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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - द्वादशोऽध्यायः


नारदजन्मकथनम्
नारद का वृत्तान्त -


ऋषिवंशप्रसंगेन बभूवुर्विविधा कथाः ।
उपलम्भेन प्रस्तावात्कौतुकेन श्रुता मया ॥ १ ॥
प्रजा वा ससृजुः के वा उध्वरेताश्च कश्चन ।
पित्रा सह विरोधेन नारदः किं चकार सः ॥२ ॥
पितुः शापेन पुत्रस्य किं बभूव विरोधतः ।
पितुर्वा पुत्रशापेन सौते तत्कथ्यतां शुभम् ॥३ ॥
शौनक बोले- ऋषियों के वंश- वर्णन के प्रसंग में बहुत- सी कथाएँ हुई । उनको मैं उपालंभ के द्वारा, प्रस्ताव से तथा कौतुक से सुन चुका । (अब यह बताने की कृपा करें कि) ब्रह्मा के पुत्रों में किन लोगों ने सृष्टि करना आरम्भ किया और कौन उर्ध्वरेता (महर्षि) हुए ? पिता (ब्रह्मा) से विरोध करके नारद ने क्या किया ? बिरोध वश पिता के शाप से पुत्र का क्या हुआ ? और पुत्र के शाप से पिता का क्या हुआ ? सूतपुत्र ! यह पवित्र वृत्तान्त बताइए ॥ १-३ ॥

सौतिरुवाच
हंसो यतिश्चारणिश्च वोढुः पञ्चशिखस्तथा ।
अपान्तरतमाश्चैव सनकाद्याश्च शौनक ॥४॥
एतैर्विनाऽन्ये बहवो ब्रह्मपुत्राश्च संततम् ।
सांसारिकाः प्रजावन्तो गुर्वाज्ञापरिपालकाः ॥५ ॥
सौति बोले- शौनक ! हंस, यति, अरणि, वोट, पञ्चशिख, अपान्तरतमा और सनकादि चारों पुत्रों के अतिरिक्त अन्य सभी ब्रह्मा के पुत्रों ने संसार- वृद्धि के लिए प्रजाओं को सृष्टि की । वे सदैव गुरु ब्रह्मा की आज्ञा का पालन करते रहे ॥ ४-५ ॥

अपूज्यः पुत्रशापेन स्वयं ब्रह्मा प्रजापतिः ।
तेनैवं ब्रह्मणो मन्त्रं नोपासन्ते विपश्चितः ॥ ६॥
पुत्र (नारद) के शाप द्वारा स्वयं प्रजापति ब्रह्मा अपूज्य हुए । इसीलिए विद्वान् लोग ब्रह्मा के मंत्र की उपासना नहीं करते ॥ ६ ॥

नारदो गुरुशापेन गन्धर्वश्च बभूव सः ।
कथयामि सुविस्तीर्णे तद्वृत्तान्तं निशामय ॥७॥
नारद भी ब्रह्मा के शाप से गन्धर्व हुए । उनके विस्तृत वृत्तान्त को मैं कह रहा हूँ, सुनो ॥ ७ ॥

गन्धर्वराजः सर्वेषां गन्धर्वाणां वरो महान् ।
परमैश्वर्यसंयुक्तः पुत्रहीनो हि कर्मणा ॥८॥
गुर्वाज्ञया पुष्करे स परमेण समाधिना ।
तपश्चकार शंभोश्च कृपणो दीनमानसः ॥९ ॥
उन दिनों जो गन्धर्वराज थे वे सब गन्धों में श्रेष्ठ और महान थे, उच्च कोटि के ऐश्वर्य से सम्पन्न थे, परन्तु किसी कर्म वश पुत्रहीन थे । कृपण एवं दीन चित्त वाले उस गन्धर्वराज ने गुरु की आज्ञा से पुष्कर तीर्थ में परम समाधिस्थ होकर (या एकाग्रतापूर्वक) भगवान शंकर की आराधना करना आरम्भ किया ॥ ८-९ ॥

