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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - चतुर्दशोऽध्यायः विष्णुमालावतीसंवादः
विप्रबालक के रूप में विष्णु का मालावती से साथ संवाद - सौतिरुवाच तत्र स्थित्वा क्षणं देवा ब्रह्मेशानपुरोगमाः । ययुर्मालावतीमूलं परं मङ्गलदायकाः ॥ १॥ सौति बोले-ब्रह्मा और शिव को आगे किए परम मंगल प्रदान करने वाले देवगण क्षण मात्र वहाँ ठहर कर मालावती के निकट पहुँचे ॥ १ ॥ मालावती सुरान्दृष्ट्वा प्रणनाम पतिव्रता । रुरोद कान्तं संस्थाप्य देवानां संनिधौ मुने ॥२॥ मुने ! पतिव्रता मालावती ने देवों को देख कर उन्हें प्रणाम किया और देवों के समीप अपने पति को रख कर वह रोदन करने लगी ॥ २ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तत्र कश्चिद्ब्राह्मणबालकः । आजगाम सुराणां च सभामतिमनोहरः ॥३॥ दण्डी छत्री शुक्लवासा बिभ्रत्तिलकमुज्ज्वलम् । दीर्घपुस्तकहस्तश्च सुप्रशान्तश्च सुस्मितः ॥४॥ उसी बीच उस देव-सभा में एक अति मनोहर ब्राह्मणबालक आ गया, जो दण्ड और छत्र लिए, शुक्ल वस्त्र पहने, उज्ज्वल तिलक लगाए एक बड़ी-सी पुस्तक हाथ में लिए अत्यन्त शान्त एवं मन्द मुसकान कर रहा था ॥ ३-४ ॥ चन्दनोक्षितसर्वाङ्गः प्रज्वलन्ब्रह्मतेजसा । सुरान्संभाष्य तत्रैव विस्मितान्विष्णुमायया ॥५॥ तत्रोवास सभामध्ये तारामध्ये यथा शशी । उवाच देवान्सर्वांश्च मालतीं च विचक्षणः ॥६॥ उसके सम्पूर्ण अंग चन्दन से चर्चित थे । ब्रह्म-तेज से प्रज्वलित उस बालक ने वहां पहुंच कर देवों से बातचीत की जो भगवान् विष्णु की माया से ठगे-से दिखायी दे रहे थे । उस समामध्य में, ताराओं के बीच चन्द्रमा की भाँति विराजमान उस चतुर बालक ने सभी देवों और मालावती से कहा ॥ ५-६ ॥ ब्राह्मण उवाच कथमत्र सुराः सर्वे ब्रह्मेशानपुरोगमाः । स्वयं विधाता जगतां स्रष्टा बै केन कर्मणा ॥७॥ ब्राह्मण बोले-यहाँ ब्रह्मा और शिव को आगे किए देवगण और जगत् के स्रष्टा स्वयं विधाता भी किस कार्य से उपस्थित हैं ? ॥ ७ ॥ सर्वब्रह्माण्डसंहर्ता शम्भुरत्र स्वयं विभुः । अहो त्रिजगतां साक्षी धर्मो वै सर्वकर्मणाम् ॥८॥ समस्त ब्रह्माण्ड का संहार करने वाले साक्षात् शिव भी यहाँ उपस्थित हैं और आश्चर्य है कि तीनों लोकों में सभी कर्मों के साक्षी धर्म भी यहाँ उपस्थित हैं । ॥ ८ ॥ कथं रविः कथं चन्द्रः कथमत्र हुताशनः । कथं कालो मृत्युकन्या कथं शस्त्र यमादयः ॥९॥ हे मालावति ते क्रोडे कोऽतिशुष्कः शवोऽनघे । जीविकायाः कथं मूले योषितश्च पुमाञ्छवैः ॥ १०॥ सूर्य, चन्द्रमा, अग्नि, काल, मृत्युकन्या और यम आदि ये सभी लोग यहाँ क्यों आए हैं ? हे मालावती ! हे निष्पाप ! तुम्हारी गोद में यह सूखा हुआ शव किसका दिखायी दे रहा है ? जीवित स्त्री के पास यह पुरुष-शव क्यों है ? ॥ ९-१० ॥ इत्युक्त्वा तांश्च तां विप्रो विरराम सभातले । मालावती तं प्रणम्य समुवाच विचक्षणम् ॥ ११॥ इस प्रकार वह ब्राह्मण सभा में देवों तथा मालावती से कह कर चुप हो गया । अनन्तर मालावती उस बुद्धिमान् ब्राह्मण को प्रणाम करके उससे बोली ॥ ११ ॥ मालावत्युवाच आनन्दपूर्वकं वन्दे विप्ररूपं जनार्दनम् । तुष्टा देवा हरिस्तुष्टो यस्य पुष्पजलेन च ॥ १२॥ मालावती बोली-मैं विप्र रूपी जनार्दन को प्रसन्नता पूर्वक प्रणाम करती हूँ, जिनके दिए हुए पुष्प और जल से देवगण और विष्णु भी सन्तुष्ट होते हैं ॥ १२ ॥ अवधानं कुरु विभो शोकार्ताया निवेदने । समा कृपा सतां शश्वद्योग्यायोग्ये कृपावताम् ॥ १३॥ प्रभो ! आप सावधान होकर मुझ शोक-पीड़िता का निवेदन सुनने की कृपा करें; क्योंकि कृपाशील सज्जनों की कृपा योग्य और अयोग्य सब पर सदा समान रूप से प्रकट होती है ॥ १३ ॥ उपबर्हणभार्याऽहं कन्या चित्ररथस्य च । सर्वे मालावतीं कृत्वा वदन्ते विप्रपुंगव ॥१४॥ विप्रपुंगव ! मैं उपबर्हण की भार्या चित्ररथ की कन्या हूँ । मुझे सब मालावती कहते हैं ॥ १४ ॥ दिव्यं लक्षयुगं रम्ये स्थाने स्थाने मनोहरे । कृता स्वच्छन्दतः क्रीडा चानेन स्वामिना सह ॥ १५॥ प्रिये स्नेहो हि साध्वीनां यावान्विप्रेन्द्र योषिताम् । सर्वं शास्त्रानुसारेण जानासि त्वं विचक्षण ॥ १६॥ रमणीक और मनोहर प्रत्येक स्थान में मैंने अपने इस स्वामी के साथ लक्ष दिव्य वर्षों तक स्वतन्त्र विहार किया है । विप्रेन्द्र ! विद्वान् ! साध्वी स्त्रियों का अपने प्रियतम के प्रति कितना स्नेह होता है । वह सब आपको शास्त्रानुसार विदित है ॥ १५-१६ ॥ अकस्माद्ब्रह्मणः शापात्प्राणांस्तत्याज मत्पतिः । देवानुद्दिश्य विलपे यथा जीवति मत्पतिः ॥ १७॥ ब्रह्मा के आकस्मिक शाप द्वारा मेरे पतिदेव ने अपने प्राणों का त्यागकर दिया है । देवों के सम्मुख मैं इसलिए विलाप कर रही हूँ कि मेरे पति जीवित हो जायें ॥ १७ ॥ स्वकार्यसाधने सर्वे व्यग्राश्च जगतीतले । भावाभावं न जानन्ति केवलं स्वार्थतत्पराः ॥ १८॥ क्योंकि संसार में सभी लोग अपने कार्यों की सिद्धि में व्यग्र रहते हैं । वे लाभ-हानि को नहीं जानते । केवल अपने स्वार्थ में ही लीन रहते हैं ॥ १८ ॥ सुखं दुःखं भयं शोकः संतापः कर्मणां नृणाम् । ऐश्वर्यं परमानन्दो जन्म मृत्युश्च मोक्षणम् ॥ १९॥ देवाश्च सर्वजनका दातारः कर्मणां फलम् । कर्तारः कर्मवृक्षाणां मूलच्छेदं च लीलया ॥२०॥ मनुष्यों के सुख, दुःख, भय, शोक, सन्ताप, ऐश्वर्य, परमानन्द, जन्म, मृत्यु, और मोक्ष कर्मों के फल हैं । देवता सबके जनक हैं । वे ही कर्मों का फल देते हैं । साथ ही वे लीलापूर्वक कर्मवृक्ष का मूलोच्छेदन करने में भी समर्थ हैं ॥ १९-२० ॥ नहि देवात्परो बन्धुर्नहि देवात्परो बली । दयावान्नहि देवाच्च न च दाता ततः परः ॥२१॥ सर्वानेवानहं याचे पतिदानं ममेप्सितम् । धर्मार्थकाममोक्षाणां फलदांश्च सुरद्रुमान् ॥२२॥ क्योंकि देवों से बढ़कर बन्धु, देवों से बढ़कर बलवान् तथा दयावान् और देवों से बढ़कर कोई दाता नहीं है । इसीलिए धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के फल देने वाले कल्पवृक्ष रूप देवों से मैं याचना करती हूँ कि वे मुझे अभिलषित पति-दान देने की कृपा करें ॥ २१-२२ ॥ यदि दास्यन्ति देवा मे कान्तदानं यथेप्सितम् । भद्रं तदाऽन्यथा तेभ्यो दास्यामि स्त्रीवधं ध्रुवम् ॥२३॥ शपिष्यामि च सर्वांश्च दारुणं दुर्निवारकम् । दुर्निवार्यः सतीशापस्तपसा केन वार्यते ॥२४॥ देवगण ! यदि आप लोग मुझे अभीष्ट पतिदान देंगे तब तो कुशल है । नहीं तो मैं निश्चित ही स्त्रीवध का पाप इन्हें दूंगी । और सभी देवों को कठोर एवं दुनिवार शाप प्रदान करूंगी । सती का शाप दुनिवार होता ही है । किस तपस्या से उसका निवारण किया जाएगा ? ॥ २३-२४ ॥ इत्युक्त्वा मालती साध्वी शोकार्ता सुरसंसदि । विरराम द्विजश्रेष्ठस्तामुवाच च शौनक ॥२५॥ हे शौनक ! इतना कहकर शोक-सन्तप्त मालावती उस देवसभा में चुप हो गई । तत्पश्चात् उस द्विज-श्रेष्ठ ने उससे कहा ॥ २५ ॥ ब्राह्मण उवाच कर्मणां फलदातारो देवाः सत्यं च मालति । न सद्यः सुचिरेणैव धान्यं कृषकवन्नृणाम् ॥२६॥ ब्राह्मण बोले-हे मालावति ! यह सत्य है कि देवलोग मनुष्यों को उनके कर्मों के फल प्रदान करते हैं, किन्तु तत्काल नहीं । ठीक वैसे ही, जैसे किसान बोये हुए अनाज का फल तुरन्त नहीं, देर से पाता है ॥ २६ ॥ गृही च कृषकद्वारा क्षेत्रे धान्यं वपेप्सति । तदङ्कुरो भवेत्काले काले वृक्षः फलत्यपि ॥२७॥ गृहस्थ हलवाहे के द्वारा खेतों में बीज बोता है । उसका अंकुर समय पर प्रकट होता है । फिर समय आने पर वह वृक्ष होता है और फलता भी है ॥ २७ ॥ काले सुपक्वं भवति काले प्राप्नोति तद्गृही । एवं सर्वं समुन्नेयं चिरेण कर्मणः फलम् ॥२८॥ समय पाकर वह भलीभांति पकता है तथा समय पर वह गृही उसे प्राप्त करता है । इसी प्रकार कर्म का फल भी देर में प्राप्त होता है ॥ २८ ॥ अष्ठीं वपति संसारे गृहस्थो विष्णुमायया । काले तदङ्कुरो वृक्षः काले प्राप्नोति तत्फलम् ॥२९॥ भगवान् विष्णु की माया से मोहित होकर गृही संसार में बीज बोता है, समय पर उसमें अंकुर निकलता है और समय प्राप्त होने पर वही वृक्ष होकर फलता है जो गृही को प्राप्त होता है ॥ २९ ॥ पुष्पवान्पुण्यभूमौ च करोति सुचिरं तपः । तेषां च फलदातारो देवाः सत्यं न संशयः ॥३०॥ पुण्यात्मा पुरुष पुण्यभूमि में अति चिरकाल तक जो तप करता है उसका फल देने वाले सचमुच देवता ही हैं, इसमें संशय नहीं है ॥ ३० ॥ ब्राह्मणानां मुखे क्षेत्रे श्रेष्ठेऽनूपर एव च । यो यज्जुहोति भक्त्या च स तत्प्राप्नोति निश्चितम् ॥३१॥ ब्राह्मणों के मुख में तथा उत्तम उर्वरा भूमि में मनुष्य भक्तिपूर्वक जो आहुति डालता है, उसका फल उसे निश्चित रूप से प्राप्त होता है ॥ ३१ ॥ न मलं न च सौन्दर्यं नैश्वर्यं न धनं सुतः । नैव स्त्री न च सत्कान्तः किं भवेत्तपसा विना ॥३२॥ सेवते प्रकृतिं यो हि भक्त्या जन्मनि जन्मनि । स लभेत्सुन्दरीं कान्तां विनीतां च गुणान्विताम् ॥३३॥ बिना तप किये बल, सौन्दर्य, ऐश्वर्य, धन, पुत्र, स्त्री और मनोहर पति की प्राप्ति नहीं होती (अर्थात् तप के बिना कुछ भी नहीं होता) । जो जन्मजन्मान्तर तक भक्तिपूर्वक प्रकृति (दुर्गा देवी) की सेवा करते हैं, उन्हें गुणवती, विनीत और सुन्दरी स्त्री की प्राप्ति होती है ॥ ३२-३३ ॥ श्रियं च निश्चलां पुत्रं पौत्रं भूमिं धनं प्रजाम् । प्रकृतेश्च वरेणैव लभेद्भक्तोऽवलीलया ॥३४॥ प्रकृति के वरदान द्वारा भक्त पुरुष लीलापूर्वक निश्चल लक्ष्मी, पुत्र, पौत्र, भूमि, धन एवं प्रजा को प्राप्त करता है ॥ ३४ ॥ शिवं शिवस्वरूपं च शिवदं शिवकारणम् । ज्ञानानन्दं महात्मानं परं मृत्युंजयं वरम् ॥३५॥ तमीशं सेवतेयो हि भक्त्या जन्मनि जन्मनि । पुमान्प्राप्नोति सत्कान्तां कामिनी चापि सत्पतिम् ॥३६॥ विद्यां ज्ञानं सुकवितां पुत्रं पौत्रं परां श्रियम् । बलं धनं विक्रमं च लभेद्धरवरेण सः ॥३७॥ जो प्रत्येक जन्म में भक्तिपूर्वक कल्याणस्वरूप, कल्याणप्रद, कल्याण के कारण, ज्ञानानन्द की मूर्ति, श्रेष्ठ महात्मा और मृत्यु के विजेता शिव की सेवा करता है, वह पुरुष प्रत्येक जन्म में सुन्दरी स्त्री प्राप्त करता है, और शंकर की आराधना करने वाली स्त्री प्रत्येक जन्म में उत्तम पति पाती है । शिव के वर से मनुष्य को विद्या, ज्ञान, उत्तम कविता, पुत्र, पौत्र, उत्तम स्त्री, बल, धन एवं विक्रम की प्राप्ति होती है ॥ ३५-३७ ॥ ब्रह्माणं भजते यो हि लभेत्सोऽपि प्रजां श्रियम् । विद्यामैश्वर्यमानन्दं वरेण ब्रह्मणो नरः ॥३८॥ ब्रह्मा की सेवा करने वाले भी ब्रह्मा के वरदान द्वारा प्रजा (सन्तान) लक्ष्मी, विद्या, ऐश्वर्य और आनन्द की प्राप्ति करते हैं ॥ ३८ ॥ यो नरो भजते भक्त्या दीननाथं दिनेश्वरम् । विद्यामारोग्यमानन्दं धनं पुत्रं लभेद्ध्रुवम् ॥३९॥ जो मनुष्य भक्तिपूर्वक दोनों के नाथ दिनेश्वर सूर्य की सेवा करता है, उसे भी विद्या, आरोग्य, आनन्द, धन और पुत्र की निश्चित प्राप्ति होती है ॥ ३९ ॥ गणेश्वरं यो भजते देवदेवं सनातनम् । सर्वाग्रपूज्य सर्वेशं भक्त्या जन्मनि जन्मनि ॥४०॥ विघ्ननाशो भवेत्तस्य स्वप्ने जागरणेऽनिशम् । परमानन्दमैश्वर्यं पुत्रं पौत्रं धनं प्रजाः ॥४१॥ ज्ञानं विद्यां सुकविता लभते तद्वरेण च । भजते यो हि विष्णुं च लक्ष्मीकान्तं सुरेश्वरम् ॥४२॥ वरार्थी चेल्लभेत्सर्वं निर्वाणमन्यथा ध्रुवम् । शान्तं निषेव्य पातारं सत्यं सत्यं लभेन्नरः ॥४३॥ सर्वं तपः सर्वधर्म यशः कीर्तिमनुत्तमाम् । विष्णुं निषेव्य सर्वेशं यो मूढो लभते वरम् ॥४४॥ विडम्बितो विधात्राऽसौ मोहितो विष्णुमायया । माया नारायणीशाना सर्वप्रकृतिरीश्वरी ॥४५॥ सा कृपां कुरुते यं च विष्णुमन्त्रं ददाति तम् । धर्मं यो भजते धर्मी सर्वधर्म लभेद्ध्रुवम् ॥४६॥ प्रत्येक जन्म में जो भक्तिपूर्वक सबसे प्रथम पूजने योग्य, सर्वेश्वर, सनातन, देवाधिदेव गणेश्वर की पूजा करता है, उसके सोते-जागते सभी समय के विघ्नों का नाश होता है और परमानन्द, ऐश्वर्य, पुत्र, पौत्र, धन, प्रजा, ज्ञान, विद्या एवं सुन्दर कविता उसे उनके वरदान द्वारा प्राप्त होती है । जो देवों के अधीश्वर एवं लक्ष्मी के कान्त भगवान् विष्णु की सेवा करता है, वह यदि वरदान चाहता है तो उसे वह सम्पूर्ण वर प्राप्त हो जाता है; अन्यथा उसे निर्वाण की प्राप्ति तो निश्चित ही होती है । उस शान्त एवं रक्षक विष्णु की सेवा करके मनुष्य निश्चित रूप से समस्त तप, सम्पूर्ण धर्म, यश और परमोत्तम कीति को प्राप्त कर लेता है । जो मूढ़ सर्वेश्वर भगवान् विष्णु का सेवन करके उसके बदले में कोई वर लेना चाहता है, उसे विधाता ने ठग लिया और विष्णु की माया ने मोह में डाल दिया (ऐसा समझना चाहिए) । नारायण की माया सब कुछ करने में समर्थ, मबकी कारणभूता और परमेश्वरी है । वह जिस पर कृपा करती है, उसे विष्णुमंत्र देती है । जो धर्मात्मा धर्म की सेवा करता है उसे निश्चित ही सब धर्मों की प्राप्ति होती है ॥ ४०-४६ ॥ इहलोके सुखं भुक्त्वा याति विष्णोः परं पदम् । योयं देवं भजेद्भक्त्या स चाऽऽदौ लभते च तम् ॥४७॥ काले पश्चात्तेन सार्धं परं विष्णोः पदं लभेत् । श्रीकृष्णं भजते यो हि निर्गुणं प्रकृतेः परम् ॥४८॥ ब्रह्मविष्णुशिवादीनां सेव्यं बीजं परात्परम् । अक्षरं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ॥४९॥ साकारं च निराकारं ज्योतिः स्येच्छामयं विभुम् । सर्वाधारं च सर्वेशं परमानन्दमीश्वरम् ॥५०॥ निर्लिप्तं साक्षिरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् । जीवन्मुक्तः स सत्यं हि न वरं लभते सुधीः ॥