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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - षोडशोऽध्यायः चिकित्साप्रणयनम्
ब्राह्मण द्वारा चिकित्सा का वर्णन - ब्राह्मण उवाच इष्टः कालो यमो मृत्युकन्या व्याधिगणा अहो । कस्तेऽधुना च संदेहस्तं पृच्छ कन्यके शुभे ॥ १॥ ब्राह्मण बोले-बालिके ! भद्रे ! काल, यम, मृत्युकन्या और समस्त व्याधिगण को तुमने देख लिया । अब इस समय तुम्हें क्या सन्देह है, उसे पूछो ॥ १ ॥ ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा हृष्टा मालावती सती । यन्मनोनिहितं प्रश्नं चकार जगदीश्वरम् ॥२॥ ब्राह्मण की बात सुनकर सती मालावती प्रसन्न हुई और उसने अपना अभीष्ट प्रश्न भगवान् जगदीश्वर से पूछा ॥ २ ॥ मालावत्युवाच त्वया यः कथितो व्याधिः प्राणिनां प्राणहारकः । तत्कारणं च विविधं सर्वं वेदे निरूपितम् ॥३॥ मालावती बोली आपने बताया कि व्याधियाँ प्राणियों के प्राणों का अपहरण करती हैं और उसके अनेक प्रकार के कारण भी वेद में बताये गये हैं ॥ ३ ॥ यतो न संचरेद्व्याधिर्दुर्निवारोऽशुभावहः । तमुपायं च साकल्यं भवान्वक्तुमिहार्हति ॥४॥ अतः जिस (उपाय) से यह दुनिवार और अशुभकारी रोगसमूह शरीर में न फैले, उस उपाय को आप विस्तार से बताने की कृपा करें ॥ ४ ॥ यद्यत्पृष्टमपृष्टं वा ज्ञातमज्ञातमेव वा । सर्वं कथय तद्भद्रं त्वं गुरुर्दीनवत्सलः ॥५ ॥ आप गुरु और दीनों पर दया करने वाले हैं, अतः जो बात मैंने पूछी है या नहीं पूछी है तथा जो ज्ञात है अथवा अज्ञात है, वह सब कल्याण की बात आप मुझे बताइए ॥ ५ ॥ मालावतीवचः श्रुत्वा विप्ररूपी जनार्दनः । संहितां वक्तुमारेभे संहितार्थं च वैद्यकीम् ॥६॥ ब्राह्मणवेषधारी भगवान् जनार्दन ने मालावती की बात सुनकर 'वैद्यकसंहिता' का वर्णन आरम्भ किया ॥ ६ ॥ ब्राह्मण उवाच वन्दे तं सर्वतत्त्वज्ञं सर्वकारणकारणम् । वेदवेदाङ्गबीजस्य बीजं श्रीकृष्णमीश्वरम् ॥७॥ ब्राह्मण बोले-मैं भगवान् श्रीकृष्ण की वन्दना करता हूँ, जो समस्त तत्त्वों के ज्ञाता, समस्त कारणों के कारण तथा वेद-वेदांगों के बीज के भी बीज हैं ॥ ७ ॥ स ईशश्चतुरो वेदान्ससृजे मङ्गलालयान् । सर्वमङ्गलमङ्गल्यबीजरूपः सनातनः ॥८॥ समस्त मंगलों के भी मंगलकारी बीजस्वरूप उन सनातन परमेश्वर ने मंगल के आधारभूत चार वेदों को प्रकट किया ॥ ८ ॥ ऋग्यजुःसामार्थवाख्यान्दृष्ट्वावेदान्प्रजापतिः । विचिन्त्य तेषामर्थं चैवाऽऽयुर्वेदं चकार सः ॥९॥ उनके नाम हैं-ऋग्, यजु, साम और अथर्व । उन वेदों को देखकर और उनके अर्थों का विचार करके प्रजापति ने आयुर्वेद की रचना की ॥ ९ ॥ कृत्वा तु पञ्चमं वेदं भास्कराय ददौ विभुः । स्वतन्त्रसंहितां तस्माद्भास्करश्च चकार सः ॥ १०॥ भास्करश्च स्वशिष्येभ्य आयुर्वेदं स्वसंहिताम् । प्रददौ पाठयामास ते चक्रुः संहितास्ततः ॥ ११॥ इस प्रकार पाँचवें वेद की रचना करके परमेश्वर ने सूर्य को प्रदान किया और भास्कर ने उससे एक स्वतन्त्र संहिता की रचना की । अनन्तर उन्होंने अपनी आयुर्वेदसंहिता अपने शिष्यों को पढ़ायी और उन्हें सौंप दी । पश्चात् उन शिष्यों ने भी अनेक संहिताओं का निर्माण किया ॥ १०-११ ॥ तेषां नामानिविदुषां तन्त्राणि तत्कृतानिच । व्याधिप्रणाशबीजानि साध्विमत्तो निशामय ॥ १२॥ साध्वी ! उन विद्वानों तथा उनके बनाये हुए तन्त्रों के नाम, जो रोगनाशक बीजरूप हैं, मुझसे सुनो ॥ १२ ॥ धन्वन्तरिर्दिवोदासः काशीराजोऽश्विनीसुतौ । नकुलः सहदेवोऽर्किश्च्यवनो जनको बुधः ॥ १३॥ जाबालो जाजलिः पैलः करथोऽगस्त्य एव च । एते वेदाङ्गवेदज्ञाः षोडश व्याधिनाशकाः ॥ १४॥ धन्वन्तरि, दिवोदास, काशिराज, दोनों अश्विनीकुमार, नकुल, सहदेव, यमराज, च्यवन, जनक, बुध, जाबाल, जाजलि, पैल, करथ और अगस्त्य-ये सोलह व्यक्ति वेद-वेदांग के तत्त्वों के ज्ञाता तथा रोगों के नाश करने में दक्ष हैं ॥ १३-१४ ॥ चिकित्सातत्त्वविज्ञानं नामतन्त्रं मनोहरम् । धन्वन्तरिश्च भगवांश्चकार प्रथमे सति ॥ १५॥ चिकित्सादर्पणं नाम दिवोदासश्चकार सः । चिकित्साकौमुदीं दिव्यां काशीराजश्चकार सः ॥ १६॥ चिकित्सासारतन्त्रं च भ्रमघ्नं चाश्विनीसुतौ । तन्त्रं वैद्यकसर्वस्वं नकुलश्च चकार सः ॥ १७॥ चकार सहदेवश्च व्याधिसिन्धुविमर्दनम् । ज्ञानार्णवं महातन्त्रं यमराजश्चकार ह ॥ १८॥ सर्वप्रथम भगवान् धन्वन्तरि ने चिकित्सातत्त्वविज्ञान नामक एक मनोहर तन्त्र की रचना की । फिर दिवोदास ने 'चिकित्सादर्पण', काशिराज ने 'चिकित्साकौमुदी' और दोनों अश्विनीकुमारों ने 'चिकित्सासारतन्त्र' की रचना की, जो भ्रम का निवारक है । उसी भांति नकुल ने 'वैद्यकसर्वस्व', सहदेव ने 'व्याधिसिन्धुविमर्दन' और यमराज ने 'ज्ञानार्णव' नामक महातन्त्र को बनाया ॥ १५-१८ ॥ च्यवनो जीवदानं च चकार भगवानृषिः । चकार जनको योगी वैद्यसंदेहभञ्जनम् ॥ १९॥ सर्वसारं चन्द्रसुतो जाबालस्तन्त्रसारकम् । वेदाङ्गसारं तन्त्रं च चकार जाजलिर्मुनिः ॥२०॥ पैलो निदानं करथस्तन्त्रं सर्वधरं परम् । द्वैधनिर्णयतन्त्रं च चकार कुम्भसंभवः ॥२१॥ चिकित्साशास्त्रबीजानि तन्त्राण्येतानि षोडश । व्याधिप्रणाशबीजानि बलाधानकराणि च ॥२२॥ भगवान् च्यवन ऋषि ने 'जीवदान' नामक तन्त्र, योगी जनक ने 'वैद्यसन्देहभजन', चन्द्र-पुत्र बुध ने 'सर्वसार, जाबाल ने 'तन्त्रसार' और जाजलि मुनि ने 'वेदांगसार' का निर्माण किया । पैल ने 'निदानतन्त्र', करथ ने उत्तम सर्वधर-तंत्र' और अगस्त्य ने 'द्वैधनिर्णयतन्त्र' की रचना की । ये सोलह तन्त्र, चिकित्सा शास्त्र के बीज, व्याधिनाशक हेतु तथा बलवृद्धिकारक हैं ॥ १९-२२ ॥ मथित्वा ज्ञानमन्त्रेणैवाऽऽयुर्वेदपयोनिधिम् । ततस्तस्मादुदाजह्रुर्नवनीतानि कोविदाः ॥