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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - एकोनविंशोऽध्यायः


विष्णुशंकरस्तोत्रकथनम्
कृष्णकवच, शिवकवच तथा शिवस्तवराज का वर्णन -


सौतिरुवाच
मालावती धनं दत्त्वा ब्राह्मणेभ्यः प्रहर्षिता ।
चकार विविधं वेशं स्वात्मनः स्वामिनः कृते ॥ १॥
सौति बोले-मालावती ने अत्यन्त हर्षित होकर ब्राह्मणों को धनदान करने के उपरान्त अपने स्वामी की सेवा के लिए नाना प्रकार से अपना श्रृंगार किया ॥ १ ॥

भर्तुश्चकार शुश्रूषां पूजां च समयोचिताम् ।
तेन सार्धं सुरसिका रेमे सा सुचिरं मुदा ॥२॥
पति की शुश्रुषा तथा समयोचित पूजा करके उस रसबन्ती ने अत्यन्त हर्ष से पति के साथ चिरकाल तक रमण किया ॥ २ ॥

महापुरुषस्तोत्रं च पूजां च कवचं मनुम् ।
विस्मृतं बोधयामास स्वयं रहसि सुव्रता ॥३॥
फिर उस सुव्रता ने एकान्त में पति को विस्मृत हुए महापुरुष-स्तोत्र, पूजा, कवच, और मन्त्र का बोध कराया ॥ ३ ॥

पुरा दत्तं वसिष्ठेन स्तोत्रपूजादिकं हरेः ।
गन्धर्वाय च मालत्यै मन्त्रमेकं च पुष्करे ॥४॥
पूर्वकाल में वशिष्ठ ने पुष्कर क्षेत्र में गन्धर्व तथा मालावती को भगवान् के स्तोत्र, पूजन आदि का तथा एक मंत्र का उपदेश प्रदान किया था ॥ ४ ॥

विस्मृतं स्तोत्रकवचं वसिष्ठश्च कृपानिधिः ।
गन्धर्वराजं रहसि बोधयामास शूलिनः ॥५॥
पुनः कृपानिधान वशिष्ठ ने एकान्त स्थान में गन्धर्वराज को भगवान् शंकर का विस्मृत स्तोत्र और कवच का भी बोध कराया था ॥ ५ ॥

एवं चकार राज्यं च कुबेरभवनोपमे ।
आश्रमे परमानन्दो गन्धर्वो बान्धवैः सह ॥६॥
इस प्रकार उस गन्धर्व ने कुबेर-भवन के समान अपने महल में परमहर्षित होकर बान्धवों समेत राज्यसुख का अनुभव किया ॥ ६ ॥

यथातथागताभिश्च स्त्रीभिरन्याभिरेव च ।
आगत्य ताभिः स्वस्वामी संप्राप्तः परया मुदा ॥७॥
उपबहण की अन्य स्त्रियाँ भी जैसे-तैसे वहाँ आकर परम प्रसन्नता के साथ अपने पति से मिलीं ॥ ७ ॥

शौनक उवाच
किं स्तोत्रं कवचं विष्णोर्मन्त्रपूजाविधिः पुरा ।
दत्तो विशिष्टस्ताभ्यां च तं भवान्वक्तुमर्हति ॥८॥
शौनक बोले-पूर्वकाल में वशिष्ठ ने उन दोनों को भगवान् विष्णु के किस पूजन-विधि का उपदेश किया था, वह हमें बताने की कृपा करें ॥ ८ ॥

द्वादशाक्षरमन्त्रं च शूलिनः कवचादिकम् ।
दत्तं गन्धर्वराजाय वसिष्ठेन च किं पुरा ॥९॥
तदपि ब्रूहि हे सौते श्रोतुं कौतूहलं मम ।
शंकरस्तोत्रकवचं मन्त्रं दुर्गतिनाशनम् ॥१०॥
पूर्व समय में वशिष्ठ ने शंकर के जो द्वादशाक्षर मन्त्र और कवच आदि गन्धर्वराज को प्रदान किये थे, वह भी बताइए । उसे सुनने के लिए मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है । शंकर का कवच, स्तोत्र, एवं मंत्र दुर्गति का नाश करता है ॥ ९-१० ॥

