Menus in CSS Css3Menu.com


ब्रह्मवैवर्तपुराणम्

प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - द्वाविंशोऽध्यायः


ब्रह्मपुत्रव्युत्पत्तिकथनम्
ब्रह्मपुत्रों के नामों की व्युत्पत्ति -


सौतिरुवाच
कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टुः सृष्टिविधौ पुनः ।
मरीचिमिश्रैर्मुनिभिः सार्धं कण्ठाद्‌बभूव सः ॥ १॥
सौति बोले-अनेक कल्पों के व्यतीत हो जाने पर पुनः सृष्टि-कार्य में संलग्न ब्रह्मा के नरद नामक कण्ठ प्रदेश से मरीचि आदि मुनियों के साथ वे शापमुक्त मुनि प्रकट हुए ॥ १ ॥

विधेर्नरदनाम्नश्च कण्ठदेशाद्‌बभूव सः ।
नारदश्चेति विख्यातो मुनीन्द्रस्तेन हेतुना ॥२॥
इसी कारण उस मुनिवर्य का 'नारद' नामकरण हुआ ॥ २ ॥

यः पुत्रश्चेतसो धातुर्बभूव मुनिपुंगवः ।
तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामहः ॥३॥
ब्रह्मा के चित से जिस मुनिपुंगव का जन्म जा, पितामह ने उसका 'प्रचेता' नामकरण किया ॥ ३ ॥

बभूव धातुर्यः पुत्रः सहसा दक्षपार्श्वतः ।
सर्वकर्मणि दक्षश्च तेन दक्षः प्रकीर्तितः ॥४॥
जो ब्रह्मा के दाहिने पार्श्व से सहसा उत्पन्न होकर बोर सभी कर्मों में दक्ष हुए, उनका नाम 'दक्ष' रखा गया ॥ ४ ॥

वेदेषु कर्दमः शब्दश्छायायां वर्तते स्फुटः ।
बभूव कर्दमाद्‌बालः कर्दमस्तेन कीर्तितः ॥५॥
वेदों में कर्दम शब्द छाया अर्थ में स्पष्ट कहा गया है । अतः उनके कर्दम (छाया) से उत्पन्न होने वाले पुत्र का नाम 'कर्दम' रखा गया ॥ ५ ॥

तेजोभेदे मरीचिश्च वेदेषु वर्तते स्फुटम् ।
जातः सद्योऽतितेजस्वी मरीचिस्तेन कीर्तितः ॥६॥
मरीचि शब्द वेदों में तेजोविशेष के अर्थ में कहा गया है, अतः ब्रह्मा के तेज से उत्पन्न होने वाले पुत्र का नाम 'मरीचि' पड़ा ॥ ६ ॥

ऋतुसंघश्च बालेन कृतो जन्मान्तरेऽधुना ।
ब्रह्मपुत्रेऽपि तन्नाम क्रतुरित्यभिधीयते ॥७॥
जिस बालक ने जन्मान्तर में अनेक यज्ञों को सुसम्पन्न किया वा, वह ब्रह्मपुत्र होने पर 'ऋतु' नाम से ख्यात हुआ ॥ ७ ॥

प्रधानाङ्गं मुखं धातुस्ततो जातश्च बालकः ।
इरस्तेजस्विवचनोऽप्यङ्‌गिरास्तेन कीर्तितः ॥८॥
ब्रह्मा के प्रधान अंग मुख से उत्पन्न हुआ पुत्र इर अर्थात् तेजस्वी था, इसलिए 'अंगिरा' नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ८ ॥

अतितेजस्विनि भृगुर्वर्तते नाम्नि शौनक ।
जातः सद्योऽतितेजस्वी भृगुस्तेन प्रकीर्तितः ॥९॥
शौनक ! अतितेजस्वी अर्थ में भृगु शब्द का प्रयोग किया गया है । अतः जो बालक अतितेजस्वी हुआ उसका नाम 'भग' रखा गया ॥ ९ ॥

बालोप्यरुणवर्णश्च जातः सद्योऽतितेजसा ।
प्रज्वलन्नूर्ध्वतपसा चारुणिस्तेन कीर्तितः ॥ १०॥
जो बालक होने पर भी तत्काल अत्यन्त तेज के कारण अरुण वर्ण का हो गया और उच्च कोटि की तपस्या के कारण तेज से प्रज्वलित होने लगा, वह 'आरुणि' नाम से ख्यात हुआ ॥ १० ॥

हंसा आत्मवशा यस्य योगेन योगिनो ध्रुवम् ।
बालः परमयोगीन्द्रस्तेन हंसी प्रकीर्तितः ॥ ११॥
जिस योगी के योग द्वारा हंसगण उसके अधीन हो गये थे, उस परमयोगीन्द्र बालक की 'हंसी' नाम से ख्याति हुई ॥ ११ ॥

