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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - सप्तदशोऽध्यायः


विष्णुसुरसंघसंवादे विष्णुप्रशंसाप्रणयनम्
विप्र-बालक के साथ ब्रह्मा आदि का वार्तालाप -


सौतिरुवाच
दृष्ट्वा द्विजं देवसंघः प्रत्युत्थानं चकार च ।
परस्परं च संभाषा बभूव तत्र संसदि ॥ १॥
सौति बोले-देवसमूह ने ब्राह्मण को देख कर उठकर स्वागत किया और सभा में उन सब की परस्पर बातचीत हुई ॥ १ ॥

मा तं बुबुधिरे देवाः श्रीहरिं विप्ररूपिणम् ।
पौर्वापर्यं विस्मृताश्च मोहिता विष्णुमायया ॥२॥
विष्णु की माया से मोहित होने के नाते देवगण पूर्वापर की सारी बातें भूल गये थे, इसीलिए विप्रवेषधारी भगवान् श्रीहरि को वे उस समय पहचान न सके ॥ २ ॥

सुरान्संबोध्य विप्रश्च वाचा मधुरया द्विज ।
उवाच सत्यं परमं प्राणिनां यच्छुभावहम् ॥३॥
द्विज ! उस समय ब्राह्मण ने देवताओं को सम्बोधित करके मधुर वाणी में कहना आरम्भ किया, जो परम सत्य और प्राणियों के लिए कल्याणकारक था ॥ ३ ॥

ब्राह्मण उवाच
उपबर्हणभार्येयं कन्या चित्ररथस्य च ।
ययाचे जीवदानं च स्वामिनः शोककर्षिता ॥४॥
ब्राह्मण बोले-उपबहण की यह भार्या, जो चित्ररथ की कन्या है, शोकाकुल होकर अपने स्वामी के जीवदान की याचना कर रही है ॥ ४ ॥

अधुना किमनुष्ठानमस्य कार्यस्य निश्चितम् ।
तन्मां ब्रूत सुराः सर्वे नित्यं यत्समयोचितम् ॥५॥
आप सब देववृन्द मुझे बतायें कि इस कार्य के लिए निश्चित रूप से किस उपाय को अपनाया जाय, जो सदा काम में लाने योग्य और समयोचित हो ॥ ५ ॥

शप्तुकामा सुरान्सर्वान्साध्वी तेजस्विनी वरा ।
अहं क्षेमाय युष्माकमागतो बोधिता सती ॥६॥
वह तेजस्विनी एवं श्रेष्ठ साध्वी सभी देवों को शाप देने के लिए तैयार थी किन्तु आप लोगों के कल्याणार्थ मैंने यहाँ आकर उसे समझा-बुझा दिया है ॥ ६ ॥

स्तुतिः कृता च युष्मामिः श्वेतद्वीपे हरेरपि ।
युष्माकमीशो विष्णुश्च कथमेवात्र नाऽऽगतः ॥७॥
आप लोगों ने श्वेत द्वीप में जाकर भगवान् विष्णु की स्तुति की थी, किन्तु वे आप के ईश विष्णु यहाँ क्यों नहीं आये ? ॥ ७ ॥

बभूवाऽऽकाशवाणीति पश्चाद्यास्यति केशवः ।
विपरीतं कथं भूतं वाणीवाक्यमचञ्चलम् ॥८॥
आकाशवाणी हुई थी कि 'पश्चात् भगवान् केशव भी जायेंगें' । आकाशवाणी का वह अटल वाक्य विपरीत (मिथ्या) कैसे हो गया ? ॥ ८ ॥

ब्राह्मणस्य वचः श्रुत्वा स्वयं ब्रह्मा जगद्‌गुरुः ।
उवाच वचनं सत्यं हितं परममङ्गलम् ॥९॥
ब्राह्मण की बात सुनकर जगद्‌गुरु ब्रह्मा ने सत्य, हितकर एवं परममंगलमय बात कही ॥ ९ ॥

