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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - त्रयोदशोऽध्यायः


मालावतीविलापः
ब्रह्मा के शाप से उपबर्हण का शरीर- त्याग, मालावती का विलाप आदि -


सौतिरुवाच
पुत्रोत्सवे च रत्‍नानि धनानि विविधानि च ।
गन्धर्वराजः प्रददौ ब्राह्मणेभ्यो मुदाऽन्वितः ॥ १॥
सौति बोले- गन्धर्वराज ने उस पुत्रोत्सव के उपलक्ष में अत्यन्त प्रसन्न होकर ब्राह्मणों को अनेक भाँति के रत्न, धन समर्पित किये ॥ १ ॥

उपबर्हणस्तु कालेन हरेर्मन्त्रं सुदुर्लभम् ।
वसिष्ठेन तु संप्राप्य स चक्रे दुष्करं तपः ॥२॥
समयानुसार बड़े होने पर उपबर्हण ने गुरु वशिष्ठ के द्वारा अत्यन्त दुर्लभ भगवान् का मन्त्र प्राप्त कर अति कठिन तप करना आरम्भ किया ॥ २ ॥

एकदा गण्डकीतीरे तं च संप्राप्तयौवनम् ।
गन्धर्वपत्‍न्यो ददृशुर्मूर्च्छामापुश्च तत्क्षणम् ॥३॥
एक बार गण्डकी नदी के तीर पर युवावस्था प्राप्त उस गन्धर्व को गन्धर्व की पत्नियों ने देखा । देखते ही वे उसी क्षण मूच्छित हो गई ॥ ३ ॥

ताश्च तीव्रं तपः कृत्वा प्राणान्संत्यज्य योगतः ।
पञ्चाशत्ता बभूवुश्च कन्याश्चित्ररथस्य च ॥४॥
अनन्तर उन पचास स्त्रियों ने घोर तप करके योग मार्ग द्वारा अपने प्राणों को त्याग किया और चित्ररथ (गन्धर्व) की कन्या होकर पुनः जन्म ग्रहण किया ॥ ४ ॥

उपबर्हणगन्धर्वे ताश्च तं वव्रिरे पतिम् ।
मुदा माला ददुस्तस्मै कामुक्यः पितुराज्ञया ॥५॥
उपरान्त उन कन्याओं ने उसी उपबहण नामक गन्धर्व को अपना पति बनाया । उन्होंने अपने पिता की आज्ञा से गन्धर्व को माला पहनाई ॥ ५ ॥

गृहीत्वा ताश्च गन्धर्वो युवा सस्थिरयौवनः ।
दियं त्रिलक्षवर्षं च रेमे रहसि कामुकः ॥६॥
वह कामुक गन्धर्व भी उन्हें अपनाकर एकान्त स्थान में निवास करते हुए दिव्य तीन लाख वर्षों तक चिरस्थायी यौवन का आनन्द लुटता रहा ॥ ६ ॥

ततोऽपि सुचिरं राज्यं कृत्वा ताभिः सहानिशम् ।
जगाम ब्रह्मणः स्थानं हरिगाथां जगौ मुने ॥७॥
दृष्ट्‍वा स रम्भारम्भोरुं नर्तने कठिनं स्तनम् ।
बभूव स्खलनं तस्य गन्धर्वस्य महात्मनः ॥८॥
मुने ! अनन्तर राज्यसिंहासन पर सुखासीन होकर उन ललनाओं के साथ राज्य का उपभोग करते हुए एक दिन ब्रह्मा के यहाँ जाकर भगवान् के यशोगान में सम्मिलित हुआ । नृत्य के समय नाचती हुई रम्भा के कदली-स्तम्भ के समान ऊरु और कठोर स्तन को देखते ही उस महात्मा गन्धर्व का वीर्यपात हो गया ॥ ७-८ ॥

द्रुतं तत्याज संगीतं मूर्च्छां प्राप सभातले ।
उच्चैः प्रजहसुर्देवा ब्रह्मा कोपाच्छशाप तम् ॥९॥
व्रज त्वं शूद्रयोनिं च गान्धर्वीं तनुमुत्सृज ।
काले वैष्णवसंसर्गान्मत्पुत्रस्त्वं भविष्यसि ॥ १०॥
इससे उसका संगीत तो छूट ही गया, वह मूच्छित भी हो गया । देवता लोग ठहाका मारकर हँसने लगे । तब ब्रह्मा ने उसे शाप देते हुए कहा-'इस गन्धर्वशरीर को त्याग कर तुम शूद्र योनि में जन्म ग्रहण करो । फिर समयानुसार वैष्णवों का संसर्ग प्राप्त कर तुम पुनः मेरे पुत्र के रूप में प्रतिष्ठित हो जाओगे ॥ ९-१० ॥