सौतिरुवाच
तुष्टाव येन स्तोत्रेण मालती परमेश्वरम् ।
तदेव स्तोत्रं दत्तं च मन्त्रं च कवचं शृणु ॥११॥
सौति बोले-जिस स्तोत्र के द्वारा मालती ने परमेश्वर श्रीकृष्ण को प्रसन्न किया था, वही स्तोत्र वसिष्ठ ने गन्धर्व-दम्पति को दिया था । उनके दिए हए कवच और मंत्र को सुनो ॥ ११ ॥

ॐ नमो भगवते रासमण्डलेशाय स्वाहा ।
इदं मन्त्रं कल्पतरुं प्रददौ षोडशाक्षरम् ॥१२॥
'ओं नमो भगवतेरासमण्डलेशाय स्वाहा' इसी षोडशाक्षर मन्त्र को, जो कल्पवृक्ष के समान है, उन्होंने प्रदान किया था ॥ १२ ॥

पुरा दत्तं कुमाराय ब्रह्मणा पुष्करे हरेः ।
पुरा दत्तं च कृष्णेन गोलोके शंकराय च ॥ १३॥
यही मन्त्र पहले समय में पुष्कर क्षेत्र में ब्रह्मा ने कुमार को और गोलोक में भगवान् श्रीकृष्ण ने शंकर जी को प्रदान किया था ॥ १३ ॥

ध्यानं च विष्णोर्वेदोक्तं शाश्वतं सर्वदुर्लभम् ।
मूलेन सर्वं देयं च नैवेद्यादिकमुत्तमम् ॥१४॥
यहाँ भगवान् विष्णु का ध्यान भी, जो वेदोक्त, शाश्वत और सबके लिए दुर्लभ है, बता रहा हूँ ! पूर्वोक्त मूलमन्त्र से भगवान् विष्णु को नैवेद्य आदि सभी उत्तम पदार्थ अर्पित करना चाहिए ॥ १४ ॥

अतीव गुप्तकवचं पितुर्वक्त्रान्मया श्रुतम् ।
पित्रे दत्तं पुरा विप्र गङ्गायां शूलिना ध्रुवम् ॥१५॥
शूलिने ब्रह्मणा दत्तं गोलोके रासमण्डले ।
धर्माय गोपीकान्तेन कृपया परमाद्‌भुतम् ॥ १६॥
विप्र । उनके अत्यन्त गुप्त कवच को मैंने पिता के मुख से सुना था, जिसे गंगा-तट पर शंकर जी ने मेरे पिता को प्रदान किया था और गोलोक के रासमंडल में गोपीकान्त श्रीकृष्ण ने कृपा करके शंकर, ब्रह्मा और धर्म को बताया था । उस परमाद्‌भुत (कवच) को कह रहा हूँ ॥ १५-१६ ॥

ब्रह्मोवाच
राधाकान्त महाभाग कवचं यत्प्रकाशितम् ।
ब्रह्माण्डपावनं नाम कृपया कथय प्रभो ॥१७॥
ब्रह्मा बोले-हे राधाकान्त ! हे महाभाग ! हे प्रभो ! आप ने जो ब्रह्माण्ड-पावन नामक कवच प्रकाशित किया है, उसे कृपया बतायें ॥ १७ ॥

मां महेशं च धर्मं च भक्तं च भक्तवत्सल ।
त्वत्प्रसादेन पुत्रेभ्यो दास्यामि भक्तिसंयुतः ॥१८॥
हे भक्तवत्सल ! मैं, महेश तथा धर्म तीनों आपके भक्त हैं । आप की कृपा से हम इसे जानकर अपने पुत्रों को बतायेंगे ॥ १८ ॥

श्रीकृष्ण उवाच
शृणु वक्ष्यामि ब्रह्मेश धर्मेदं कवचं परम् ।
अहं दास्यामि युष्मभ्यं गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥१९॥
यस्मै कस्मै न दातव्यं प्राणतुल्यं ममैव हि ।
यत्तेजो मम देहेऽस्ति तत्तेजः कवचेऽपि च ॥२०॥
श्रीकृष्ण बोले-हे ब्रह्मेश ! हे धर्म ! इस परमोत्तम, गोपनीय और अत्यन्त दुर्लभ कवच को मैं तुम्हें दे रहा हूँ । यह मेरे प्राणसमान है । अतः जिस-किसी को यह न दे देना । कयोंकि जो तेज मेरे शरीर में है वही तेज इस कवच में भी है ॥ १९-२० ॥