ब्रह्मोवाच
मत्पुत्रो नारदः शस्तो गन्धर्वश्चोपबर्हणः ।
योगेन प्राणांस्तत्याज पुनः शापान्ममैव हि ॥ १० ॥
ब्रह्मा बोले-मेरे पुत्र नारद मेरे शापवश उपबर्हण नामक गन्धर्व हुए थे और पुनः मेरे शाप के कारण योग द्वारा प्राणत्याग किया था ॥ १० ॥

कालं लक्षयुगं व्याप्य स्थितिरस्य महीतले ।
शूद्रयोनिं ततः प्राप्य भविता मत्सुतः पुनः ॥ ११ ॥
एक लाख युग के समय तक भूतल पर उनकी स्थिति रहेगी पश्चात् वे शूद्रयोनि में उत्पन्न होंगे । उसके अनन्तर पुनः मेरे पुत्र होंगे ॥ ११ ॥

अस्य कालावशेषस्य किंचिदस्ति द्विजोत्तम ।
तत्तु वर्षसहस्रं चैवाऽऽयुरस्यास्ति सांप्रतम् ॥ १२॥
हे द्विजोत्तम ! इसलिए इनका कुछ ही काल अब अवशिष्ट रह गया है । इस समय इनकी आयु एक सहस्र वर्ष की शेष है ॥ १२ ॥

दास्यामि जीवदानं च स्वयं विष्णोः प्रसादतः ।
यथैनं न स्पृशेच्छापस्तत्करिष्यामि निश्चितम् ॥ १३॥
नाऽगतो हरिरत्रेति त्वया यत्कथितं द्विज ।
हरिः सर्वत्र सर्वात्मा विग्रहः कुत आत्मनः ॥ १४॥
स्वेच्छामयः परं ब्रह्म भक्तानुग्रहविग्रहः ।
सर्वं पश्यति सर्वज्ञः सर्वत्रास्ति सनातनः ॥ १५॥
भगवान् विष्णु की कृपा से मैं स्वयं इसे जीवदान दूंगा और ऐसा उपाय अवश्य करूँगा, जिससे इस देव-समुदाय को शाप का स्पर्श न हो । हे द्विज ! आप ने जो यह कहा है कि भगवान् विष्णु यहाँ क्यों नहीं आये, सो ठीक नहीं है, क्योंकि हरि तो सर्वत्र विद्यमान हैं, वे ही सबके आत्मा हैं और आत्मा का शरीर कहाँ होता है ? परब्रह्म तो स्वेच्छामय हैं । भक्तों पर कृपा करने के लिए शरीर धारण करते हैं । वे सनातन देव सर्वत्र हैं ॥ १३-१५ ॥

विषिश्च व्याप्तिवचनो नुश्च सर्वत्रवाचकः ।
सर्वव्यापी च सर्वात्मा तेन विष्णुः प्रकीर्तितः ॥ १६॥
विष् धातु व्याप्तिवाचक है और ‘णु' का अर्थ सर्वत्र है । वे सर्वात्मा हरि सर्वत्र व्यापक हैं, इसलिए 'विष्णु' कहे गए हैं ॥ १६ ॥

अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ १७॥
अपवित्र, पवित्र अथवा किसी भी दशा में जो पुण्डरीकाक्ष (कमलनेत्र) विष्णु का स्मरण करता है वह बाहर-भीतर दोनों ओर से शुद्ध हो जाता है ॥ १७ ॥

कर्मारम्भे च मध्ये वा शेषे विष्णुं च यः स्मरेत् ।
परिपूर्णं तस्य कर्म वैदिकं च भवेद्‌द्विज ॥ १८॥
द्विज ! कर्मों के आरम्भ, मध्य और अन्त में जो विष्णु का स्मरण करता है, उसका वह वैदिक कर्म परिपूर्ण हो जाता है ॥ १८ ॥

अहं स्रष्टा च जगतां विधाता संहरो हरः ।
धर्मश्च कर्मणां साक्षी यस्याऽऽज्ञापरिपालकः ॥ १९॥
जगत् का रचयिता मैं (विधाता), संहार करने वाले हर और कर्मों के साक्षी धर्म जिनकी आज्ञा का पालन करते हैं ॥ १९ ॥