विना विपत्तेर्महिमा पुंसां नैव भवेत्सुत ।
सुखं दुःखं च सर्वेषां क्रमेण प्रभवेदिति ॥ ११ ॥
पुत्र ! बिना विपत्ति को सहन किये पुरुषों की महिमा प्रकट नहीं होती । संसार में सभी को क्रमशः सुख और दुःख प्राप्त होते हैं ॥ ११ ॥

इत्येवमुक्त्वा स विधिरगच्छत्पुष्कराद्‌गृहम् ।
उपबर्हणगन्धर्वः स जहौ तां तनुं तदा ॥ १२॥
इतना कहकर ब्रह्मा पुष्कर स्थान से अपने धाम को चले गये और उपबर्हण नामक गन्धर्व ने उसी समय अपने शरीर को त्याग दिया ॥ १२ ॥

मूलाधारं स्वाधिष्ठानं मणिपूरमनाहतम् ।
विशुद्धमाज्ञाख्यं चेति भित्त्वा षट्चक्रमेव च ॥ १३॥
इडां सुषुम्नां मेधां च पिङ्गलां प्राणधारिणीम् ।
सर्वज्ञानप्रदां चैव मनःसंयमिनीं तथा ॥ १४॥
विशुद्धां च निरुद्धां च वायुसंचारिणीं तथा ।
तेजः शुष्ककरीं चैव बलपुष्टिकरीं तथा ॥ १५॥
बुद्धिसंचारिणीं चैव ज्ञानजृम्भणकारिणीम् ।
सर्वप्राणहरा चैव पुनर्जीवनकारिणीम् ॥ १६॥
एताः षोडशधा नाडीर्भित्त्वा वै हंसमेव च ।
मनसा सहितं ब्रह्मरन्ध्रमानीय योगतः ॥ १७॥
स्थित्वा मुहर्तमात्मानमात्मन्येव युयोज ह ।
जातिस्मरश्च योगीन्द्रः संप्राप ब्रह्म शौनक ॥ १८॥
उन्होंने सर्वप्रथम मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा नामक षट्चक्र का भेदन करके इडा, सुषुम्ना, मेधा, पिंगला, प्राणहारिणी, सर्वज्ञानप्रदा, मनःसंयमिनी, विशुद्धा, निरुद्धा, वायु-संचारिणी, तेज को सुखाने वाली, बल-पुष्टि करने वाली, बुद्धि-संचारिणी, ज्ञान को विकसित करने वाली, सर्वप्राणहरा और पुनर्जीवन करने वाली इन सोलह प्रकार की नाड़ियों का भेदन किया । अनन्तर मन समेत प्राणवायु को योग द्वारा ब्रह्मरन्ध्र में लाकर वे योगासन से बैठ गए और दो घड़ी तक उन्होंने मन को आत्मा में ही लगाया । तत्पश्चात् वह जातिस्मर (पूर्वजन्म की बात को याद रखने वाले) योगिराज उपबर्हण ब्रह्मभाव को प्राप्त हो गए ॥ १३-१८ ॥

वीणां त्रितन्त्रीं दुष्प्राप्यां वामस्कन्धे निधाय च ।
शुद्धस्फटिकमालां च विधृत्वा दक्षिणे करे ॥ १९॥
संजल्पन्परमं ब्रह्म वेदसारं परात्परम् ।
परं निस्तारबीजं च कृष्ण इत्यक्षरद्वयम् ॥२०॥
प्राच्यां कृत्वा शिरःस्थानं पश्चिमे चरणद्वयम् ।
विधाय दर्भशयनं शयानः पुरुषो यथा ॥२१॥
गन्धर्वराजस्तं दृष्ट्‍वा भार्यया सह तत्क्षणम् ।
योगेन ब्रह्म संप्राप श्रीकृष्णं मनसा स्मरन् ॥२२॥
पत्‍न्यश्च बान्धवाः सर्वे विलप्य रुरुदुर्भृशम् ।
जग्मुः क्रमेण शोकार्ता मोहिता विष्णुमायया ॥२३॥
पञ्चाशद्योषितां मध्ये प्रधाना महिषी च या ।
साध्वी मालावती नाम्ना परमा प्रेयसी वरा ॥२४॥
उच्चै रुरोद सा तीव्रं कान्तं कृत्वा च वक्षसि ।
इत्युवाच च शोकार्ता कान्तं संबोध्य चैव हि ॥२५॥
शौनक ! तीन तार वाली दुर्लभ वीणा को बायें कंधे पर रख कर दाहिने हाथ में शुद्ध स्फटिक की माला लिये वे वेद के सारतत्त्व तथा उद्धार के उत्तम बीज रूप परात्पर परब्रह्ममय 'कृष्ण' इन दो अक्षरों का जप करने लगे । उन्होंने कुश की चटाई पर पूर्व की ओर सिरहाना करके पश्चिम दिशा की ओर दोनों चरण फैला दिये और इस तरह सो गए, मानो कोई पुरुष सो रहा हो । उनके पिता गन्धर्वराज ने उन्हें इस प्रकार देहत्याग करते देख कर स्वयं भी अपनी पत्नी के साथ मन ही मन श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए योगधारण द्वारा प्राण त्याग दिये और परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर लिया । उस समय उपबहण के सभी भाई बन्धु और पत्नियाँ बार बार विलाप करते हुए जोर-जोर से रोने लगे । विष्णु की माया से मोहित होने के कारण शोक से पीड़ित हो वे उनके शरीर के पास गए । उपबर्हण की पचास स्त्रियों में मालावती नामक प्रधान रानी, जो पतिव्रता श्रेष्ठ एवं पति की परम प्रेयसी थी, अपने पति को छाती से लगाकर अत्यन्त उच्च स्वर से रोदन करने लगी ॥ १९-२५ ॥