वशीभूतश्च शिष्यश्च जातः सद्यो हि बालकः ।
अतिप्रियश्च- धातुश्च वशिष्ठस्तेन कीर्तितः ॥ १२॥
जो बालक तत्काल प्रकट होकर ब्रह्मा का वशीभूत, शिष्य तथा अत्यन्त प्रीतिपात्र हुआ, उसका नाम वशिष्ठ, रखा गया ॥ १२ ॥

संततं यस्य यत्‍नश्च तपःसु बालकस्य च ।
प्रकीर्तितो यतिस्तेन संयतः सर्वकर्स्मसु ॥ १३॥
पुलस्तपःसु वेदेषु वर्ततेहः स्फुटेऽपि च ।
स्फुटस्तपः समूहश्च पुलहस्तेन बालकः ॥ १४॥
पुलस्तपःसमूहश्च यस्यास्ति पूर्वजन्मनाम् ।
तपःसंघस्वरूपश्च पुलस्त्यस्तेन बालकः ॥ १५॥
उत्पन्न होने पर जिस बालक का सतत यल केवल तप के लिए होता था और जो सभी कर्मों में संयत था, वह इसी श के कारण 'यति' कहलाया । वेदों में 'पुल' शब्द तप के अर्थ में स्पष्ट कहा गया है और स्फुट अर्थ में 'ह' है । इसलिए जिस नालक में स्पष्ट रूप से तपःसमूह दिखाई पड़ा, उसका नाम पुलह पड़ा । 'पुल तपः समूह का अर्थ है इसलिए जिसके पूर्वजन्मों का तपः समूह विद्यमान था, वह वालक पुलस्त्य कहलाया ॥ १३-१५ ॥

त्रिगुणायां प्रकृत्यां त्रिर्विष्णावश्च प्रवर्तते ।
तयोर्भक्तिः समा यस्य तेन बालोऽत्रिरुच्यते ॥ १६॥
त्रिगुपन्थी प्रकृति के अर्थ में 'त्रि' शब्द और विष्णु के अर्थ में 'अ'शब्द प्रयुक्त हैं, इसीलिए उन दोनों में समान भक्ति रखने वाले बालक का नाम 'अधि' हुआ ॥ १६ ॥

जटावह्निशिखारूपाः पञ्च च सन्ति मस्तके ।
तपस्तेजोभवा यस्य स च पञ्चशिखः स्मृतः ॥ १७॥
तपस्तेज के कारण अग्नि की शिक्षा के समान पाँच शिखाएँ जिसके मस्तक पर थीं, उसका नाम 'पंचशिख' हुआ ॥ १७ ॥

अपान्तरतमे देशे तपस्तेपेऽन्यजन्मनि ।
अपान्तरतमा नाम शिशोस्तेन प्रकीर्तितम्॥ १८॥
जिसने अन्य जन्म में आंतरिक अंधकार से रहित प्रदेश में तप किया था; उसका नाम 'अपान्तरतमा' हआ । १८ ॥

स्वयं तपः समाप्नोति बाह्येत्प्रापयेत्परान् ।
वोढुं समर्थस्तपसि वोढुस्तेन प्रकीर्तितः ॥ १९॥
स्वयं तप करके अन्य प्राणियों को भी तपस्वी बनाने का प्रयत्न करने वाले तथा तपस्या का भार वहन करने वाले बालक को 'वोढ' नाम से पुकारा गया ॥ १९ ॥

तपसस्तेजसा बालो दीप्तिमान्सततं मुने ।
तपःसु रोचते चित्तं रुचितेन प्रकीर्तितः ॥२०॥
मुने ! जो बालक तपस्था के तेज से दीप्तिमान् रहता था तथा तपस्या में ही जिसकी रवि रहती थी, उसका नाम 'रुचि पड़ा ॥ २० ॥

कोपकाले बभूवुर्ये स्रष्टुरेकादश स्मृताः ।
रोदनादेव रुताश्च कोपितास्तेन हेतुना ॥२१॥
जो ब्रह्मा के कोप के समय ग्यारह की संख्या में प्रकट हुए और रोदन करने लगे, उनका नाम 'रुद्र' हुआ ॥ २१ ॥

शौनक उवाच
रुद्रेष्वेकतमो वाऽन्यो महेशा इति मे भ्रमः ।
भवान्पुराणतत्त्वज्ञ संदेहं छेत्तुमर्हति ॥ २२॥
शौनक बोले-उन्हीं रुद्रों में से एक बालक का नाम 'महेश' है या अन्य किसी का नाम महेश है, ऐसा मुझे भ्रम है । आप पुराणों के तत्त्ववेता हैं, अतः मेरे इस सन्देह को दूर करने की कृपा करें ॥ २२ ॥