कालः संहरते लोकान्यमः शास्ता च पापिनाम् ।
उपैति मृत्युः सर्वांश्च भिया यस्याऽऽज्ञया सदा ॥२०॥
जिनकी आज्ञा और भय से काल लोकों का संहार करता है, यम पापियों पर शासन करता है और मृत्यु सबके समीप पहुंचती है । ॥ २० ॥

सर्वेशा या च सर्वाद्या प्रकृतिः सर्वसूः पुरा ।
सा भीता यस्य पुरतो यस्याऽऽज्ञापरिपालिका ॥२१॥
उसी भांति सर्वेश्वरी, सर्वाद्या मोर मनको उपाय करने वाली प्रति भी जिनके सामने भयभीत रहती तथा जिनकी आज्ञा का पालन करती है । वे ही विष्णु सर्वात्मा एवं सर्वेश्वर है ॥ २१ ॥

महेश्वर उवाच
पुत्राणां ब्रह्मणस्तेषां कस्य वंशोद्‌भवो भवान् ।
वेदानधीत्य भवता ज्ञातः कः सार एव च ॥२२॥
शिष्यः कस्य मुनीन्द्रस्य कस्त्वं नाम्नाच भो द्विज ।
विभर्ष्यर्कातिरिक्तं च शिशुरूपोऽसि सांप्रतम् ॥२३॥
महेश्वर बोले-ब्रह्मा के पुत्रों में आप किसके कुल में उत्पन्न हुए हैं और वेदों का अध्ययन करके क्या तत्त्व समझा है ! द्विज ! आप किस मुनिवर्य के शिष्य हैं और आप का नाम क्या है ? इस समय शिशुअवस्था में ही आप सूर्य से भी अधिक तेजस्वी दिखायी देते हैं ॥ २२-२३ ॥

विडम्बयसिदेवांश्च विष्णुमस्माकमीश्वरम् ।
हृदिस्थं च न जानासि परमात्मानमीश्वरम् ॥२४॥
आप अपने तेज से देवताओं को भी तिरस्कृत कर रहे हैं; किन्तु सबके हृदय में अन्तर्यामी आत्मा रूप से विराजमान हमारे स्वामी सर्वेश्वर परमात्मा को नहीं जानते, यह आश्चर्य की बात है । ॥ २४ ॥

यस्मिन्गते पतेद्‌देहो देहिनां परमात्मनि ।
प्रयान्ति सर्वे तत्पचान्नरदेवानुगा इव ॥२५॥
देहधारियों की देह से परमात्मा के निकल जाने पर देह गिर जाती है और सभी सूक्ष्म इन्द्रियवर्ग एवं प्राण उनके पीछे उसी तरह निकल जाते हैं जैसे राजा के पीछे उसके सेवक जाते हैं ॥ २५ ॥

जीवस्तत्प्रतिबिम्बश्च मनो ज्ञानं च चेतना ।
प्राणाश्चेन्द्रियवर्गाश्च बुद्धिर्मेधा धृतिः स्मृतिः ॥२६॥
निद्रा दया च तन्द्रा च क्षुत्तृष्णा पुष्टिरेव च ।
श्रद्धा संतुष्टिरिच्छा च क्षमा लज्जादिकाः स्मृताः ॥२७॥
प्रयाति यत्पुरः शक्तिरीश्वरे गमनोन्मुखे ।
एते सर्वे च शक्तिश्च यस्याऽऽज्ञापरिपालकाः ॥२८॥
उन्हीं का प्रतिबिम्ब जीव है । मन, ज्ञान, चेतना, प्राण, इन्द्रियाँ, बुद्धि, मेधा, धुति, स्मृति, निद्रा, दया, तन्द्रा, क्षुधा, तृष्णा, पुष्टि, श्रद्धा, संतुष्टि, इच्छा, क्षमा और लज्जा आदि भाव उन्हीं के अनुगामी माने गए हैं । वे परमात्मा जब जाने को उद्यत होते हैं तब उनकी शक्ति आगे-आगे जाती है । उपर्युक्त सभी भाव तथा शक्ति उन्हीं परमात्मा के आज्ञापालक हैं ॥ २६-२८ ॥