मालावत्युवाच
हे नाथ रमण श्रेष्ठ विदग्ध रसिकेश्वर ।
दर्शनं देहि मां बन्धो निमग्नां शोकसागरे ॥२६॥
मालावती ने कहा-नाथ ! रमण ! उत्तम ! चतुर ! रसिकेश्वर ! बन्धो ! मैं शोकसागर में डूब रही हूँ, मुझे दर्शन देने की कृपा करो ॥ २६ ॥

विस्रम्भके सुवसने रम्ये चन्दनकानने ।
पुष्पभद्रानदीतीरे पुष्पोद्याने मनोहरे ॥२७॥
चन्दनाचलसांनिध्ये चारुचन्दनकानने ।
पुष्पचन्दनतल्पे च चन्दनानिलवासिते ॥२८॥
गन्धमादनशैलैकदेशे रम्ये नदीतटे ।
पुंस्कोकिलनिनादे च मालतीजलशालिनि ॥२९॥
श्रीशैले श्रीवने दिव्ये श्रीनिवासनिषेविते ।
श्रीयुक्ते श्रीपदाम्भोजे पूतेऽच्युतकृते शुभे ॥३०॥
पुरा या या कृता क्रीडा वसन्ते रहसि त्वया ।
मया च दुर्हृदा सार्धं तया वै दूयते मनः ॥३१॥
सुधातुल्येन वचसा सिक्ताऽहं च पुरा त्वया ।
दूयते सततं तेन परमात्माऽतिदारुणः ॥३२॥
साधुना सह संसर्गो वैकुण्ठादपि दुर्लभः ।
अहो ततोऽतिविच्छेदो मरणादपि दुष्करः ॥३३॥
विश्वस्त गृह में, रमणीय चन्दनवन में, पुष्प भद्रानदी के तट पर मनोहर पुष्पवाटिका में, मलयपर्वत के समीप सुन्दर चन्दनवन में चन्दन-वायु से सुवासित, पुष्पचन्दन की शय्या पर, गन्धमादनपर्वत के एकदेश में, रमणीय नदी-तट पर, नर कोकिलों से निनादित तथा मालतीपुष्पसम्पृक्त जल से युक्त श्रीपर्वत पर, लक्ष्मीरमण (विष्णु) से सेवित, श्रीयुक्त, श्रीचरणकमल से पूत तथा श्री विष्णु से पवित्र किये हुए दिव्य जीवन में पहले वसन्त ऋतु में एकान्त में मुझ दुष्टहृदया के साथ आपने जो-जो क्रीड़ायें की, उन (का स्मरण होने ) से मेरा मन परितप्त हो रहा है । पहले आप अपनी अमृतोपम वाणी से मुझे सिंचित करते थे, उस (के स्मरण) से भी मेरा अत्यन्त कठोर आत्मा परम दुःखी हो रहा है । साधु पुरुष का संग वैकुंठ-सुख से भी बढ़कर है । हाय, उस (साधुसंग) से वंचित होना मृत्यु से भी अधिक दुःखदायी है ॥ २७-३३ ॥

तस्मात्तेषां च विच्छेदः साधुशोककरः परः ।
ततोऽपि बन्धुविच्छेदः शोकः परमदारुणः ॥३४॥
ततोऽपत्यवियोगो हि मरणादतिरिच्यते ।
सर्वस्मात्पतिभेदो हि तत्परं नास्ति संकटम् ॥३५॥
इसलिये उन लोगों का नाश होना सज्जनों के लिए अत्यन्त दुःखप्रद है । उससे भी परम दारुण शोक बन्धुवियोग में होता है और सन्तान का वियोग तो मरण से भी बढ़कर होता है । किन्तु सभी दुःखों से पतिवियोग अत्यन्त दुःखदायी होता है । उससे अधिक संकट कोई है ही नहीं ॥ ३४-३५ ॥

शयने भोजने स्नाने स्वप्ने जागरणेऽपि च ।
स्वामिविच्छेददुःखं च नूतनं च दिने दिने ॥३६॥
क्योंकि शयन, भोजन, स्नान और सोते-जागते सभी समय पति का वियोग-दुःख दिन-दिन नवीन होता जाता है ॥ ३६ ॥

