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ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - एकविंशोऽध्यायः


नारदशापविमोचनम्
शुद्रयोनि में उत्पन्न बालक नारद की जीवनचर्या -


सौतिरुवाच
बभूव काले बालश्च क्रमेण पञ्चहायनः ।
जातिस्मरो ज्ञानयुक्तः पूर्वमन्त्रस्मृतः सदा ॥ १॥
सौति बोले-समय पाकर वह बालक क्रमशः बढ़कर पांच वर्ष का हुआ, जिसे सदा पूर्व जन्म का स्मरण, ज्ञान और पूर्व मन्त्रों का स्मरण बना रहा ॥ १ ॥

गीयते सततं कृष्णयशोनामगुणादिकम् ।
क्षणं रोदिति नृत्येन पुलकाञ्चितविग्रहः ॥२॥
भगवान् श्रीकृष्ण के यश, नाम और गुणों का गान निरन्तर करते हुए बालक कभी रोदन करने लगता और कभी नृत्य करते हुए रोमांचित हो जाता था ॥ २ ॥

कृष्णसंबन्धिनीं गाथां शृणोति यत्र तत्र वै ।
तत्संबन्धिपुराणं च तत्र तिष्ठति बालकः ॥३॥
वह कृष्ण सम्बन्धी गाथाओं और पुराणों को जहाँ सुनता वहीं ठहर जाता था ॥ ३ ॥

धूलिधूसरसर्वाङ्गो धूलिनैवेद्यमीप्सितम् ।
धूलिषु प्रतिमां कृत्वा धूलिना पूजयेद्धरिम् ॥४॥
अपने शरीर के सभी अंगों को धूलि-धूसरित किये हुए वह धूलियों में भगवान् की प्रतिमा बनाकर घूलि का अभीष्ट नैवेद्य चढ़ाकर धूलि से हरि की पूजा करता था ॥ ४ ॥

पुत्रमाह्वयते माता प्रातराशाय चेन्मुने ।
हरिं संपूजयामीति मातरं संवदेत्पुनः॥५॥
मुने ! यदि माता सबेरे कलेवे के लिए उस बच्चे को बुलाती, तो वह अपनी माता से कह देता था कि 'मैं भगवान् का पूजन कर रहा हूँ ॥ ५ ॥

शौनक उवाच
किन्नाम बालकस्यास्य जन्मन्यत्र बभूव ह ।
व्युत्पत्त्या संज्ञया वाऽपि तद्‌भवान्वक्तुमर्हति ॥६॥
शौनक बोले-इस जन्म में उत्पन्न होने पर उस बालक का क्या नामकरण हुआ ? आप व्युत्पत्ति और संज्ञा समेत उसे बताने की कृपा करें ॥ ६ ॥

सौतिरुवाच
अनावृष्ट्यवशेषे च काले बालो बभूव ह ।
नारं ददौ जन्मकाले तेनायं नारदाभिधः ॥७॥
सौति बोले-अनावृष्टि का समय चल रहा था, उसके कुछ अवशेष रहने पर उस बालक का जन्म हुआ और उसके जन्म-समय वृष्टि हुई, इसलिए नार (जल) देने के कारण उसका नाम 'नारद' हुआ ॥ ७ ॥

ददाति नारं ज्ञानं च वालकेभ्यश्च बालकः ।
जातिस्मरो महाज्ञानी तेनायं नारदाभिधः ॥८॥
जातिस्मर एवं महाज्ञानी वह बालक दूसरे बालकों को नार (ज्ञान) देता था, इससे भी उसका नाम 'नारद' हुआ ॥ ८ ॥

वीर्येण नारदस्यैव बभूव बालको मुने ।
मुनीन्द्रस्य वरेणैव तेनायं नारदाभिघः ॥९॥
मुने ! मुनिश्रेष्ठ नारद महर्षि के वीर्य से उत्पन्न होने के कारण भी उसका नाम 'नारद' हुआ ॥ ९ ॥