ईश्वरे च स्थिते देही क्षमश्च सर्वकर्मसु ।
गतेऽस्पृश्यः शवस्त्याज्यः कस्तं देही न मन्यते ॥२९॥
देह में उनके रहने पर ही प्राणी सभी कार्य करने में समर्थ होता है और उनके चले जाने पर शरीर अस्पृश्य और त्याज्य शव हो जाता है । ऐसे सर्वेश्वर शिव को कौन देहधारी नहीं मानता है ? ॥ २९ ॥

स्वयं ब्रह्मा च जगतां विधाता सर्वकारकः ।
पादारविन्दमनिशं ध्यायते द्रष्टुमक्षमः ॥३०॥
जगत के विधाता एवं सबके रचयिता स्वयं ब्रह्मा भी उनके चरण कमल का रातदिन ध्यान करते हैं, किन्तु उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं ॥ ३० ॥

युगलक्षं तपस्तप्तं श्रीकृष्णस्य च वेधसा ।
तदा बभूव ज्ञानी च जगत्स्रष्टुं क्षमस्तदा ॥३१॥
भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए एक लाख युग तक तप करके ही ब्रह्मा ज्ञानी और जगत् की सृष्टि करने में समर्थ हुए हैं ॥ ३१ ॥

असंस्थकालं सुचिरं तपस्तप्तं हरेर्मया ।
तृप्तिं जगाम न मनस्तृप्यते केन मङ्गले ॥३२॥
मैंने भी असंख्य काल तक भगवान् विष्णु की आराधना करते हुए घोर तप किया, किन्तु मन को तृप्ति न प्राप्त हुई । भला मंगल से कौन तृप्त होता है ? ॥ ३२ ॥

अधुना पञ्चवक्त्रेण यन्नामगुणकीर्तनम् ।
गायन्भ्रमामि सर्वत्र निःस्पृहः सर्वकर्मसु ॥३३॥
इस समय मैं पाँच मुखों से उनके नाम-गुणों का कीर्तन करते एवं गाते हुए सर्वत्र भ्रमण करता हूँ और सभी कर्मों में निःस्पृह रहता हूँ ॥ ३३ ॥

मतो याति च मृत्युश्च यन्नामगुणकीर्तनात् ।
शश्वज्जपन्तं तन्नाम दृष्ट्वा मृत्युः पलायते ॥३४॥
उनके नाम-गुणों के कीर्तन करने से मृत्यु भी मेरे पास नहीं फटकती; क्योंकि निरन्तर उनके नाम जपने वाले को देखकर मृत्यु भाग जाती है ॥ ३४ ॥

सर्वब्रह्माण्डसंहर्ताऽप्यहं मृत्युंजयाभिधः ।
सुचिरं तपसा यस्य गुणनामानुकीर्तनात् ॥३५॥
चिरकाल तक तपस्यापूर्वक उनके नाम-गुणों का कीर्तन करने से मैं समस्त ब्रह्माण्ड का संहर्ता तथा मृत्युञ्जय हुआ हूँ ॥ ३५ ॥

काले तत्र विलीनोऽहमाविर्भूतस्ततः पुनः ।
न कालो मम संहर्ता न मृत्युर्यत्प्रसादतः ॥३६॥
समय आने पर मैं उन्हीं में विलीन होता हूँ तथा उन्हीं से पुनः .प्रकट हो जाता हूँ । उनकी कृपा से मैं मृत्यु और काल को जीत चुका हूँ ॥ ३६ ॥

गोलोके यः स वैकुण्ठे श्वेतद्वीपे स एव च ।
अंशांशिनोर्न भेदश्च ब्रह्मन्वह्निस्फुलिंगवत् ॥३७॥
ब्रह्मन् ! जो श्रीकृष्ण गोलोक में हैं, वही वैकुण्ठ तथा श्वेतद्वीप में भी रहते हैं । जैसे अग्नि और उसके कण (चिनगारी) में कोई अन्तर नहीं है, उसी प्रकार अंश और अंशी में भेद नहीं होता ॥ ३७ ॥

