यहाँ जा रही हूँ । तुम्हारे लिए भी दूसरे दिन (उत्तम) वेष बनाकर आऊँगी ॥ ५७ ॥ घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्मा रुरोष ताम् । शशाप शूद्रयोनिं च व्रजेति जगतीतले ॥५८॥ घृताची की ऐसी बातें सुनकर विश्वकर्मा ने उस पर क्रोध किया और उसे शाप दिया कि तुम भूतल पर शूद्रयोनि में उत्पन्न हो ॥ ५८ ॥ घृताची तद्वचः श्रुत्वा तं शशाप सुदारुणम् । लभ जन्म भवे त्वं च स्वर्गभ्रष्टो भवेति च ॥५९॥ घृताची ने भी उनकी बात सुनकर उन्हें दारुण शाप दिया कि तुम भी स्वर्ग से भ्रष्ट होकर पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करो ॥ ५९ ॥ घृताची कारुमुक्त्वा च साऽगच्छत्काममन्दिरम् । कामेन सुरतं कृत्वा कथयामास तां कथाम् ॥६०॥ विश्वकर्मा से इस प्रकार कहकर घृताची काम के भवन में पहुंची । उससे सम्भोग करने के उपरान्त वह घटना बता दी ॥ ६० ॥ सा भारते च कामोक्त्या गोपस्य मदनस्य च । पत्न्यां प्रयागे नगरे लेभे जन्म च शौनक ॥६१ ॥ जातिस्मरा तत्प्रसूता बभुव च तपस्विनी । वरं न वव्रे धर्मिष्ठा तपस्यायां मनो दधौ ॥६२॥ काम को बताने के अनन्तर घृताची ने भारत में तीर्थराज प्रयाग नगर में मदन नामक गोप के यहाँ जन्म ग्रहण किया । शौनक ! वहाँ उत्पन्न होने पर उसे पूर्व जन्म का स्मरण बना रहा । अतः उसने किसी वर का वरण न करके तपस्या करने की ही मन में ठान ली ॥ ६१-६२ ॥ तपश्चकार तपसा तप्तकाञ्चनसंनिभा । दिव्यं च शतवर्षं सा गङ्गातीरे मनोरमे ॥६३॥ गंगा के मनोहर तट पर तपाये हुए सुवर्ण के समान वर्ण वाली उस घृताची ने दिव्य सौ वर्षों तक तप किया ॥ ६३ ॥ वीर्येण सुरकारोश्च नव पुत्रान्प्रसूय सा । पुनः स्वर्लोकं गत्वा च सा घृताची बभूव ह ॥६४॥ पश्चात् देवों के शिल्पी (विश्वकर्मा) के वीर्य द्वारा नौ पुत्रों को उत्पन्न कर घृताची स्वर्ग को चली गयी ॥ ६४ ॥ शौनक उवाच कथं वीर्यं सा दधार सुरकारोस्तपस्विनो । पुत्रान्नव प्रसूता च कुत्र वा कति वासरान् ॥६५॥ शौनक बोले- उस तपस्विनी ने विश्वकर्मा का वीर्य कैसे धारण किया ? नौ पुत्रों को कहाँ जन्म दिया ? और कितने दिनों तक पृथ्वी पर रही ? ॥ ६५ ॥ सौतिरुवाच विश्वकर्मा तु तच्छापं समाकर्ण्य रुषाऽन्वितः । जगाम ब्रह्मणः स्थानं शोकेन हृतचेतनः ॥६६॥ सौति बोले- विश्वकर्मा उस शाप सुनकर क्रुद्ध हए और शोक करते हुए ब्रह्मा के यहां चले गये ॥ ६६॥ नत्वा स्तुत्वा च ब्रह्माणं कथयामास तां कथाम् । ललाभ जन्म ब्राह्मण्यां पृथिव्यामाज्ञया विधेः ॥६७॥ ब्रह्मा को प्रणाम कर के उन्होंने उस घटना को कह सुनाया । पश्चात् ब्रह्मा की आज्ञा से पृथ्वी पर एक ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए ॥ ६७ ॥ स एव ब्राह्मणो भूत्वा भ्रुवि कारुर्बभूव ह । नृपाणां च गृहस्थानां नानाशिल्पं चकार ह ॥६८॥ ब्राह्मणवंश में उत्पन्न होकर भी वे शिल्पी का ही कार्य करते थे जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने राजाओं और अन्य गृहस्थों के यहाँ अनेक प्रकार के शिल्प- कार्य किये ॥ ६८ ॥ शिल्पं च कारयामास सर्वेभ्यः सर्वतः सदा । विचित्रं विविधं शिल्पमाश्चर्यं सुमनोहरम् ॥६९॥ वे सदा सब लोगों से शिल्प का ही कार्य कराते थे । उनका शिल्प विविध, विचित्र, आश्चर्यजनक तथा अत्यन्त मनोहर होता था ॥ ६९ ॥ एकदा तु प्रयागे च शिल्पं कृत्वा नृपस्य च । स्नातुं जगाम गङ्गा स चापश्यत्तत्र कामिनीम् ॥७०॥ एक बार वे प्रयाग में राजा के यहाँ कुछ कारागरी का काम करके स्नान करने के लिए गंगाजी गए । वहां उन्हें एक सुन्दरी तपस्विनी दिखायी पड़ी ॥ ७० ॥ घृताचीं नवरूपां च युवतिं तां तपस्विनीम् । जातिस्मरां तां बुबुधे स च जातिस्मरो द्विजः ॥७१॥ द्विज ! (पूर्वजन्म का स्मरणकर्ता) जातिस्मर होन के कारण उन्होंने उस नवयुवती घृताची को, जिसे अपने पूर्व जन्मों का स्मरण था, पहचान लिया ॥ ७१ ॥ दृष्ट्वा सकामः सहसा बभूव हृतचेतनः । उवाच मधुरं शान्तः शान्तां तां च तपस्विनीम् ॥७२॥ अतः उसे देखते हैं । वे सहसा कामविह्वल हो गये । पुनः शान्त होकर उन्होनें उस शान्त तपस्विनी से मधुर वाणी में कहा ॥ ७२ ॥ ब्राह्मण उवाच अहोऽधुना त्वमत्रैव घृताचि सुमनोहरं । मा मां स्मरसि रम्भोरु विश्वकर्माऽहमेव च ॥७३॥ ब्राह्मण बोले- अहा ! अत्यन्त मनोहर रूप धारण करने वाली घृताची ! तुम इस समय यही हो । हे कदलीस्तम्भ के समान ऊर वाली ! मैं भी विश्वकर्मा हूँ । क्या तुम मुझे पहचान रही हो ॥ ७३ ॥ शापमोक्षं करिष्यामि भज मां तव सुन्दरि । त्वत्कृतेऽतिदहत्येव मनो मे स च मन्मथः ॥७४॥ सुन्दरी ! मैं तुम्हें शापमुक्त कर दूंगा, मेरे साथ समागम करो । तुम्हारे ही लिए (कामदेव) मेरे मन को अत्यन्त जला रहा है ॥ ७४ ॥ द्विजस्य वचनं श्रुत्वा घृताची नवरूपिणी । उवाच मधुरं शान्ता नोतियुक्तं परं वचः ॥७५॥ ब्राह्मण की बात सुनकर नवीन रूप धारण करने वाली शान्त घृताची ने मधुर एवं नीतियुक्त वचन कहा ॥ ७५ ॥ गोपिकोवाच तद्दिने कामकान्ताऽहमधुना च तपस्विनी । कथं त्वया संगता स्यां गङ्गातीरे च भारते ॥७६॥ गोपिका बोली- उस दिन मैं काम की पत्नी थी और आज तपस्विनी हूँ और फिर इस भारत में गंगा के तट पर तुम्हारे साथ कैसे समागम कर सकती हूँ ॥ ७६ ॥ विश्वकर्मन्निदं पुण्यं कर्मक्षेत्रं च भारतम् । अत्र यत्क्रियते कर्म भोगोऽन्यत्र शुभाशुभम् ॥७७॥ क्योंकि हे विश्वकर्मन् ! यह भारत पुण्य कर्मक्षेत्र है । यहाँ जो कुछ शुभाशुभ कर्म किया जाता है उसका भोग अन्यत्र प्राप्त होता है ॥ ७७ ॥ धर्मी मोक्षकृते जन्म प्रलभ्य तपसः फलात् । निबद्धः कुरुते कर्म मोहितो विष्णुमायया ॥ ७८॥ धर्मात्मा पुरुष तपोबल से मोक्ष के लिए यहाँ (भारत में) जन्म लेता है और विष्णु की माया से मोहित एवं बद्ध होकर कर्म करता है ॥ ७८ ॥ माया नारायणीशाना परितुष्टा च यं भवेत् । तस्मै ददाति श्रीकृष्णो भक्तिं तन्मन्त्रमीप्सितम् ॥७९॥ क्योंकि सर्वसमर्थ नारायणी माया जिस पर प्रसन्न होती है उसी को भगवान् श्रीकृष्ण अपनी भक्ति और उसका अभिलषित मन्त्र प्रदान करते हैं ॥ ७९ ॥ यो मूढो विषयासक्तो लब्धजन्मा च भारते । विहाय कृष्णं सर्वेशं स मुग्धो विष्णुमायया ॥८०॥ भारत में जन्म ग्रहण कर जो मूर्ख सर्वेश भगवान् श्रीकृष्ण को छोड़कर विषयवासना में ही आसक्त रहता है, उसे भगवान् विष्णु की माया से मोहित ही जानना चाहिए ॥ ८० ॥ सर्वं स्मरामि देवाहमहो जातिस्मरा पुरा । घृताची सुरवेश्याऽहमधुना गोपकन्यका ॥८१ ॥ देव ! मैं पूर्वजन्म की सब बातों का स्मरण कर रही हैं । मैं पहले की देववेश्या घृताची हूँ और इस समय गोप की कन्या हूँ ॥ ८१ ॥ तपः करोमि मोक्षार्थं गङ्गातीरे सुपुण्यदे । नात्र स्थलं च क्रीडायाः स्थिरस्त्वं भव कामुक ॥८२॥ अत्यन्त पुण्यप्रद गंगातट पर मैं मोक्ष के लिए तप कर रही हूँ । अतः हे कामुक ! तुम इस समय शान्तचित्त रहो, क्योंकि यह क्रीड़ा करने का स्थान नहीं है ॥ ८२ ॥ अन्यत्र च कृतं पापं गङ्गायां च विनश्यति । गङ्गातीरे कृतं पापं सद्यो लक्षगुणं भवेत् ॥८३॥ अन्यत्र जो पाप किया जाता है वह गंगा में नष्ट होता है और गंगा के तट पर किया हुआ पाप तुरन्त लाख गुना बढ़ जाता है ॥ ८३ ॥ तत्तु नारायणक्षेत्रे तपसा च विनश्यति । सद्यो वा कामतः कृत्वा निवृत्तश्च भवेत्पुनः ॥८४॥ वह पाप नारायण क्षेत्र (गंगा के किनारे चार हाथ तक की भूमि) में तप के द्वारा ही विनष्ट होता है । आपाततः या कामना वश किया गया भी वह पाप निवृत्त हो जाता है ॥ ८४ ॥ घृताचीवचनं श्रुत्वा विश्वकर्माऽनिलाकृतिः । जगाम तां गृहीत्वा च मलयं चन्दनालयम् ॥