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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - पञ्चदशोऽध्यायः मालावतीकालपुरुषसंवादः
ब्राह्मण द्वारा अपनी शक्ति का परिचय - ब्राह्मण उवाच केन रोगेण हि मृतोऽधुना साध्वि तव प्रियः । सर्वरोगचिकित्सां च जानामि च चिकित्सकः ॥ १॥ ब्राह्मण बोले-पतिव्रते ! यह तुम्हारा पति इस समय किस रोग से मृत्यु को प्राप्त हुआ है ? मैं चिकित्सक हूँ, समी रोगों की चिकित्सा मैं जानता हूँ ॥ १ ॥ मृततुल्यं मृतं रोगात्सप्ताहाभ्यन्तरे सति । महाज्ञानेन तं जीवं जीवयाम्यवलीलया ॥२॥ सती ! यदि कोई रोग से मृतक के समान हो गया हो अथवा मृतक ही हो गया हो, किन्तु यदि यह सात दिन के भीतर की ही घटना हो तो उस जीव को मैं चिकित्सा सम्बन्धी महाज्ञान के द्वारा चुटकी बजाते हुए ही जीवित कर सकता हूँ ॥ २ ॥ राजमृत्युं यमं कालं व्याधिमानीय त्वत्पुरः । निबध्य दातुं शक्तोऽहं व्याधो बध्वा पशुं यथा ॥३॥ मैं जरा, मृत्यु, यम, काल और व्याधियों को तुम्हारे सामने बांधकर उसी प्रकार तुम्हें सौंप सकता हूँ, जैसे व्याध पशु को बांधकर सामने ला देता है ॥ ३ ॥ बतो न संचरेद्व्याधिर्देहेषु देहधारिणाम् । व्याधीनां कारणं यद्यत्सर्वं जानामि सुन्दरि ॥४॥ सुन्दरि ! देहधारी प्राणियों के शरीर में जिससे कोई व्याधि उत्पन्न न हो सके, वह उपाय तथा रोगों के सभी कारणों को मैं भलीभांति जानता हूँ ॥ ४ ॥ बतो न संचरेद्व्याधिबीजं दुष्टममङ्गलम् । तदुपायं विजानामि शास्त्रतत्त्वानुसारतः ॥५॥ शास्त्र के तत्त्वज्ञान के अनुसार मैं उस उपाय को भी जानता हूँ जिससे व्याधियों का दुष्ट और अमंगलकारी बीज अंकुरित ही न हो ॥ ५ ॥ वो वा योगेन खेदेन देहत्यागं करोति च । तस्य तं जीवनोपायं जानामि योगधर्मतः ॥६॥ जिसने योग द्वारा अथवा खेदवश अपने शरीर का त्याग किया है, उसके जीवित होने का उपाय भी योग-धर्म के प्रभाव से मैं जानता हूँ ॥ ६ ॥ बाह्मणस्यवचः श्रुत्वा स्फीता मालावती सती । सस्मिता स्निग्धचित्तासा तमुवाच प्रहर्षिता ॥७॥ ब्राह्मण की बातें सुनकर मालावती को बड़ी प्रसन्नता हुई । मन्द मुसकान और स्नेहपूर्ण मन से उसने अत्यन्त हर्षित होकर उनसे कहा ॥ ७ ॥ मालावत्युवाच अहो श्रुतं किमाश्चर्यं वचनं बालवक्त्रतः । वयसाऽतिशिशुर्दृष्टो ज्ञानं योगविदां परम् ॥८॥ मालावती बोली-अहो ! बालक के मुख से मैं कैसी आश्चर्यजनक बात सुन रही हूँ ! ! अवस्था से तो यह अत्यन्त शिशु दिखायी दे रहा है, किन्तु इसका ज्ञान योगवेत्ताओं से भी बढ़कर है ॥ ८ ॥ त्वया कृता प्रतिज्ञा च कान्तं जीवयितुं मम । विपरीतं न सद्वाक्यं तत्क्षणं जीवितः पतिः ॥