शिवस्य कवचं स्तोत्रं मन्त्रं च द्वादशाक्षरम् ।
ददौ गन्धर्वराजाय वशिष्ठश्च कृपानिधिः ॥ १० ॥
जजाप परमं मन्त्रं दिव्यं वर्षशतं शुभ ।
पुष्करे स निराहारः पुत्रदुःखेन तापितः ॥ ११ ॥
कृपानिधान वशिष्ठ ने शिव का कवच, स्तोत्र और द्वादशाक्षर मन्त्र गन्धर्वराज को प्रदान किया । मुने ! पुत्र- दुःख से सन्तप्त गन्धर्वराज ने निराहार रहकर दिव्य सौ वर्षों तक पुष्कर में उस परम मन्त्र का जप किया ॥ १०-११ ॥

विरामे शतवर्षस्य ददर्श पुरतः शिवम् ।
भासयन्तं दश दिशो ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥ १२॥
तब सौ वर्षों के अन्त में उन्होंने अपने सामने स्थित शिव का प्रत्यक्ष दर्शन किया जो दशों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए अपने तेज से प्रदीप्त हो रहे हैं ॥ १२ ॥

महत्तेजः स्वरूपं च भगवन्तं सनातनम् ।
ईषद्धासं प्रसन्नास्यं भक्तानुग्रहकारकम् ॥ १३ ॥
तपोरूपं तपोबीजं न तपस्याफलदं फलम् ।
शरणागतभक्ताय दातारं सर्वसंपदाम् ॥ १४॥
उनके प्रसन्न गुख पर मन्द हास्य को छटा छा रही थी । भक्तों पर अनुग्रह करने वाले वे भगवान् तपोरूप हैं, तपस्या के बीज हैं, तपस्या के फल देने वाले हैं और स्वयं ही तपस्या के फल हैं । वे शरण में आये हुए भक्तों को समस्त सम्पत्ति प्रदान कर देते हैं ॥ १३- १४ ॥

त्रिशूलपट्टिशधरं वृषभस्थं दिगम्बरम् ।
शुद्धस्फटिकसंकाशं त्रिनेत्रं चन्द्रशेखरम् ॥ १५॥
तप्तस्वर्णप्रभाजुष्टजटाजालधरं वरम् ।
नीलकण्ठं च सर्वज्ञं नागयज्ञोपवीतकम् ॥ १६॥
संहर्तारं च सर्वेषां कालं मृत्युंजयं परम् ।
ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डकोटिसंकाशमीश्वरम् ॥ १७॥
तत्त्वज्ञानप्रदं शान्तं मुक्तिदं हरिभक्तिदम् ।
दृष्ट्‍वा ननाम सहसा गन्धर्वो दण्डवद्‌भुवि ॥ १८॥
वसिष्ठदतस्तोत्रेण तुष्टाव परमेश्वरम् ।
वरं वृणुष्वेति शिवस्तमुवाच कृपानिधिः ।
स ययाचे हरेर्भक्तिं पुत्रं परमवैष्णवम् ॥ १९॥
उस समय वे त्रिशूल, पट्टिश, धारण किये हुए, बैल पर विराजमान, नग्न, शुद्ध स्फटिक के समान निर्मलकान्ति, त्रिनेत्र, मस्तक पर चन्द्रमा तथा तपाये हुए सुवर्ण को प्रभा से भूषित जटा- जूट को धारण किये हुए थे । कंठ में नील चिह्न और कंधे पर नाग का यज्ञोपवीत शोभा दे रहा था । इस प्रकार सर्वज्ञ, सर्वसंहारक, कालरूप, मृत्युञ्जय, ग्रीष्मऋतु को दोपहर के करोड़ों सूर्यों के समान तेजस्वी, शान्तस्वरूप और तत्त्वज्ञान, मोक्ष तथा हरिभक्ति प्रदान करने वाले शिव को देखकर उस गन्धर्व ने सहसा दंड की भाँति पृथिवी पर पड़कर प्रणाम किया और वशिष्ठ के दिये हुए स्तोत्र द्वारा उन परमेश्वर की स्तुति की । अनन्तर कृपानिधान शिव ने उससे कहा- 'वरदान मांगो । ' उन्होंने भगवान् को भक्ति समेत परम वैष्णव पुत्र की याचना की ॥ १५-१९ ॥