शौनक उवाच
शिशुनाम च विज्ञातं व्युत्पत्त्या च यथोचितम् ।
मुनीन्द्रस्य कथं नाम नारदश्चेति मङ्गलम् ॥ १०॥
शोनक बोले-यथोचित व्युत्पत्ति समेत बच्चे का नाम तो मुझे मालूम हो गया, किन्तु मुनीन्द्र (बच्चे के पिता) का 'नारद' यह मंगल नाम कैसे पड़ा ? ॥ १० ॥

सौतिरुवाच
अपुत्रकाय विप्राय धर्मपुत्रो नरो मुनिः ।
ददौ पुत्रं कश्यपाय तेनायं नारदाभिधः ॥ ११॥
सौति बोले-धर्मपुत्र नर मुनि ने पुत्रहीन ब्राह्मण कश्यप को पुत्र प्रदान किया था । अतः नरप्रदत्त होने के कारण उसका नाम नारद हुआ ॥ ११ ॥

शौनक उवाच
अधुना नामव्युत्पत्तिः श्रुता सौते शिशोरपि ।
शूद्रयोनौ ब्रह्मपुत्रः कथं स नारदाभिधः ॥ १२॥
शौनक बोले-सूतपुत्र ! अब मैंने उस शिशु के नाम की व्युत्पत्ति भी सुन ली । अब यह बताइए कि शुद्र-योनि में तथा ब्रह्मपुत्र-अवस्था में वह 'नारद' नामधारी कैसे हुआ ? ॥ १२ ॥

सौतिरुवाच
कल्पान्तरे ब्रह्मकण्ठाद्‌बभूवुर्बहवो नराः ।
नरान्ददौ तत्कण्ठं च तेन तन्नरदं स्मृतम् ॥ १३॥
सौति बोले-कल्पान्तर में ब्रह्मा के कण्ठ से अनेक नरों की उत्पत्ति हुई थी । उनके कण्ठ ने नर का दान किया था, इसलिए वह नरद कहलाया ॥ १३ ॥

ततो बभूव बालश्च नरदात्कण्ठदेशतः ।
अतो ब्रह्मा नाम चक्रे नारदश्चेति मङ्गलम् ॥ १४॥
उस नरद अर्थात् कण्ट से उस बालक का जन्म हुआ था, अतः ब्रह्मा ने उसका 'नारद' यह मंगल नामकरण किया ॥ १४ ॥

सांप्रतं शिशुवृत्तान्तं सावधानं निशामय ।
उपालम्भरहस्येन विशिष्टं किं प्रयोजनम् ॥ १५॥
सम्प्रति मैं उस बालक का वृत्तान्त कह रहा हूँ, सावधान होकर सुनो ? बालक के नारद की उपलब्धि का रहस्य जान लेने से कौन-सा विशिष्ट प्रयोजन सिद्ध होगा ? ॥ १५ ॥

ववृधे गोपिकाबालो विप्रगेहे दिने दिने ।
सुपुत्रां पालितां चक्रे ब्राह्मणः स्वसुतां यथा ॥१६॥
1 ब्राह्मण के घर में वह गोपिका-पुत्र दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा और वह ब्राह्मण भी अपनी कन्या की भाँति पुत्र समेत उस गोपी का पालन-पोषण करने लगा ॥ १६ ॥

एतस्मिन्नन्तरे विप्रा आययुर्विप्रमन्दिरम् ।
शिशवः पञ्चवर्षीया महातेजस्विनो यथा ॥ १७॥
इसी बीच उस ब्राह्मण के घर कुछ महातेजस्वी ब्राह्मण आये जो देखने में पांच वर्षों के बालकों की भांति जान पड़ते थे ॥ १७ ॥

प्रच्छन्नं कृतवन्तश्च ग्रीष्ममध्याह्न भास्करम् ।
मधुपर्कादिकं दत्त्वा तान्ननाम गृही द्विज ॥१८॥
वे अपने तेज से ग्रीष्मऋतु के मध्याह्नकालिक सूर्य की प्रभा को तिरस्कृत कर रहे थे । गृहस्थ ब्राह्मण ने मधुपर्क देकर उन्हें प्रणाम किया ॥ १८ ॥

फलमूलादिकं काले चत्वारो मुनिपुंगवाः ।
विप्रदत्तं बुभुजिरे तच्छेषं बुभुजे शिशुः ॥ १९॥
अनन्तर भोजन के समय उन चारों मुनिपुंगवों ने ब्राह्मण के दिये हुए फल, मूल आदि का आहार ग्रहण किया और उनके बचे हुए फलादि को उस बालक ने खाया ॥ १९ ॥