मन्वन्तरं तु दिव्यानां युगानामेकसप्ततिः ।
अष्टाविंशतिमे शक्रे गते च ब्रह्मणो दिनम् ॥३८॥
एकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है । (प्रत्येक मन्वन्तर में दो इन्द्र व्यतीत होते हैं) अट्ठाईसवें इन्द्र के गत हो जाने पर ब्रह्मा का एक दिन होता है ॥ ३८ ॥

एतत्संख्याविशिष्टस्य शतवर्षायुषो विधेः ।
पाते लोचनपातश्च यद्विष्णोः परमात्मनः ॥३९॥
इस प्रकार ब्रह्मा की सौ वर्ष की आयु के समाप्त होने पर परमात्मा विष्णु के नेत्र की एक पलक गिरती है ॥ ३९ ॥

अहं कलानावृषभः कृष्णस्य परमात्मनः ।
पारं महिम्नः को गच्छेन्न जानामि च किंचन ॥४०॥
परमात्मा श्रीकृष्ण की कलाओं में मैं श्रेष्ठ कलामात्र हूँ; किन्तु उनकी महिमा का पार कौन पा सकता है ? मैं तो कुछ भी नहीं जानता ॥ ४० ॥

इत्युक्त्वा शंकरस्तत्र विरराम च शौनक ।
धर्मश्च वक्तुमारेभे यः साक्षी सर्वकर्मणाम् ॥४१॥
शौनक ! वहाँ इतना कहकर शंकर जी चुप हो गये । अनन्तर समस्त कर्मों के साक्षी धर्म ने कहना आरम्भ किया ॥ ४१ ॥

धर्म उवाच
यत्पाणिपादौ सर्वत्र चक्षुश्च सर्वदर्शनम् ।
सर्वान्तरात्मा प्रत्यक्षोऽप्रत्यक्षश्च दुरात्मनः ॥४२॥
धर्म बोले-जिनके हाथ और चरण सर्वत्र रहते हैं, आंख सब कुछ देखती है, वह सर्वान्तरात्मा प्रत्यक्ष ः हैं और दुरात्माओं के लिए वे अप्रत्यक्ष हैं ॥ ४२ ॥

अधुनाऽपि सभां विष्णुर्नायाति इति यद्वचः ।
त्वयोक्तं तत्कया बुद्ध्या मुनीनां च मतिभ्रमः ॥४३॥
इस समय आपने जो कहा है कि 'विष्णु सभा में नहीं आये, वह किस बुद्धि से कहा है ? यह बात तो मुनियों की बुद्धि को भी प्रम में डालने वाली है । ॥ ४३ ॥

महन्निन्दा भवेद्यत्र नैव साधुः शृणोति ताम् ।
निन्दकः श्रोतृभिः सार्धं कुम्भीपाकं व्रजेद्युगम् ॥४४॥
जहाँ बड़ों की निन्दा होती है, वहाँ सज्जन लोग उसे नहीं सुनते हैं । क्योंकि सुनने वालों के साथ वह निन्दक कुम्भीपाक नरक में जाता है और वहाँ एक युग तक कष्ट भोगता रहता है ॥ ४४ ॥

श्रुत्वादैवान्महन्निन्दां श्रीविष्णोः स्मरणाद्‌बुधः ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यः पुण्यं प्राप्नोति दुर्लभम् ॥४५॥
दैववश बड़ों की निन्दा सुन लेने पर विद्वान् लोग श्री विष्णु का स्मरण करके समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं तथा दुर्लभ पुण्य प्राप्त करते हैं ॥ ४५ ॥