सर्वशोकं विस्मरेत्स्त्री स्वामिसंयोगमात्रतः ।
बन्धुमन्यं न पश्यमि यं दृष्ट्‍वा विस्मरेत्पतिम् ॥३७॥
स्त्री पति के संयोग मात्र से समस्त दुःखों को भुला देती है । किन्तु मुझे ऐसा अन्य कोई बन्धु नहीं दिखायी पड़ता है, जिसे देखकर पति को भुला सकू ॥ ३७ ॥

नातो विशिष्टं पश्यामि बान्धवं स्वामिना विना ।
साध्वीनां कुलजातानामित्याह कमलोद्‌भवः ॥३८॥
इस बात को स्वयं ब्रह्मा ने भी कहा है किकुलीन पतिव्रताओं के लिए पति के अतिरिक्त उससे उत्तम अन्य कोई बन्धु नहीं है ॥ ३८ ॥

हे दिगीशाश्च दिक्याला हे धर्म त्वं प्रजापते ।
गिरीश कमलाकान्त पतिदानं च देहि मे ॥३९॥
हे दिशाओं के अधीश्वर, दिपाल ! हे धर्म ! हे प्रजापते, हे शिव, हे लक्ष्मीरमण ! मुझे पतिदान देने की कृपः करो ॥ ३९ ॥

इत्युक्त्वा विरहार्ता सा कन्या चित्ररथस्य च ।
मूर्च्छां संप्राप तत्रैव दुर्गमे गहने वने ॥४०॥
उस दुर्गम एवं घोर वन में चित्ररथ की वह कन्या इतना कह कर मच्छित हो गयी ॥ ४० ॥

विचेतना तत्र तस्थौ कान्तं कृत्वा स्ववक्षसि ।
परिपूर्णे दिवानक्तं सर्वेर्देवैश्च रक्षिता ॥४१॥
पति को अपनी छाती से लगाये वह पूरे एक दिन और एक रात चेतनाहीन रही । उस समय सकल देवों ने उसकी रक्षा की ॥ ४१ ॥

प्रभाते चेतनां प्राप्य विललाप भृशं मुहुः ।
इत्युवाच पुनस्तत्र हरिं संबोध्य सा सती ॥४२॥
प्रातःकाल चेतना मिलने पर वह बार-बार अत्यन्त विलाप करने लगा । वहाँ उस ती ने भगा को सम्बोधित करके (अपने विलाप में) इस प्रकार कहा ॥ ४२ ॥

मालावत्युवाच
हे कृष्ण जगतां नाथ नाथ नाहं जगद्‌बहिः ।
त्वमेव जगतां पाता मां न पासि कथं प्रभो ॥४३॥
मालावती बोली--हे कृष्ण ! आप सम्पूर्ण जगत् के नाथ हैं । हे नाथ ! मैं मा जगत् से बाहर नहीं हूँ । प्रमो ! आप जगत् की रक्षा करते हैं, तो मेरी रक्षा क्यों नहीं कर रहे हैं ? ॥ ४३ ॥

अयं भर्ताऽस्य भार्याऽहं ममेति तव मायया ।
त्वमेव संभवो भर्ता सर्वेषां सर्वकारणः ॥४४॥
यह मेरा पति है और मैं इसकी पन हूँ, यह मेरा-तेरा' का भाव आपको माया है । आप ही सबके स्वामी है और ऐमा होना ही अधिक संभव है । क्योंकि बाप हो सबके कारण हैं ॥ ४४ ॥

गन्धर्वः कर्मणा कान्तः कान्ताऽहं चास्य कर्मणा ।
क्व गतः कर्मभोगान्ते कुत्र संस्थाप्य मां प्रियाम् ॥४५॥
कर्मवश गन्धर्व मेरे पति हुए और कर्मवश है । मैं उनकी पत्नी हुई । किन्तु कर्मभोग के अन्त में वे मुझ प्रिया को छोड़कर कहाँ चले गये ? ॥ ४५ ॥

को वा कस्याः पतिः पुत्रः का वा कस्य प्रिया प्रभो ।
संयुनक्ति विधाता च वियुनक्ति च कर्मणा ॥४६॥
अथवा प्रभो ! कौन किसका पति या पुत्र है तथा कौन किसको प्रेयसी ? विधाता हो कर्म के अनुसार प्राणियों को संयुक्त और नियुक्त करता रहता है ॥ ४६ ॥

संयोगे परमानन्दो वियोगे प्राणसंकटम् ।
शश्वज्जगति मूर्खस्य नाऽऽत्मारामस्य निश्चितम् ॥४७॥
किन्तु सदा संमार में मूखों को हो संयोग में परमानन्द की प्राप्ति और वियोग में प्राणसंकट उपस्थित हो जाता है । आत्मा में रमण करने वाले महात्माओं को निश्चित हो वह दुःख प्राप्त नहीं होता है ॥ ४७ ॥

