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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - विंशोऽध्यायः उपबर्हणजन्मकथनम्
गोपपत्नी कलावती से उपबर्हण का जन्म - सौतिरुवाच मुदा मालावतीसार्धं गन्धर्वश्चोपबर्हणः । रेमे कालावशेषं च ताभिश्च निर्जने वने ॥ १॥ सौति बोले-उपबर्हण नामक गन्धर्व ने निर्जन वन में बड़ी प्रसन्नतापूर्वक मालावती तथा अन्य पत्नियों के साथ अपनी आयु के शेष काल तक रमण किया ॥ १ ॥ गन्धर्वराजो मुमुदे पुत्रदारादिभिः सह । नानाविधं क्रतुवरं महत्पुण्यं चकार ह ॥२॥ (उनके पिता) गन्धर्वराज भी पुत्रों और स्त्रियों के साथ आनन्द से रहने लगे । उन्होंने बड़े-बड़े पुण्य कर्म तथा नाना प्रकार के श्रेष्ठ यज्ञ किए ॥ २ ॥ राजत्वं बुभुजे राजा कुबेरभवनोपमे । रेमे सुशीलया सार्धं स्थिरयौवनयुक्तया ॥३॥ कुबेर-भवन के समान अपने महल में उन्होंने स्थिर यौवन वाली सुशीला पत्नी के साथ रमण करते हुए राजत्व का उपभोग किया ॥ ३ ॥ गन्धर्वराजः काले च गङ्गातीरे मनोहरे । पत्न्या सार्धमसूंस्त्यक्त्वावैकुण्ठ च ययौ मुदा ॥४॥ अन्त में गंगा जी के मनोहर तट पर पत्नी के साथ प्राण परित्याग करके वे वैकुंठधाम को चले गए ॥ ४ ॥ शैवः शिवप्रसादेन पुत्रस्य विष्णुसेवया । बभूव दासो वैकुण्ठे विष्णोः श्यामचतुर्भुजः ॥५॥ वे शैव थे, इसलिए उन पर शिवजी की कृपा हुई तथा उनके पुत्र ने विष्णु की सेवा की थी, इसलिए भगवान् विष्णु की भी उन पर कृपादृष्टि हुई । इससे वे वैकुंठ में विष्णु के श्याम-चतुर्भुजरूपधारी पार्षद हुए ॥ ५ ॥ कृत्वा पित्रोश्च सत्कारं गन्धर्वश्चोपबर्हणः । ब्राह्मणेभ्यो ददौ विप्र धनानि विविधानि च ॥६॥ विप्र ! अनन्तर उपबहण गन्धर्व ने अपने पिता और माता का संस्कार सम्पन्न कर ब्राह्मणों को अनेक प्रकार के धन अर्पित किए ॥ ६ ॥ काले स्वयं ब्रह्मशापात्प्राणांस्त्यक्त्वा विचक्षणः । स जज्ञे वृषलीगर्भे ब्रह्मबीजेन शौनक ॥७॥ शौनक ! समय आने पर उस बुद्धिमान् गन्धर्व ने ब्रह्मा के शाप द्वारा स्वयं प्राण परित्याग कर ब्राह्मण के वीर्य और शूद्रा के गर्भ से जन्म धारण किया ॥ ७ ॥ मालावती वह्निकुण्डे पुष्करे भारते भुवि । कृत्वा तु वाञ्छितं कामं प्राणांस्तत्याज सा सती ॥८॥ अनन्तर उस सती मालावती ने भारत के पुष्कर क्षेत्र में जाकर अग्नि-कुण्ड में अभीष्ट कर्मों को सम्पन्न कर के प्राणों का परित्याग कर दिया ॥ ८ ॥ सृञ्जयस्य तु पत्न्यां च मनुवंशोद्भवस्य च । जज्ञे नृपस्य साध्वीसा पुण्या जातिस्मरा वरा ॥९॥ पश्चात् मनुवंश में उत्पन्न राजा संजय की पत्नी में उस पवित्र एवं श्रेष्ठ पतिव्रता ने पुनः जन्म ग्रहण किया । वहाँ उसे पूर्व जन्म का स्मरण भी बना रहा ॥ ९ ॥ उपबर्हणगन्धर्वः पतिर्मे भवितेति च । इतिकामा कामुकी सा सुन्दरी सुन्दरीवरा ॥ १०॥ इसीलिए उस कामुकी एवं सुन्दरी की यही इच्छा रही कि-'उपबहण गन्धर्व ही मेरे पति हों । ' ॥ १० ॥ शौनक उवाच ब्रह्मवीर्याच्छूद्रपत्न्या गन्धर्वश्चोपबर्हणः । जातः केन प्रकारेण तद्भवान्वक्तुमर्हति ॥ ११॥ - शौनक बोले-उपबर्हण गन्धर्व ब्राह्मण-वीर्य से शुद्र की पत्नी में किस प्रकार उत्पन्न हुए, यह मुझे बताने की कृपा करें ॥ ११ ॥ सौतिरुवाच कान्यकुब्जे च देशे च द्रुमिलो नाम राजकः । कलावती तस्य पत्नी वन्ध्या चापि पतिव्रता ॥ १२॥ सौति बोले--कान्यकुब्जप्रदेश में एक द्रुमिल नामक राजा था । उसकी पत्नी कलावती पतिव्रता एवं बध्या थी ॥ १२ ॥ स्वामिदोषेण सा वन्ध्या काले च भर्तुराज्ञया । उपतस्थे वने घोरे नारदं काश्यपं मुनिम् ॥ १३॥ स्वामी के दोष से बन्ध्या होने के कारण वह एक बार समय पर (ऋतुस्नानोपरान्त) पति की आज्ञा से कश्यप-पुत्र नारद मुनि के पास भयानक वन में उपस्थित हुई ॥ १३ ॥ ध्यायमानं च श्रीकृष्णं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा । तस्थौ सुवेशं कृत्वा सा ध्यानान्तं च मुनेः पुरः ॥ १४॥ ब्रह्मतेज से देदीप्यमान वे मुनि भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान कर रहे थे । उन्हीं के सामने वह अपना सुन्दर वेष बना कर खड़ी हो गयी ॥ १४ ॥ ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डप्रभातुल्येन तेजसा । तपन्तं दूरतोऽप्येवं समीपं गन्तुमक्षमा ॥ १५॥ ग्रीष्मकाल के मध्याह्न-सूर्य की प्रभा के समान तेज से तपते हुए मुनि के समीप वह न जा सकी (दूर ही खड़ी रही) ॥ १५ ॥ ध्यानान्ते च मुनिश्रेष्ठः परं कृष्णपरायणः । ददर्श पुरतो दूरे सुन्दरीं स्थिरयौवनाम् ॥१६॥ चारुचम्पकवर्णाभां शरत्पङ्कजलोचनाम् । शरत्पार्वणचन्द्रास्यां रत्नभूषणभूषिताम् ॥ १७॥ बृहन्नितम्बभारार्तां पीनश्रोणिपयोधराम् । शोभितां पीतवस्त्रेण सस्मितां रक्तलोचनाम् ॥ १८॥ मोहितां मुनिरूपेण कामबाणप्रपीडिताम् । दर्शयन्ती स्तनश्रोणिं मैथुनासक्तचेतसा ॥ १९॥ फिर ध्यान करने के उपरान्त कृष्णपरायण मुनि ने उस स्थिरयौवन वाली सुन्दरी को दूर ही से देखा । चम्पा के समान उसका सुन्दर वर्ण था । शरत्कालीन कमल के समान नेत्र थे । शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति मुख-मंडल एवं रत्न के आभूषणों से भूषित वह थी । विशाल नितम्बों के भार से वह पीड़ित हो रही थी । उसके जघन भाग तथा सुच मोटे-मोटे थे । उसकी आँखें लाल लाल थीं । वह पीतवस्त्र से शोभित हो मुसकरा रही थी । वह मुनि के रूप पर लट्ट तथा कामबाण से पीड़ित थी । अतएव मैथुन के प्रति आसक्त चित्त से वह अपने स्तनों एवं श्रोणीभाग को दिखा रही थी ॥ १६-१९ ॥ सिंदूरबिन्दुभूषाढ्यां सुचारुकज्जलोज्ज्वलाम् । पादालक्तकशोभाढ्यां रूपेणैव यथोर्वशीम् ॥२०॥ मुनिः पप्रच्छ दृष्ट्वा तां का त्वं कामिनि निर्जने । कस्य पत्नी कथं वाऽत्र सत्यं ब्रूहि च पुंश्चलि ॥२१॥ मुनेश्च वचनं श्रुत्वा कम्पिता च कलावती । उवाच विनयेनैव कृत्वा च श्रीहरिं हृदि ॥२२॥ सिन्दूर-बिन्दु, आभूषण तथा सुन्दर काजल से वह सुशोभित थी । उसका वर्ण उज्ज्वल था । उसके पैरों में आलता लगा हुआ था । वह सौन्दर्य में उर्वशी जैसी थी । निर्जन वन में उसे देख कर मुनि ने पूछा-'कामिनी ! तुम कौन हो ? किसकी पत्नी हो ? यहाँ क्यों आयी हो ? पुंश्चली ! सत्य बताओ' । मुनि का वचन सुनकर कलावती काँप उठी । उसने हृदय में श्रीहरि का ध्यान करके विनयपूर्वक कहा ॥ २०-२२ ॥ कलावत्युवाच गोपिकाऽहं द्विजश्रेष्ठ द्रुमिलस्य च कामिनी । पुत्रार्थिनी चाऽऽगताऽहं त्वन्मूलं भर्तुराज्ञया ॥२३॥ कलावती बोली-हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं जाति की गोपिका और राजा मिल की पत्नी हैं । पति की आज्ञा से पुत्र के लिए आपके पास आयी हूँ ॥ २३ ॥ वीर्याधानं कुरु मयि स्त्री नोपेक्ष्या ह्युपस्थिता । तेजीयसां न दोषाय वह्नेः सर्वभुजो यथा ॥२४॥ इसलिए आप मुझमें वीर्याधान करें । पास आयी हुई स्त्री की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए और सर्वभक्षी अग्नि की भाँति तेजस्वी पुरुष इसके लिए दोषभागी भी नहीं होते हैं ॥ २४ ॥ वृषलीवचनं श्रुत्वा चुकोप मुनिसत्तमः । उवाच नित्यं सत्यं च कोपप्रस्फुरिताधरः ॥२५॥ उस शूद्रा की बातें सुन कर मुनिश्रेष्ठ अत्यन्त कुपित हो गए और कोप से उनका ओठ फड़कने लगा । फिर वे नित्य सत्य वचन कहने लगे ॥ २५ ॥ काश्यप उवाच यः स्वलक्ष्मीं च भोगार्हां पराय दातुमिच्छति । तं सा त्यजति मूढं च वेदवाद इति ध्रुवम् ॥२६॥ काश्यप बोले-जो भोग के उपयुक्त अपनी (गृह) लक्ष्मी दूसरे को देना चाहता है, वह स्त्री उस मूढ़ का त्याग कर देती है, यह वेद का निश्चित कहना है ॥ २६ ॥ न त्वं द्रुमिलभोगार्हा पुनरेव भविष्यसि । विरक्तेन स्वयं त्यक्ता न गृह्णाति च त्वां पुनः ॥२७॥ इससे तू भी पुनः द्रुमिल के भोग-योग्य न रह जायगी । जब विरक्त होकर उसने स्वयं तुम्हें त्याग दिया है तो पुनः तुम्हें वह कैसे ग्रहण कर सकता है ॥ २७ ॥ यः शूद्रपत्नीं गृह्णाति ब्राह्मणो ज्ञानदुर्बलः । स चाण्डालो भवेत्सत्यं न कर्मार्हो द्विजातिषु ॥२८॥ जो ज्ञान में दुर्बल ब्राह्मण शूद्र की पत्नी को ग्रहण करता है, वह चाण्डाल हो जाता है और द्विजातियों में किसी कर्म के योग्य नहीं रहता है, यह सत्य है ॥ २८ ॥ पितृश्राद्धे च यज्ञे च शिलास्पर्शे सुरार्चने । नाधिकारश्च तस्यैवमित्याह कमलोद्भवः ॥२९॥ पितरों के श्राद्ध, यज्ञ, शिलास्पर्श (शालग्राम-पूजन) और देव-पूजन में उसका अधिकार नहीं रह जाता है, ऐसा ब्रह्मा ने कहा है ॥ २९ ॥ कुम्भीपाकं स्वयं याति पातयित्वा च पूरुषान् । मातामहान्स्वात्मनश्च दश पूर्वान्दशापरान् ॥३०॥ फिर (अन्त में) वह स्वयं तो कुम्भीपाक नामक नरक में जाता ही है, साथ ही मातामहपक्ष के पुरखों को और अपने कुल के दस पहले की और दस बाद की पीढ़ियों को भी (नरक में) गिरा देता है ॥ ३० ॥ तत्तर्पणं मूत्रमेव पिण्डः सद्यः पुरीषकम् । शालग्रामस्य तत्स्पर्शे चोपवासस्त्रिरात्रकम् ॥३१॥ उसका किया हुआ तर्पण मूत्र के समान और पिण्डदान विष्ठा के समान होता है । शालग्राम का स्पर्श हो जाने पर उसे तीन रात्रि का उपवास करना चाहिए ॥ ३१ ॥ तदिष्टदेवो गृह्णाति न नैवेद्यं न तज्जलम् । संन्यासिनां ब्राह्मणानां तदन्नं च पुरीषवत् ॥३२॥ उसके इष्टदेव उसके नैवेद्य और जल का ग्रहण नहीं करते हैं । संन्यासियों और ब्राह्मणों के लिए उसका अन्न मल के समान रहता है ॥ ३२ ॥ कुम्भीपाके पच्यते स शक्रान्तं यावदेव हि । एकविंशतिपुरुषैः सार्धं सत्यं च पुंश्चलि ॥३३॥ पुंश्चली ! वह अपने इक्कीस पीढ़ियों समेत कुम्भीपाक नरक में इन्द्र के समय तक पकता रहता है, यह सत्य है ॥ ३३ ॥ पत्रोच्छिष्टं च यो भुङ्क्ते शूद्राणां ब्राह्मणाधमः । तत्तुल्योऽधरभोजी चैवेत्याङ्गिःरसभाषितम् ॥३४॥ जो ब्राह्मणाधम शूद्र के पत्तल की जूठन खाता है, वह उसके समान नीचभोजी है, ऐसा आंगिरस ने कहा है ॥ ३४ ॥ शूद्रो वा यदि गृह्णाति ब्राह्मणीं ज्ञानदुर्बलः । स पच्यते कालसूत्रे यावदिन्द्राश्चतुर्दश ॥३५॥ यदि शूद्र भी अपने विचार की कमी के कारण किसी ब्राह्मणी को पत्नीरूप में अपना लेता है, तो वह चौदह इन्द्रों के समय तक कालसूत्र नामक नरक में पकाया जाता है ॥ ३५ ॥ अष्टादशेन्द्रावच्छिन्नं कालं च कालसूत्रके । ब्राह्मणी पच्यते तत्र भक्षिता क्रिमिभिर्ध्रुवम् ॥३६॥ और वह ब्राह्मणी अठारह इन्द्रों के समय तक उस कालसूत्र में पकती रहती है । उसे वहाँ कीड़े काट-काट कर खाते रहते हैं ॥ ३६ ॥ ततश्चाण्डालयोनौ च लब्ध्या जन्म च ब्राह्मणी । शूद्रश्च कुष्ठी भवति ज्ञातिभिः परिवर्जितः ॥३७॥ पश्चात् वह ब्राह्मणी चाण्डाल योनि में उत्पन्न होती है और वह शूद्र कुष्ठ रोग से पीड़ित हो कर बन्धुओं द्वारा त्याग दिया जाता है ॥ ३७ ॥ इत्युक्त्वा च मुनिश्रेष्ठो विरराम च शौनक । वृषली तत्पुरस्तस्थौ शुष्ककण्ठौष्ठतालुका ॥