कामतोऽकामतोवाऽपि विष्णुनिन्दा करोति यः ।
यः शृणोति हसति वा सभामध्ये नराधमः ॥४६॥
कुम्भीपाके पचति स यावद्धि ब्रह्मणो वयः ।
स्थलं भवेदपूतं च सुरापात्रं यथा द्विज ॥४७॥
जो इच्छा या अनिच्छा से भगवान् विष्णु की निन्दा करता है तथा जो नराधम सभा के बीच में बैठकर उस निन्दा को सुनता तथा हँसता है वह ब्रह्मा की आयु तक कुम्भीपाक नरक में पकता रहता है । द्विज ! मद्यपात्र की भाँति वह स्थल भी अपवित्र हो जाता है ॥ ४६-४७ ॥

प्राणी च नरकं याति श्रुतं तत्रैव चेद्ध्रुवम् ।
विष्णुनिन्दा च त्रिविधा ब्रह्मणा कथिता पुरा ॥४८॥
अप्रत्यक्षं च कुरुते किंवा तं च न मन्यते ।
देवान्यसाम्यं कुरुते ज्ञानहीनो नराधमः ॥४९॥
वहाँ जाकर जो प्राणी भगवन्निन्दा सुनता है वह निश्चय ही नरक में पड़ता है । पूर्वकाल में ब्रह्मा ने विष्णु की निन्दा के तीन प्रकार बताये थे—परोक्ष (आड़) में निन्दा करना, विष्णु को न मानना तथा अन्य देवों से उनकी तुलना करना-ये तीनों निन्दायें ज्ञानहीन नराधम करता है ॥ ४८-४९ ॥

तस्यात्र निष्कृतिर्नास्ति यावद्वै ब्रह्मणः शतम् ।
गुरोर्निन्दां यः करोति पितुर्निन्दां नराधमः ।
स याति कालसूत्रं च यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ ५०॥
सौ ब्रह्मा की आयु तक भी उस (निन्दक) का नरक से उद्धार नहीं होता । इसी भांति जो नराधम गुरु एवं पिता की निन्दा करता है वह कालसूत्र को प्राप्त होकर चन्द्र-सूर्य के समय तक वहीं पड़ा रहता है ॥ ५० ॥

विष्णुर्गुरुश्च सर्वेषां जनको ज्ञानदायकः ।
पोष्टा पाता भयत्राता वरदाता जगत्त्रये ॥५१॥
विष्णु तीनों लोकों में सबके गुरु, पिता, ज्ञान-दाता, पोषक, पालक, भयत्राता तथा वरदाता हैं ॥ ५१ ॥

एषां च वचनं श्रुत्वा त्रयाणां विप्रपुंगव ।
प्रहस्योवाच तान्देवान्वाचा मधुरया पुनः ॥५२॥
इन तीनों की बातें सुनकर उस द्विजपुंगव ने हँसकर मधुरवाणी में उन देवों से कहा ॥ ५२ ॥

ब्राह्मण उवाच
का कृताविष्णुनिन्दाऽहो हे देवा धर्मशालिनः ।
नाऽऽगतो हरिरत्रेति व्यर्थाऽऽकाशसरस्वती ॥५३॥
इति प्रोक्तं मया भद्रं ब्रूत धर्मार्थमीश्वराः ।
सभायां पाक्षिकाः सन्तो घ्नन्ति स्म शतपूरुषम् ॥५४॥
ब्राह्मण बोले-हे धर्मशाली देवगण ! मैंने विष्णु की क्या निन्दा की है ? मैंने यही कहा कि-विष्णु यहां नहीं आये, अतः आकाशवाणी असत्य हो गई । आप लोग अधीश्वर हैं । धर्मतः कहिए; क्योंकि सभा में पक्षपात करने वाले व्यक्ति अपनी सौ पीढ़ियों का नाश कर डालते हैं ॥ ५३-५४ ॥

पूतं च भावुका ब्रूत विष्णुः सर्वत्र संततम् ।
इति चेत्तत्कथं याताः श्वेतद्वीपं वराय च ॥५५॥
आप लोग भावुक होकर कह रहे हैं कि विष्णु सर्वत्र हैं । यदि ऐसी बात है तो आप लोग वर मांगने के निमित्त श्वेतद्वीप में क्यों गये थे ? ॥ ५५ ॥