कुरु सृष्टिमिमं धृत्वा धाता त्रिजगतां भव ।
संहर्ता भव हे शंभो मम तुल्यो भवे भव ॥२१॥
ब्रह्मन् ! तुम इसे धारण करके सृष्टि करो और तीनों लोकों के विधाता के पद सर प्रतिष्ठित रहो । शंभो ! तुम (इस कवच को ग्रहण करके त्रिलोकी का) संहर्ता बनकर इस संसार में मेरे समान (शक्तिशाली) हो जाओ ॥ २१ ॥

हे धर्म त्वमिदं धृत्वा भव साक्षी च कर्मणाम् ।
तपसां फलदातारो यूयं भवत मद्वरात् ॥२२॥
धर्म ! इसी प्रकार तुम भी इसे धारण करके कर्मों के साक्षी बनो और मेरे वरदान द्वारा सभी को उनके तप का फल प्रदान करो ॥ २२ ॥

ब्रह्माण्डपावनस्यास्य कवचस्य हरिः स्वयम् ।
ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवोऽहं जगदीश्वरः ॥२३॥
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ।
त्रिलक्षवारपठनात्सिद्धिदं कवचं विधे ॥२४॥
इस ब्रह्माण्ड पावन नामक कवच के स्वयं विष्णु ऋषि हैं, गायत्री छन्द है और जगदीश्वर (भगवान् श्रीकृष्ण) देव हैं, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के लिए इसका विनियोग किया जाता है । विधे ! तीन लक्ष बार पाठ करने से इस कवच की सिद्धि होती है ॥ २३-२४ ॥

यो भवेत्सिद्धकवचो मम तुल्यो भवेच्च सः ।
तेजसा सिद्धियोगेन ज्ञानेन विक्रमेण च ॥२५॥
जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियोग, ज्ञान और पराक्रम में मेरे समान हो जाता है ॥ २५ ॥

प्रणवो मे शिरः पातु नमो रासेश्वराय च ।
भालं पायान्नेत्रयुग्मं नमो राधेश्वराय च ॥२६॥
कृष्णः पायाच्छ्रोत्रयुग्मं हे हरे घ्राणमेव च ।
जिह्विकां वह्निजाया तु कृष्णायेति च सर्वतः ॥२७॥
प्रणव (ओंकार) मेरे शिर की रक्षा करे, रासेश्वराय नमः--यह मंत्र मेरे ललाट की रक्षा करे । राधेश्वराय नमः-यह मंत्र मेरे दोनों नेत्रों की रक्षा करें । भगवान् श्रीकृष्ण दोनों (कानों) की रक्षा करें । हे हरे !' यह मेरी (नाक) की रक्षा करे । अग्नि की पत्नी (स्वाहा) जिह्वा की रक्षा करे और कृष्णाय स्वाहा-यह मंत्र चारों ओर से रक्षा करे । ॥ २६-२७ ॥

श्रीकृष्णाय स्वाहेति च कण्ठं पातु षडक्षरः ।
ह्रीं कृष्णाय नमो वक्त्रं क्लीं पूर्वश्च भुजद्वयम् ॥२८॥
नमो गोपाङ्गनेशाय स्कन्धावष्टाक्षरोऽवतु ।
दन्तपङ्क्तिमोष्ठयुग्मं नमो गोपीश्वराय च ॥२९॥
'श्रीकृष्णाय स्वाहा'--यह षडक्षर मंत्र मेरे कण्ठ की रक्षा करे । ह्रीं कृष्णाय नमः--यह मंत्र मुख की तथा क्लीं कृष्णाय नमः-यह मंत्र दोनों भुजाओं की रक्षा करे । गोपांगनेशाय नमः (गोपांगना के अधीश्वर को नमस्कार है) यह अष्टाक्षर मंत्र दोनों कंधों की रक्षा करे । गोपीश्वराय नमः -यह मंत्र दांतों की पंक्तियों और दोनों बोठों की रक्षा करे ॥ २८-२९ ॥

