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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - अष्टादशोऽध्यायः महापुरुषस्तोत्रप्रणयनम्
उपबर्हण को जीवनदान - सौतिरुवाच देवाः सार्धं ब्राह्मणेन मोहिता विष्णुमायया । प्रययुर्मालतीमूलं ब्रह्मेशानपुरोगमाः ॥१॥ सौति बोले--भगवान् विष्णु की माया से मोहित हुए ब्रह्मा, शिव तथा देवगण ब्राह्मण के साथ मालावती के निकट पहुँचे ॥ १ ॥ ब्रह्मा कमण्डलुजलं ददौ गात्रे शवस्य च । संचारं मनसस्तस्य चकार सुन्दरं वपुः ॥२॥ ब्रह्मा ने उस शव के शरीर पर अपने कमण्डलु का जल छिड़क दिया और उसमें मन का संचार करके उसके शरीर को सुन्दर बना दिया ॥ २ ॥ ज्ञानदानं ददौ तस्म ज्ञानानन्दः शिवः स्वयम् । धर्मज्ञानं स्वयं धर्मो जीवदानं च ब्राह्मणः ॥३॥ स्वयं ज्ञानानन्द शिव ने उसे शान-दान दिया, धर्म ने धर्मशान और ब्राह्मण ने जीवदान दिया ॥ ३ ॥ वह्निदर्शनमात्रेण बभूव जठरानलः । कामदर्शनमात्रेण सर्वकामः सुनिश्चितम् ॥४॥ अग्नि के दर्शन मात्र से उसमें जठराग्नि उत्पन्न हो गया । काम के दर्शन से समस्त कामनाओं का उदय हो गया ॥ ४ ॥ तस्य वायोरधिष्ठानाज्जगत्प्राणस्वरूपिणः । निःश्वासस्य च संचारः प्राणानां च बभूव ह ॥५॥ संसार के प्राणस्वरूप वायु से निःश्वास और प्राणों का संचार होने लगा ॥ ५ ॥ तूर्याधिष्ठानमात्रेण दृष्टिशक्तिर्बभूव ह । वाक्यं वाणीदर्शनेन शोभा श्रीदर्शनेन च ॥६॥ शवस्तथाऽपि नोत्तस्थौ यथा शेते जडस्तथा । विशिष्टबोधनं प्राप चाधिष्ठानं विनाऽऽत्मनः ॥७॥ सूर्याधिष्ठान मात्र से उसकी आँखों में देखने की शक्ति आ गयी । वाणी (सरस्वती) की दृष्टि पड़ने से वाक्शक्ति और श्री के दर्शन से शोमा उत्पन्न हो गयी । इतने पर भी वह शब जड़ की भांति सोया ही रहा उठ न सका । क्योंकि आत्माधिष्ठान के बिना विशिष्ट बोधन (चेतना) की प्राप्ति कहाँ से हो सकती है ? ॥ ६-७ ॥ ब्रह्मणो वचनात्साध्वी तुष्टाव परमेश्वरम् । स्नात्वा शीघ्रं सरित्तोये धृत्वा धौते च वाससी ॥८॥ तब ब्रह्मा के कहने पर उस पतिव्रना ने नदी के जल में शीघ्र स्नान करके युगल धौत वस्त्र पहनकर परमेश्वर की स्तुति करना आरम्भ किया ॥ ८ ॥ मालावत्युवाच वन्दे तं परमात्मानं सर्वकारणकारणम् । विना येन शवाः सर्वे प्राणिनो जगतीतले ॥९॥ मालावती बोली-समस्त कारणों के कारण उस परमात्मा की वन्दना करती हूँ, जिसके बिना इस जगत् के सारे प्राणी शव के समान हैं ॥ ९ ॥ निर्लिप्तं साक्षिरूपं च सर्वेषां सर्वकर्मसु । विद्यमानमदृष्टं च सर्वेः सर्वत्र सर्वदा ॥ १०॥ वह निर्लिप्त है । सबके समस्त कर्मों में सर्वत्र और सदा साक्षी रूप से विद्यमान रहता है । किन्तु सब लोग उसे नहीं देख सकते ॥ १० ॥ येन सृष्टा च प्रकृतिः सर्वाधारा परात्परा । ब्रह्मविष्णुशिवादीनां प्रसूर्या त्रिगुणात्मिका ॥११॥ उस ब्रह्म ने सबकी आधारभूता उस परात्परा प्रकृति की सृष्टि की है, जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि की जननी है ॥ ११ ॥ जगत्स्रष्टा स्वयं ब्रह्मा नियतो यस्य सेवया । पाता विष्णुश्च जगतां संहर्ता शंकरः स्वयम् ॥१२॥ स्वयं जगत्स्रष्टा ब्रह्मा उस ब्रह्म की सेवा में नियत रूप से लगे रहते हैं । विष्णु और स्वयं जगत् के संहर्ता शिव भी उसकी सेवा में तत्पर रहते हैं ॥ १२ ॥ ध्यायन्ते यं सुराः सर्वे मुनयो मनवस्तथा । सिद्धाश्चयोगिनः सन्तः संततं प्रकृतेः परम् ॥ १३॥ प्रकृति से परे उस परमेश्वर का ध्यान समस्त देव, मुनिगण, मनु, सिद्ध, योगी और सन्त महात्मा किया करते हैं ॥ १३ ॥ साकारं च निराकारं परं स्वेच्छामयं विभुम् । वरं वरेष्यं वरदं वराहं वरकारणम् ॥ १४॥ तपः फलं तपोबीजं तपसां च फलप्रदम् । स्वयं तपःस्वरूपं च सर्वरूपं च सर्वतः ॥१५॥ बह साकार, निराकार, श्रेष्ठ, स्वेच्छामय, व्यापक, उत्तमोत्तम, वरदाता, वर देने के योग्य, वर का कारण, तप का फल, तप का बीज, तप का फलदायक, स्वयं तपःस्वरूप तथा सर्वरूप है ॥ १४-१५ ॥ सर्वाधारं सर्वबीजं कर्म तत्कर्मणां फलम् । तेषां च फलदातारं तद्बीजं क्षयकारणम् ॥ १६॥ वह सबका आधार, सब का बीज, कर्म तथा उन कर्मों का फल, फल देने वाला तथा कर्मबीज का नाशक है ॥ १६ ॥ स्वयं तेजः स्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् । सेवा ध्यानं न घटते भक्तानां विग्रहं विना ॥ १७॥ वह स्वयं तेजःस्वरूप और भक्तों पर रूपा करने के लिए शरीर धारण करता है । क्योंकि बिना शरीर के भक्तगण उसकी सेवा और ध्यान-पूजा कैसे करेंगे ? ॥ १७ ॥ तत्तेजो मण्डलाकारं सूर्यकोटिसमप्रभम् । अतीव कमनीयं च रूपं तत्र मनोहरम् ॥ १८॥ वह तेजोमण्डलाकार, करोड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण, अत्यन्त कमनीय (सुन्दर) एवं मनोहर रूपवाला है ॥ १८ ॥ नवीननीरदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् । शरत्पार्वणचन्द्रास्यमीषद्धास्यसमन्वितम् ॥ १९॥ कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोहरम् । चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं रत्नभूषणभूषितम् ॥२०॥ द्विभुजं मुरलीहस्तं पीतकौशेयवाससम् । किशोरवयसं शान्तं राधाकान्तमनन्तकम् ॥२१॥ गापोङ्गनापरिवृतं कुत्रचिन्निर्जने वने । कुत्रचिद्रासमध्यस्थं राधया परिषेवितम् ॥२२॥ नवीन घन के समान श्यामलवर्ण, शारदीय कमल की भाँति नेत्र, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान मन्द मुसकान से युक्त मुख तथा करोड़ों कामों को भी लज्जित करने वाला लावण्य उसकी सहज विशेषतायें हैं तथा वह चन्दन-चचित स-स्त अंगों से युक्त है । उसके संपूर्ण अंग रत्नों के भूषणों से भूषित हैं । उसकी दो भुजाएं हैं, हाथ में मुरली है, अंगों पर पीताम्बर शोभा पाता है तथा किशोरावस्था है । वह शान्त और राधा का कान्त है । वह अनन्त आनन्द से परिपूर्ण है । कहीं वह निर्जन बन में गोपियों से घिरा रहता है तो कहीं रास के मध्य में राधा से सुसेवित होता रहता है ॥ १९-२२ ॥ कुत्रचिद्गोपवेषं च वेष्टितं गोपबालकैः । शतशृङ्गाचलोत्कृष्टे रम्ये वृन्दावने वने ॥२३॥ निकरं कामधेनूनां रक्षन्तं शिशुरूपिणम् । गोलोके विरजातीरे पारिजातवने वने ॥२४॥ वेणुं क्वणन्तं मधुरं गोपीसंमोहकारणम् । निरामये च वैकुण्ठे कुत्रचिच्च चतुर्भुजम् ॥२५॥ कहीं गोप बनकर गोप-बालकों के साथ वृन्दावन नामक वन में, जो सैकड़ों शिखर वाले गोवर्धन के कारण उत्कृष्ट शोभा से युक्त एवं रमणीय है, कामधेनुओं के समुदाय को चराते हुए देखा जाता है । कहीं गोलोक में विरजा के तट पर पारिजात वन में मधुर-मधुर वेणु बजाकर गोपांगनाओं को मोहित किया करता है । कहीं निरामय वैकुण्ठ में चतुर्भुज होकर विराजमान दिखायी देता है ॥ २३-२५ ॥ लक्ष्मीकान्तं पार्षदैश्च सेवितं च चतुर्भुजैः । कुत्रचित्स्वांशरूपेण जगतां पालनाय च ॥२६॥ श्वेतद्वीपे विष्णुरूपं पद्मया परिषेवितम् । कुत्रचित्स्वांशकलया ब्रह्माण्डे ब्रह्मरूपिणम् ॥२७॥ शिवस्यरूपं शिवदं स्वांशेन शिवरूपिणम् । स्वात्मनः षोडशांशेन सर्वाधारं परात्परम् ॥२८॥ स्वयं महाविराड्रूपं विश्वौघो यस्य लोमसु । लीलया स्वांशकलया जगतां पालनाय च ॥२९॥ नानावतारं बिभ्रन्तं बीजं तेषां सनातनम् । वसन्तं कुत्रचित्सन्तं योगिनां हृदये सताम् ॥३०॥ कहीं लक्ष्मीकान्त बन कर चार भुजा वाले पार्षदों से सुसेवित होता रहता है । कहीं तीनों लोकों के पालन के लिए अपने अंश रूप से श्वेतद्वीप में विष्णुरूप धारण करके रहता है और कमला से सेवा कराता है । कहीं अपनी अंश-कला से किसी ब्रह्माण्ड में ब्रह्मरूप से विराजमान रहता है । कहीं अपने ही अंश से शिवप्रद शिवस्वरूप में और कहीं अपनी सोलहवीं कला से सर्वाधार, परात्पर एवं महान् विराट रूप धारण करता रहता है, जिसके रोम-रोम में विश्वसमह स्थित रहता है । कहीं वह 'जगत् की रक्षा करने के लिए अपनी अंश-कला से लीला द्वारा अनेक अवतार धारण करता है, जिनका वह स्वयं सनातन बीज है । कहीं वह सद्गुणी योगियों के हृदय में निवास करता है ॥ २६-३० ॥ प्राणरूपं प्राणिनां च परमात्मानमीश्वरम् । तं च स्तोतुमशक्ताऽहमबला निर्गुणं विभुम् ॥३१॥ निर्लक्ष्यं च निरीहं च सारं वाङ्मनसोः परम् । यं स्तोतुमक्षमोऽनन्तः सहस्रवदनेन च ॥३२॥ वही प्राणियों का प्राण और परमात्मा ईश्वर है । उस निर्गुण व्यापक की स्तुति हम शक्तिहीन अबला कैसे कर सकती हैं ? अनन्त (शेषनाग) अपने सहन मुखों द्वारा निर्लक्ष्य, निरीह, सारभूत एवं मन-वाणी से परे रहने वाले उस ब्रह्म की स्तुति करने में सदैव अपने को असमर्थ पाते हैं ॥ ३१-३२ ॥ पञ्चवक्त्रश्चतुर्वक्त्रो गजवक्त्रः षडाननः । यं स्तोतुं न क्षमा माया मोहिता यस्य मायया ॥३३॥ उसकी माया से मोहित होकर पञ्चमुख (शिव), चतुर्मुख (ब्रह्मा), गजमुख (गणेश), और षडानन (कार्तिकेय) उसकी स्तुति करने में असमर्थ हैं ॥ ३३ ॥ यं स्तोतुं न क्षमा श्रीश्च जडीभूता सरस्वती । वेदा न शक्तायं स्तोतुं को वा विद्वांश्च वेदवित् ॥३४॥ किं स्तौमि तमनीहं च शोकार्ता स्त्रीपरात्परम् । इत्युक्त्वा सा च गान्धर्वी विरराम रुरोद च ॥३५॥ उसकी स्तुति करने में लक्ष्मी बसमर्थ हैं । सरस्वती जड़ की भांति मूक रह जाती हैं । वेद भी स्तुति करने में अक्षम हैं । तब भला उस परमात्मा की स्तुति कौन विद्वान् कर सकता है ? (अर्थात् कोई नहीं) । मैं शोकातुर अबला उस अनीह एवं परात्पर की स्तुति क्या कर सकती हूँ ? इतना कहकर वह गान्धर्वी चुप हो गई और फूट-फूट कर रोने लगी ॥ ३४-३५ ॥ कृपानिधिं प्रणनाम भयार्ता च पुनः पुनः । कृष्णश्च शक्तिभिः सार्धमधिष्ठानं चकार ह ॥३६॥ भर्तृरम्यन्तरे तस्याः परमात्मा निराकृतिः । उत्थाय शीघ्रं वीणां च धृत्वा च वाससी पुनः ॥३७॥ भयभीत होकर उसने कृपानिधान भगवान् को बार-बार प्रणाम किया । तब निराकार परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण ने उसके पति के भीतर (हृदय-कमल में) शक्तिसमेत अधिष्ठान किया । अनन्तर उस (शव) गन्धर्व ने उठ कर शीघ्र वीणा सम्माला और स्नान करके युगल वस्त्र धारण किया ॥ ३६-३७ ॥ प्रणनाम देवसंघं ब्राह्मणं पुरतः स्थितम् । नेदुर्दुन्दुभयो देवाः पुष्पवृष्टिं च चक्रिरे ॥३८॥ तदनन्तर उस देवसमूह तथा सामने स्थित उस ब्राह्मण को प्रणाम किया । फिर तो देवता दुन्दुभि बजाने और पुष्पों की वर्षा करने लगे ॥ ३८ ॥ दृष्ट्वा चोपरि दम्पत्योः प्रददुः परमाशिषम् । गन्धर्वो देवपुरतो ननर्त च जगौ क्षणम् ॥३९॥ जीवितं पुरतः प्राप देवानां च वरेण च । जगाम पत्न्या सार्धं च पित्रा मात्रा च हर्षितः ॥४०॥ उस गन्धर्वदम्पति पर दृष्टिपात करके उन्होंने उत्तम आशीर्वाद दिये । गन्धर्व ने देवों के सामने क्षणमात्र नाच और गान किया । देवों के सामने उनके वरदान द्वारा उसने जीवन प्राप्त किया । उसके पश्चात् हर्षित होकर अपने पिता माता और पत्नी के साथ वह गन्धर्व-नगर में चला गया ॥ ३९-४० ॥ उपबर्हणगन्धर्वो गन्धर्वनगरं पुनः । मालावती रत्नकोटिं धनानि विविधानि च ॥४१॥ प्रददौ ब्राह्मणेभ्यश्च भोजयामास तान्सती । वेदांश्च पाठयामास कारयामास मङ्गलम् ॥४२॥ उसकी पत्नी सती मालावती ने करोड़ों रत्न तथा विविध प्रकार का धन ब्राह्मणों को अर्पित कर उन्हें भोजन कराया । उनसे वेदपाठ और अन्य मंगल कृत्य करवाये । ॥ ४१-४२ ॥ महोत्सवं च विविधं हरेर्नामैकमङ्गलम् । जग्मुर्देवाश्च स्वस्थानं विप्ररूपी हरिः स्वयम् ॥४३॥ भांति-भांति के महोत्सव रचाये । उन सबमें एकमात्र हरिनाम कीर्तन रूप मंगल कृत्य की प्रधानता रही । अनन्तर देवगण और विप्ररूपी स्वयं भगवान् अपने-अपने स्थान को चले गये ॥ ४३ ॥ एतत्ते कथितं सर्वं स्तवराजं च शौनक । इदं स्तोत्रं पुण्यरूपं पूजाकाले तु यः पठेत् ॥४४॥ हरिभक्तिं हरेर्दास्यं लभते वैष्णवो जनः । वरार्थी यः पठेद्भक्त्या चाऽऽस्तिकः परमास्थया ॥४५॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां निश्चितं लभते फलम् । विद्यार्थी लभते विद्यां धनार्थी लभते धनम् ॥४६॥ भार्यार्थी लभते भार्यां पुत्रार्थी लभते सुतम् । धर्मार्थी लभते धर्म यशोऽर्थी लभते यशः ॥४७॥ शौनक ! स्तवराज के साथ यह सब प्रसंग मैंने तुम्हें बता दिया । पूजा के समय जो इस पवित्र स्तोत्र का पाठ करेगा, उस वैष्णव जन को हरि का दास्यभाव और हरि-भक्ति प्राप्त होगी । जो आस्तिक व्यक्ति वरदान की इच्छा से भक्ति समेत परमआस्था से इस स्तोत्र को पढ़ेगा, उसे धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष का फल निश्चित रूप से प्राप्त होगा । उसी प्रकार विद्यार्थी को विद्या, धनार्थी को धन, भार्यार्थी को स्त्री, पुत्रार्थी को पुत्र, धर्मार्थी को धर्म तथा यश के इच्छुक को यश प्राप्त होगा ॥ ४४-४७ ॥ भ्रष्टराज्यो लभेद्राज्यं प्रजाभ्रष्टः प्रजां लभेत् । रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥४८॥ राज्यच्युत राजा को राज्य एवं प्रजाहीन को प्रजा प्राप्त होगी । रोगी को रोग से और बन्धन में बंधे हुए को बन्धन से मुक्ति मिलेगी ॥ ४८ ॥ भयान्मुच्येत भीतस्तु धनं नष्टधनो लभेत् । दस्युग्रस्तो महारण्ये हिंस्रजन्तुसमन्वितः ॥४९॥ दावाग्निदग्धो मुच्येत निमग्नश्च जलार्णवे ॥ ५०॥ भयभीत प्राणी भय से मुक्त होगा । नष्ट धन वाले को धन प्राप्त होगा । महान जंगल में हिंसक जन्तुओं और लुटेरों से घिर जाने पर छुटकारा मिल जायगा । दावाग्नि से जलता हुआ और समुद्र में डूबता हुआ प्राणी भी इसके प्रभाव से बच जाएगा ॥ ४९-५० ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे गन्धर्वजीवदाने महापुरुषस्तोत्रप्रणयनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८॥ श्री ब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में महापुरुष-स्तोत्रप्रणयन नामक अठारहवां अध्याय समाप्त ॥ १८ ॥ |