गन्धर्वस्य वचः श्रुत्वा चाहसीच्चन्द्रशेखरः ।
उवाच दीनं दीनेशो दीनबन्धुः सनातनः ॥२०॥
दीनों के ईश, दीनबन्धु एवं सनातन भगवान् चन्द्रशेखर ने उस गन्धर्व की बात सुनकर हँसते हुए उस दीन से कहा ॥ २० ॥

महादेव उवाच
कृतार्थस्त्वं वरादेकादन्यच्चर्वितचर्वणम् ।
गन्धर्वराज वृणुषे को वा तृप्तोऽतिमङ्गले ॥२१॥
श्री महादेव बोले- गन्धर्वराज ! तुम तो एक ही वरदान से कृतार्थ हो गये, अतः दूसरा वरदान तुम्हारे लिए चबाये हुए को चबाना मात्र है । अथवा जो तुमने दूसरा वरदान माँगा, वह भी ठीक है । भला कल्याण से कौन तृप्त होता है ? (अर्थात् जिसको जितना पाल्याण मिलता है, वह उससे अधिकाधिक कल्याण चाहता है) ॥ २१ ॥

यस्य भक्तिर्हरौ वत्स सुदृढा सर्वमङ्गला ।
स समर्थः सर्वविश्वं पातुं कर्तुं च लीलया ॥२२॥
वत्स ! जिसकी श्रीहरि में सर्वमांगलिक भक्ति अत्यन्त दृढ़ है वह समस्त विश्व की रक्षा एवं सर्जन खेल- खेल में ही करने में समर्थ है ॥ २२ ॥

आत्मनः कुलकोटिं च शतं मातामहस्य च ।
पुरुषाणां समुद्धृत्य गोलोक याति निश्चितम् ॥२३॥
वह अपनी करोड़ पौड़ियों और मातामह के सौ कुलों का उद्धार करके निश्चित रूप से गोलोक को जाता है ॥ २३ ॥

त्रिविधानि च पापानि कोटिजन्मार्जितानि च ।
निहत्य पुण्यभोगं च हरिदास्यं लभेद्ध्रुवम् ॥२४॥
वह कोटि जन्मों के किये हुए त्रिविध (कायिक, वाचिक और मानसिकः) पापों को नष्ट करके पुण्य भोग समेत भगवान् की सेवा का सौभाग्य पाता है ॥ २४ ॥

तावत्पत्‍नी सुतस्तावत्तावदैश्वर्यमीप्सितम् ।
सुखं दुःखं नृणां तावद्यावत्कृष्णे न मानसम् ॥२५॥
मनुष्यों को पत्नी, पुत्र और ऐश्वर्य को प्राप्ति तभी तक अभीष्ट होती है और तभी तक सुख- दुःख होते हैं जब तक उसका मन भगवान् कृष्ण में नहीं लगता है ॥ २५ ॥

कृष्णे मनसि संजाते भक्तिखड्गो दुरत्ययः ।
नराणां कर्मवृक्षाणां मूलच्छेदं करोत्यहो ॥२६॥
भवेद्येषां सुकृतिनां पुत्राः परमवैष्णवाः ।
कुलकोटिं च तेषां त उद्धरन्त्येव लीलया ॥२७॥
क्योंकि भगवान् कृष्ण में मन लगाने पर भक्तिरूपी खङ्‌ग मनुष्यों के कर्म रूपी वृक्षों का मूलोच्छेद कर डालता है; यह आश्चर्य की बात है । जिन पुण्यकर्मियों के अत्यन्त वैष्णव पुत्र उत्पन्न होते हैं, उनके वे पुत्र लीलापूर्वक कुल की बहुसंख्यक पीढ़ियों का उद्धार कर देते हैं । ॥ २६-२७ ॥

चरितार्थः पुमानेकद्वारमिच्छुर्वरादहो ।
किं वरेण द्वितीयेन पुंसा तृप्तिर्न मङ्गले ॥ २८॥
यद्यपि मनुष्य एक ही वरदान से कृतार्थ हो जाता है, फिर भी वह दूसरा वरदान चाहता है, यह आश्चर्य की बात है । दूसरे वरदान की क्या आवश्यकता है ? लोगों को मंगल को प्राप्ति से तृप्ति नहीं होती है ॥ २८ ॥