ॐ नमो भगवते रासमण्डलेशाय स्वाहा ।
स्वयं वक्षःस्थलं पातु मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः ॥३०॥
'ओं नमो भगवते रासमण्डलेशाय स्वाहा' यह सोलह अक्षरों का मंत्र स्वयं वक्षःस्थल की रक्षा करे ॥ ३० ॥

ऐं कृष्णाय स्वाहेति च कर्णयुग्मं सदाऽवतु ।
ॐ विष्णवे स्वाहेति च कपोलं सर्वतोऽवतु ॥३१॥
'ऐं कृष्णाय स्वाहा' यह दोनों कों की रक्षा करे । 'ओं विष्णवे स्वाहा' यह चारों ओर से कपोल की रक्षा करे ॥ ३१ ॥

ॐ हरये नम इति पृष्ठं पादं सदाऽवतु ।
ॐ गोवर्धनधारिणे स्वाहा सर्वशरीरकम् ॥३२॥
'ओं हरये नमः' यह पीठ और चरण की तथा 'गोवर्द्धनधारिणे स्वाहा'--यह समस्त शरीर की रक्षा करे ॥ ३२ ॥

प्राच्यां मां पातु श्रीकृष्ण आग्नेय्यां पातु माधवः ।
दक्षिणे पातु गोपीशो नैर्ऋत्यां नन्दनन्दनः ॥३३॥
पूर्वदिशा में श्रीकृष्ण, अग्निकोण में माधव, दक्षिण दिशा में गोपीश तथा नैऋत्य में नन्दनन्दन रक्षा करें ॥ ३३ ॥

वारुण्यां पातु गोविन्दो वायव्यां राधिकेश्वरः ।
उत्तरे पातु रासेश ऐशान्यामच्युतः स्वयम् ॥३४॥
पश्चिम दिशा में गोविन्द, वायव्यकोण में राधिकेश्वर, उत्तर में रासेश और ईशान में स्वयं अच्युत रक्षा करें ॥ ३४ ॥

सततं सर्वतः पातु परो नारायणः स्वयम् ।
इति ते कथितं ब्रह्मन्कवचं परमाद्‌भुतम् ॥३५॥
मम जीवनतुल्यं च युष्मभ्यं दत्तमेव च ।
अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च ॥
कलां नार्हन्ति तान्येव कवचस्यैव धारणात् ॥३६॥
स्वयं नारायण सर्वदा सब ओर से रक्षा करें । हे ब्रह्मन् ! यह जो परमाद्‌भुत कवच मैंने तुम्हें दिया है, यह मेरे जीवन के तुल्य है । इस कवच के धारण करने पर इसके (पुण्य के) एक अंश की भी समानता सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ नहीं कर सकते हैं ॥ ३५-३६ ॥

गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्‌वस्त्रालंकारचन्दनैः ।
स्नात्वा तं च नमस्कृत्य कवचं धारयेत्सुधीः ॥३७॥
विद्वान् पुरुष स्नानोपरान्त अनेक भाँति के वस्त्र, अलंकार और चन्दन से गुरु की सविधि अर्चना और वंदना करके यह कवच धारण करे ॥ ३७ ॥

कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः ।
यदि स्यात्सिद्धकवचो विष्णुरेव भवेद्‌द्विज ॥३८॥
द्विज ! इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है और यदि यह कवच सिद्ध हो गया तो वह विष्णु के समान हो जाता है ॥ ३८ ॥

सौतिरुवाच
शिवस्य कवचं स्तोत्रं श्रूयतामिति शौनक ।
वसिष्ठेन च यद्‌दत्तं गन्धर्वाय च यो मनुः ॥३९॥
ॐ नमो भगवते शिवाय स्वाहेति च मनुः ।
दत्तो वसिष्ठेन पुरा पुष्करे कृपया विभो ॥४०॥
सौति बोले--शौनक ! अब शिव का कवच और स्तोत्र सुनो, जिसे वसिष्टजी ने गन्धर्व को दिया था । विभो ! प्राचीन समय में पुष्करक्षेत्र में गुरु वशिष्ठ ने कृपा करके 'ओं नमो भगवते शिवाय स्वाहा' यह मंत्र गन्धर्व को प्रदान किया था ॥ ३९-४० ॥