९॥ भगवन् ! आपने मेरे कान्त को जीवित करने के लिए जो प्रतिज्ञा की है, वह सद्वाक्य कभी बदल नहीं सकता । अतः उसी क्षण मुझे विश्वास हो गया कि मेरे पति जीवित हो गए ॥ ९ ॥ जीवयिष्यति मत्कान्तं पश्चाद्वेदविदां वरः । यद्यत्पृच्छामि संदेहात्तद्भवान्वक्तुमर्हति ॥ १०॥ आप वेदज्ञों में श्रेष्ठ हैं । आप मेरे पति को जीवित तो कर ही देंगे, किन्तु सन्देहवश जो-जो बातें मैं अभी आपसे पूछ रही हूं, उन सबको बताने की कृपा करें ॥ १० ॥ सभायां जीविते कान्ते तस्य तीव्रस्य संनिधौ । त्वां हि प्रष्टुं न शक्ताऽहं विद्यमाने मदीश्वरे ॥ ११॥ एते ब्रह्मादयो देवा विद्यमानाश्च संसदि । त्वं च वेदविदां श्रेष्ठो न च कश्चिन्मदीश्वरः ॥ १२॥ नारीं रक्षति भर्ता चेन्न कोऽपि खण्डितुं क्षमः । शास्तिं करोति यदि स न कोऽपि रक्षिता भुवि ॥ १३॥ क्योंकि पति के जीवित हो जाने पर उनकी उपस्थिति में मैं आपसे कोई बात पूछ नहीं सकूगी; क्योंकि वे तीक्ष्ण स्वभाव के हैं । यद्यपि इस सभा में ब्रह्मादि देवगण और वेदविदों में श्रेष्ठ आप भी विद्यमान हैं, पर कोई भी मेरा (स्वामी) नहीं है । पति यदि नारी की रक्षा करता है, तो कोई उसका खंडन नहीं कर सकता है । और यदि वह अनुशासन करता या दंड देता है तो भूतल पर उस (स्त्री) की कोई रक्षा भी नहीं कर सकता है ॥ ११-१३ ॥ एवं वेदेषु नो शक्तिः शक्रे वा ब्रह्मरुद्रयोः । स्त्रीपुंभावश्च बोद्धव्यः स्वामी कर्ता च योषिताम् ॥ १४॥ स्वामी कर्ता च हर्ता च शास्ता पोष्टा च रक्षिता । अभीष्टदेवः पूज्यश्च न गुरुः स्वामिनः परः ॥ १५॥ इसी प्रकार वेदों इन्द्र, ब्रह्मा और रुद्र में भी (उसके रोकने की) शक्ति नहीं है । स्वामी और स्त्री में पतिपत्नी-भाव-सम्बन्ध जानना चाहिए । स्वामी ही स्त्रियों का कर्ता, हर्ता, शास्ता, पोषक, रक्षक, इष्टदेव तथा पूज्य है । स्त्री के लिए पति से बढ़कर कोई गुरु नहीं है । ॥ १४-१५ ॥ कन्यासत्कुलजाता या सा कान्तवशवर्तिनी । या स्वतन्त्रा च सा दुष्टा स्वभावात्कुटिला ध्रुवम् ॥ १६॥ उत्तम कुल में उत्पन्न होने वाली कन्या सदैव अपने पति के अधीन रहती है और जोस्वतन्त्रा है, वह दुष्टा तथा स्वभाव से निश्चित ही कुटिल होती है ॥ १६ ॥ दुष्टा परपुमांसं च सेवते या नराधमा । सा निन्दति पतिं शश्वदसद्वंशप्रसूतिका ॥ १७॥ जो दुष्टा परपुरुष में रत तथा अधम है, वही अपने पति की निन्दा किया करती है । वह अवश्य ही नीचकुल की कन्या होती है ॥ १७ ॥ उपबर्हणभार्याऽहं कन्या चित्ररथस्य च । वधूर्गन्धर्वराजस्य कान्तभक्ता सदा द्विज ॥ १८॥ मैं उपबहण की पत्नी और चित्ररथ की कन्या हूँ और हे द्विज ! मैं सदा पतिभक्ता एवं गन्धर्वराज की वधू हूँ ॥ १८ ॥ सर्व कालयितुं शक्तस्त्वं च वेदविदां वर । कालं यमं मृत्युकन्यां मदभ्याशं समानय ॥ १९॥ हे वेदविदांवर ! आप सबको यहाँ बुलाने में समर्थ हैं, अतः यम और मृत्यु-कन्या को मेरे समीप बुलाने की कृपा करें ॥ १९ ॥ मालावतीवचः श्रुत्वा विप्रो वेदविदां वरः । सभामध्ये समाहूय तान्प्रत्यक्षं चकार ह ॥२०॥ ददर्श मृत्युकन्यां च प्रथमं मालती सतो । कृष्णवर्णां घोररूपां रक्ताम्बरधरां वराम् ॥२१ ॥ सस्मितां षड्भुजां शान्तां दयायुक्तां महासतीम् । कालस्य स्वामिनो वामे चतुःषष्टिसुतान्विताम् ॥२२॥ वेदवेताओं में श्रेष्ठ उस विप्र ने मालावती की बात सुनकर सभा के भीतर ही उन सब को बुलाकर उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा कर दिया । सती मालावती ने सर्वप्रथम मृत्युकन्या को देखा । उसका रंग काला था । वह देखने में भयानक थी । उसने लाल रंग के वस्त्र पहन रखे थे । वह मंद-मंद मुसकरा रही थी । उसके छह भुजायें थीं । वह शान्त, दयालु और महासती थी । वह अपने स्वामी काल के बायें भाग में चौंसठ पुत्रों को साथ लिये खड़ी थी ॥ २०-२२ ॥ कालं नारायणांशं च ददर्श पुरतः सती । महोग्ररूपं विकटं ग्रीष्मसूर्यसमप्रभम् ॥२३॥ षड्वक्त्रं षोडशभुजं चतुर्विंशतिलोचनम् । षट्पादं कृष्णवर्णं च रक्ताम्बरधरं परम् ॥२४॥ देवस्य देवं विकृतं सर्वसंहाररूपिणम् । कालाधिदेवं सर्वेशं भगवन्तं सनातनम् ॥२५॥ ईषद्धास्यप्रसनास्यमक्षमालाकरं वरम् । जपन्तं परमं ब्रह्म कृष्णमात्मानमीश्वरम् ॥२६॥ तदनन्तर मालावती ने अपने सामने स्थित नारायण के अंगभूत काल को भी देखा । वह महान् उग्ररूप, विकट तथा ग्रीष्म ऋतु के सूर्य के समान चमक रहा था । उसके छह मुख, सोलह भुजाएँ, चौबीस नेत्र, और छह चरण थे । उसका रंग काला था और उसने लाल वस्त्र धारण कर रखे थे । वह देवताओं का भी देवता, विकराल आकृति वाला, सर्वसंहाररूपी, काल का अधिदेवता, सर्वेश्वर एवं सनातन भगवान् है । उसके मुख पर प्रसन्नता तथा मंद मुसकान दिखाई पड़ रही थी । वह हाथ में अक्षमाला धारण करके भगवान् कृष्ण का (नाम) जप रहा था ॥ २३-२६ ॥ सती ददर्श पुरतो व्याधिसंघान्सुदुर्जयान् । वयसाऽतिमहावृद्धान्स्तनंधान्मातृसंनिधौ ॥२७॥ स्थूलपादं कृष्णवर्णं धर्मिष्ठं रविनन्दनम् । जपन्तं परमं ब्रह्म भगवन्तं सनातनम् ॥२८॥ धर्माधर्मविचारज्ञं परं धर्मस्वरूपिणम् । पापिनामपि शास्तारं ददर्श पुरतो यमम् ॥२९॥ तांश्च दृष्ट्वा च निःशङ्का पप्रच्छ प्रथमं यमम् । मालावती महासाध्वी प्रहृष्टवदनेक्षणा ॥३०॥ अनन्तर उस सती (मालावती) ने अपने सम्मुख अत्यन्त दुर्जेय व्याधि-समूहों को देखा, जो अवस्था में अत्यन्त महावृद्ध, किन्तु माता के समीप स्तनपान करने वाले बच्चे की भौति दिख रहे थे । फिर मालावती ने सूर्यपुत्र यम को देखा, जो कृष्ण वर्ण तथा स्थूलपाद थे । वे धर्मनिष्ठ सूर्यपुत्र परब्रह्म स्वरूप सनातन भगवान् श्रीकृष्ण का नाम-जप कर रहे थे । वे धर्माधर्म के विचार के ज्ञाता, श्रेष्ठ धर्मस्वरूप तथा पापियों के शासक हैं । उन्हें देखकर महासती मालावती ने अपने मुख और नेत्रों से अत्यन्त हर्ष सूचित करती हुई निःशंक होकर सर्वप्रथम यम से पूछा ॥ २७-३० ॥ मालावत्युवाच हे धर्मराज धर्मिष्ठ धर्मशास्त्रविशारद । कालव्यतिक्रमे कान्तं कथं हरसि मे विभो ॥३१ ॥ थै मालावती बोली-भाव-विशाएद ! धमनिष्ठ ! धर्मराज ! प्रभो ! आप समय का उल्लंघन करके मेरे प्रियतम को कैसे लिये जा रहे हैं ? ॥ ३१ ॥ यम उवाच अप्राप्तकालो म्रियते न कश्चिज्जगतीतले । ईश्वराज्ञां विना साध्वि नामृतं चालयाम्यहम् ॥३२॥ यम बोले-पतिव्रते ! इस भूतल पर बिना समय पूराहुए तथा ईश्वर की आज्ञा मिले बिना कोई भी मरता नहीं है । और बिना मरे मैं किसी को ले नहीं जाता हूँ ॥ ३२ ॥ अहं कालो मृत्युकन्या व्याधयश्च सुदुर्जयाः । निषेकेण प्राप्तकालं कालयन्तीश्वराज्ञया ॥३३॥ मैं, काल, मृत्यु-कन्या और समस्त दुर्जेय व्याधि गण जन्म के बाद समय आने पर ही जीव को ईश्वर की आज्ञा से ले जाते हैं ॥ ३३ ॥ मृत्युकन्या विचारज्ञा यं प्राप्नोति निषेकतः । तमहं कालयाम्येव पृच्छतां केन हेतुना ॥३४॥ विवेकशील मृत्युकन्या जन्मकाल के बाद जिसके पास पहुँच जाती है, उसे ही मैं ले जाता हूँ । (अतएव उसी से) पूछो कि वह किस कारण जीव के पास जाती है ॥ ३४ ॥ मालावत्युवाच त्वमपि स्त्री मृत्युरुया जानासि स्वामिवेदनम् । कथं हरसि मत्कान्तं जीवितायां मयि प्रिये ॥३५॥ मालावती बोली-प्रिय (सखी) मृत्युकन्या ! तुम भी स्त्री हो और पति-वियोग की वेदना को जानती हो । तब जीवित रहते हुए मेरे कान्त का अपहरण क्यों कर रही हो ? ॥ ३५ ॥ मृत्युकन्योवाच पुरा विश्वसृजा सृष्टाऽप्यहमेवात्र कर्मणि । न च क्षमा परित्यक्तुं बहुना तपसा सति ॥३६॥ सती सतीनां मध्ये च काचित्तेजस्विनी वरा । मामेव भस्मसात्कर्तुं क्षमा यदि भवेद्भवे ॥३७॥ सर्वापच्छान्तिरेवेह तदा भवति सुन्दरि । पुत्राणां स्वामिनः पश्चाद्भविता यद्भविष्यति ॥३८॥ मृत्युकन्या बोली-प्राचीन काल में ही विश्वस्रष्टा ब्रह्मा ने मेरी सृष्टि करके इस कर्म में मुझे नियुक्त कर दिया था । पतिव्रते ! बहुत तप करने पर भी मैं इस कर्म को छोड़ने में असमर्थ हूँ । यदि संसार में सती स्त्रियों के बीच कोई परमतेजस्विनी स्त्री मुझे भस्म करने में समर्थ हो जाये, तो हे सुन्दरि ! इस लोक की समस्त आपत्तियाँ शान्त हो जातीं । पश्चात् मेरे स्वामी और पुत्रों की जो दशा होने को होती, वह हो जाती ॥ ३६-३८ ॥ कालेन प्रेरिताऽहं च मत्पुत्रा व्याधयश्च वै । न मत्सुतानां दोषश्च न च मे शृणु निश्चितम् ॥३९॥ काल से प्रेरित होने पर ही मैं और मेरे पुत्र व्याधिगण यह कार्य करते हैं । इसलिए यह निश्चित है कि इसमें मेरा और मेरे पुत्रों का कोई दोष नहीं है ॥ ३९ ॥ पृच्छ कालं महात्मानं धर्मज्ञं धर्मसंसदि । तदा यदुचितं भद्रे तत्करिष्यसि निश्चितम् ॥४०॥ भद्रे ! इस धर्मसभा में धर्मज्ञाता एवं महात्मा काल से इस विषय में पूछो । फिर जो उचित होगा वह सुनिश्चित रूप से करना ॥ ४० ॥ मालावत्युवाच हे कालकर्मणां साक्षिन्कर्मरूप सनातन । नारायणांश भगवन्नमस्तुभ्यं पराय च ॥४१॥ मालावती बोली-काल और कमों के साक्षी, कर्मरूप, सनातन ! भगवन् ! आप नारायण के अंश हैं । अतः आप परमश्वर को नमस्कार है ॥ ४१ ॥ कथं हरसि मत्कान्तं जीवितायां मयि प्रभो । जानासि सर्वदुःखं चसर्वज्ञस्त्वं कृपानिधे ॥४२॥ प्रभो, कृपानिधे ! आप सर्वज्ञ हैं । समस्त दुःखों को जानते हैं । इसलिए मेरे जीवित काल में मेरे कान्त का अपहरण आप क्यों कर रहे हैं ? ॥ ४२ ॥ कालपुरुष उवाच कोवाऽहं को यमः का च मृत्युकन्या च व्याधयः । वय भ्रमामः सततमीशाज्ञापरिपालकाः ॥४३॥ कालपुरुष बोले--मैं क्या हूँ ? तथा यम, मृत्युकन्या और समस्त व्याधिगण भी किस गिनती में हैं ? हम लोग निरन्तर ईश्वर की आज्ञा का पालन करने के लिये भ्रमण करते हैं ॥ ४३ ॥ यस्य सृष्टा च प्रकृतिर्ब्रह्मविष्णुशिवादयः । सुरा मुनीन्द्रा मनवो मानवाः सर्वजन्तवः ॥४४॥ ध्यायन्ते तत्पदाम्भोजं योगिनश्च विचक्षणाः । जपन्ति शश्वन्नामानि पुण्यानि परमात्मनः ॥४५॥ जिनसे प्रकृति, ब्रह्मा, विष्णु और शिवादि देवगण, मुनिगण, मनुगण, मानवसमूह और समस्त जीवगण उत्पन्न हुए हैं । जिनके चरणकमल का योगीगण सदैव ध्यान करते हैं और बुद्धिमान् पुरुष जिन परमात्मा के पवित्र नामों का निरन्तर जप करते हैं ॥ ४४-४५ ॥ यद्भयाद्वाति वातोऽयं सूर्यस्तपति यद्भयात् । स्रष्टा ब्रह्माऽऽज्ञया यस्यपाता विष्णुर्यदाज्ञया ॥४६॥ जिनके भय से वायु चलता है, सूर्य तपता है और जिनकी आज्ञा से ब्रह्मा सृष्टि करते तथा विष्णु पालन करते हैं । ॥ ४६ ॥ संहर्ता शंकरः सर्वंजगतां यस्य शासनात् । धर्मश्च कर्मणां साक्षी यस्याऽऽज्ञापरिपालकः ॥४७॥ राशिचक्रं ग्रहा सर्वे ब्रमन्ति यस्य शासनात् । दिगीशाश्चैव दिक्पाला यस्याऽऽज्ञापरिपालकाः॥४८॥ जिनके शासन में शंकर समस्त जगत् का संहार करते हैं । जिनकी आज्ञा का पालन करने के नाते धर्म कों के साक्षी कहे जाते हैं । जिनके शासन से राशि-समूह और समस्त ग्रहगण भ्रमण करते हैं । दिशाओं के अधीश्वर दिक्पाल जिनकी आज्ञा का सतत पालन करते हैं ॥ ४७-४८ ॥ यस्याऽज्ञया चतरवः पुष्पाणि च फलानि च । बिभ्रत्येव ददत्येव काले मालावति सति ॥४९॥ हे सती मालावती ! जिनकी आज्ञा से वृक्ष समय पर फूल और फल धारण करते तथा देते हैं ॥ ४९ ॥ यस्याऽऽज्ञया जलाधारा सर्वाधारा वसुंधरा । क्षमावती च पृथिवी कम्पिता न भयेन च ॥५०॥ जिनकी आज्ञा से यह वसुन्धरा जल और सभी चराचरों का आधार बनी हुई है । जिनके भय से पृथ्वी कभी-कभी सहसा कम्पित हो उठती है ॥ ५० ॥ सहसा मोहिता माया मायया यस्य संततम् । सर्वप्रसूर्या प्रकृतिः सा भीता यद्भयादहो ॥५१ ॥ जिनकी माया से सहसा माया भी मोहित हो जाती है और जिनके भय से सबको जन्म देने वाली प्रकृति भीत होकर कार्य करती रहती है ॥ ५१ ॥ यस्यान्तं न विदुर्वेदा वस्तूनां भावगा अपि । पुराणानि च सर्वाणि यस्यैव स्तुतिपाठकाः ॥५२॥ समस्त वस्तुओं की सत्ता को बताने वाले वेद भी जिनका अन्त नहीं जानते तथा समस्त पुराण जिनकी स्तुति किया करते हैं ॥ ५२ ॥ यस्य नाम विधिर्विष्णुः सेवते सुमहान्विराट् । षोडशांशो भगवतः स एव तेजसो विभोः ॥५३॥ जिनके नाम का सेवन तेजोमय सर्वव्यापी भगवान् की सोलहवीं कला स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महान् विराट् किया करते हैं ॥ ५३ ॥ सर्वेश्वरः कालकालो मृत्योर्मुत्युः परात्परः । सर्वविघ्नविनाशाय तं कृष्णं परिचिन्तय ॥५४॥ वे ही सबके अधीश्वर, काल के काल, मृत्यु के मृत्यु और श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ हैं । अतः समस्त विप्रों के विनाशार्थ उन्हीं भगगान् श्रीकृष्ण का तुम चिन्तन करो ॥ ५४ ॥ सर्वाभीष्टं च भर्तारं प्रदास्यति कृपानिधिः । इमे यत्प्रेरिताः सर्वे स दाता सर्वसंपदाम् ॥५५॥ वही कृपानिधान तुम्हें सम्पूर्ण अभीष्ट वस्तु तथा पति को भी प्रदान करेंगे । ये सब देवगण उन्हीं के द्वारा प्रेरित होते हैं । इसलिए वही समस्त सम्पत्तियों के दाता हैं ॥ ५५ ॥ इत्युक्त्वा कालपुरुषो विरराम च शौनक । कथां कथितुमारेभे पुनरेव तु ब्राह्मणः ॥५६॥ शौनक ! काल पुरुष इतना कहकर चुप हो गए । अनन्तर ब्राह्मण ने पुनः कथा कहना आरम्भ किया ॥ ५६ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डं मालावतीकालपुरुषसंवादे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में मालावती और कालपुरुष का संवाद नामक पन्द्रहवां अध्याय समाप्त ॥ १५ ॥ |