धनं संचितमस्माकं वैष्णवानां सुदुर्लभम् ।
श्रीकृष्णे भक्तिदास्यं च न वयं दातुमुत्सुकाः ॥२९॥
वरयान्यं वरं वत्स यत्ते मनसि वाञ्छितम् ।
इन्द्रत्वममरत्वं वा ब्रह्मत्वं लभ दुर्लभम् ॥ ३० ॥
सर्वसिद्धिं महायोगं ज्ञानं मृत्युंजयादिकं ।
सुखेन सर्वं दास्यामि हरिदास्यं त्यज ध्रुवम् ॥ ३१ ॥
हमारे पास वैष्णवों के लिए परम दुर्लभ धन संचित है । भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति और दास्य हम लोग दूसरों को देने के लिए उत्सुक नहीं होते । कोई अन्य अभीष्ट वरदान मांगो । मैं इन्द्रत्व, अमरत्व और दुर्लभ ब्रह्मत्व भी दे सकता हूँ तथा समस्त सिद्धियाँ, महायोग एवं मृत्यु को जीतने आदि का ज्ञान भी सहर्प प्रदान करने को तैयार हूँ; किन्तु श्रीहरि का दासत्व मांगना छोड़ दो ॥ २९-३१ ॥

शंकरस्य वचः श्रुत्वा शुष्ककण्ठोष्ठतालुकः ।
उवाच दीनो दीनेशं दातारं सर्वसंपदाम् ॥ ३२॥
गन्धर्व उवाच
यत्पक्ष्मचालनेनैव ब्रह्मणः पतनं भवेत् ।
तद्‌ब्रह्मत्वं स्वप्नतुल्यं कृष्णभक्तो न चेच्छति ॥ ३३ ॥
शंकर की ऐसी बातें सुन कर उस दौन के कण्ठ, ओठ और तालु सब सूख गये । उसने समस्त सम्पत्तियों के प्रदाता एवं दीनानाथ से पुनः कहा । गन्धर्व बोले- जिसका ब्रह्मा की दृष्टि पड़ते ही पतन हो जाता है, वह ब्रह्मपद स्वप्न के समान मिथ्या एवं क्षणभंगुर है । उसे कोई कृष्ण- भक्त नहीं चाहता है ॥ ३२-३३ ॥

इन्द्रत्वममरत्वं वा सिद्धयोगादिकं शिव ।
ज्ञानं मृत्युंजयाद्यं वा नहि भक्तस्य वाञ्छितम् ॥ ३४॥
सालोक्यसार्ष्टिसामीप्यसायुज्य श्रीहरेरपि ।
तत्र निर्वाणमोक्षं च नहि वाञ्छन्ति वैष्णवाः ॥ ३५॥
शश्वत्तत्र दृढा भक्तिर्हरिदास्यं सुदुर्लभम् ।
स्वप्ने जागरणे भक्ता वाञ्छन्त्येवं वरं वरम् ॥ ३६॥
हे शिव ! इन्द्रत्व, अमरत्व, सिद्धि अथवा योगादिक और मृत्युञ्जयादिक ज्ञान भी भक्त को प्रिय नहीं होता है । यहाँ तक कि भगवान् के सालोक्य, सारूप्य, सामीप्य और सायुज्य नामक चार प्रकार के मोक्ष और निर्वाणमोक्ष को भी वैष्णवगण नहीं चाहते हैं । भगवान् की निरन्तर सुदृढ़ रहने वाली भक्ति और उनके अत्यन्त दुर्लभ दास्य को ही भक्तगण सोते- जागते समय चाहते हैं । अतः हमारे लिए यही वरदान उत्तम है । ॥ ३४-३६ ॥