अयं मन्त्रो रावणाय प्रदत्तो ब्रह्मणा पुरा ।
स्वयं शंभुश्च बाणाय तथा दुर्वाससे पुरा ॥४१॥
यही मंत्र प्राचीन समय में ब्रह्मा ने रावण को और शम्भु ने बाणासुर एवं दुर्वासा को दिया था ॥ ४१ ॥

मूलेन सर्वं देयं च नैवेद्यादिकमुत्तमम् ।
ध्यायेन्नित्यादिकं ध्यानं वेदोक्तं सर्वसंमतम् ॥४२॥
ॐ नमो महादेवाय ।
इस मूल मंत्र से उन्हें नैवेद्य आदि सभी उत्तम वस्तुएँ अर्पित करनी चाहिए । इस मंत्र का वेदोक्त ध्यान ध्यायेन्नित्यं महेशं' इत्यादि श्लोक के अनुसार है, जो सर्वसम्मत है ॥ ४२ ॥

बाणासुर उवाच
महेश्वर महाभाग कवचं यत्प्रकाशितम् ।
संसारपावनं नाम कृपया कथय प्रमो ॥४३॥
ॐ नमो महादेवाय । बाणासुर बोले--महेश्वर, महाभाग ! प्रभो ! आपने संसार-पावन नामक जो कवच प्रकाशित किया है, उसे कहने की कृपा करें ॥ ४३ ॥

महेश्वर उवाच
शृणु वक्ष्यामि हे वत्स कवचं परमाद्‌भुतम् ।
अहं तुभ्यं प्रदास्यामि गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥४४॥
महेश्वर बोले--वत्स ! उस परम अद्‌भुत कवच का मैं वर्णन कर रहा हूँ । वह गोपनीय एवं अत्यन्त दुर्लभ है, फिर भी तुम्हें प्रदान करूँगा ॥ ४४ ॥

पुरा दुर्वाससे दत्तं त्रैलोक्यविजयाय च ।
ममैवेदं च कवचं भक्त्या यो धारयेत्सुधीः ॥४५॥
नेतुं शक्नोति त्रैलोक्यं भगवन्नवलीलया ।
संसारपावनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः ॥४६॥
पूर्वकाल में मैंने त्रैलोक्य-विजय करने के लिए दुर्वासा को यह कवच प्रदान किया था । अतः जो विद्वान् इस मेरे कवच को भक्तिपूर्वक धारण करेगा, वह भगवान् की भाँति लीलापूर्वक तीनों लोकों को जीतने में समर्थ होगा ॥ ४५-४६ ॥

ऋषिश्छन्दश्च गायत्री देवोऽहं च महेश्वरः ।
धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः ॥४७॥
संसार-पावन नामक इस कवच का प्रजापति ऋषि, गायत्री छन्द और मैं महेश्वर देवता हूँ । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के लिए इसका विनियोग है ॥ ४७ ॥

पञ्चलक्षजपेनैव सिद्धिदं कवचं भवेत् ।
यो भवेत्सिद्धकवचो मम तुल्यो भवेद्‌भुवि
तेजसा सिद्धियोगेन तपसा विक्रमेण च ॥ ४८॥
पाँच लाख बार पाठ करने से यह कवच सिद्ध हो जाता है और जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह इस भूतल पर तेज, सिद्धियोग, तप और विक्रम में मेरे तुल्य हो जाता है ॥ ४८ ॥

शंभुर्मे मस्तकं पातु मुखं पातु महेश्वरः ।
दन्तपङ्क्तिं नीलकण्ठोऽप्यधरोष्ठं हरः स्वयम् ॥४९॥
शम्भु मेरे मस्तक की और महेश्वर मुख की रक्षा करें । नीलकण्ठ दांतों की पंक्तियों की और स्वयं हर बधरोष्ठ की रक्षा करें ॥ ४९ ॥

कण्ठं पातु चन्द्रचूडः स्कन्धौ वृषभवाहनः ।
वक्षःस्थलं नीलकण्ठः पातु पृष्ठं दिगम्बरः ॥५०॥
चन्द्रचूड कण्ठ की रक्षा करें । वृषभवाहन दोनों स्कन्धों की, नीलकण्ठ वक्षःस्थल की और दिगम्बर पीठ की रक्षा करें ॥ ५० ॥