५१॥ वह इस लोक में सुखानुभव करने के उपरान्त भगवान् विष्णु का परम पद प्राप्त करता है । जो जिस देव की भक्ति-भावना से उपासना करता है, वह पहले उसी देव को पाता है और पश्चात् समय पाकर उस देवता के साथ वह भगवान् विष्णु के परम धाम में चला जाता है । भगवान् श्रीकृष्ण प्रकृति से परे तथा तीनों गुणों से अतीत-निर्गुण हैं । ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि देवों के सेव्य, उनके आदि कारण, परात्पर, अविनाशी, परब्रह्म एवं सनातन भगवान् हैं । साकार, निराकार, ज्योतिःस्वरूप, स्वेच्छामय, व्यापक, सबके आधार, सबके अधीश्वर परमानन्दमय, ईश्वर, निर्लिप्त तथा साक्षीरूप हैं । वे भक्तों * ऊपर कृपा करने के लिए शरीर धारण करते हैं । जो उनकी आराधना करता है, वह सचमुच जीवन्मुक्त है । ह विद्वान् अन्य वरदान कभी नहीं चाहता है ॥ ४७-५१ ॥ स सर्वं मन्यते तुच्छं सालोक्यादिचतुष्टयम् । ब्रह्मत्वममरत्वं वा मोक्षं यत्तुच्छवत्सति ॥५२॥ ऐश्वर्यं लोष्टतुल्यं च नश्वरं चैव मन्यते । इन्द्रत्वं च मनुत्वं च चिरजीवित्वमेव वा ॥५३॥ जलबुद्बुदवद्बुद्ध्या चातितुच्छं न गण्यते । स्वप्ने जागरणे वाऽपि शश्वत्सेवां च वाञ्छति ॥५४॥ वह सालोक्य आदि चार प्रकार के मोक्ष को भी तुच्छ सम पता है और ब्रह्मत्व, अमरत्व तथा मोक्ष भी उसे तुच्छ लगता है । वह ऐश्चर्य को मृत्तिका के समान नश्वर समझता है । उसी प्रकार इन्द्रत्व, मनुत्व और चिरजीवित्व को भी जल के बुलबुले की भाँति क्षणभंगुर समझकर अत्यन्त तुच्छ गिनने लगता है । वह सोते-जागते सभी समय निरन्तर (श्रीकृष्ण की) सेवा ही चाहता है ॥ ५२-५४ ॥ दास्यं विना न याचेत श्रीकृष्णस्य पदं परम् । तत्पादाब्जे दृढां भक्ति लब्ध्वा पूर्णो निरन्तरम् ॥५५॥ परिपूर्णतमं ब्रह्म निषेव्यं सुस्थिरैः सदा । आत्मनः कुलकोटिं च शतं मातामहस्य च ॥५६॥ श्वशुरस्य शतं पूर्वमुद्धृत्य चावलीलया । दासं दासी प्रसूं भार्यां पुत्रादपि परं शतम् ॥५७॥ उद्धरेत्कृष्णभक्तश्च गोलोकं यात निश्चितम् । तावद्गर्भे वसेत्कामी तावती यमयातना ॥५८॥ तावद्गृहीं च भोगार्थी यावत्कृष्णं न सेवते । गुरुवक्त्राद्विष्णुमन्त्रो यस्य कर्णे प्रविश्यति ॥५९॥ यमस्तल्लिखनं दूरं करोति तत्क्षणं भिया । मधुपर्कादिकं ब्रह्मा पुरैव तन्नियोजयेत् ॥६०॥ अहो विलङ्घ्य मल्लोकं मार्गेणानेन यास्यति । तस्य वै निष्कृतिर्नास्ति कल्पकोटिशतैरपि ॥६१॥ दास्य भक्ति के बिना वह भगवान् श्रीकृष्ण का परमपद भी नहीं चाहता है । श्रीकृष्ण के चरणकमल की निरन्तर एवं दृढ़ मिक्ति प्राप्त कर वह पूर्णकाम हो जाता है । भगवान् का भक्त अत्यन्त स्थिर होकर सुसेव्य एवं परिपूर्णतम ब्रह्म की निरन्तर सेवा करता है । वह अपने कुल की करोड़ों, मातामह को सैकड़ों तथा श्वशुर की सैकड़ों पूर्व पीढ़ियों का लीलापूर्वक उद्धार करके दास, दासी, माता, स्त्री और पुत्र के बाद की सैकड़ों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है और स्वयं निश्चय ही गोलोक में चला जाता है । कामासक्त पुरुष तभी तक गर्भ में निवास करता है, तभी तक यम-यातनाओं को भोगता है एवं गृही तभी तक भोगों को चाहता है, जब तक भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा नहीं करता है । गुरु के मुख से निकला हुआ विष्णुमन्त्र जिस (व्यक्ति) के कान में प्रविष्ट होता है, उसी क्षण यमराज, भयभीत होकर उसके कर्म-लेख को अपने यहाँ से हटा देते हैं और ब्रह्मा पहले से ही उसके स्वागत के लिए मधुपर्क आदि तैयार करके रखते हैं और सोचते हैं कि अहो ! वह मेरे.लोक को भी लांघ कर इसी मार्ग से यात्रा करेगा और सौ कोटि कल्पों में भी उसका वहाँ से निष्काशन नहीं होगा ॥ ५५-६१ ॥ दुरितानि च भीतानि कोटिजन्मकृतानि च । तं विहाय पलायन्ते वैनतेयं यथोरगाः ॥६२॥ जैसे गरुड़ को देखकर सांप भाग जाते हैं, उसी तरह करोड़ों जन्मों के किए हुए पाप भी कृष्ण-भक्त को देखकर भाग जाते हैं ॥ ६२ ॥ पुरातनं कृतं कर्म यद्यत्तस्य शुभाशुभम् । छिनत्ति कृष्णश्चक्रेण तीक्ष्णधारेण संततम् ॥६३॥ उसके पहले के किये हुए सभी अच्छे बुरे कर्मों को भगवान् श्रीकृष्ण अपने तीक्ष्ण धार वाले चक्र से काट देते हैं ॥ ६३ ॥ तं विहाय जरा मृत्युर्याति चक्रभिया सति । अन्यथा शतखण्डं तां कुरुते च सुदर्शनः ॥६४॥ निःशङ्को याति गोलोकं विहाय मानवीं तनुम् । गत्वा दिव्यां तनुं धृत्वा श्रीकृष्णं सेवते सदा ॥६५॥ जरा (बुढ़ापा) और मृत्यु भी चक्र के भय से उसे छोड़कर भाग जाते है, अन्यथा सुदर्शन (चक्र) उसके सैकड़ों टुकड़े कर देता है । वह (भक्त) अपने मनुष्य-शरीर का त्यागकर निःशंक होकर गोलोक में पहुँचता है और वहाँ दिव्य शरीर धारण कर सदा भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा करता है ॥ ६४-६५ ॥ यावत्कृष्णो हि गोलोके तावद्भक्तो वसेत्सदा । निमेषं मन्यते दासो नश्वरं ब्रह्मणो वयः ॥६६॥ श्रीकृष्ण जब तक गोलोक में निवास करते हैं तब तक भक्त पुरुष भी वहाँ नित्य निवास करता है । श्रीकृष्ण का दास ब्रह्मा की नश्वर आयु को एक निमेष भर का मानता है ॥ ६६ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे सौतिशौनकसंवादे विष्णुमालावतीसंवादो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में विष्णु और मालावती के संवाद नामक चौदहवां अध्याय समाप्त ॥ १४ ॥ |