नश्वरो विषयः सत्यं भुवि भोगश्च बान्धवः ।
स्वयं त्यक्तः सुखायैव दुःखाय त्याजितः परैः ॥४८॥
यह सत्य है कि भूतल के सभी विषय, उनके भोग और बान्धव आदि नश्वर हैं । इनका स्वयं त्याग करना सुखकर होता है और दूसरे के द्वारा त्याग करवाने पर ये दुःखप्रद प्रतीत होते हैं ॥ ४८ ॥

तस्मात्सन्तः स्वयं त्यक्त्वा परमैश्वर्यमीप्सितम् ।
ध्यायन्ते सततं कृष्णपादपद्मं निरापदम् ॥४९॥
इसीलिए सन्त लोग अपने अभिलषित परम ऐश्वर्य का भी स्वयं त्याग करके भगवान् श्रीकृष्ण के निरापद चरणकमल का ही निरन्तर ध्यान करते रहते हैं ॥ ४९ ॥

सर्वत्र ज्ञानिनः सन्तः का स्त्री ज्ञानवती भुवि ।
ततो मह्यं विमूढायै दातुमर्हसि वाञ्छितम् ॥५०॥
पृथ्वी पर ज्ञानी महात्मा सब जगह हैं, किन्तु ज्ञानवती स्त्री कौन है ? अतः आप मुझ मूढ़ अबला को मेरी अभिलषित वस्तु प्रदान करने की कृपा करें ॥ ५० ॥

न मे वाञ्छाऽमरत्वे च शक्रत्वे मोक्षवर्त्मनि ।
इमं कान्तं वरं देहि चतुर्वर्गकरं परम् ॥५१॥
मुशे अमरत्व, इन्द्रत्व अथवा मोक्ष की इच्छा नहीं है । अतः चारों वर्ग (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) के परम साधक मेरे इस पति को मुझे दे दें ॥ ५१ ॥

यावती कामिनीजातिर्जगत्यां जगदीश्वर ।
कस्यैचिन्नहि दत्तश्च तेन धात्रेदृशः पतिः ॥५२॥
हे जगदीश्वर ! इस जगत् में जितनी स्त्री जातियां हैं, उनमें से किसी को भी ब्रह्मा ने ऐसा पति नहीं दिया है ॥ ५२ ॥

तस्मै दत्ताः गुणाः सर्वे रूपाणि विविधानि च ।
सुशीलानि च सर्वाणि चामरत्वं विना हरे ॥५३॥
हरे ! ब्रह्मा ने केवल अमरत्व को छोड़ कर सभी गुण, विविध भाँति के समस्त रूप तथा सब प्रकार के सुन्दर स्वभाव उन्हें (मेरे पति को) प्रदान किए हैं ॥ ५३ ॥

रूपेण च गुणेनैव तेजसा विक्रमेण च ।
ज्ञानेन शान्त्या संतुष्टा हरितुल्यः प्रभुर्मम ॥५४॥
मेरे स्वामी रूप, गुण, तेज, पराक्रम, ज्ञान, शान्ति और सन्तुष्टि में भगवान् के समान हैं ॥ ५४ ॥

हरिभक्तो हरिसमो गाम्भीर्ये सागरो यथा ।
दीप्तिमान्सूर्यतुल्यश्च शुद्धो वह्निसमस्तथा ॥५५॥
चन्द्रतुल्यः सुदृश्यश्च कन्दर्पसमसुन्दरः ।
बुद्ध्या बृहस्पतिसमः काव्ये कविसमस्तथा ॥५६॥
वे (मेरे पति), हरि के भक्तों में हर के समान तथा गम्भीरता में सागर के समान हैं । वे सूर्य के समान देदीप्यमान, अग्मि के समान शुद्ध, चन्द्रमा के समान अत्यन्त दर्शनीय, काम की भांति सुन्दर, बुद्धि में बृहस्पति के समान और काव्य में कवि (शुक्राचार्य) के तुल्य हैं ॥ ५५-५६ ॥

वाणी च सर्वशास्त्रज्ञा प्रतिभायां भृगोरिव ।
कुबेरतुल्यो धनवान्महान्दाता मनोरिव ॥५७॥
धर्मे धर्मसमो धर्मी सत्ये सत्यव्रताधिकः ।
कुमारतुल्यतपसा स्वाचारे ब्रह्मणा समः ॥५८॥
ऐश्वर्ये शक्रतुल्यश्च सहिष्णुः पृथिवीसमः ।
एवंभूतो मृतः कान्तः प्राणा यान्ति न मे कथम् ॥५९॥
उनकी वाण । सकल शास्त्रों को जानने वाली है । वे प्रतिभा में भुगु के समान तथा धन में कुबेर के तुल्य हैं । वे मनु की भाँति महान् दाता हैं । वे धर्म में धर्म के समान धर्मी, सत्य में सत्यव्रत से भी अधिक, (सनकादि) कुमारों के समान तपस्वी, ब्रह्मा के समान आचारी, इन्द्र के तुल्य ऐश्वर्यशाली और पृथ्वी के समान सहिष्णु (सहनशील) हैं । ऐसे मेरे पति जब मृत हो गए तब ये मेरे प्राण क्यों नहीं निकल कर जा रहे हैं ? ॥ ५७-५९ ॥