चतुर्थको मुनिस्तस्मै कृष्णमन्त्रं ददौ मुदा ।
तेषां दासः स बभूव द्विजस्य मातुराज्ञया ॥२०॥
उनमें से चौथे महर्षि ने प्रसन्न होकर उस बालक को भगवान् कृष्ण का मन्त्र प्रदान किया और वह बालक भी ब्राह्मण तथा माता की आज्ञा से उन लोगों का दास बन गया ॥ २० ॥

एकदाशिशुमाता च गच्छन्ती निशि वर्त्मनि ।
ममार सर्पदष्टा च तत्क्षणं स्मरती हरिम् ॥२१॥
एक बार आधी रात के समय उस बालक की माता कहीं जा रही थी । मार्ग में एक सर्प ने उसे काट लिया, जिससे भगवान् का स्मरण करती हुई वह उसी समय मृतक हो गयी ॥ २१ ॥

सद्यो जगाम वैकुण्ठं विष्णुयानेन सा सती ।
विष्णुपार्षदसंयुक्ता सद्‌रत्‍ननिर्मितेन च ॥२२॥
वह सती गोपी उत्तम रत्नों के बने विष्णु के विमानमें बैठकर विष्णु पार्षदों के साथ उसी क्षण वैकुण्ठ पहुँच गयी ॥ २२ ॥

प्रातर्बालो द्विजैः सार्धं प्रययौ विप्रमन्दिरात् ।
तत्त्वज्ञानं ददुस्तस्मै ब्राह्मणाश्च कृपालवः ॥२३॥
प्रातःकाल होने पर वह बालक ब्राह्मण के घर से निकल कर इन अतिथि ब्राह्मणों के साथ चल दिया । उन दयालु ब्राह्मणों ने उस बच्चे को तत्त्वज्ञान प्रदान किया ॥ २३ ॥

ब्रह्मपुत्राः शिशुं त्यक्त्वा स्वस्थानं प्रययुः किल ।
महाज्ञानी शिशुस्तस्थौ गङ्गातीरे मनोहरे ॥२४॥
अनन्तर वे ब्रह्मपुत्र महर्षिगण उस बच्चे को छोड़कर अपने स्थान को चले गये और वह महाज्ञानी शिशु गंगाजी के मनोहर तट पर रहने लगा ॥ २४ ॥

तत्र स्नात्वा विप्रदत्तं विष्णुमन्त्रं जजाप सः ।
क्षुत्पिपासारोगशोकहरं वेदेषु दुर्लभम् ॥२५॥
वहाँ स्नान करके उसने ब्राह्मणप्रदत्त उस मन्त्र का जप किया जो क्षुधा, तृष्णा (प्यास), रोग एवं शोक का अपहरण करने वाला तथा वेदों में दुर्लभ बताया गया है ॥ २५ ॥

महारण्ये च घोरे च अश्वत्थमूलसंनिधौ ।
कृत्वा योगासनं तस्थौ सुचिरं तत्र बालकः ॥२६॥
घोर महाजंगल में पीपल वृक्ष के नीचे योगासन लगाकर वह बालक सुचिर काल तक बैठा रहा ॥ २६ ॥

शौनक उवाच
कं मन्त्रं बालकः प्राप कुमारेण च धीमता ।
दत्तं परं श्रीहरेश्च तद्‌भवान्वक्तुमर्हति ॥२७॥
शौनक बोले-विद्वान् सनत्कुमार द्वारा उस बालक को भगवान् विष्णु का कौन सा मन्त्र प्राप्त हुआ था, उसे आप बताने की कृपा करें ॥ २७ ॥