तद्‌दास्यं वैष्णवसुतं देहि कल्पतरो वरम् ।
त्वां प्राप्य लभते तुष्टं वरं सर्ववरोऽवरः ॥ ३७॥
हे कल्पवृक्ष ! इसलिए मुझे हरिदास्य और विष्णुभक्त पुत्र प्रदान करने की कपा करें क्योंकि आपको सन्तुष्ट पाकर जो कोई दूसरा बर मांगता है, वह बर्बर है । ॥ ३७ ॥

न दास्यसीदं चेच्छंभो वरं दुष्कृतिनं च माम् ।
कृत्वा हि स्वशिरश्छेदं प्रदास्यामि हुताशने ॥ ३८॥
शम्भो ! यदि आप मुश पापी को यह वरदान नहीं देंगे तो मैं अपना सिर काट कर अग्नि में होम दंगा ॥ ३८ ॥

गन्धर्ववचनं श्रुत्वा तमुवाच कृपानिधिः ।
भक्तं दीनं च भक्तेशो भक्तानुग्रहकारकः ॥ ३९॥
अनन्तर भक्तों के ईश और उन पर कृपा रखने वाले कृपानिधान भगवान् शंकर ने गन्धर्व की बातें सुनकर उससे कहा ॥ ३९ ॥

शंकर उवाच
हरिभक्तिं हरेर्दास्यं पुत्रं परमवैष्णवम् ।
चिरायुषं च गुणिनं शश्वत्सुस्थिरयौवनम् ॥४० ॥
ज्ञानिनं सुन्दरवरं गुरुभक्तं जितेन्द्रियम् ।
गन्धर्वराजप्रवरं वरेमं लभ मा शुचः ॥४१ ॥
श्रीशंकर बोले- पान की भक्ति, भगवान का दारा और ए मरणय पुत्र की प्राप्ति- - इस श्रेष्ट वर को उपधारो, खिन्ननहायो । तुम्हारा पुत्र वैष्णव होने के साथ ही दोषाधु, सागुणशाली, नित्य सुस्थिर यौवन से सम्पत्र, ज्ञानी, परम सुन्दर, गुरुभक्त तथा जितेन्द्रिय होगा ॥ ४०-४१ ॥

इत्युक्त्वा शंकरस्तस्माज्जगाम स्वालयं मुने ।
गन्धर्वराजः संतुष्ट आजगाम स्वमन्दिरम् ॥४२ ॥
मुने ! इतना कहकर शंकर जी अपने धाम को चले गये और गन्धर्वराज भी सन्तुष्ट होकर अपने घर को लौटे ॥ ४२ ॥

प्रफुल्लमानसाः सर्वे मानवाः सिद्धकर्मणः ।
नारदस्तस्य भार्यायां लेभे जन्म च भारते ॥४३ ॥
अपने कार्य में सफलता प्राप्त होने पर सभी मानवों के मानस- कमल खिल उठते हैं । उप गन्धर्वराज की गली से नारद जी ने भारतवर्ष में जन्म ग्रहण किया ॥ ४३ ॥

सुषाव पुत्रं सा वृद्धा पर्वते गन्धमादने ।
गुरुर्वसिष्ठो भगवान्नाम चक्रे यथोचितम् ॥४४॥
गन्धमादन पर्वत पर गन्धर्वराज की दृदा पत्नी ने पुत्ररत्न उत्पन्न शिया और गुरुदेव भगवान् वशिष्ठ ने उस पुत्र का यथोचित नामकरण संस्कार किया ॥ ४४ ॥

बालकस्य च तत्रैव मङ्गलं मङ्गले दिने ।
उपशब्दोऽधिकार्थश्च पूज्ये च बर्हणः पुमान् ।
पूज्यानामधिको बालस्तेनोपबर्हणाभिधः ॥४५॥
उपशब्द का अर्थ अधिक है और पुंलिंग बर्हण का अर्थ पूज्य है । यह बालक पूज्य पुरुषों में सबसे अधिक है । इसलिए इसका नाम 'उपबर्हण' होगा ऐसा वशिष्ठ जी ने कहा ॥ ४५ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे
ब्रह्मखण्डे नारदजन्मकथनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रहाखण्ड में नायजन्मकथन नामः बारहवाँ अध्याय समाप्त ॥ १२ ॥

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