अहो सुरा यज्ञभाजो घृतं भोक्तुं क्षमा भुवि ।
क्षणेनायज्ञभाजश्च करिष्यामि स्वलीलया ॥६०॥
अरे देवताओ ! तुम लोग पृथ्वी पर यज्ञ में भाग ले कर घृत के पान करने में ही समर्थ हो । (देखो) मैं तुम्हें अभी क्षण मात्र में अपनी लीला द्वारा यज्ञ भाग से अलग कर देती हूँ ॥ ६० ॥

नारायण जगत्कान्त नाहमेव जगद्‌बहिः ।
शीघ्रं जीवय मत्कान्तमन्यथा त्वां शपाम्यहम् ॥६१॥
हे भारायण ! आप समस्त जगत् के नाथ हैं । मैं भी जगत् के बाहर नहीं हूँ । अतः मेरे कान्त को शीघ्र जीवित कीजिए; भहीं तो आपको शाप दे रही हूँ ॥ ६१ ॥

प्रजापते पुत्रशापात्त्वमपूज्यो महीतले ।
तवैवानधिकारित्वं करिष्याम्यधुना भवे ॥६२॥
प्रजापते ! पुत्र के शाप से तुम इस भूतल पर अपूज्य हो गए हो । अब मैं तुम्हें अधिकार से भी व्युत कर दूंगी ॥ ६२ ॥

हे शंभो ज्ञानलोपं ते करिष्यामि शपेन च ।
धर्मलोपं च धर्मस्य करिष्याम्येव लीलया ॥६३॥
शम्भो ! मैं शाप द्वारा तुम्हारे ज्ञान का लोप कर दूंगी और इसी भौति धर्म के धर्म को मैं लीला द्वारा उड़ा दूंगी ॥ ६३ ॥

यमाधिकारं दूरे च करिष्यामि न संशयः ।
सत्यं कालं शपिष्यामि मृत्युकन्यां सुनिष्ठुराम् ॥६४॥
यम को भी उनके अधिकार से पृथक् कर दूंगी, इसमें संशय नहीं । इसी भाँति मैं काल तथा अत्यन्त निष्ठुर मृत्यु-कन्या को भी शाप देने जा रही हूँ ॥ ६४ ॥

शपामि सर्वानत्रैव जरां व्याधिं विनाऽधुना ।
व्याधिना जरया मृत्युर्न ह्यभूच्च यतेर्मम ॥६५॥
बुढ़ापे और व्याधि से हमारे पति की मृत्यु नहीं हुई है । अतः इन दोनों को छोड़ कर अन्य सभी को मैं अभी शाप देने जा रही हूँ । ॥ ६५ ॥

इत्युक्त्वा कौशिकीतीरे चागच्छच्छप्तुमेव तान् ।
मालावती महासाध्वी शवं कृत्वा स्ववक्षसि ॥६६॥
तां शप्तुमुद्यतां दृष्ट्‍वा ब्रह्मा देवपुरोगमः ।
जगाम शरणं विष्णुं तीरं क्षीरपयोनिधेः ॥६७॥
इतना कह कर महापात्रता मालावती पति के शव को गोद में लेकर उन लोगों को शाप देने के लिए कौशिको नदी के तट पर चली गय । उसे शाप देने के लिए उद्यत देख कर ब्रह्मा आदि सभी देवगण क्षीरसागर के तट पर भगवान् विष्णु की शरण में गए ॥ ६६-६७ ॥

तत्र स्नात्वा च तुष्टाव परमात्मानमीश्वरम् ।
विष्णुं ब्रह्मा जगत्कान्तमित्युवाच ह भीतवत् ॥६८॥
वहाँ स्नान करके ब्रह्मा भयभीत की भाँति उन जगत्पति विष्णु की, जो परमात्मा और ईश्वर कहे जाते हैं, स्तुति करने लगे ॥ ६८ ॥

ब्रह्मोवाच
उपबर्हणपत्‍नी सा कन्या चित्ररथस्य च ।
कान्तहेतोश्च मां देवाञ्छपेत्त्वं रक्ष माधव ॥६९॥
ब्रह्मा बोले--माधव ! उपबहण की पत्नी और चित्ररथ की कन्या मालावती अपने पति के कारण मुझे और देवों को शाप देने जा रही है, उससे हमारी रक्षा कीजिए ॥ ६९ ॥