सर्वाङ्गं पातु विश्वेशः सर्वदिक्षु च सर्वदा ।
स्वप्ने जागरणे चैव स्थाणुर्मे पातु संततम् ॥५१॥
विश्वेश सदा सब दिशाओं में सर्वांग की रक्षा करें । सोते-जागते सब समय स्थाणु निरन्तर मेरी रक्षा करें ॥ ५१ ॥

इति ते कथितं बाण कवचं परमाद्‌भुतम् ।
यस्मै कस्मै न दातव्यं गोपनीयं प्रयत्‍नतः ॥५२॥
बाण ! यह परम अद्‌भुत कवच मैंने तुम्हें बताया है यह जिस किसी को न देना । यह अत्यन्त गोपनीय है ॥ ५२ ॥

यत्फलं सर्वतीर्थानां स्नानेन लभते नरः ।
तत्फलं लभते नूनं कवचस्यैव धारणात् ॥५३॥
समस्त तीर्थों में स्नान करने से जो फल मनुष्य को प्राप्त होता है, वह इस कवच के धारण करने से निश्चय ही प्राप्त होता है ॥ ५३ ॥

इदं कवचमज्ञात्वा भजेन्मां यः सुमन्दधीः ।
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥५४॥
जो मूढमति प्राणी इस कवच को जाने बिना थै मेरी उपासना करता है, उसका मन्त्र सौ लाख बार जपने पर भी सिद्धिदायक नहीं होता है ॥ ५४ ॥

सौतिरुवाच
इदं च कवचं प्रोक्तं स्तोत्रं च शृणु शौनक ।
मन्त्रराजः कल्पतरुर्वसिष्ठो दत्तवान्पुरा ॥५५॥
ॐ नमः शिवाय ।
- सौति बोले--शौनक ! यह कवच तो मैंने बता दिया, अब स्तोत्र और उस कल्पवृक्ष स्वरूप मन्त्रराज को माँ सुनो, जिसे गुरु वसिष्ठ ने पूर्वकाल में दिया था ॥ ५५ ॥ ओं नमः शिवाय ।

बाणासुर उवाच -
वन्दे सुराणां सारं च सुरेशं नीललोहितम् ।
योगीश्वरं योगबीजं योगिनां च गुरोर्गुरुम् ॥५६॥
ज्ञानानन्दं ज्ञानरूपं ज्ञानबीजं सनातनम् ।
तपसां फलदातारं दातारं सर्वसंपदाम् ॥५७॥
बाणासुर बोले-देवश्रेष्ठ और देवाधीश्वर नीललोहित (शिव) की मैं वन्दना करता हूँ, जो योगीश्वर, योगियों के बीज (कारक) और योगियों के गुरु के गुरु हैं । वही ज्ञानानन्द, ज्ञानरूप, ज्ञान-बीज, सनातन, तप का फल और समस्त सम्पत्तियों के देने वाले हैं ॥ ५६-५७ ॥

तपोरूपं तपोबीजं तपोधनधनं वरम् ।
वरं वरेण्यं वरदमीड्यं सिद्धगणैर्वरैः ॥५८॥
कारणं भुक्तिमुक्तीनां नरकार्णवतारणम् ।
आशुतोषं प्रसन्नास्यं करुणामयसागरम् ॥५९॥
वे तपः स्वरूप, तपस्या के बीज, तपोधनों के उत्तम धन, वर, वरणीय, वरदाता और सिद्धगणों के द्वारा स्तुति करने योग्य, भुक्तिमुक्ति के कारण, नरक-सागर से तारने वाले, शीघ्र प्रसन्न होने वाले प्रसन्नमुख और करुणासागर हैं ॥ ५८-५९ ॥

हिमचन्दनकुन्देन्दुकुमुदाम्भोजसंनिभम् ।
ब्रह्मज्योतिःस्वरूपं च भक्तानुग्रहविग्रहम् ॥६०॥
वे बर्फ, चन्दन, कुन्दपुष्प, चन्द्रमा, कुमुद तथा कमल के समान शुभ्र हैं । वे ब्रह्मज्योतिःस्वरूप और भक्तों के ऊपर अनुग्रह करने के लिए शरीर धारण करने वाले हैं ॥ ६० ॥

