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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - एकादशोऽध्यायः विष्णुवैष्णवब्राह्मणप्रशंसा
अश्विनीकुमारों का शापमोक्ष तथा वैष्णव ब्राह्मणों की प्रशंसा - शौनक उवाच द्विजः स भार्यां संत्यज्य किं चकार विशेषतः । अश्विनोर्वा महाभाग किं नाम कस्य वंशजौ ॥ १॥ सौतिरुवाच द्विजश्च सुतपा नाम भारद्वाजो महामुनिः । तपश्चकार कृष्णस्य लक्षवर्षं हिमालये ॥२॥ महातपस्वी तेजस्वी प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा । ज्योतिर्ददर्श कृष्णस्य गगने सहसा क्षणम् ॥३॥ वरं स वव्रे निर्लिप्तमात्मानं प्रकृतेः परम् । न च मोक्ष ययाचे तं दास्यं भक्तिं च निश्चलाम् ॥४॥ शौनक बोले- - महाभाग ! उस ब्राह्मण ने अपनी पत्नी को त्यागकर आगे क्या किया ? और अश्विनःकुमारों से उत्पन्न हुए का क्या नाम है ? वे किसके वंशज हैं ? सौति बोले- - उस तपस्वी ब्राह्मण का नाम सुतपा था । वे भरद्वाज- कुल में उत्पन्न बहुत बड़े मुनि थे । उन्होंने हिमालय पर्वत पर जाकर एक लाख वर्ष तक भगवान श्रीकृष्ण की आराधना की । उन महातपस्वी एवं तेजस्वी ने, जो अपने ब्रह्मतेज से उदीप्त हो रहे थे, एक दिन सहसा आकाश में क्षण भर के लिए भगवान् श्रीकृष्ण की ज्योति का दर्शन किया और प्रकृति से परे सर्वथा निलिप्त रहने एवं निश्चल दास्य- भक्ति का वरदान मांगा । उन्होंने मोक्ष की याचना नहीं की ॥ १- ४ ॥ बभूवाऽऽकाशवाणीति कुरु दारपरिग्रहम् । पश्चाद्दास्यं प्रदास्यामि भक्तिं भोगक्षये द्विज ॥५॥ तब आकाशवाणी हुई- ब्रह्मन् ! विवाह करो, अनन्तर भोग सम्बन्धी प्रारब्ध के क्षीण हो जाने पर मैं तुम्हें अपनी दास्य भक्ति प्रदान करूँगा ॥ ५ ॥ पितृणां मानसीं कन्यां ददौ तस्मै विधिः स्वयम् । तस्यां कल्याणमित्रश्च बभूव मुनिपुंगवः ॥६॥ पश्चात् ब्रह्मा ने स्वयं उन्हें पितरों को मानसी नामक कन्या प्रदान की । मुनिपुंगव ! उनके संयोग से उस स्त्री में कल्याणमित्र नामक पुत्र उत्पन्न हुआ ॥ ६ ॥ यस्य स्मरणमात्रेण न भवेत्कुलिशाद्भयम् । न द्रष्टव्यं बन्धुमात्रं नूनं तत्स्मरणाल्लभेत् ॥७॥ जिसके स्मरण मात्र से मनुष्य को अपने ऊपर वज्र या विजली गिरने का भय नहीं होता । कल्याणमित्र के स्मरण से निश्चय ही उन बन्धुजनों को भी प्राप्ति हो जाती है, जिनका दर्शन असंभव होता है ॥ ७ ॥ कल्याणमित्रजननीं परित्यज्य महामुनिः । शशाग सूर्यपुत्रं च यज्ञभाग्वर्जितो भव ॥८॥ ससोदरश्च वा पूज्यो भवेति च सुराधम । व्याधिग्रस्तो जडाङ्गश्च भूयातेऽकीर्तिमानिति ॥९॥ अनन्तर महामुनि सुतपा ने कल्याणमित्र की माता को त्यागकर सूर्यपुत्र (अश्विनी कुमार) को भी शाप दिया कि 'तू अपने भाई के साथ यज्ञभाग से वंचित और अपूज्य हो जा । तेरा अंग रोगग्रस्त और जड़ हो जाय । तू कलंकयुक्त हो जाय' ॥ ८- ९ ॥ इत्युक्त्वा सुतपा गेहं प्रतस्थे सूनुना सह । अश्विभ्यां सहितः पूर्वः प्रययौ च तदन्तिकम् ॥ १०॥ इतना कह कर सुतपा बालक को लेकर अपने घर चले गये और सूर्य भी अपने अश्विनीकुमारों को लेकर उन ऋषि के निकट पहुँचे ॥ १० ॥ पुत्राभ्यां व्याधियुक्ताभ्यां सूर्यस्त्रिजगतां पतिः । मुनीन्द्रं वै सुतपसं स दुष्टाव चशौनक ॥ ११॥ शौनका ! तीनों लोकों के पति सूर्य ने अपने रोगी पुत्रों समेत मुनिश्रेष्ठ सुतपा का दर्शन करके उनकी स्तुति करना प्रारम्भ किया ॥ ११ ॥ सूर्य उवाच क्षमस्व भगवन्विप्र विष्णुरूप युगे युगे । मम पुत्रापराधं च भारद्वाज मुनीश्वर ॥ १२॥ सूर्य बोले- विप्र ! क्षमा करें । भगवन् ! आप प्रत्येक युग में विष्णुस्वरूप हैं । हे भारद्वाज मुनीश्वर ! मेरे पुत्रों का अपराध क्षमा कीजिए ॥ १२ ॥ ब्रह्मविष्णुमहेशाद्याः सुराः सर्वे च संततम् । भुञ्जते विप्रदत्तं तु फलपुष्पजलादिकम् ॥ १३॥ ब्राह्मणा वाहिता देवाः शश्वद्विश्वेषु पूजिताः । न च विप्रात्परो देवो विप्ररूपी स्वयं हरिः ॥१४॥ ब्रह्मा, विष्णु और शहर आदि सभी देवगण सदैव ब्राह्मण के दिये हुए फल, पुष्प एवं जल आदि का उपभोग करते हैं । लोकों में ब्राह्मण द्वारा आवाहित हुए देवगण यहाँ निरन्तर पूजित होते हैं । विप्र से बढ़कर कोई अन्य देवगण नहीं हैं; क्योंकि वे ब्राह्मण के रूप में स्वयं भगवान् हैं ॥ १३- १४ ॥ ब्राह्मणे परितुष्टे च तुष्टो नारायणः स्वयम् । नारायणे च संतुष्टे संतुष्टाः सर्वदेवताः ॥ १५॥ ब्राह्मण के सन्तुष्ट होने पर स्वयं नारायण सन्तुष्ट होते हैं और नारायण के सन्तुष्ट होने पर समस्त देवता सन्तुष्ट हो जाते हैं ॥ १५ ॥ नास्ति गङ्गासमं तीर्थं न च कृष्णात्परः सुरः । न शंकराद्वैष्णवश्च न सहिष्णुर्धरापरा ॥ १६॥ गंगा' से बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है, कृष्ण से बढ़कर उत्तम देवता नहीं; शंकर से बढ़कर वैष्णव नहीं और पृथिवी से बढ़कर कोई सहनशील नहीं है ॥ १६ ॥ त च सत्यात्परो धर्मो न साध्वी पार्वतीपरा । न दैवाद्बलवान्कश्चिन्न च पुत्रात्परः प्रियः ॥ १७॥ सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं, पार्वती से बढ़कर कोई पतित्रता नहीं, दैव से पढ़कर कोई बलवान् नहीं और पुत्र से बढ़कर कोई प्रिय नहीं है ॥ १७ ॥ न च व्याधिसमः शत्रुर्न च पूज्यो गुरोः परः । नास्ति मातृसमो बन्धुर्न च मित्रं पितुः परम् ॥१८॥ रोग के समान शत्रु, गरु से बढ़कर पूज्य, माता के गमान बन्धु, और पिता से बढ़कर दूसरा कोई मित्र नहीं है ॥ १८ ॥ एकादशीव्रतान्नान्यत्तपो नानशनात्परम् । परं सर्वधनं रत्नं विद्यारत्नं परं ततः ॥ १९॥ व्रतों में एकादशी उत्तम है और उपवास से बढ़कर अन्य कोई ता नहीं है । सब धनों में रत्न और रत्नों में विद्यारत्न उत्तम है ॥ १९ ॥ सर्ववर्णात्परो विप्रो नास्ति विप्रसमो गुरुः । वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञ इत्याह कमलोद्भवः ॥ २० ॥ सभी वर्गों में ब्राह्मण उत्तम है । विप्र के समान कोई गुरु नहीं है । यह बात वेद- वेदांग के तत्त्व- ज्ञाता कमलोत्पन्न ब्रह्मा ने कही है ॥ २० ॥ सूर्यस्य वचनं श्रत्वा भारद्वाजो ननाम तम् । नीरुजौ चापि तत्पुत्रौ चकार तपसः फलात् ॥ २१ ॥ सूर्य की बातें सुनकर भारद्वाज सुतपा ने उन्हें नमस्कार किया और तप फल द्वारा उनके दोनों पुत्रों को नोरोग कर दिया ॥ २१ ॥ पश्चाच्च तव पुत्रौ च यज्ञभाजौ भविष्यतः । इत्युक्त्वा तं च सुतपाः प्रणम्याहस्करं मुनिः ॥ २२ ॥ जगाम गङ्गां संत्रस्तो हरिसेवनतत्परः । पुत्राभ्यां सहितः सूर्यो जगाम निजमन्दिरम् ॥ २३ ॥ बभूवतुस्तौ पूज्यौ च यज्ञभाजौ द्विजाशिषा । एतत्सूर्यकृतं विप्र स्तोत्रं यो मानवः पठेत् विप्रपाद्यप्रसादेन सर्वत्र विजयी भवेत् ॥ २४॥ पश्चात् सुतपा मुनि ने यह भी कहा कि तुम्हारे ये दोनों पुत्र यज्ञ- भाग के अधिकारी भी होंगे । उपरान्त सूर्य को नमस्कार करके तपस्या के क्षीण होने के भय से भयभीत हो श्रीहरि की सेवा में मन लगाकर गंगा- नट को प्रस्थान किया । तत्पश्चात् सूर्य दोनों सुपुत्र को साथ लिए अपने धाम को चले गये । ब्राह्मण के आशीर्वाद से वे दोनों उसी दिन से यज्ञ में पूज्य और उसके भाग के अधिकारी हो गये । विप्र ! जो मनुष्य सूर्य रचित इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह विप्रचरण के प्रसाद से सर्वत्र विजयी होता है ॥ २२- २४ ॥ ब्राह्मणेभ्यो नम इति प्रातरुत्थाय यः पठेत् । स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ॥ २५ ॥ प्रातःकाल उठकर जो 'ब्राह्मणेभ्योनमः' ऐसा पाठ करता है, यह समस्त तीर्थों में स्नान करने और समस्त यज्ञों में दीक्षा लेने का फल प्राप्त करता है ॥ २५ ॥ पृथिव्यां यानि तीर्थानि तानि तीर्थानि सागरे । सागरे यानि तीर्थानि विप्रपादेषु तानि च ॥ २६ ॥ विप्रपादोदकं पीत्वा यावत्तिष्ठति मेदिनी । तावत्पुष्करपात्रेषु पिबन्ति पितरो जलम् ॥२७॥ पृथिवी- मण्डल में जितने तीर्थ हैं, वे सागर में भी हैं और सागर में जितने तीर्थ हैं, वे ब्राह्मण के चरणों में भी वर्तमान रहते हैं । इसलिए जो ब्राह्मण का चरणोदक पान करता है, उसके पितर पृथिवी के स्थिति- काल तक पुष्करपात्रों (कमल के पत्तों ?) में जल पीते हैं ॥ २६- २७ ॥ विप्रपादोदकं पुण्यं भक्तियुक्तश्च यः पिबेत् । स स्नातः सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु दीक्षितः ॥२८॥ जो भक्तिपूर्वक ब्राह्मण का पुण्य चरणोदक पान करता है उसे समस्त तीर्थों में स्नान और सभी यज्ञों की दीक्षा प्राप्त करने का फल मिलता है ॥ २८ ॥ महारोगी यदि पिबेद्विप्रपादोदकं द्विज । मुच्यते सर्वरोगाच्च मासमेकं तु भक्तितः ॥२९॥ द्विज ! यदि महारोगी भी एकः मास तक भक्तिपूर्वक ब्राह्मण का चरणोदक पान करे तो वह समस्त रोगों से मुक्त हो जाता है ॥ २९ ॥ अविद्यो वा सविद्यो वा संध्यापूतो हि यो द्विजः । स एव विष्णुसदृशो न हरौ विमुखो यदि ॥३०॥ घ्नन्तं विप्रं शपन्तं वा न हन्यान्न च तं शपेत् । गोभ्यः शतगुणं पूज्यो हरिभक्तश्च स स्मृतः ॥३१॥ विद्वान् हो चाहे विद्याहीन, जो ब्राह्मण प्रतिदिन संध्यावंदन करके पवित्र होता है तथा भगवद्भक्ति करता है, वह विष्णु के समान है । मारते हुए या शाप देते हुए ब्राह्मण को न मारना चाहिए और न शाप हो देना चाहिए । हरिभक्त ब्राह्मण गौओं से भी सौ गुना अधिक पूज्य है ॥ ३०-३१ ॥ पादोदकं च नैवेद्यं भुङ्क्ते विप्रस्य यो द्विज । नित्यं नैवेद्यभोजी च राजसूयफलं लभेत् ॥३२॥ द्विज ! ब्राह्मण का चरणोदक और नैवेद्य का नित्य भक्षण करने वाला पुरुष राजसूय नामक यज्ञ का फल प्राप्त करता है ॥ ३२ ॥ एकादश्यां न भुङ्क्ते यो नित्यं कृष्णं समर्चयेत् । तस्य पादोदकं प्राप्य स्थलं तीर्थ भवेद् ध्रुवम् ॥३३॥ जो एकादशी के दिन भोजन नहीं करता है और नित्य भगवान् कृष्ण की अर्चना करता है उसके चरणोदक को प्राप्त करने पर स्थल भी निश्चित रूप से तीर्थ बन जाता है ॥ ३३ ॥ योभुङ्क्ते भोजनोच्छिष्टं नित्यं नैवेद्यभोजनम् । कृष्णदेवस्य पूतोऽसौ जीवन्मुक्तो महीतले ॥३४॥ जो नित्य भगवान् कृष्ण का उच्छिष्ट या नैवेद्य भोजन करता है वह पवित्रात्मा भूतल पर जीवन्मुक्त होकर रहता है ॥ ३४ ॥ अन्नं विष्ठा पयो मूत्रं यद्विष्णोरनिवेदितम् । द्विजानां कुलजातानामित्याह कमलोद्भवः ॥३५॥ कमलोद्भव ब्रह्मा ने यह भी बताया है कि कुलोन ब्राह्मणों का भी अन्न, जो भगवान् कृष्ण को अपित नहीं किया गया है, विष्ठा के समान है और उनको अनिवेदित दुग्ध मूत्र के समान है ॥ ३५ ॥ ब्रह्मा च ब्रह्मपुत्राश्च सर्वे विष्णुपरायणाः । ब्राह्मणस्तत्कुले जातो विमुखश्च हरौ कथम् ॥३६॥ ब्रह्मा और ब्रह्मा के पुत्र सभी विष्णु के भक्त हैं और उन्हीं के कुल में ब्राह्मण को उत्पत्ति हुई है तो वह भला भगवान् से विमुख कैसे हो सकता है ? ॥ ३६ ॥ पित्रोर्मातामहादीनां संसर्गस्य गुरोश्च वा । दोषेण विमुखाः कृष्णे विप्रा जीवन्मृताश्च ते ॥३७॥ माता- पिता अथवा मातामह आदि या गुरु के संसर्ग के दोष से भगवान कृष्ण के विमुख रहने वाले ब्राह्मण जीवित होते हुए भी मृतक के समान हैं ॥ ३७ ॥ सकिंगुरुः स किंतातः स किंपुत्रः स किंसखा । स किंराजा स किंबन्धुर्न दद्याद्यो हरौ मतिम् ॥३८॥ जो भगवान् श्रीकृष्ण के सम्मुख रहने की बुद्धि नहीं प्रदान करता है, वह गुरु, पिता, पुत्र, सखा, राजा या वन्धु आदि कोई भी हो, निन्दा का पात्र है ॥ ३८ ॥ अवैष्णवाद्द्विजाद्विप्र चण्डालो वैष्णवो वरः । सगणः श्वपचो मुक्तो ब्राह्मणो नरकं व्रजेत् ॥३९॥ संध्याहीनोऽशुचिर्नित्यं कृष्णे वा विमुखो द्विज । स एव ब्राह्मणाभासो विषहानो यथोरगः ॥४०॥ विप्र ! अवैष्णव ब्राह्मण से वैष्णव चाण्डाल उत्तम होता है । इसलिए वैष्णव चांडाल परिवार समेत मुक्त हो जाता है और अवैष्णव ब्राह्मण नरकगामी होता है । जो ब्राह्मण संध्या से हीन, नित्य अपवित्र और भगवान् कृष्ण से विमुख रहता है, वह विषहीन सौप की भाँति नाममात्र का ब्राह्मण है ॥ ३९-४० ॥ गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे प्रविश्यति । तं वैष्णवं महापूतं जीवन्मुक्तं वदेद्विधिः ॥४१ ॥ पुंसां मातामहादीनां शतैः सार्धं हरेः पदम् । प्रयाति वैष्णवः पुंसामात्मनः कुलकोटिभिः ॥४२॥ गुरु के मुख से निकला हुआ विष्णु- मंत्र जिसके कान में प्रविष्ट होता है, उस वैष्णव को ब्रह्मा ने महापवित्र एवं जीवन्मुक्त कहा है । वह वैष्णव मातामह (नाना) आदि की सैकड़ों पीढ़ियों और अपने कुल की करोड़ों पीढ़ियों को साथ लेकर भगवान् के लोक को जाता है ॥ ४१- ४२ ॥ ब्रह्मक्षत्रियविट्शूद्राचतस्रो जातयो यथा । स्वतन्त्रा जातिरेका च विश्वस्मिन्वैष्णवाभिधा ॥४३ ॥ यद्यपि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार जातियाँ हैं किन्तु सम्पूर्ण विश्व में वैष्णव नाम की एकः जाति स्वतन्त्र है ॥ ४३ ॥ ध्यायन्ति वैष्णवाः शश्वद्गोविंदपङ्कजम् । ध्यायते तांश्च गोविन्दः शश्वत्तेषां च संनिधौ ॥४४॥ वैष्णव लोग निरन्तर भगवान् श्रीकृष्ण के चरण- कमल का ध्यान करते हैं और भगवान् श्रीकृष्ण उनके समीप रहकर निरन्तर उन लोगों का ध्यान करते हैं ॥ ४४ ॥ सुदर्शनं संनियोज्य भक्तानां रक्षणाय च । तथाऽपि नहि निश्चिन्तोऽवतिष्ठेद्भक्तसंनिधौ ॥४५॥ भक्तों के रक्षार्थ सुदर्शनचक्र को नियुक्त करके भी भगवान् निश्चिन्त नहीं रहते; प्रत्युत भक्तों के समीप जाकर रहते हैं ॥ ४५ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे विष्णुवैष्णवब्राह्मणप्रशंसा नामैकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥ ब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में वैष्णव ब्राह्मणों की प्रशंसा नामक ग्यारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ ११ ॥ |