स्मरन्ति साधवः सन्तो जपन्ति मुनयो मुदा ।
स्वर्णे जागरणे चैव सर्वकार्येषु माधवम् ॥७०॥
सोते-जागते सभी कार्यों में साधु लोग भगवान् कृष्ण का स्मरण करते हैं और मुनि लोग उनका जप करते हैं ॥ ७० ॥

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायण ।
रक्ष रक्ष हृषीकेशं व्रजामः शरणं वयम् ॥७१॥
शरण में आए हुए दीन-दुखियों की रक्षा करने में तत्पर ! हर्ष केश (इन्द्रियों के स्वामी) ! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए । हम लोग आपकी शरण में आए हैं ॥ ७१ ॥

पूजा मे पुत्रशापेन विहता सांप्रतं प्रभो ।
अधिकारहतं मां च कुरुते मालती सती ॥७२॥
प्रभो ! पुत्र के शाप द्वारा हमारी पूजा तो नष्ट ही हो गयी है, अब सती मालावती मुझे अधिकार से भी च्युत कर रही है ॥ ७२ ॥

सर्वाधिकारो ब्रह्माण्डे त्वया दत्तः पुरा प्रभो ।
संपदेतादृशी नाथ यास्यत्येवाधुना मम ॥७३॥
प्रभो ! पूर्व समय में आपने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मुझे अधिकार प्रदान किया था । किन्तु नाथ ! इस समय हमारी इस भाँति की सम्पत्ति भी हमसे पृथक् हो जायगी ॥ ७३ ॥

महादेव उवाच
त्वया दत्तं महाज्ञानं गुप्तं सर्वेषु दुर्लभम् ।
शतमन्वन्तरतपःफलेन पुष्करे पुरा ॥७४॥
महादेव बोले-पूर्व ममय में पुष्कर क्षेत्र में सौ मन्वन्तर-काल तक तप करने के फलस्वरूप आपने मुझे महाज्ञान प्रदान किया था, जो गुप्त एवं सब के लिए दुर्लभ है ॥ ७४ ॥

ऐश्वर्ये वा धनं वाऽपि विद्या वा विक्रमोऽथवा ।
ज्ञानस्य परमार्थस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥७५॥
ऐश्वर्य, धन, विद्या तथा विक्रम उस परमार्थ ज्ञान को सोलहवीं कला के समान भी नहीं हैं ॥ ७५ ॥

सर्वज्ञातं सर्वगुप्तमत्यन्त दुर्लभं परम् ।
मम तत्त्वज्ञानरत्‍नं शापान्निर्याति योषितः ॥७६॥
सब से अज्ञात, सब से गुप्त एवं अत्यन्त दुर्लभ और उत्कृष्ट वह मेरा तत्त्वज्ञानरत्न स्त्री के शाप द्वारा नष्ट हो रहा है ॥ ७६ ॥

अहो पतिव्रतातेजः सर्वेषां तेजसां परम् ।
तेजोऽनलेन दग्धं मां रक्ष रक्ष हरे हरे ॥७७॥
अहो ! (आश्चर्य है) पतिव्रता का तेज सभी तेजों से श्रेष्ठ है । इसीलिए, हे हरे, उस तेज रूप अग्नि से मैं दग्ध हो रहा हूँ, मेरी रक्षा करें ॥ ७७ ॥

धर्म उवाच
सर्वरत्‍नात्परं रत्‍नं धर्म एव सनातनः ।
यास्यत्येवंविधो धर्मस्त्वया दत्तः पुरा प्रभो ॥७८॥
धर्म बोले-प्रभो ! आपने प्राचीन काल में मुझे धर्म प्रदान किया था, जो सभी रत्नों से अत्युत्तम और सनातन है । वह अब मुझसे पृथक् होकर जा रहा है ॥ ७८ ॥

सप्तमन्वन्तरतपः फलेन परमेश्वर ।
प्राप्तो धर्मोऽधुना याति शापेन योषितः प्रभो ॥७९॥
परमेश्वर ! सात मन्वन्तरों के समय तक तप करने के परिणामस्वरूप वह मुझे प्राप्त हुआ था । किन्तु प्रभो ! वह धर्म स्त्री के शाप द्वारा (मुझसे अलग होने) जा रहा है । ॥ ७९ ॥

देवा ऊचुः
यज्ञभाजो घृतभुजो वयमेव त्वया कृताः ।
योषिच्छापेन तत्सर्वमधुना याति माधव ॥८०॥
देवों ने कहा---माधव ! हमें यज्ञों में भाग लेने और घृत भक्षण करने के लिए आपने नियुक्त किया था । स्त्री के शाप वश यह सब इस समय नष्ट होने जा रहा है ॥ ८० ॥