अंशांशिनोर्न भेदश्चेदात्मनश्चेति निश्चितम् ।
कलां हित्वा निषेवन्ते सन्तः पूर्णतमं कथम् ॥५६॥
अंश और अंशी में भेद नहीं है तथा आत्मा में भी भेद का अभाव है, यदि यही आपका निश्चित मत है तो बताइएबेष्ठ पुरुष कला (अंश) का त्याग करके पूर्णतम (अंशी) की उपासना क्यों करते हैं ? ॥ ५६ ॥

कोटिजन्मदुराराध्यमसाध्यमसतामपि ।
आशा बलवती पुंसां कृष्णं सेवितुमिच्छति ॥५७॥
कोटि जन्मों में भी दुराराध्य और असज्जनों के लिए सदैव असाध्य भगवान् कृष्ण की ही सेवा करने के लिए लोगों को बलवती बाशा प्रेरित करती है ॥ ५७ ॥

किं क्षुद्राः किं महान्तश्च वाञ्छन्ति परमं पदम् ।
लब्धुमिच्छति चन्द्रं च बाहुभ्यां वामनो यथा ॥५८॥
अपने दोनों हाथों से चन्द्रमा को प्राप्त करने की इच्छा करने वाले वामन (बौने पुरुष) की भाँति क्या छोटे क्या बड़े, सभी परम पद को चाहते हैं ॥ ५८ ॥

यो विष्णुर्विषयी विश्वे श्वेतद्वीपनिवासकृत् ।
यूयं ब्रह्मेशधर्माश्च दिक्पालाश्च दिगीश्वराः ॥५९॥
ब्रह्मविष्णुशिवाद्याश्च सुरलोकाश्चराचराः ।
एवं कतिविधाः सन्ति प्रतिविश्वेषु संततम् ॥६०॥
विश्वानां च सुराणां च कः संख्यां कर्तुमीश्वरः ।
सर्वेषामीश्वरः कृष्णो भक्तानुग्रहविग्रहः ॥६१॥
जो विष्णु हैं, वे एक विषय (देश) में रहते हैं । विश्व के अन्तर्गत श्वेतद्वीप में निवास करते हैं । आप ब्रह्मा, शिव, धर्म तथा दिशाओं के स्वामी दिक्पाल भी एक देश के निवासी हैं । ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवेश, देवसमूह और चराचर प्राणीये सब भिन्न-भिन्न ब्रह्मांडों में अनेक हैं । उन ब्रह्मांडों और देवताओं की गणना करने में कौन समर्थ है ? उन सबके एकमात्र स्वामी भगवान् श्रीकृष्ण हैं, जो भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए दिव्य विग्रह धारण करते हैं ॥ ५९-६१ ॥

ऊर्ध्वं च सर्वब्रह्माण्डाद्वैकुण्ठं सत्यमीप्सितम् ।
तस्मादूर्ध्वं च गोलोकः पञ्चाशत्कोटियोजनम् ॥६२॥
सर्ववांछनीय सत्यलोक या नित्य वैकुंठधाम समस्त ब्रह्माण्ड से ऊपर है । उससे भी ऊपर पचास कोटि योजन के विस्तार में गोलोक (विराजमान) है ॥ ६२ ॥

चतुर्भूजश्च वैकुण्ठे लक्ष्मीकान्तः सनातनः ।
सुनन्दनन्दकुमुदपार्षदादिभिरावृतः ॥६३॥
वैकुण्ठ में लक्ष्मीकान्त सनातन भगवान् चतुर्भुज होकर निवास करते हैं । वहाँ सुनन्द, नन्द, और कुमुद आदि पार्षद उन्हें घेरे रहते हैं ॥ ६३ ॥

गोलोके द्विभुजः कृष्णो राधाकान्तः सनातनः ।
गोपाङ्गनादिभिर्युक्तो द्विभुजैर्गोपपार्षदैः ॥६४॥
गोलोक में राधाकान्त भगवान् श्री कृष्ण दो भुजाओं से युक्त होकर निवास करते हैं । उन सनातन भगवान् को गोपांगनाएं और दो भुजा वाले पार्षदगण सदैव घेरे रहते हैं ॥ ६४ ॥