सौतिरुवाच
कृष्णेन दत्तो गोलोकं कृपया ब्रह्मणे पुरा ।
द्वाविंशत्यक्षरो मन्त्रो वेदेषु च सुदुर्लभः ॥२८॥
तं च ब्रह्मा ददौ भक्त्या कुमाराय च धीमते ।
कुमारेण स दत्तश्च मन्त्रश्च शिशवे द्विज ॥२९॥
सौति बोले-प्राचीन समय में भगवान् श्री कृष्ण ने गोलोक में ब्रह्मा को जो बाईस अक्षरवाला मन्त्र प्रदान किया और जो वेदों में अत्यन्त दुर्लभ है, वही मन्त्र ब्रह्मा ने बुद्धिमान् सनत्कुमार की भक्ति देखकर उन्हें प्रदान किया था । द्विज ! कुमार ने वही मन्त्र उस ब्राह्मण को प्रदान किया ॥ २८-२९ ॥

ॐ श्री नमो भगवते रासमण्डलेश्वराय ।
श्रीकृष्णाय स्वाहेति च मन्त्रोऽयं कल्पपादपः ॥३०॥
महापुरुषस्तोत्रं च पूर्वोक्तं कवचं च यत् ।
अस्यौपयौगिकं ध्यानं सामवेदोक्तमेव च ॥३१॥
(वह मन्त्र इस प्रकार है-) ओं श्री नमोभगवते रासमण्डलेश्वराय श्रीकृष्णाय स्वाहा । यह मन्त्र कल्पवृक्ष है । इसके साथ ही महापुरुष का स्तोत्र पूर्वोक्त कवच तथा इसके उपयोगी सामवेदोक्त ध्यान भी बताया था ॥ ३०-३१ ॥

तेजोमण्डलकृपे च सूर्यकोटिसमप्रभे ।
योगिभिर्वाञ्छितं ध्याने योगैः सिद्धगणैः सुरैः ॥३२॥
ध्यायन्ते वैष्णवा रूपं तदभ्यन्तरसंनिधौ ।
अतीव कमनीयानिर्वचनीयं मनोहरम् ॥३३॥
नवीनजलदश्यामं शरत्पङ्कजलोचनम् ।
शरत्पार्वणचन्द्रास्यं पक्वबिम्बाधिकाधरम् ॥३४॥
मुक्तापङ्क्तिविनिन्दैकदन्तपङ्क्तिमनोहरम् ।
सस्मितं मुरलीन्यस्तहस्तालम्बनमेव च ॥३५॥
कोटिकन्दर्पलावण्यं लीलाधाम मनोहरम् ।
चन्द्रलक्षप्रभाजुष्टं पुष्टश्रीयुक्तविग्रहम् ॥३६॥
करोड़ों सूर्य के समान प्रभापूर्ण उस तेजोमण्डलरूप अनिर्वचनीय चिन्मय प्रकाश में ध्यान लगाकर योगी, सिद्धगण तथा देवता मनोवांछित रूप का साक्षात्कार करते हैं । उसी को वैष्णव लोग अपने अभ्यन्तर में लाकर सदैव ध्यान करते हैं, जो अत्यन्त कमनीय (सुन्दर), अनिर्वचनीय (वाणी से परे) एवं मनोहर है । नूतन मेघ के समान उसकी श्यामलकान्ति है । उसके नेत्र शारदीय कमल के समान हैं । मुख शरत्काल की पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान है । अधरोष्ठ पके हुए बिम्ब से अधिक अरुण है । मोतियों की पंक्तियों को विजित करने वाली मनोहर दांतों की पंक्तियाँ हैं । वह मन्द मुसकान से युक्त है । हाथ में मुरली लिए हुए है । करोड़ों काम से अधिक उसका लावण्य है । वह लीलाधाम, मनोहर, लाखों चन्द्रमा की प्रभा (कान्ति) से सेवित तथा श्रीसमेत पुष्ट शरीर धारण किये हुए है ॥ ३२-३६ ॥