८५॥ वायु के आकार वाले विश्वकर्मा ने घृताची की बात सुनकर उसे साथ लेकर चन्दनों के आलय मलयाचल पर चले गये ॥ ८५ ॥ रम्यायां मलयद्रोण्यां पुष्पतल्पे मनोरमे । पुष्पचन्दनवातेन संततं सुरभीकृते ॥८६॥ चकार सुखसंभोगं तया स विजने वने । पूर्णं द्वादशवर्षं च बुबुधे न दिवानिशम् ॥८७ ॥ बभूव गर्भः कामिन्याः परिपूर्णः सुदुर्वहः । सा सुषाव च तत्रैव पुत्रान्नव मनोहरान् ॥८८ ॥ कृतशिक्षितशिल्पांश्च ज्ञानयुक्तांश्च शौनक । पूर्वप्राक्तनतो योग्यान्बलयुक्तान्विचक्षणान् ॥८९ ॥ मालाकारान्कर्मकाराञ्छङ्खकारान्कुविन्दकान् । कुम्भकारान्सूत्रकारान्स्वर्णचित्रकरांस्तथा ॥९० ॥ तौ च तेभ्यो वरं दत्त्वा तान्संस्थाप्य महीतले । मानवीं तनुमुत्सृज्य जग्मतुर्निजमन्दिरम् ॥९१ ॥ मलय की उपत्यका में पुष्पों की मनोहर शय्या लगायी, जो पुष्पों और चन्दनों से सम्पृक्त वायु से अत्यन्त सुगन्धित हो रही थी । निर्जन वन में उसी शय्या पर उन्होंने उसके साथ सुखसम्भोग किया । पूरे बारह वर्ष तक (सुखसम्भोग में लीन रहने के कारण) उन्हें दिनरात का कुछ भी ज्ञान न रहा पश्चात् उस कामिनी को परिपूर्ण और अत्यन्त दुर्वह गर्भ रह गया । उसने उसी स्थान पर नौ सुन्दर पुत्रों को उत्पन्न किया । शौनक ! उन बालकों को भलीभाँति शिल्प की शिक्षा देकर उन्हें ज्ञानी, योग्य, बलवान् और बुद्धिमान् बनाया । पश्चात् उन्हें माली, बढ़ई, शंख बनाने वाले, जुलाहा, कुम्हार, सूत्रकार, स्वर्णकार और चित्रकार का काम सौंप कर वरदान दिया । अन्त में उन लोगों को भूतल पर स्थापित करके वे दोनों अपने मानवीय शरीर का त्याग कर अपवर्ग लोक को चले गये ॥ ८६- ९१ ॥ स्वर्णकारः स्वर्णचीर्याद्ब्राह्मणानां द्विजोत्तम । बभूव पतितः सद्यो ब्रह्मशापेन कर्मणा ॥९२ ॥ द्विजोत्तम ! स्वर्णकार ब्राह्मणों के सोने की चोरी करने के कारण उसी समय ब्रह्मशाप से पतित हो गया ॥ ९२ ॥ सूत्रकारो द्विजानां तु शापेन पतितो भुवि । शीघ्रं च यज्ञकाष्ठानि न ददौ तेन हेतुना ॥९३ सूत्रकार भी यज्ञ के निमित्त ब्राह्मणों को तत्क्षण लकड़ी न देने से उनके शाप से उसी समय पतित हो गया ॥ ९३ ॥ व्यतिक्रमेण चित्राणां सद्यश्चित्रकरस्तथा । पतितो ब्रह्मशापेन ब्राह्मणानां च कोपतः ॥९४ इसी प्रकार चित्रकार भी चित्रों के उलटफेर कर देने से ब्राह्मणों के शाप से पतित हो गया ॥ ९४ ॥ कश्चिद्वणिग्विशेषश्च संसर्गात्स्वर्णकारिणः । स्वर्णचौर्यादिदोषेण पतितो ब्रह्मशापतः ॥९५॥ एक विशेष प्रकार का बनिया भी सोनारों के साथ रहकर सोने की चोरी में साथ देने के कारण ब्राह्मणशाप से पतित हो गया ॥ ९५ ॥ कुलटायां च शूद्रायां चित्रकारस्य वीर्यतः । बभूवाट्टालिकाकारः पतितो जारदोषतः ॥९६॥ चित्रकार के वीर्य से कुलटा शूद्रा स्त्री में राजगीर उत्पन्न हुआ । जार- का (व्यभिचारदोष) से उत्पन्न होने के कारण वह भी पतित हो गया ॥ ९६ ॥ अट्टालिकाकारबीजात्कुम्भकारस्य योषिति । बभूव कोटकः सद्यः पतितो गृहकारकः ॥९७॥ राजगीर से कुम्हार की स्त्री में उत्पन्न कोटक भी, जो घर बनाता है, पतित हो गया ॥ ९७ ॥ कुम्भकारस्य बीजेन सद्यः कोटकयोषिति । बभूव तैलकारश्च कुटिलः पतितो भुवि ॥९८॥ कुम्हार के वीर्य से कोटक की स्त्री में कुटिल तेली उत्पन्न हुआ । वह भी पतित कहलाया ॥ ९८ ॥ सद्यः क्षत्रियबीजेन राजपुत्रस्य योषिति । बभूव तीवरश्चैव पतितो जारदोषतः ॥९९॥ क्षत्रिय के बीज से राजपुत्र की स्त्री में तीवर उत्पन्न हुआ । वह भी व्यभिचार दोष के कारण पतित कहलाया ॥ ९९ ॥ तीवरस्य तु बीजेन तैलकारस्य योषिति । बभूव पतितो दस्युर्लेटश्च परिकीर्तितः ॥ १०० ॥ तीवर के वीर्य से तेली की स्त्री में पतित दस्यु उत्पन्न हुआ जिसकी संज्ञा लेट भी हुई ॥ १०० ॥ लेटस्तीवरकन्यायां जनयामास षट् सुतान् । माल्लं मन्त्रं मातरं च भण्डं कोलं कलंदरम् ॥ १०१ ॥ तीवर की कन्या में लेट ने छह पुत्रों को उत्पन्न किया जिनके नाम ये हैं- माल्ल, मन्त्र, मातर, मण्ड, कोल और कलन्दर ॥ १०१ ॥ ब्राह्मण्यां शूद्रवीर्येण पतितो जारदोषतः । सद्यो बभूव चाण्डालः सर्वस्मादधमोऽशुचिः ॥ १०२॥ जार कर्म के द्वारा शूद्र वीर्य से ब्राह्मण में उत्पन्न पुरुष सबसे अधम एवं अपवित्र चाण्डाल हआ ॥ १०२ ॥ तीवरेण च चण्डाल्यां चर्मकारो बभूव ह । चर्मकार्यां च चण्डालान्मांसच्छेदो बभूव ह ॥ १०३॥ तीवर से चाण्डाल की कन्या में चर्मकार उत्पन्न हुआ । चर्मकार की स्त्री में चाण्डाल द्वारा मांसच्छेद (बहेलिया) उत्पन्न हुआ ॥ १०३ ॥ मांसच्छेद्यां तीवरेण कोंचश्च परिकीर्तितः । कोंचस्त्रियां तु कैवर्तात्कर्तारः परिकीर्तितः ॥ १०४॥ मांसच्छेद की स्त्री में तीवर से 'कोंच' की उत्पत्ति हुई और कोञ्च की स्त्री में कैवर्त से कर्त्तार की उत्पत्ति हुई ॥ १०४ ॥ सद्यश्चाण्डालकन्यायां लेटवीर्येण शौनक । बभूवतुस्तौ द्वौ पुत्रौ दुष्टौ हड्डिडमौ तथा ॥ १०५॥ शौनक ! चाण्डाल की कन्या में लेट के वीर्य से 'हड्डि' और 'डम' नामक दो दुष्ट पुत्र उत्पन्न हुए ॥ १०५ ॥ क्रमेण हड्डिकन्यायां सद्यश्चाण्डालवीर्यतः । बभूवुः पञ्च पुत्राश्च दुष्टा वनचराश्च ते ॥ १०६॥ क्रमशः हड्डि की कन्या में चाण्डाल के वीर्य से पांच दुष्ट पुत्रों की उत्पत्ति हुई, जो वनचर कहे जाते हैं । ॥ १०६ ॥ लेटात्तीवरकन्यायां गङ्गातीरे च शौनक । बभूव सद्यो यो बालो गङ्गापुत्रः प्रकीर्तितः ॥ १०७॥ शौनक ! गंगा के किनारे लेट द्वारा तीवर की कन्या में जो बालक उत्पन्न हुआ वह गंगापुत्र कहलाया ॥ १०७ ॥ गङ्गापुत्रस्य कन्यायां वीर्याद्वै वेषधारिणः । बभूव वेषधारी च पुत्रो युङ्गी प्रकीर्तितः ॥ १०८॥ और गंगापुत्र की कन्या में वेषधारी के वीर्य से वेषधारी पुत्र उत्पन्न हुआ जो 'युंगी' कहलाता है ॥ १०८ ॥ वैश्यात्तीवरकन्यायां सद्यः शुण्डी बभूव ह । शुण्डियोषिति वैश्यात्तु पौण्ड्रकश्च बभूव ह ॥ १०९॥ वैश्य से तीवर की कन्या में शुण्डी की उत्पत्ति हुई और शुण्डी की स्त्री में वैश्य से 'पौण्ड्रक' उत्पन्न हुआ ॥ १०९ ॥ क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह । राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः ॥ ११०॥ क्षत्रिय से करण कन्या में राजपुत्र और राजपुत्र की कन्या में करण द्वारा 'आगरी' उत्पन्न हुआ ॥ ११० ॥ क्षत्रवीर्येण वैश्यायां कैवर्तः परिकीर्तितः । कलौ तीवरसंसर्गाद्धीवरः पतितो भुवि ॥ १११॥ क्षत्रिय के वीर्य से वैश्य की स्त्री में कैवर्त उत्पन्न हआ । कलि में तीवर के संसर्ग से पतित धीवर पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ ॥ १११ ॥ तीवर्यां धीवरात्पुत्रो बभूव रजकः स्मृतः । रजक्यां तीवराच्चैव कोयालीति बभूव ह ॥ ११२॥ धीवर से तीवर की स्त्री में उत्पन्न पुत्र रजक (धोबी) कहलाया । तीवर से धोबिन में कोयालि की उत्पत्ति हुई ॥ ११२ ॥ नापिताद्गोपकन्यायां सर्वस्वो तस्य योषिति । क्षत्राद्बभूव व्याधश्च बलवान्मृगहिंसकः ॥ ११३॥ नापित से गोप की कन्या में उत्पन्न पुत्र 'सर्वस्वी' और उसकी स्त्री में क्षत्रिय से व्याध की उत्पत्ति हुई, जो बलवान् और पशुहिंसक हुआ ॥ ११३ ॥ तीवराच्छुण्डिकन्यायां बभूवुः सप्त पुत्रकाः । ते कलौ हड्डिसंसर्गाद्बभूवुर्दस्यवः सदा ॥ ११४॥ तीवर से शुण्डि की कन्या में सात पुत्र उत्पन्न हुए, जो कलियुग में हड्डि का साथ करने से सदा के लिए दस्यु हो गए ॥ ११४ ॥ ब्राह्मण्यामृषिवीर्येण ऋतोः प्रथमवासरे । कुत्सितश्चोदरे जातः कूदरस्तेन कीर्तितः ॥ ११५॥ ऋतुकाल के प्रथम दिन ब्राह्मणी में ऋषि के वीर्य से जो कुत्सित गर्भ रह गया वह उत्पन्न होने पर 'कुदर' कहलाया ॥ ११५ ॥ तदशौचं विप्रतुल्यं पतितो ऋतुदोषतः । सद्यः कोटकसंसर्गादधमो जगतीतले ॥ ११६॥ उसका अशौच ब्राह्मण के समान ही होता है । वह (माता के) ऋतुदोष के कारण पतित हुआ और सद्यः कोटक के संसर्ग से वह भूतल पर अधम भी हुआ ॥ ११६ ॥ क्षत्रवीर्येण वैश्यायामृतोः प्रथमवासरे । जातः पुत्रो महादस्युर्बलवांश्च धनुर्धरः ॥ ११७॥ चकार वागतीतं च क्षत्रियेणापि वारितः । तेन जात्या स पुत्रश्च वागतीतः प्रकीर्तितः ॥ ११८॥ उसी प्रकार वैश्य की स्त्री में ऋतुकाल के प्रथम दिन में ही क्षत्रिय के वीर्य से उत्पन्न पुत्र 'महादस्यु' बलवान् और धनुर्धारी हुआ । उसने क्षत्रिय के मना करने पर भी उनके वचन के विरुद्ध कार्य किया, अतः जन्म से वह वागतीत कहलाया ॥ ११७- ११८ ॥ क्षत्रवीर्येण शूद्रायामृतुदोषेण पापतः । बलवन्तो दुरन्ताश्च बभूवुर्म्लेच्छजातयः ॥ ११९॥ क्षत्रिय के वीर्य से शूद्र स्त्री में ऋतुदोष के पाप से बलवान् एवं प्रचंड म्लेच्छ जातियाँ उत्पन्न हुई ॥ ११९ ॥ अविद्धकर्णाः क्रूराश्च निर्भया रणदुर्जयाः । शौचाचारविहीनाश्च दुर्धर्षा धर्मवर्जिताः ॥ १२०॥ वे म्लेच्छ अविद्धकर्ण (कान न छेदानेवाले), क्रूर, निर्भय, रण में कठिनाई से जीते जाने वाले, पवित्रता एवं आचार से हीन दर्द्धर्ष और धर्मरहित हुए ॥ १२० ॥ म्लेच्छात्कुविन्दकन्यायां जोलाजातिर्बभूव च । जोलात्कुविन्दकन्यायां शराङ्कः परिकीर्तितः ॥ १२१॥ म्लेच्छ से कुविन्द की कन्या में 'जोला' जाति उत्पन्न हुई और जोला से कुविन्द की कन्या में 'शरांक' उत्पन्न हुआ ॥ १२१ ॥ वर्णसंकरदोषेण बह्व्यश्चाश्रुतजातयः । तासां नामानि संख्याश्च को वा वस्तुं क्षमो द्विज ॥ १२२॥ द्विज ! इस प्रकार वर्णसंकर दोष से अनेक अश्रुत (न सुनी हुई) जातियाँ उत्पन्न हुई । उनके नाम और संख्या बताने में भला कौन समर्थ है ? ॥ १२२ ॥ वैद्योऽश्वनीकुमारेण जातो विप्रस्य योषिति । वैद्यवीर्येण शूद्रायां बभूवुर्बहवो जनाः ॥ १२३॥ ते च ग्राम्यगुणज्ञाश्च मन्त्रौषधिपरायणाः । तेभ्यश्च जाताः शूद्रायां ये व्यालग्राहिणो भुवि ॥१२४॥ अश्विनीकुमार द्वारा ब्राह्मण स्त्री में वैद्य उत्पन्न हुआ और वैद्य द्वारा शूद्र स्त्रियों से अनेक जनों की उत्पत्ति हुई । वे लोग ग्राम्य गुणों के जानकार और मन्त्र, औषध के प्रयोग में परायण हुए । पुनः उनके द्वारा शूद्र स्त्री से सपेरों की उत्पत्ति हुई ॥ १२३- १२४ ॥ शौनक उवाच कथं ब्राह्मणपत्न्यां तु सूर्यपुत्रोऽश्विनीसुतः । अहो केनाविवेकेन वीर्याधानं चकार ह ॥ १२५॥ शौनक बोले- ब्राह्मण पत्नी में सूर्यपुत्र अश्विनीकुमार ने यह दुस्साहस कैसे किया ? उन्होंने किस अविवेक वश उसमें वीर्याधान किया ॥ १२५ ॥ सौतिरुवाच गच्छन्तीं तीर्थयात्रायां ब्राह्मणीं रविनन्दनः । ददर्श कामुकः शान्तः पुष्पोद्याने च निर्जने ॥ १२६॥ तया निवारितो यत्नाद्बलेन बलवान्सुरः । अतीव सुन्दरीं दृष्ट्वा वीर्याधानं चकार सः ॥ १२७॥ द्रुतं तत्याज गर्भं सा पुष्पोद्याने मनोहरे । सद्यो बभूव पुत्रश्च तप्तकाञ्चनसंनिभः ॥ १२८॥ सौति बोले- कोई ब्राह्मणी तीर्थयात्रा कर रही थी । किसी निर्जन पुष्पवाटिका में उसके पहुंचने पर शान्त अश्विनीकुमार उसे देख कर कामपीड़ित हो गए । प्रयत्नपूर्वक उसके द्वारा रोके जाने पर भी बलवान् अश्विनीकुमार ने उसे अत्यन्त सुन्दरी देखकर (उसमें) वीर्याधान कर ही डाला । उसने तुरन्त उस गर्भ को उसी मनोहर पुष्पोद्यान में त्याग दिया, किन्तु उससे एक तप्त सुवर्ण की भाँति कान्तिमान् पुत्र उत्पन्न हो गया ॥ १२६-१२८ ॥ सपुत्रा स्वामिनो गेहं जगाम व्रीडिता सदा । स्वामिनं कथयामास यन्मार्गे दैवसंकटम् ॥ १२९॥ विप्रो रोषेण तत्याज तं च पुत्रं स्वकामिनीम् । सरिद्बभूवायुयोगेन सा च गोदावरी स्मृता ॥ १३०॥ पुत्रं चिकित्साशास्त्रं च पाठयामास यत्नतः । नानाशिल्पं च मन्त्रं च स्वयं स रविनन्दनः ॥१३१॥ पश्चात् लज्जित होकर वह स्त्री उस पुत्र को साथ लिये अपने पति के घर लौट गयी । वहां उसने अपने पति से मार्ग की घटना बता दी । ब्राह्मण ने क्रुद्ध होकर पुत्र और स्त्री दोनों का त्याग कर दिया । अनन्तर वह स्त्री योग द्वारा 'गोदावरी' नामक नदी में परिणत हो गयी और उस पुत्र को स्वयं रविनन्दन अश्विनीकुमार ने बड़े प्रयत्न से चिकित्साशास्त्र, नाना प्रकार के शिल्प तथा मंत्र पढ़ाये ॥ १२९-१३१ ॥ विप्रश्च वेतनाज्ज्योतिर्गणनाच्च निरन्तरम् । वेदधर्मपरित्यक्तो बभूव गणको भुवि ॥ १३२॥ लोभी विप्रश्च शूद्राणामग्रे दानं गृहीतवान् । ग्रहणे मृतदानानामग्रदानी बभूव सः ॥ १३३॥ किन्तु वह ब्राह्मण निरन्तर नक्षत्रों की गणना करने और वेतन लेने से वैदिक धर्म से भ्रष्ट हो इस भूतल पर गणक हो गया । उस लोभी ब्राह्मण ने ग्रहण के समय तथा मृतकों के दान लेने के समय शूद्रों से भी अग्रदान ग्रहण किया था; इसलिए अग्रदानी हुआ ॥ १३२-१३३ ॥ कश्चित्पुमान्ब्रह्मयज्ञे यज्ञकुण्डात्समुत्थितः । स सूतो धर्मवक्ता च मत्पूर्वषुरुषः स्मृतः ॥ १३४॥ एक पुरुष ब्राह्मणों के यज्ञ में यज्ञकुण्ड से उत्पन्न हुआ । वह धर्मवक्ता 'सूत' कहलाया । वही धर्मवक्ता सूत हमारा पूर्वज है ॥ १३४ ॥ पुराणं पाठयामास तं च ब्रह्मा कृपानिधिः । पुराणवक्ता सूतश्च यज्ञकुण्डसभुद्भवः ॥ १३५॥ कृपानिधान ब्रह्मा ने उसे पुराण का अध्ययन कराया । इस प्रकार वही यज्ञकुण्ड से उत्पन्न सूत पुराणों का वक्ता हुआ ॥ १३५ ॥ वैश्यायां सूतवीर्येण पुमानेको बभूव ह । स भट्टो वावदूकश्च सर्वेषां स्तुतिपाठकः ॥ १३६॥ एवं ते कथितः किंचित्पृथिव्यां जातिनिर्णयः । वर्णसंकरदोषेण बह्व्योऽन्याः सन्ति जातयः ॥ १३७॥ सूत के वीर्य द्वारा वैश्य की स्त्री से एक पुरुष उत्पन्न हुआ, जो अत्यन्त वक्ता था । लोक में उसकी भट्ट (भाट) संज्ञा हुई । वह सभी के लिए स्तुतिपाठ करता है । इस प्रकार मैंने पृथिवी पर स्थित कुछ जातियों का निर्णय बताया । वर्णसंकर दोष से उत्पन्न होने वाली अभी अनेक जातियां शेष हैं ॥ १३६-१३७ ॥ संबन्धो येषु येषां यः सर्वजातिषु सर्वतः । तत्त्वं ब्रवीमि वेदोक्तं ब्रह्मणा कथितं पुरा ॥ १३८॥ अब मैं जिन जातियों का जिन जातियों से जो सम्बन्ध है उसके विषय में वेदोक्त तत्त्व का वर्णन करता हूँ, जैसा कि पहले ब्रह्मा ने कहा था ॥ १३८ ॥ पिता तातस्तु जनको जन्मदाता प्रकीर्तितः । अम्बा माता च जननी जनयित्री प्रसूरपि ॥ १३९॥ पितामहः पितृपिता तत्पिता प्रपितामहः । अत ऊर्ध्वं ज्ञातयश्च सगोत्राः परिकीर्तिताः ॥ १४०॥ पिता को तात, जनक, तथा जन्मदाता भी कहते हैं । उसी भांति माता को अम्बा, माता, जननी, जनयित्री तथा प्रसू (प्रसव करने वाली) कहा जाता है । बाबा को पितामह, पिता का पिता और उनके पिता को प्रपितामह कहा जाता है । उनसे ऊपर के लोग ज्ञाति और सगोत्र कहलाते हैं ॥ १३९-१४० ॥ मातामहः पिता मातुः प्रमातामह एव च । मातामहस्य जनकस्तत्पिता वृद्धपूर्वकः ॥ १४१॥ पितामही पितुर्माता तच्छ्वश्रूः प्रपितामही । तच्छ्वश्रूश्च परिज्ञेया सा वृद्धप्रपितामही ॥ १४२॥ माता के पिता को मातामह तथा उनके पिता को प्रमातामह और उनके पिता को वृद्धप्रमातामह कहा जाता है । उसी भाँति पिता की माता पितामही, उमकी सास प्रपितामही और उसकी सास वृद्धप्रपितामही कही जाती है ॥ १४१- १४२ ॥ मातामही मातृमाता मातृतुल्या च पूजिता । प्रमातामहीति ज्ञेया प्रमातामहकामिनी ॥ १४३॥ माता की माता मातामही कही जाती है, जो माता के समान ही पूज्य है । प्रमातामह की स्त्री प्रमातामही और उनके पिता की स्त्री वृद्धप्रमातामही कही गयी है ॥ १४३ ॥ वृद्धमातामही ज्ञेया तत्पितुः कामिनी तथा । पितृभ्राता पितृव्यश्च मातृभ्राता च मातुलः ॥ १४४॥ पिता का भाई 'पितृव्य (चाचा) एवं माता का भाई मातुल (मामा) कहा जाता है ॥ १४४ ॥ पितृष्वसा पितुर्मातृष्वसा मातुः स्वसा स्मृता । सूनुश्च तनयः पुत्रो दायादश्चाऽत्मजस्तथा ॥ १४५॥ धनभाग्वीर्यजश्चैव पुंसि जन्ये च वर्तते । जन्यायां दुहिता कन्या चाऽऽत्मजा परिकीर्तिता ॥ १४६॥ पिता को भगिनी 'पितृष्वमा' (बुआ) माता की भगिनी 'मातृप्वमा' (मौस) कही जाती है । सूनु, तनय पुत्र, दायाद और आत्मज- ये पुत्र के अर्थ में पर्यायवाची शब्द हैं । अपने से उत्पन्न हुए पुरुष (पुत्र) के अर्थ में धनभाक् और वीर्यज शब्द भी प्रयुक्त होते हैं । उत्पन्न की गई पुत्री के अर्थ में दुहिता, कन्या तथा आत्मजा शब्द प्रचलित हैं ॥ १४५- १४६ ॥ पुत्रपत्नी वधूर्ज्ञेया जामाता दुहितुः पतिः । पतिः प्रियश्च भर्ता च स्वामी कान्ते च वर्तते ॥ १४७॥ देवरः स्वामिनो भ्राता ननान्दा स्वामिनः स्वसा । श्वशुरः स्वामिनस्तातः श्वश्रूश्च स्वामिनः प्रसूः ॥ १४८॥ भार्या जाया प्रिया कान्ता स्त्री च पत्नी प्रकीर्तिता । पत्नीभ्राता श्यालकश्च स्वसा पत्न्याश्च श्यालिका ॥ १४९॥ पत्नीमाता तथा श्वश्रूस्तत्पिता श्वशुरः स्मृतः । सगर्भः सोदरो भ्राता सगर्भा भगिनी स्मृता ॥ १५०॥ पुत्र की पत्नी को 'बधू' (बह) और कन्या के पति को जामाता (जमाई) कहते हैं । स्त्री के स्वामी को पति, प्रिय, भर्ता, स्वामी और कान्त, स्वामी के भाई को देवर और स्वामी की भगिनी को 'ननांदा' (ननद) कहते हैं । उसी भाँति स्वामी के पिता को 'श्वशुर' एवं उनकी माता को 'श्वधू' (मास) कहते हैं । स्त्री को भार्या, जाया, प्रिया, कान्ता, स्त्री तथा पत्नी, स्त्री के भाई को 'श्यालक' (साला) स्त्री के भगिनी को 'श्यालिका' (साली) तथा पत्नी की माता को 'श्वथू' (मास) और उसके पिता को 'श्वशुर' कहते हैं । सगे भाई को सोदर और सगी बहन को 'सोदरा' कहते हैं ॥ १४७- १५० ॥ भगिनीजो भागिनेयो भ्रातृजो भ्रातृपुत्रकः । आवृत्तो भगिनीकान्तो भगिनीपतिरेव च ॥ १५१ ॥ श्यालीपतिस्तु भ्राता च श्वशुरैकत्वहेतुना । श्वशुरस्तु पता ज्ञेयो जन्मदातुः समो मुने ॥ १५२॥ भगिनी के पुत्र को 'भागिनेय' 'भानजा', भाई के पुत्र को 'भातृज' (भतीजा) और भगिनी के पति को आवुत्त, भगिनीकान्त तथा भगिनीपति कहा जाता है । साली का पति (साद ) भी अपना भाई है । है; दोनों के श्वशर को जन्म देने वाले पिता के समान जानना चाहिए ॥ १५१- १५२ ॥ अन्नदाता भयत्राता पत्नीतातस्तथैव च । विद्यादाता जन्मदाता पञ्चैते पितरो नृणाम् ॥ १५३॥ अन्नदाता, भयत्राता, पत्नी का पिता, विद्यादाता, जन्मदाता- ये पाँच मनुष्यों के पिता कहलाते हैं ॥ १५३ ॥ अन्नदातुश्च या पत्नी भगिनी गुरुकामिनी । माता च तत्सपत्नी च कन्या पुत्रप्रिया तथा ॥ १५४॥ मातुर्माता पितुर्माता श्वश्रूःपित्रोः स्वसा तथा । पितृव्यस्त्री मातुलानी मातरश्च चतुर्दश ॥ १५५॥ अन्नदाता की पत्नी, भगिनी, गुरु की स्त्री, माता, सौतेली माँ, कन्या, पुत्रवधू, नानी, दादी, सास, माता की बहन, पिता की बहन, चाची और मामा- - ये चौदह माताएँ हैं । ॥ १५४- १५५ ॥ पौत्रस्तु पुत्रपुत्रे च प्रपौत्रस्तत्सुतेऽपि च । तत्पुत्राद्याश्च ये वंश्याः कुलजाश्च प्रकीर्तिताः ॥ १५६॥ पुत्र के पुत्र को पौत्र, उसके पुत्र को प्रपौत्र तथा उसके पुत्र आदि को 'वंशज' और 'कुलज' कहते हैं ॥ १५६ ॥ कन्यापुत्रश्च दौहित्रस्तत्पुत्राद्याश्च बान्धवाः । भागिनेयसुताद्याश्च पुरुषा बान्धवाः स्मृताः ॥ १५७॥ कन्या के पुत्र को दौहित्र और उसके पुत्रादि तथा भानजे के पुत्रादि को 'बान्धव' कहते हैं ॥ १५७ ॥ भ्रातृपुत्रस्य पुत्राद्यास्ते पुनर्ज्ञातयः स्मृताः । गुरुपुत्रस्तथा भ्राता पोष्यः परमबान्धवः ॥ १५८॥ भाई के पुत्र के पुत्र आदि को 'ज्ञाति' कहा जाता है । गुरुपुत्र और भाई परम बन्धु होने के नाते पोषण के योग्य हैं ॥ १५८ ॥ गुरुकन्या च भगिनी पोष्या मातृसमा मुने । पुत्रस्य च गुरुर्भ्राता पोष्यः सुस्निग्धबान्धवः ॥ १५९॥ मुने ! गुरु की कन्या और भगिनी माता के समान पोषण के योग्य हैं । पुत्र के गुरु को भी भाई मानना चाहिए । वह पोष्य तथा सुस्निग्ध बान्धव कहा गया है ॥ १५९ ॥ पुत्रस्य श्वशुरो भ्राता बन्धुर्वैवाहिकः स्मृतः । कन्यायाः श्वशुरे चैव तत्संबन्धः प्रकीर्तितः ॥ १६०॥ पुत्र के श्वशुर को वैवाहिक सम्बन्ध से भाई समझना चाहिए । कन्या के श्वशुर के साथ भी वही सम्बन्ध होता है ॥ १६० ॥ गुरुश्च कन्यकायाश्च भ्राता सुस्निग्धबान्धवाः । गुरुश्वशुरभ्रातृणां गुरुतुल्यः प्रकीर्तितः ॥ १६१ ॥ बन्धुता येन सार्धं च तन्मित्रं परिकीर्तितम् । मित्रं सुखप्रदं ज्ञेयं दुःखदो रिपुरुच्यते ॥ १६२॥ कन्या का गुरु भी अत्यन्त स्नेही बान्धव है । गुरु और श्वशुर के भाई गुरु के समान होते हैं जिसके साथ 'बन्धुता' (भाईचारे) का सम्बन्ध होता है, उसे मित्र कहा जाता है; क्योंकि सुख देने वाले को 'मित्र' और दुःख देने वाले को शत्रु समझना चाहिए ॥ १६१- १६२ ॥ बान्धवो दुःखदो दैवान्निःसंबन्धोऽसुखप्रदः । संबन्धास्त्रिविधाः पुंसां विप्रेन्द्र जगतीतले ॥ १६३॥ विद्याजो योनिजश्चैव प्रीतिजश्च प्रकीर्तितः । मित्रं तु प्रीतिजं ज्ञेयं स संबन्धः सुदुर्लभः ॥ १६४॥ विप्रेन्द्र ! दैववश कभी बान्धव भी दुःख देने वाला हो जाता है और जिससे कोई भी सम्बन्ध नहीं है, वह सुखदायक बन जाता है । इस भूमण्डल में मनुष्यों के तीन प्रकार के सम्बन्ध कहे गये हैं जो विद्याजन्य, योनिजन्य और प्रीतिजन्य होते हैं । उसमें मिला के साथ प्रीतिजन्य संबंध होता है वह अत्यन्त दुर्लभ है ॥ १६३- १६४ ॥ मित्रमाता मित्रभार्या मातृतुल्या न संशयः । मित्रभ्राता मित्रपिता भातृतातसमौ नृणाम् ॥ १६५॥ मित्र की माता और मित्र की पत्नी माता के समान होती है, इसमें संशय नहीं । मित्र का भाई और उसका पिता मनुष्यों के लिए भाई और पिता के समान होते हैं ॥ १६५ ॥ चतुर्थं नामसंबन्धमित्याह कमलोद्भवः । जारश्चोपपतिर्बन्धुर्दुष्टसंभोगकर्तरि ॥ १६६॥ कमलोत्पन्न ब्रह्मा ने चौथा नाम- सम्बन्ध भी बताया है । दुष्ट संभोग करने वाला जार पुरुष सम्बन्ध में उपपति कहलाता है । ॥ १६६ ॥ उपपत्न्यां नवज्ञा च प्रेयसी चित्तहारिणी । स्वामितुल्यश्च जारश्च नवज्ञा गृहिणीसमा ॥१६७॥ चित्त का हरण करने वाली प्रेमिका उपपत्नी तथा नवज्ञा कहलाती है । जार पति के तुल्य और नवज्ञा पत्नी के तुल्य कही गई है ॥ १६७ ॥ संबन्धो देशभेदे च सर्वदेशे विगर्हितः । अवैदिको निन्दितस्तु विश्वामित्रेण निर्मितः ॥ १६८॥ यह सम्बन्ध देश विशेष में या सभी देशों में निन्दित माना गया है । इस अवैदिक सम्बन्ध का निर्माण विश्वामित्र ने किया था ॥ १६८ ॥ दुस्त्यजश्च महद्भिस्तु देशभेदे विधीयते । अकीर्तिजनकः पुंसां योषितां च विशेषतः ॥ १६९॥ तेजीयसां न दोषाय विद्यमाने युगे युगे ॥ १७०॥ महान् व्यक्तियों के लिए भी दुस्त्यज यह सम्बन्ध देशविशेष में विहित है । किन्तु यह सम्बन्ध पुरुषों और विशेषकर स्त्रियों के लिए अकीर्तिकर है । फिर भी किसी भी युग में अतिशय तेजस्वी व्यक्तियों के लिए यह सम्बन्ध दोषजनक नहीं भी है ॥ १६९- १७० ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डं जातिसंबन्धनिर्णयो नाम दशमोऽध्यायः ॥ १०॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में जाति-सम्बन्ध निर्णय नामक दसवाँ अध्याय समाप्त ॥ १० ॥ |