३८॥ शौनक ! इतना कह कर मुनिश्रेष्ठ चुप हो गए और वह शूद्रा उनके सामने खड़ी रही, जिसके ओठ, कंठ और तालु सूख गए थे ॥ ३८ ॥ एतस्मिन्नन्तरे तेन पथा याति च मेनका । तस्या ऊरुं स्तनं दृष्ट्वा मुनेर्वीर्यं पपात ह ॥३९॥ ऋतुस्नाता च वृषली कृत्वा तद्भक्षणं मुदा । मुनिं प्रणम्य सा हृष्टा प्रययौ भर्तुरन्तिकम् ॥४०॥ इस बीच उसी मार्ग से मेनका अप्सरा जा रही थी, जिसके ऊरु और स्तन देखकर उन मुनि का वीर्य पात हो गया किन्तु स्नाता शूद्रा ने प्रसन्नता में उस वीर्य को खा लिया फिर मुनि को प्रणाम करके वह मानन्द के साथ अपने पति के पास चली गयी ॥ ३९-४० ॥ गत्वा प्रणम्य द्रुमिलं कान्ता कान्तं मनोहरम् । सर्वं निवेदयामास वृत्तान्तं गर्भहेतुकम् ॥४१॥ वहाँ पहुँच कर उसने अपने मनोहर कान्त द्रुमिल को प्रणाम किया और अपने गर्भ धारण का समस्त वृत्तान्त कह सुनाया ॥ ४१ ॥ कलावतीवचः श्रुत्वा प्रहृष्टवदनेक्षणः । उवाच कान्ता मधुरं परिणामसुखावहम् ॥४२॥ कलावती की बात सुन कर द्रुमिल के मुख और नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे । तब उसने पत्नी से परिणाम में सुख देने वाला मधुर वचन कहा ॥ ४२ ॥ द्रुमिल उवाच विप्रस्य वीर्यं त्वद्गर्भे वैष्णवस्य महात्मनः । वैष्णवो भविता बालस्त्वं च भाग्यवती सती ॥४३॥ दुमिल बोले-तुम्हारे गर्भ में बैष्णव एवं महात्मा ब्राह्मण का वीर्य निहित है, इसलिए वैष्णव बालक उत्पन्न होगा । तुम भाग्यवती पतिव्रता भी हो ॥ ४३ ॥ यद्गर्भे वैष्णवो जातो यस्य वीर्येण वा सति । तयोर्याति च वैकुण्ठं पुरुषाणां शतं शतम् ॥४४॥ जिसके वीर्य से जिसके गर्भ में वैष्णव बालक उत्पन्न होता है, उन दोनों के सौ-सौ पीढ़ियाँ वैकुण्ठ को चली जाती हैं ॥ ४४ ॥ तौ च विष्णुविमानेन सद्रत्ननिर्मितेन च । यातौ वैकुण्ठनगरं जन्ममृत्युजराहरम् ॥४५॥ और वे दोनों उत्तम रत्नों से निर्मित विमान पर बैठ कर उस वैकुण्ठ धाम में पहुँचते हैं, जहाँ जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्था का हरण हो जाता है ॥ ४५ ॥ कस्यचिद्ब्राह्मणस्यैव गेहं गच्छ शुभानने । पश्चान्ममान्तिकं भद्रे यास्यसीति हरेः पुरम् ॥४६॥ सुन्दरी ! अब तुम किसी ब्राह्मण के घर चली जाओ और पश्चात् भगवान् के लोक में मेरे पास चली आओगी ॥ ४६ ॥ इत्युक्त्वा गोपराजश्च स्नात्वा कृत्वा तु तर्पणम् । संपूज्याभीष्टदेवं च ब्राह्मणेभ्यो धनं ददौ ॥४७॥ अश्वानां च चतुर्लक्षं गजानां लक्षमेव च । शतं मत्तगजेन्द्राणां ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥४८॥ उच्चैःश्रवःपञ्चलक्षं रथानां च सहस्रकम् । शकटानां त्रिलक्षं च ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥४९॥ इतना कह उस गोपराज ने स्नान, तर्पण और अभीष्ट देव का पूजन सुसम्पन्न कर ब्राह्मणों को धन अर्पित किया । चार लाख घोड़े, एक लाख हाथी और सौ मतवाले गजराज हर्ष से ब्राह्मणों को दिया । पांच लाख उच्चैःश्रवा के वंश में उत्पन्न घोड़े, एकसहस्र रथ एवं तीन लाख बैलगाड़ियां प्रसन्नतापूर्वक ब्राह्मणों को समर्पित की ॥ ४७-४९ ॥ गवां द्वादशलक्षं च महिषाणां त्रिलक्षकम् । त्रिलक्षं राजहंसानां ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥५०॥ बारह लाख गौएँ, तीन लाख भैस एवं तीन लाख राजहंस प्रसन्नता से ब्राह्मणों को दिए ॥ ५० ॥ पारावतानां लक्षं च शुकानां च शतं मुने । लक्षं च दासदासीनां ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥५१॥ मुने ! एक लाख कबूतर, सौ तोते और एक लाख दास-दासियाँ प्रसन्नता से ब्राह्मणों को प्रदान की ॥ ५१ ॥ ग्रामाणां च सहस्रं च नगराणां शतं शतम् । धान्यतण्डुलशैलं च ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥५२॥ एक सहस्र ग्राम, दो सौ नगर तथा चावल और अन्न का पर्वत हर्ष के साथ ब्राह्मणों को अर्पित किए ॥ १२ ॥ शतकोटिं सुवर्णानां रत्नानां च सहस्रकम् । मुद्राणां कोटिकलशं ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥५३॥ सौ करोड़ सुवर्ण, एक सहस्र रत्न तथा मुद्राओं से भरे करोड़ों कलश आनन्दपूर्वक ब्राह्मणों को प्रदान किए ॥ ५३ ॥ ददौ तैजसपात्राणां भूषणानामसंख्यकम् । ता स्त्रियं रत्नभूषाढ्यां ब्राह्मणेभ्यो ददौ मुदा ॥५४॥ राज्यं दत्त्वा महाराजोऽप्यन्तर्बाह्ये हरिं स्मरन् । जगाम बदरीं गोपो मनोगामी मुदाऽन्वितः ॥५५॥ असंख्य चमकीले पात्र तथा आभूषण और रत्नालंकारभूषित स्त्रियाँ भी हर्षपूर्वक ब्राह्मणों को दे दी । अनन्तर राज्य भी दान करके हर्षित महाराज गोप बाहर-भीतर हरि का स्मरण करते हुए मन के समान गति से बदरिकाश्रम पहुँच गए ॥ ५४-५५ ॥ तत्र मासं तपः कृत्वा गङ्गातीरे मनोहरे । प्राणांस्तत्याज योगेन सद्यो दृष्टो महर्षिभिः ॥५६॥ यहाँ गंगाजी के मनोहर तट पर एक मास तक तप कर के अन्त में योग द्वारा प्राण परित्याग किया, जिसे महर्षियों ने तत्काल देखा था ॥ ५६ ॥ स च विष्णुविमानेन रत्नेन्द्रनिर्मितेन च । संयुक्तो विष्णुदूतैश्च वैकुण्ठं च जगाम ह ॥५७॥ तत्र प्राप्य हरेर्दास्यं हरिदासो बभूव सः । वृत्तान्तं च कलावत्याः श्रूयतामिति शौनक ॥५८॥ गते कलावती नाथे उच्चैश्च प्ररुरोद ह । वह्नौ प्राणांस्त्यक्तुकामा ब्राह्मणेनैव रक्षिता ॥५९॥ उपरान्त वह उत्तम रत्नों के बने विष्णु-विमान द्वारा विष्णु-दूतों के साथ वैकुण्ठ में पहुँचा । वहाँ हरि का दास्यभाव प्राप्त करके भगवान् का दास हुआ । शौनक ! अब कलावती का वृत्तान्त सुनो । पति के चले जाने पर कलावती उच्चस्वर से रोती हुई अग्नि में प्राण देने को तत्पर हुई, किन्तु उस ब्राह्मण ने ही उसे बचा लिया ॥ ५७-५९ ॥ ब्राह्मणो मातरित्युक्त्वा तां गृहीत्वा मुदाऽन्वितः । जगाम रत्नपूर्णं च स्वगेहं च क्षणेन च ॥६०॥ अनन्तर वह ब्राह्मण उसे माता कह कर अत्यन्त प्रसन्नता से अपने साथ ले गया । क्षण भर में ही वह रत्नों से भरे अपने घर में पहुँचा ॥ ६० ॥ सा विप्रगेहे साध्वी च सुषाव तनयं वरम् । तप्तकाञ्चनवर्णाभं ज्वलन्तं ब्रह्मतेजसा ॥६१॥ ब्राह्मण के घर में उस पतिव्रता ने एक पुत्र उत्पन्न किया, जो तपाये हुए सुवर्ण की भांति कान्ति और ब्रह्मतेज से प्रदीप्त था ॥ ६१ ॥ तत्रस्था योषितः सर्वा ददृशुर्बालकं शुभम् । ग्रीष्ममध्याह्नमार्तण्डजितं तं ब्रह्मतेजसा ॥६२॥ वहाँ की रहने वाली समस्त स्त्रियों ने उस बालक को देखा, जो अपने ब्रह्मतेज से ग्रीष्म ऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्य को पराजित कर रहा था । ॥ ६२ ॥ कामदेवाधिकं रूपे चन्द्राधिकशुभाननम् । शरत्पार्वणचन्द्रास्यं शरत्पङ्कजलोचनम् ॥६३॥ हस्तपादादिललितं सुकपोलं मनोहरम् । पद्मचक्राङ्कितं पादपद्मं वाऽतुलमुज्ज्वलम् ॥६४॥ वह रूप में कामदेव से बढ़ा-चढ़ा था । उसका मुख चन्द्र से भी अधिक निर्मल थाः शरत्कालीन पूर्ण चन्द्रमा की भाँति उसका मुख-मण्डल, शारदीय कमल के समान नेत्र, कर, चरण, कपोल आदि सुन्दर तथा वह स्वयं मनोहर था । उसका चरणारविन्द कमलचक्र से अंकित तथा अत्यन्त उज्ज्वल था ॥ ६३-६४ ॥ करयुग्मं वाऽतुलं च रुदन्तं च स्तनार्थिनम् । योषितो बालकं दृष्ट्वा प्रययुः स्वाश्रमं मुदा ॥६५॥ उसके दोनों हाथ भी अनुपम सुन्दर थे । वह दुग्धपान कर ने के लिए रोने लगा । स्त्रियाँ उस बालक को देख कर बहुत प्रसन्न हुई तथा आनन्द से अपने-अपने घर गयीं ॥ ६५ ॥ पुत्रदारयुतो विप्रः प्रहृष्टश्च ननर्त ह । स बालो ववृधे तत्र शुक्लपक्षे यथा शशी ॥६६॥ पुपोष ब्राह्मणस्तां च सपुत्रां च यथा सुताम् ॥६७॥ पुत्र-स्त्री समेत वह ब्राह्मण भी अत्यन्त प्रसन्न होकर नाचने लगा । वहाँ वह बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति बढ़ने लगा । और वह ब्राह्मण पुत्र समेत उस स्त्री को कन्या की भाँति पालन-पोषण करने लगा ॥ ६६-६७ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे उपबर्हणजन्मकथनं नाम विंशोऽध्यायः ॥२०॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में उपबर्हण-जन्म-कथननामक बीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २० ॥ |