त्रिभङ्गभङ्गिकायुक्तं द्विभुजं पीतवाससम् ।
रत्‍नकेयूरवलयरत्‍ननूपुरभूषितम् ॥३७॥
रत्‍नकुण्डलयुग्मेन गण्डस्थलविराजितम् ।
मयूरपुच्छचूडं च रत्‍नमालाविभूषितम् ॥३८॥
शोभितं जानुपर्यन्तं मालतीवनमालया ।
चन्दनोक्षितसर्वाङ्गं भक्तानुग्रहकारकम् ॥३९॥
वह त्रिभंगी छवि से सुशोभित है । उसकी दो भुजाएँ हैं । रत्नों के केयूर (बाजूबंद),पीत वस्त्र, वलय (कंकण) एवं रत्न-नूपुरों से वह भूषित है । उसके गंडस्थल रत्नों के युगल कुण्डलों से सुशोभित हैं । मस्तक पर मोर पंख का मुकुट शोभा पाता है । रत्नों की मालाएँ कंठदेश को विभूषित करती हैं । मालती की वनमाला से घुटनों तक का भाग विभूषित है । उसका सर्वांग चन्दन से चचित है । वह भक्तों पर कृपा करने वाला है ॥ ३७-३९ ॥

मणिना कौस्तुभेन्द्रेण वक्षःस्थलसमुज्ज्वलम् ।
वीक्षितं गोपिकाभिश्च शश्वद्वीडितलोचनैः ॥४०॥
उत्तम कौस्तुभमणि की प्रभा से उसका वक्षःस्थल उद्‌भासित होता है । गोपिकाएँ अपने लजीले नेत्रों से निरन्तर उसे देखा करती हैं ॥ ४० ॥

स्थिरयौवनयुक्ताभिर्वेष्टिताभिश्च संततम् ।
भूषणैर्भूषिताभिश्च राधावक्षःस्थलस्थितम् ॥४१॥
स्थिर यौवन वाली गोपियाँ भूषणों से विभूषित होकर उन्हें निरन्तर घेरे रहती हैं । वह राधा के वक्ष स्थल में विराजमान है ॥ ४१ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च पूजितं वन्दितं स्तुतम् ।
किशोरं राधिकाकान्तं शान्तरूपं परात्परम् ॥४२॥
निर्लिप्तं साक्षिरूपं च निर्गुणं प्रकृतेः परम् ।
ध्यायेत्सर्वेश्वरं तं च परमात्मानमीश्वरम् ॥४३॥
ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि देवता उसकी पूजा, वंदना एवं स्तुति किया करते हैं । उसकी अवस्था किशोर है । वह राधा का प्राणनाथ, शान्तस्वरूप एवं परात्पर है । वह निलिप्त एवं साक्षिरूप है । निर्गुण तथा प्रकृति से परे है । उसी परमात्मा सर्वेश्वर ईश्वर का ध्यान करना चाहिए ॥ ४२-४३ ॥

इदं ते कथितं ध्यानं स्तोत्रं च कवचं मुने ।
मन्त्रौपयौगिकं सत्यं मन्त्रश्च कल्पपादपः ॥४४॥
मुने ! इस प्रकार मैंने ध्यान, स्तोत्र, कवच और कल्पवृक्ष रूपी मन्त्र तुम्हें बता दिया है ॥ ४४ ॥

सांप्रतं बालकस्तस्थौ ध्यानस्थस्तत्र शौनक ।
दिव्यं वर्षसहस्रं च निराहारः कृशोदरः ॥४५॥
शक्तिमान्परिपुष्टश्च सिद्धमन्त्रप्रभावतः ।
ददर्श बालको ध्याने दिव्यं लोकं च बालकम् ॥४६॥
रत्‍नसिंहासनस्थं च रत्‍नभूषणभूषितम् ।
किशोरवयसं श्यामं गोपवेशं च सस्मितम् ॥४७॥
गोपैर्गोपाङ्गनाभिश्च वेष्टितं पीतवाससम् ।
द्विभुजं मुरलीहस्तं चन्दनेन विचर्चितम् ॥४८॥
ब्रह्मविष्णुशिवाद्यैश्च स्तूयमानं परात्परम् ।
दृष्ट्वा च सुचिरं शान्तं शान्तश्च गोपिकासुतः ॥४९॥
विरराम च शोकार्तो यदा तद्‌द्रष्टुमक्षमः ।
रुरोदाश्वत्थमूले च न दृष्ट्वा बालकं शिशुः ॥५०॥
शौनक ! उस समय वह बालक एक सहस्र दिव्य वर्षों तक निराहार और कृशोदर होकर ध्यान में बैठा रहा । फिर भी उस सिद्ध मन्त्र के प्रभाव से वह शक्तिमान् और परिपुष्ट बना रहा । बालक ने अपने ध्यान में दिव्यलोक और एक बालक को देखा, जो रत्नसिंहासन पर विराजमान, रत्नों के भूषणों से भूषित तथा किशोर वय, श्यामलवर्ण और गोप वेष धारण किए हुए मुस्कुरा रहा था । वह गोपों और गोपियों से घिरा हुआ, पीताम्बर, द्विभुज तथा मुरली हाथ में लिए हुए था । उसके श्रीअंग चन्दन-चर्चित थे । उस परात्पर की ब्रह्मा, विष्णु एवं शिव आदि देवगण स्तुति कर रहे थे । ऐसे शान्तरूप को बहुत काल तक देखकर वह गोपिकासुत ध्यान से विरत हो गया । ध्यान टूटने पर जब फिर वह उसका दर्शन न कर सका तब शोक से पीड़ित हो गया । ध्यानगत बालक को पुनः न देखने पर वह बच्चा उस पीपल के मूल में रोने लगा ॥ ४५-५० ॥