विषयाणां विभेदेन बिभ्रतं बहुरूपकम् ।
जलरूपमग्निरूपमाकाशरूपमीश्वरम् ॥६१॥
वायुरूपं चन्द्ररूपं सूर्यरूपं महत्प्रभुम् ।
आत्मनः स्वपदं दातुं समर्थमवलीलया ॥६२॥
वे विषयों के भेद से अनेक रूप धारण करते हैं । जल, अग्नि, आकाश, वायु, चन्द्र और सूर्य उनके रूप हैं । वे ईश्वर तथा महान् प्रभु हैं और लीलापूर्वक अपना पद प्रदान करने में समर्थ हैं ॥ ६१-६२ ॥

भक्तजीवनमीशं चं भक्तानुग्रहकारकम् ।
वेदा न शक्ता यं स्तोतुं किमहं स्तौमि तं प्रभुम् ॥६३॥
वे भक्तों के जीवन, ईश तथा भक्तों पर कृपा करने के लिए कातर हो उठते हैं । इस प्रकार जिन प्रभु की स्तुति बेद नहीं कर सकते हैं, जो अपरिच्छिन्न (सीमारहित), ईशान तथा मनवाणी से परे हैं, उनकी स्तुति मैं कैसे कर सकता हूँ ? ॥ ६३ ॥

अपरिच्छिन्नमीशानमहो वाङ्‍मनसोः परम् ।
व्याघ्रचर्माम्बरधरं वृषभस्थं दिगम्बरम् ।
त्रिशूलपट्टिशधरं सस्मितं चन्द्रशेखरम् ॥ ६४॥
वे बाघम्बर धारण करने वाले, बैल पर चढ़ने वाले, दिगम्बर, त्रिशूल और पट्टिश धारण करने वाले, मन्द मुसकान करने वाले तथा मस्तक पर चन्द्रमा धारण करने वाले हैं (ऐसे शिव की मैं वंदना करता हूँ । ) ॥ ६४ ॥

इत्युक्त्वा स्तवराजेन नित्यं बाणः सुसंयतः ।
प्राणमच्छंकरं भक्त्या दुर्वासाश्च मुनीश्वरः ॥६५॥
इस प्रकार बाणासुर नित्य सुसंयत हो कर स्तवराज के द्वारा शंकर की स्तुति करके उन्हें प्रणाम करता था । और मुनीश्वर दुर्वासा भी भक्तिपूर्वक ऐसा ही करते थे ॥ ६५ ॥

इदं दत्तं वसिष्ठेन गन्धर्वाय पुरा मुने ।
कथितं च महास्तोत्रं शूलिनः परमाद्‌भुतम् ॥६६॥
मुने ! पहले समय में वसिष्ठ जी ने शिव जी का यह परमाद्‌भुत महास्तोत्र गन्धर्व को प्रदान किया था ॥ ६६ ॥

इदं स्तोत्रं महापुण्यं पठेद्‌भक्त्या च यो नरः ।
स्नानस्यसर्वतीर्थानां फलमाप्नोति निश्चितम् ॥६७॥
जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इस महापुण्य स्तोत्र का पाठ करता है, वह समस्त तीर्थों का स्नान फल निश्चित रूप से प्राप्त करता है ॥ ६७ ॥

अपुत्रो लभते पुत्रं वर्षमेकं शृणोति यः ।
संयतश्च हविष्याशी प्रणम्य शंकरं गुरुम् ॥६८॥
गलत्कुष्ठी महाशूली वर्षमेकं शृणोति यः ।
अवश्यं मुच्यते रोगाद्‌व्यासवाक्यमिति श्रुतम् ॥६९॥
जो संयमपूर्वक हविष्य भोजन करते हुए एक वर्ष तक शंकर गुरु को प्रणाम कर के इस स्तोत्र को सुनता है, वह पुत्रहीन हो तो अवश्य ही पुत्र प्राप्त कर लेता है । जिसको गलित कुष्ठ हो या उदर में बड़ा भारी शूल उठता हो, वह यदि एक वर्ष तक इस स्तोत्र को सुने तो अवश्य ही उस रोग से मुक्त हो जाता है । यह बात मैंने व्यासजी से सुनी है । ॥ ६८-६९ ॥