२३॥ विद्वानों ने आयुर्वेद-सागर को अपने ज्ञानरूपी मथानी से मथ कर उक्त तन्त्रों को नवनीत (मक्खन) के रूप में निकाला है ॥ २३ ॥ एतानि क्रमशो दृष्ट्वा दिव्यां भास्करसंहिताम् । आयुर्वेदं सर्वबीजं सर्वं जानामि सुन्दरि ॥२४॥ सुन्दरि ! इनको क्रमशः देखकर तुम भास्कर की दिव्य संहिता और सर्वबीजस्वरूप आयुर्वेद को भलीभांति जान लोगी ॥ २४ ॥ व्याधेस्तत्त्वपरिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रहः । एतद्वैद्यस्य वैद्यत्वं न वैद्यः प्रभुरायुषः ॥२५॥ व्याधियों के तत्त्वों का भलीभांति ज्ञान करना और वेदनाओं का निग्रह करना, यही वैद्यों का वैद्यत्व है । वैद्य आयु प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं ॥ २५ ॥ आयुर्वेदस्य विज्ञाता चिकित्सासु यथार्थवित् । धर्मिष्ठश्च दयालुश्च तेन वैद्यः प्रकीर्तितः ॥२६॥ आयुर्वेद के विशेष ज्ञाता, चिकित्साओं के यथार्थवेत्ता, धर्मात्मा और दयालु होने के नाते उन्हें वैद्य कहा जाता है ॥ २६ ॥ जनकः सर्वरोगाणां दुर्वारो दारुणो ज्वरः । शिवभक्तश्चयोगी च निष्ठुरो विकृताकृतिः ॥२७॥ दारुण ज्वर समस्त रोगों का जनक और दुर्वार (बड़ी कठिनाई से रोका जानेवाला) होता है । वह शिवभक्त, योगी, निष्ठुर और विकृत आकृति का होता है । ॥ २७ ॥ भीमस्त्रिपादस्त्रिशिराः षड्भुजो नवलोचनः । भस्मप्रहरणो रौद्रः कालान्तकयमोपमः ॥२८॥ उसके तीन चरण, तीन शिर, छह भुजाएँ और नौ नेत्र हैं । वह भयंकर ज्वर काल, अन्तक और यमराज की भांति विनाशकारी होता है । उसका अस्त्र भस्म है और देवता रुद्र ॥ २८ ॥ मन्दाग्निस्तस्य जनको मन्दाग्नेर्जनकास्त्रयः । पित्तश्लेष्मसमीराश्च प्राणिनां दुःखदायकाः ॥२९॥ वह मन्दाग्नि से उत्पन्न होता है । उस मन्दाग्नि को उत्पन्न करने वाले पित्त, कफ एवं वायु ये तीन हैं, जो प्राणियों को सदैव दुःखी करते रहते हैं ॥ २९ ॥ वायुजः पित्तजश्चैव श्लेष्मजश्च तथैव च । ज्वरभेदाश्च त्रिविधाश्चतुर्थश्च त्रिदोषजः ॥३०॥ वायु, पित्त और कफ से उत्पन्न होने के नाते ज्वर के तीन भेद हैं-वातज, पित्तज और कफज । एक चौथा ज्वर भी है, जिसे त्रिदोषज कहते हैं ॥ ३० ॥ पाण्डुश्च कामलः कुष्ठः शोथः प्लीहा च शूलकः । ज्वरातिसारग्रहणीकासव्रणहलीमकाः ॥३१॥ मूत्रकृच्छ्रश्च गुल्मश्च रक्तदोषविकारजः । विषमेहश्च कुब्जश्च गोदश्च गलगण्डकः ॥३२॥ भ्रमरी संनिपातश्च विषूची दारुणी सति । एषां भेदप्रभेदेन चतुःषष्टी रुजः स्मृताः ॥३३॥ पाण्डु, कामल, कुष्ठ, शोथ, प्लीहा, शूल, ज्वरातिसार, ग्रहणी, कास (खांसी), व्रण (फोड़ा), हलीमक, मूत्रकृच्छ, रक्तविकार या रक्तदोष से उत्पन्न होनेवाला गुल्म, विषमेह, कुब्ज, गोद, गलगण्ड (घेघा), भ्रमरी, सन्निपात, विषूची (हेजा) और दारुणी रोगों के नाम हैं । इन्हीं के भेद और प्रभेदों से रोग के चौंसठ भेद कहे गये हैं ॥ ३१-३३ ॥ मृत्युकन्यासुताश्चैते जरा तस्याश्च कन्यका । जरा च भ्रातृभिःसार्धं शश्वद्भ्रमति भूतले ॥३४॥ ये सभी मृत्युकन्या के पुत्र हैं और जरा उसकी कन्या है । जरा अपने भाइयों के साथ निरन्तर भूतल पर भ्रमण किया करती है ॥ ३४ ॥ एते चोपायवेत्तारं न गच्छन्ति च संयतम् । पलायन्ते च तं दृष्ट्वा वैनतेयमिवोरगाः ॥३५॥ संयमी और उपायवेत्ता जन के समीप ये रोग नहीं जाते हैं । उसे देखते ही उसी प्रकार भाग जाते हैं जैसे गरुड़ को देखकर साँप ॥ ३५ ॥ चक्षुर्जलं च व्यायामः पादाधस्तैलमर्दनम् । कर्णयोर्मूर्ध्नि तैलं च जराव्याधिविनाशनम् ॥३६॥ नेत्र को जल से साफ करना, व्यायाम, चरणतल में तेल मलना दोनों कान और शिर पर तेल डालना—यह प्रयोग जरा-व्याधि का नाशक है ॥ ३६ ॥ वसन्ते भ्रमणं वह्निसेवां स्वल्पां करोति यः । बालां च सेवते काले जरा तं नोपगच्छति ॥३७॥ वसन्त काल में भ्रमण, स्वल्प अग्निसेवन और समय पर बालास्त्री-सेवन करने वाले के समीप जरा कभी नहीं जाती है ॥ ३७ ॥ खातशीतोदकस्नायी सेवते चन्दनद्रवम् । नोपयाति जरा तं च निदाघेऽनिलसेवकम् ॥३८॥ ग्रीष्म काल में तालाब आदि के शीतोदक से स्नान, चन्दन-लेप और वायुसेवन करने वाले के समीप जरा नहीं जाती है ॥ ३८ ॥ प्रावृष्युष्णोदकस्नायी घनतोयं न सेवते । समये च समाहारी जरा तं नोपगच्छति ॥३९॥ शरद्रौद्रं न गृह्णाति भ्रमणं तत्र वर्जयेत् । खातस्नायी समाहारी जरा तं नोपगच्छति ॥४०॥ वर्षाकाल में उष्णोदक (गरमजल) से स्नान, वर्षाजल का असेवन, और समय पर परिमित आहार करने वाले के समीप जरा नहीं जाती है । शरत् काल में धूप-सेवन न करने, भ्रमण न करने, तालाब आदि में स्नान करने और परिमित भोजन करने से जरा पास नहीं फटकती है ॥ ३९-४० ॥ खातस्नायी च हेमन्ते काले वह्निं च सेवते । भुङ्क्ते नवान्नमुष्णंच जरा तं नोपगच्छति ॥४१॥ हेमन्त काल में प्रातः स्नान, समय पर अग्निसेवन तथा किचित् गरम और नवान्न भोजन करने वाले के समीप जरा नहीं जाती है ॥ ४१ ॥ शिशिरेंऽशुकवह्निं च कवोष्णान्नं च सेवते । यः कवोष्णोदकस्नायी जरा तं नोपगच्छति ॥४२॥ शिशिरकाल में गरम कपड़े, प्रज्वलित अग्नि तथा गरम अन्न का सेवन और उष्णोदक से स्नान करने वाले के पास जरा नहीं पहुंचती है ॥ ४२ ॥ सद्योमांसं नवान्नं च बाला स्त्री क्षीरभोजनम् । घृतं च सेवते यो हि जरा तं नोपगच्छति ॥४३॥ तुरन्त का मांस, नवान्न, षोडशी स्त्री, क्षीर भोजन और घृत के सेवन करने वाले को जरा नहीं होती है ॥ ४३ ॥ भुङ्क्ते सदन्नं क्षुत्काले तृष्णायां पीयते जलम् । नित्यं भुङ्क्ते च ताम्बूलं जरा तं नोपगच्छति ॥४४॥ क्षुधा लगने पर उत्तम अन्न का भक्षण, प्यास लगने पर जलपान और नित्य ताम्बूल सेवन करने वाले को जरा नहीं होती है ॥ ४४ ॥ दधि हैयङ्गवीनं च नवनीतं तथा गुडम् । नित्यं भुङ्क्ते संयमी यो जरा तं नोपगच्छति ॥४५॥ जो व्यक्ति संयमपूर्वक नित्य दही, मक्खन, घी और गुड़ का सेवन करता है उसके समीप जरा नहीं जाती है । ॥ ४५ ॥ शुष्कमांसं स्त्रियं वृद्धां बालार्कं तरुणं दधि । संसेवन्तं जरा याति प्रहृष्टा भ्रातृभिः सह ॥४६॥ शुष्क मांस, वृद्धा स्त्री, कन्याराशिगत सूर्य की रश्मि (अर्थात् क्वार-कार्तिक मास की धूप) तथा कई दिन का पुराना दही सेवन करने वाले को जरा प्रसन्नता से अपने भाइयों समेत पहुंच कर अपने अधीन कर लेती है ॥ ४६ ॥ रात्रौ ये दधि सेवन्ते पुंश्चलीश्च रजस्वलाः । तानुपैति जरा हृष्टा भ्रातृभिः सह सुन्दरि ॥४७॥ सुन्दरि ! रात्रि में दही, व्यभिचारिणी और रजस्वला स्त्री का सेवन करने वाले के समीप जरा, अत्यन्त प्रसन्न होकर भाइयों समेत पहुँच जाती है ॥ ४७ ॥ रजस्वला च कुलटा चावीरा जारदूतिका । शूद्रयाजकपत्नी या ऋतुहीना च या सति ॥४८॥ यो हि तासामन्नभोजो ब्रह्महत्यां लभेत्तु सः । तेन पापेन सार्धं सा जरा तमुपगच्छति ॥४९॥ रजस्वला, कुलटा, (पतिपुत्र रहित) विधवा, जार के लिए दूती का काम करने वाली, शूद्रों को यज्ञ कराने वाले की पत्नी तथा मासिकधर्म से रहित स्त्रियों के अन्न का भोजन करने से ब्रह्महत्या का भागी होना पड़ता है और उस पाप के साथ उसे जरा भी प्राप्त होती है ॥ ४८-४९ ॥ पापानांव्याधिभिः सार्धं मित्रता संततं ध्रुवम् । पापंव्याधिजराबीजं विध्नबीजं च निश्चितम् ॥५०॥ पापों की व्याधियों के साथ सदा अटूट मित्रता होती है । पाप ही रोग, वृद्धावस्था तथा नाना प्रकार के विघ्नों का बीज है ॥ ५० ॥ पापेन जायते व्याधिः पापेन जायते जरा । पापेन जायते दैन्यं दुःखं शोको भयं कलिः ॥५१॥ पाप से रोग होता है, पाप से बुढ़ापा आता है और पाप से ही दीनता, दुःख और भयंकर शोक की उत्पत्ति होती है ॥ ५१ ॥ तस्मात्पापं महावैरं दोषबीजममङ्गलम् । भारते सततं सन्तो नाऽऽचरन्ति भयातुराः ॥५२॥ इसलिए पाप महावैरी, दोषों का कारण और अमंगल रूप है । इस कारण भारत में सन्त लोग सदा भयभीत हो कभी पाप का आचरण नहीं करते हैं ॥ ५२ ॥ स्वधर्माचारयुक्तं च दीक्षितं हरिसेवकम् । गुरुदेवातिथीनां च भक्तं सक्तं तपःसु च ॥५३॥ व्रतोपवासयुक्तं च सदा तीर्थनिषेवकम् । रोगा द्रवन्ति तं दृष्ट्वा वैनतेयमिवोरगाः ॥५४॥ अपने धर्म का आचरण करने वाले, दीक्षायुक्त, भगवान् के सेवक, गुरु, देव और अतिथियों के भक्त, तप में लीन रहने लाले, व्रत और उपवास करने वाले तथा निरन्तर तीर्थ सेवन करने वाले को देखकर रोगगण उसी तरह भाग जाते हैं जैसे गरुड़ को देखकर साँप (भाग जाते हैं) ॥ ५३-५४ ॥ एताञ्जरा न सेवेत व्याधिसंघश्च दुर्जयः । सर्वं बोध्यमसमये काले सर्वं ग्रसिष्यति ॥५५॥ उस पर जरा और दुर्जेय व्याधियाँ भी आक्रमण नहीं करती हैं । अतः ये सब जानने के योग्य हैं । न जानने से असमय में ही ये ग्रसित कर लेते हैं ॥ ५५ ॥ ज्वरश्च सर्वरोगाणां जनकः कथितः सति । पित्तश्लेष्मसमीराश्च ज्वरस्य जनकास्त्रयः ॥५६॥ पतिव्रते ! ज्वर समस्त रोगों का जनक है-यह बताया जा चुका है । और उस ज्वर को उत्पन्न करने वाले वात, पित्त और ये तीन हैं ॥ ५६ ॥ एते यथा संचरन्ति स्वयं यान्ति च देहिषु । तमेव विविधोपायं साध्वि मत्तो निशामय ॥५७॥ ये जिस प्रकार देहधारियों में संचार करते और स्वयं पहुंचते हैं, उसके अनेक कारणों तथा उपायों को मुझसे सुनो । ॥ ५७ ॥ क्षुधि जाज्वल्यमानायामाहाराभाव एव च । प्राणिनां जायते पित्तं चक्रे च मणिपूरके ॥५८॥ अत्यन्त क्षुघा लगने पर भोजन न करने से प्राणियों के मणिपूरक चक्र में पित्त की उत्पत्ति होती है ॥ ५८ ॥ तालबिल्वफलं भुक्त्वा जलपानं च तत्क्षणम् । तदेव तु भवेत्पित्तं सद्यः प्राणहरं परम् ॥५९॥ ताड़ और बेल खाकर तुरन्त जल पी लेने से वह उसी क्षण प्राणहारी पित्त हो जाता है ॥ ५९ ॥ तप्तोदक च शिरसि भाद्रे तिक्तं विशेषतः । दैवग्रस्तश्च यो भुङ्क्ते पित्तं तस्य प्रजायते ॥६०॥ जो देव का मारा हुआ पुरुष भादों में तपा हुआ जल सिर पर डालता है तथा विशेष रूप से तिक्त भोजन करता है उसका पित्त बढ़ जाता है ॥ ६० ॥ सशर्करं च धान्याकं पिष्टं शीतोदकान्वितम् । चणकं सर्वगव्यं च दधितक्रविवर्जितम् ॥६१॥ बिल्वतालफलं पक्वं सर्वभैक्षवमेव च । आर्द्रकं मुद्गसूपं च तिलपिष्टं सशर्करम् ॥६२॥ पित्तक्षयकरं सद्यो बलपुष्टिप्रदं परम् । पित्तनाशं च तद्बीजमुक्तमन्यन्निबोध मे ॥६३॥ भोजनानन्तरं स्नानं जलपानं विना तृषा । तिलतैलं स्निग्धतैलं स्निग्धमामलकीद्रवम् ॥६४॥ पर्यूषितान्नं तक्रं च पक्वं रम्भाफलं दधि । मेघाम्बु शर्करातोयं सुस्निग्धजलसेवनम् ॥६५॥ नारिकेलोदकं रूक्षस्नानं पर्युषितं जलम् । तरुमुञ्जापक्वफलं सुपक्वं कर्कटीफलम् ॥६६॥ जातस्नानं च वर्षासु मूलकं श्लेष्मकारकम् । ब्रह्मरन्ध्रे च तज्जन्म महद्वीर्यविनाशनम् ॥६७॥ अतः धनियाँ पीसकर शक्कर समेत शीतल जल में पीने से पित्त की शान्ति होती है । चना, गव्य पदार्थ (दूध, दही, घृत गोबर और मूत्र) तकरहित दही, पके हुए बेल और ताड़ के फल, ईख के रस से बनी हुई सब वस्तुएँ, अदरक, मूली, मूंग की दाल, शक्कर समेत तिल का चूर्ण-इन वस्तुओं के भक्षण करने से उसी क्षण पित्त नष्ट हो जाता है और अत्यन्त बल एवं पुष्टि प्राप्त होती है । इस प्रकार पित्त का कारण और उसके नाश का उपाय बता दिया । अब अन्य बातें बता रहा हूँ, सुनो ! भोजन के अनन्तर (तुरंत) स्नान करना, बिना प्यास के जल पीना, तिल का तेल, स्निग्ध तेल, आंवले का रस, बासी अन्न, मट्ठा, पका केला, दही, वर्षा का जल, शक्कर का शर्बत, अत्यन्त स्निग्ध जल का सेवन, नारियल का जल, बासी जल, स्खा स्नान, तरबूज के पके फल, पकी हुई ककड़ी और वर्षा ऋतु में तालाब में नहाना और मूली खाना-- - इन सबसे कफ उत्पन्न हो जाता है । वह ब्रह्मरन्ध्र में उत्पन्न होकर वीर्य का महान् विनाश करता है ॥ ६१-६७ ॥ वह्निस्वेदं भ्रष्टभङ्गं पक्वतैलविशेषकम् । भ्रमणं शुष्कभक्षं च शुष्कपक्वहरीतकी ॥६८॥ पिण्डारकमपक्वं च रम्भाफलमपक्वकम् । वेसवारः सिन्धुवारं अनाहारमपानकम् ॥६९॥ सघृतं रोचनाचूर्णं सघृतं शुष्कशर्करम् । मरीचं पिप्पलं शुष्कमार्द्रकं जीवकं मधु ॥७०॥ द्रव्याण्येतानि गान्धर्वि सद्यः श्लेष्महराणि च । बलपुष्टिकराण्येव वायुबीजं निशामय ॥७१ ॥ गन्धर्वपुत्री ! अग्नि ताप कर स्वेद (पसीना), भूनी हुई भांग का सेवन करना, पका तेल, भ्रमण, शुष्क भोजन, सूखी और पकी हरें, कच्चा पिण्डारक (कच्चा लोहबान), कच्चा केला, वेसवार (मसाला) सिंधुवार (निर्गुडी), उपवास, जल न पीना, घी मिला रोचनाचूर्ण, घी मिला सुखा शक्कर, मरिच, पीपर, सुखा अदरक, जीवक (अष्टवर्ग में से एक औषव) और मधु--इतने पदार्थ तुरन्त कफ का नाश करते हैं और निश्चित रूप से बलपुष्टि प्रदान करते हैं । अब वायु का कारण सुनो ॥ ६८-७१ ॥ भोजनानन्तरं सद्यो गमनं धावनं तथा । छेदनं वह्नितापश्च शश्वद्भ्रमणमैथुनम् ॥७२॥ वृद्धस्त्रीगमनं चैव मनःसंताप एव च । अतिरूक्षमनाहारं युद्धं कलहमेव च ॥७३॥ कटुवाक्यं भयं शोकः केवलं वायुकारणम् । आज्ञाख्यचक्रे तज्जन्म निशामय तदौषधम् ॥७४॥ भोजनान्तर तुरन्त चलना, दौड़ना, काटना, अग्निसेवन, निरन्तर भ्रमण और मैथुन, बृद्धा स्त्री का उपभोग, मन में सन्ताप रहना, अत्यन्त रूखा खाना, अनाहार, युद्ध करना, कलह करना, कटुवाक्य बोलना भय और शोक से अभिभूत होना--ये सब वायु की उत्पत्ति के कारण हैं । इसकी उत्पत्ति आज्ञा नामक चक्र में होती है । उसके औषध को भी बता रहा हूँ, सुनो ॥ ७२-७४ ॥ पक्वं रम्भाफलं चैव सबीजं शर्करोदकम् । नारिकेलोदक चैव सद्यस्तक्रं सुपिष्टकम् ॥७५॥ माहिषं दधि मिष्टं च केवलं वा सशर्करम् । सद्यः पर्युषितान्नं च सौवीरं शीतलोदकम् ॥७६॥ पक्वतैलविशेषं च तिलतैलं च केवलम् । लाङ्गली तालखर्जूरमुष्णमामलकीद्रवम् ॥७७॥ शीतलोष्णोदकस्नानं सुस्निग्धं चन्दनद्रवम् । स्निग्धपद्मपत्रतल्पं सुस्निग्धव्यजनानि च ॥७८॥ एतत्ते कथितं वत्से सद्यो वायुप्रणाशनम् । वायवस्त्रिविधाः पुंसां क्लेशसंतापकामजाः ॥७९॥ केले का पका फल, विजौरा नीबू के साथ चीनी का शर्बत, नारियल का जल, तुरन्त का मट्ठा, उत्तम पीठी (पूआ), कचौरी आदि, भैस का मीठा दही या उसमें शक्कर मिला हो, तुरंत का वासी अन्न जौ की कांजी, शीतल जल, पका तेल, अथवा केवल तिल का तेल, नारियल, ताड़, खजूर, आँवले का उष्ण द्रव, ठंडे-गरम जल का स्नान, अत्यन्त स्निग्ध चन्दन-रस तथा चिकने कमल पतों की शय्या,---ये सब वस्तुएँ एवं अत्यन्त स्निग्ध व्यजन उसी क्षण वायु का नाश कर देती है । बत्से ! इस प्रकार मैंने वायुनाशक वस्तुओं का वर्णन कर दिया । मनुष्यों में क्लेश, सन्ताप और काम से उत्पन्न होने वाले वायु-दोष तीन प्रकार के होते हैं ॥ ७५-७९ ॥ व्याधिसंघश्च कथितस्तन्त्राणि विविधानि च । तानि व्याधिप्रणाशाय कृतानि सद्भिरेव च ॥८०॥ इस प्रकार मैंने व्याधि-समूह और उनके नाश के लिए विद्वानों द्वारा बनाये गये नाना प्रकार के तन्त्र भी बता दिये हैं ॥ ८० ॥ तन्त्राण्येतानि सर्वाणि व्याधिक्षयकराणि च । रसायनादयो येषु चोपायाश्च सुदुर्लभाः ॥८१॥ ये सभी तन्त्र व्याधिनाशक है । जिनमें रसायन आदि अत्यन्त दुर्लभ उपाय बताये गये है ॥ ८१ ॥ न शक्तः कथितं साध्वि यथार्थं वत्सरेण च । तेषां च सर्वतन्त्राणां कृतानां च विचक्षणैः ॥८२॥ पतिव्रते ! विद्वानों द्वारा सुरचित उन तन्त्रों का यथावत् वर्णन एक वर्ष में भी नहीं किया जा सकता ॥ ८२ ॥ केन रोगेण त्वत्कान्तो मृतः कथय शोभने । तदुपायं करिष्यामि येन जीवेदयं सति ॥८३॥ अतः हे शोभने ! तुम्हारा कान्त किस रोग से मृतक हुआ है वह बताओ । मैं उसका उपाय करूँगा, जिससे यह जीवित हो जायेगा ॥ ८३ ॥ सौतिरुवाच ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा कन्या चित्ररथस्य च । कथां कथितुमारेभे सा गान्धर्वी प्रहर्षिता ॥८४॥ सौति बोले-ब्राह्मण की बातें सुनकर चित्ररथ की कन्या गान्धर्वी (मालावती) ने अत्यन्त हर्षित होकर कथा कहना आरम्भ किया ॥ ८४ ॥ मालावत्युवाच योगेन प्राणांस्तत्याज ब्रह्मणः शापहेतुना । सभायां लज्जितः कान्तो ममविप्र निशामय ॥८५॥ सर्व श्रुतमपूर्व च शुभाख्यानं मनोहरम् । भवेद्भवे कुतः केषां महल्लभ्य विपद्विना ॥८६॥ मालावती बोली-हे विप्र ! मुनिए । मेरे कान्त ने सभा में लज्जित होकर ब्रह्मा के शापवश योग द्वारा अपने प्राण का परित्याग किया है । मैंने आपके मुख से मनोहर, अपूर्व एवं शुभ आरपान को सुना है । इस जगत् में बिना विपत्ति के कब किसको, कहाँ आप जैसे महात्माओं वा संग प्राप्त हुआ है ? ॥ ८५-८६ ॥ अधुना मत्प्राणकान्तं देहि देहि विचक्षण । नत्वा वः स्वामिना सार्धं यास्यामि स्वगृहं प्रति ॥८७॥ विद्वन् ! इस समय मेरे प्राणपति को मुझे देने की कृपा करें, जिससे मैं अपने स्वामी के साथ आप सबको नमस्कार करके अपने घर को चली जाऊँ ॥ ८७ ॥ मालावतीवचः श्रुत्वा विप्ररूपी जनार्दनः । सभां जगाम देवानां शीघ्रं विप्रस्तदन्तिकात् ॥८८॥ मालावती की यह बात सुनकर ब्राह्मणवेषधारी भगवान् जनार्दन उसके समीप से उठकर शीघ्र देवों की सभा में चले गये ॥ ८८ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे चिकित्साप्रणगने षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में मालावती-विष्णु-संवाद-विषयक चिकित्सा-प्रणयन नामक सोलहवां अध्याय समाप्त ॥ १६ ॥ |