परिपूर्णतमं ब्रह्म स चाऽऽत्मा सर्वदेहिनाम् ।
स्वेच्छामयश्च विहरेद्‌रासे वृन्दावने सदा ॥६५॥
वही श्रीकृष्ण परिपूर्णतम ब्रह्म हैं । वे समस्त देहधारियों के आत्मा हैं । वे स्वेच्छामय शरीर धारण करके वृन्दावन के रासमंडल में सदैव विहार करते हैं ॥ ६५ ॥

तज्ज्योतिर्मण्डलाकारं सूर्यकोटिसमप्रभम् ।
ध्यायन्ते योगिनः सन्तः संततं च निरामयम् ॥६६॥
उन्हीं निरामय परमात्मा की मण्डलाकार ज्योति का, जो करोड़ों सूर्य की प्रमा के समान है, योगी एवं सन्त-महात्मा निरन्तर ध्यान करते हैं ॥ ६६ ॥

नवीननीरदश्यामं द्विभुजं पीतवाससम् ।
कोटिकन्दर्पलावण्यलीलाधाम मनोहरम् ॥६७॥
किशोरवयसं शश्वच्छान्तं सस्मितमीश्वरम् ।
ध्यायन्ते वैष्णवाः सन्तः सेवन्ते सत्यविग्रहम् ॥६८॥
उनकी नवीन घनश्याम की भांति श्यामल कान्ति है । दो भुजाएं हैं । वे पीताम्बर धारण किये हुए हैं । करोड़ों कन्दों से भी सुन्दर हैं । लीलाधाम है । उनका रूप अत्यन्त मनोहर है । किशोर अवस्था है । वे नित्य शान्त परमात्मा मंद मुसकान की आमा बिखेरते रहते हैं । वैष्णव संत उन्हीं सत्यशरीर भगवान् का ध्यान-मजन करते हैं ॥ ६७-६८ ॥

यूयं च वैष्णवा ब्रूत कस्य वंशोद्‌भवो भवान् ।
शिष्यः कस्य मुनीन्द्रस्येत्येवं मां च पुनः पुनः ॥६९॥
आप लोग भी वैष्णव हैं और मुझसे बार-बार पूछ रहे हैं कि-'आप किस वंश के हैं और किस मुनिश्रेष्ठ के शिष्य हैं ॥ ६९ ॥

यस्य वंशोद्‌भवोऽहं च यस्य शिष्यश्च बालकः ।
तस्येदं वचनं ज्ञानं देवसंघा निबोधत ॥७०॥
हे देवगण ! मैं जिसके वंश में उत्पन्न हुआ हूं एवं जिसका बालक और शिष्य हूँ उन्हीं का यह वचन और ज्ञान है, ऐसा जानो ॥ ७० ॥

शीघ्रं जीवय गन्धर्वं देवेश्वर सुरेश्वर ।
व्यक्ते विचारे मूर्खः को वाग्युद्धे किं प्रयोजनम् ॥७१॥
देवेश्वर सुरेश ! इस गन्धर्व को शीघ्र जीवित करो । विचार व्यक्त करने पर स्वतः ज्ञात हो जाता है कि कौन मूर्ख है और कौन विद्वान् । अतः वाग्युद्ध (जिह वा की लड़ाई) करने की क्या आवश्यकता ? ॥ ७१ ॥

इत्युक्त्वा बालकस्तत्र विप्ररूपी जनार्दनः ।
विरराम सभामध्ये प्रजहास च शौनक ॥७२॥
शौनक ! विप्रवेषधारी बालक जनार्दन इतना कहकर चुप हो गये और सभा के बीच ठठाकर हँस पड़े ॥ ७२ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डं
विष्णुसुरसंघसंवादे विष्णुप्रशंसाप्रणयनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥
श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में विष्णु-प्रशंसा-प्रणयन नामक सत्रहवां अध्याय समाप्त ॥ १७ ॥

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