बभूवाऽऽकाशवाणीति रुदन्तं बालकं प्रति ।
सत्यं प्रबोधयुक्तं च हितमेव मिताक्षरम् ॥५१॥
सकृद्यद्‌दर्शितं रूपं तदेव नाधुना पुनः ।
अविपक्वकषायाणां दुर्दर्शं च कुयोगिनाम् ॥५२॥
अनन्तर रोते हुए उस बालक को संबोधित करके आकाशवाणी हुई, जो सत्य, ज्ञानयुक्त, हितकर और परिमित अक्षरों में थी-'जिस रूप को तुमने अभी एक बार देखा है, वह पुनः इस समय नहीं दिखायी देगा । क्योंकि अपरिपक्व कषाय (मल)वाले कुयोगियों के लिए उसका दर्शन होना अत्यन्त कठिन है ॥ ५१-५२ ॥

एतस्मिन्विग्रहेऽतीते संप्राप्ते दिव्यविग्रहे ।
पुनर्द्रक्ष्यसि गोविन्दं जन्ममृत्युहरं हरिम् ॥५३॥
तुम इस शरीर को त्यागकर दिव्य शरीर धारण करने पर जन्म-मृत्युहारी भगवान् गोविन्द का (यह) रूप पुनः देखोगे' ॥ ५३ ॥

इति श्रुत्वा बालकश्च विरराम मुदाऽन्वितः ।
काले तत्याज तीर्थे च तनुं कृष्णं हृदि स्मरन् ॥५४॥
नेदुर्दुन्दुभयः स्वर्गे पुष्पवृष्टिर्बभूव ह ।
बभूव शापमुक्तश्च नारदश्च महामुनिः ॥५५॥
यह सुनकर उस बालक ने प्रसन्नता से देखने का प्रयत्न छोड़ दिया और समय पाकर तीर्थभूमि में, हृदय में भगवान् श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए अपने शरीर को त्याग दिया । उस समय स्वर्ग में नगाड़े बजने लगे तथा पुष्पों की वर्षा होने लगी । इस प्रकार महामुनि नारद शापमुक्त हुए ॥ ५४-५५ ॥

तनुं त्यक्त्वा स जीवश्च विलीनो ब्रह्मविग्रहे ।
बभूव प्राक्तनान्नित्यः कालभेदे तिरोहितः ॥५६॥
आविर्भावस्तिरोभावः स्वेच्छया नित्यदेहिनाम् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिर्भक्तानां नास्ति शौनक ॥५७॥
शरीर त्यागकर वह जीव ब्रह्म-शरीर में विलीन हो गया । पहले की अपेक्षा वह नित्य हो गया और भिन्नकाल में तिरोहित भी हुआ । शौनक ! नित्यरूपधारी जो भक्त जन हैं, उनका अपनी इच्छा से आविर्भाव एवं तिरोभाव होता है । वे जन्म, मृत्यु, जरा और व्याधि से पीड़ित नहीं होते हैं ॥ ५६-५७ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे
ब्रह्मखण्डे नारदशापविमोचनं नामैकविंशोऽध्यायः ॥२१॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में नारद-शापमोचन नामक इक्कीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २१ ॥

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