इत्युक्त्वा संयताः सर्वे तस्थुस्तत्र भयार्दिताः ।
एतस्मिन्नन्तरेऽकस्माद्वाग्बभूवाशरीरिणी ॥८१॥
यूयं गच्छत तन्मूलं विप्ररूपी जनार्दनः ।
पश्चाद्यास्यति शान्त्यर्थमिति वो रक्षणाय च ॥८२॥
भयभीत देवगण इतना कह कर संयम के साथ उसी स्थान पर खड़े रहे । उसी बीच अकस्मात् आकाशवाणी हुई कि तुम लोग उस (मालावती) के पास चलो । पीछे से उसको शान्त करने और तुम लोगों की रक्षा करने के लिए भगवान् जनार्दन ब्राह्मण-वेष में वहां पहुंच रहे हैं ॥ ८१-८२ ॥

श्रुत्वा तद्वचनं देवाः प्रहृष्टमनसोन्मुखाः ।
जग्मुर्मालावतीस्थानं कौशिकीतीरमीश्वराः ॥८३॥
उस वाणी को सुन कर देवताओं का मन प्रसन्नता से खिल उठा और वे कौशिकी-तट पर पहुँच कर पतिव्रता मालावती के स्थान में गए ॥ ८३ ॥

तामेव ददृशुर्देवा देवीं मालावतीं सतीम् ।
रत्‍नसारेन्द्रभूषाभिरुज्ज्वलां कमलाकलाम् ॥८४॥
वह रत्नों के सारभूत इन्द्रनील आदि मणियों के आभूषणों से भूषित हो भगवती लक्ष्मी की कला-सी जान पड़ती थी ॥ ८४ ॥

वह्निशुद्धांशुकाधानां सिन्दूरबिन्दुभूषिताम् ।
शरच्चन्द्रप्रभां शान्तां द्योतयन्तीं दिशस्त्विषा ॥८५॥
पतिसेवामहाधर्मचिरसंचिततेजसा ।
प्रज्वलन्तीं सुप्रदीप्तशिखां वह्नेरिवोत्तमाम् ॥८६॥
योगासनं कुर्वतीं च शववक्षःस्थलस्थिताम् ।
सुरम्यां स्वामिनो वीणां बिभ्रती दक्षिणे करे ॥८७॥
तर्जन्यङ्गुष्ठकोटिभ्यां शुद्धस्फटिकमालिकाम् ।
भक्त्या स्नेहेन कान्तस्य बिभ्रती योगमुद्रया ॥८८॥
चारुचम्पकवर्णाभां बिम्बोष्ठीं रत्‍नमालिनीम् ।
यथा षोडशवर्षीयां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ॥८९॥
बृहन्नितम्बभारार्तां पीनश्रोणिपयोधराम् ।
पश्यन्तीं शवमीशस्य शुभदृष्ट्या पुनः पुनः ॥९०॥
उसके अंगों को अग्नि में तपा कर शुद्ध की हुई सुनहरी साड़ी सुशोभित कर रही थी । माल देश में सिन्दूर की बेंदी शोभा दे रही थी । वह शरत्काल के चन्द्रमा की शान्त प्रमा-सी प्रकाशित होती और अपनी दीप्ति से सम्पूर्ण दिशाओं को उद्‌भासित करती थी । वह पतिसेवा रूप महान् धर्म का अनुष्ठान कर के चिरकाल से संचित किए हुए तेज से अग्नि की उत्तम एवं प्रज्वलितशिखा-सी उद्दीप्त हो रही थी । पति के शव को छाती से लगा कर योगासन लगाये बैठी थी और स्वामी की सुरम्य वीणा को दाहिने हाथ में लिये हुई थी । प्राणवल्लभ के प्रति भक्ति तथा स्नेह के कारण योगमुद्रापूर्वक तर्जनी और अंगुष्ठ अंगुलियों के अग्रभाग से शुद्ध स्फटिक मणि की माला धारण किए थी । मनोहर चम्पा की-सी अंगकान्ति, बिम्बफल के सदृश अरुण ओष्ठ, गले में रत्नों की माला शोभा पाती थी । वह सुन्दरी सोलह वर्ष की-सी अवस्था से युक्त तथा नित्य सुस्थिर यौवन से सम्पन्न थी । उसके नितम्ब विशाल थे और स्तन स्थूल थे । वह सती अपने स्वामी के शव को बारंबार शुभ दृष्टि से देख रही थी ॥ ८५-९० ॥

एवंभूतौ च तां दृष्ट्‍वा देवास्ते विस्मयं ययुः ।
स्थगिता च क्षणं तत्र धार्मिका धर्मभीरवः ॥९१॥
इस रूप में मालावती को देख कर उन सब देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ । वे सभी धर्मात्मा और धर्मभीरु थे । अतः क्षण भर वहाँ अपने को छिपाये खड़े रहे ॥ ९१ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे
ब्रह्मखण्डं मालावतीविलापो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में मालावती-विलाप नामक तेरहवां अध्याय समाप्त ॥ १३ ॥

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