सौतिरुवाच
विष्णुः सत्त्वगुणः पाता ब्रह्मा स्रष्टा रजोगुणः ।
तमोगुणास्ते रुद्राश्च दुर्निवारा भयंकराः ॥२३॥
सौति बोले-सत्त्वगुण सम्पन्न होने के नाते विष्णु (जगत् के) रक्षक, रजोगुण सम्पन्न ब्रह्मा स्रष्टा और तमोगुण सम्पन्न होने के कारण वे रुद्र दुनिवार और भयंकर हैं । ॥ २३ ॥

कालाग्निरुद्रः संहर्ता तेष्वेकः शंकरांशकः ।
शुद्धसत्त्वस्वरूपश्च शिवश्च शिवदः सताम् ॥२४॥
उनमें से एक का नाम 'कालाग्निरुद्र' है, जो संहर्ता हैं तथा शंकर के अंश हैं । शुद्ध सत्त्वरूप जो शिव हैं, वे सत्पुरुषों का कल्याण करने वाले हैं ॥ २४ ॥

अन्ये कृष्णस्य च कलास्तावंशौ विष्णुशंकरौ ।
समौ सत्त्वस्वरूपौ द्वौ परिपूर्णतमस्य च ॥२५॥
अन्य रुद्र भगवान् श्रीकृष्ण की कला मात्र हैं । केवल विष्णु एवं शंकर उन परिपूर्णतम श्रीकृष्ण के अंश हैं और वे दोनों समान सत्त्वस्वरूप हैं । ॥ २५ ॥

उक्तं रुद्रोद्‌भवे काले कथं विस्मरसि द्विज ।
मायया मोहिताः सर्वे मुनीनां च मतिभ्रमः ॥२६॥
द्विज ! रुद्र की उत्पत्ति के प्रसंग में मैंने यह बात तुम्हें बता दी थी । उसे क्यों भूल रहे हो । सभी भगवान् की माया से मोहित हैं । इसलिए मुनियों को भी भ्रम हो जाता है ॥ २६ ॥

सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः ।
सनत्कुमारो भगवांश्चतुर्थो ब्रह्मणः सुतः ॥२७॥
का स्रष्टुं पूर्वपुत्रानुवाच ते न सेहिरे ।
तेन प्रकोपितो धाता रुद्राः कोपोद्‌भवा मुने ॥२८॥
ब्रह्मा के पुत्र प्रथम सनक, द्वितीय सनन्द, तृतीय सनातन और चौथे भगवान् सनत्कुमार हैं । मुने ! ब्रह्मा ने सर्वप्रथम इन्हें उत्पन्न करके सृष्टि करने के लिए कहा, किन्तु उन्होंने अस्वीकार कर दिया । इसलिए ब्रह्मा अत्यन्त कुपित हो गये । उसी कोप से रुद्रों की उत्पत्ति हुई ॥ २७-२८ ॥

सनकश्च सनन्दश्च तो द्वावानन्दवाचकौ ।
आनन्दितौ च बालौ द्वौ भक्तिपूर्णतमौ सदा ॥२९॥
सनक और सनन्द दोनों शब्द आनन्दबाचक हैं । वे दोनों बालक सदैव आनन्द एवं अत्यन्त भक्ति से पूर्ण रहते हैं । इसलिये सनक और सनन्द नाम से ख्यात हुए ॥ २९ ॥

सनातनश्च श्रीकृष्णो नित्यः पूर्णतमः स्वयम् ।
तद्‌भक्तस्तत्समः सत्यं तेन बालः सनातनः ॥३०॥
स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण सनातन, नित्य और पूर्णतम हैं । उनका भक्त भी उन्हीं के समान है, अतः वह तीसरा बालक 'सनातन' नाम से विख्यात हुआ ॥ ३० ॥

सनत्तु नित्यवचनः कुमारः शिशुःवाचकः ।
सनत्कुमारं तेनेममुवाच कमलोद्‌भवः ॥३१॥
सनत् शब्द नित्यवाचक है और कुमार शब्द शिशुवाचक , अतः ब्रह्मा ने उस बालक का नाम सनत्कुमार रखा ॥ ३१ ॥

ब्रह्मणो बालकानां च व्युत्पत्तिः कथिता मुने ।
सांप्रतं नारदाख्यानं श्रूयतां च यथाक्रमम् ॥३२॥
मुने ! इस प्रकार मैंने ब्रह्मा के पुत्रों के नामों की व्युत्पत्ति बतायी । अब क्रमशः नारद का आख्यान सुनो ॥ ३२ ॥

इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे
ब्रह्मखण्डे ब्रह्मपुत्रव्युत्पत्तिकथनं नाम द्वाविंशोऽध्यायः ॥२२॥
श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में ब्रह्मपुत्र च्युत्पत्ति कथन नामक बाईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २२ ॥

GO TOP