कारागारेऽपि बद्धो यो नैव प्राप्नोति निर्वृतिम् ।
स्तोत्रं श्रुत्वा मासमेकं मुच्यते बन्धनाद्ध्रुवम् ॥७०॥
जो बन्धनों में आबद्ध होकर जेल में पड़ जाता है और किसी भाँति वहाँ से छुटकारा नहीं पाता वह इस स्तोत्र को एक मास तक सुनने पर निश्चित ही बन्धन-मुक्त हो जाता है ॥ ७० ॥

भ्रष्टराज्यो लभेद्‌राज्यं भक्त्या मासं शृणोति यः ।
मासं श्रुत्वा संयतश्च लभेद्‌भ्रष्टधनो धनम् ॥७१॥
इसी प्रकार भक्तिपूर्वक एक मास तक श्रवण करने से राज्यच्युत को राज्य और नष्ट धन वाले को धन प्राप्त होता है ॥ ७१ ॥

यक्ष्मग्रस्तो वर्षमेकमास्तिको यः शृणोति चेत् ।
निश्चितं मुच्यते रोगाच्छंकरस्य प्रसादतः ॥७२॥
जो आस्तिक यक्ष्मा का रोगी होने पर एक वर्ष तक इसका श्रवण करता है, वह शंकर जी के अनुग्रह से रोग-मुक्त हो जाता है ॥ ७२ ॥

यः शृणोति सदा भक्त्या स्तवराजमिमं द्विज ।
तस्यासाध्यं त्रिभुवने नास्ति किंचिच्च शौनक ॥७३॥
द्विज शौनक ! जो भक्तिपूर्वक इस स्तवराज का श्रवण करता है, उसके लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है ॥ ७३ ॥

कदाचिद्‌बन्धुविच्छेदो न भवेत्तस्य भारते ।
अचलं परमैश्वर्यं लभते नात्र संशयः ॥७४॥
भारत में कभी भी उसे बन्धु-वियोग नहीं होता है और वह अचल महान् ऐश्वर्य की प्राप्ति करता है, इसमें संशय नहीं ॥ ७४ ॥

सूसंयतोऽतिभक्त्या च मासमेकं शृणोति यः ।
अभार्यो लभते भार्यां सुविनीता सतीं वराम् ॥७५॥
संयम और भक्तिपूर्वक एक मास तक इसके सुनने पर स्त्रीहीन को विनम्र एवं सती-साध्वी स्त्री प्राप्त होती है ॥ ७५ ॥

महामूर्खश्च दुर्मेधा मासमेकं शृणोति यः ।
बुद्धिं विद्यां च लभते गुरूपदेशमात्रतः ॥७६॥
महामूर्ख तथा अत्यन्त खोटी बुद्धि का मनुष्य भी यदि एक मास तक इस स्तवराज का श्रवण करता है तो वह गुरु के उपदेश मात्र से बुद्धि और विद्या प्राप्त करता है ॥ ७६ ॥

कर्मदुःखी दरिद्रश्च मासं भक्त्या शृणोति यः ।
ध्रुवं वित्तं भवेत्तस्य शंकरस्य प्रसादतः ॥७७॥
कर्मवश दुःखी और दरिद्र मनुष्य भी भक्तिपूर्वक एक मास तक इसके श्रवण करने पर शंकर जी की कृपा से निःसंदेह धन को प्राप्त करता है ॥ ७७ ॥

इह लोके सुखं भुक्त्वा कृत्वा कीर्तिं सुदुर्लभाम् ।
नानाप्रकारधर्मं च यात्यन्ते शंकरालयम् ॥७८॥
पार्वदप्रवरो भूत्वा सेवते तत्र शंकरम् ।
यः शृणोति त्रिसंध्यं च नित्यं स्तोत्रमनुत्तमम् ॥७९॥
जो प्रति दिन तीनों संध्याओं के समय इस उत्तम स्तोत्र को सुनता है, वह इस लोक में सुखानुभव और अत्यन्त दुर्लभ कीति तथा अनेक प्रकार के धर्मों को सम्पन्न कर के अन्त में भगवान् शंकर के लोक को जाता है और वहाँ श्रेष्ठ पार्षद बन कर शंकर जी की सेवा करता है ॥ ७८-७९ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे
विष्णुशंकरस्तोत्रकथनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥
श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में विष्णु-शंकर-स्तोत्र-कथन नामक उन्नीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ १९ ॥

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