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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - त्रयोविंशोऽध्यायः ब्रह्मनारदसंवादः
नारद द्वारा ब्रह्मा से तप के लिए आज्ञा माँगना - सौतिरुवाच स्रष्टा सृष्टिविधानेन नियोज्य सर्वबालकान् । नारदं प्रेरयामास सृष्टिं कर्तुं च शौनक ॥१॥ सौति बोले-शौनक ! ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य में सभी पुत्रों को लगाकर नारद को भी सृष्टि करने के लिए प्रेरित किया ॥ १ ॥ हितं सत्यं वेदसारं परिणामसुखावहम् । उवाच नारदं ब्रह्मा वेदवेदाङ्गपारगम् ॥२॥ ब्रह्मा ने वेद-वेदांग के पारगामी विद्वान् नारद से यह हितकर, सत्य, वेदों का सार, और परिणाम में सुख देने वाली बात कही ॥ २ ॥ ब्रह्मोवाच एहि वत्स कुलश्रेष्ठ नारद प्राणवल्लभ । ज्ञानदीपशिखाज्ञानतिमिरक्षयकारक ॥३॥ ब्रह्मा बोले-वत्स ! यहाँ आओ । तुम मेरे कुल में श्रेष्ठ और प्राणों से भी प्रिय हो । तुम ज्ञानदीप की शिखा से अज्ञान-तिमिर के नाशक हो ॥ ३ ॥ सर्वेषामपि वन्द्यानां जनकः परमो गुरुः । विद्यादाता मन्त्रदाता द्वौ समौ च पितुः परौ ॥४॥ तवाहं जनकः पुत्र विद्यादाता च पालकः । ममाऽऽज्ञया च मत्प्रीत्या कुरु दारपरिग्रहम् ॥५॥ पिता परम गुरु होता है । वह वन्दनीय पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ है । विद्यादाता और मन्त्रदाता दोनों समान हैं तथा पिता से भी बढ़कर हैं । पुत्र ! मैं तुम्हारा पिता, विद्यादाता और पालनकर्ता हूँ । अतः मेरी आज्ञा से मेरे प्रसन्नार्थ तुम विवाह अवश्य करो ॥ ४-५ ॥ स च शिष्यः सोऽपि पुत्रो यश्चाऽऽज्ञां पालयेद्गुरोः । न क्षेमं तस्य मूढस्य यो गुरोरवचस्करः ॥६॥ स पण्डितः स च ज्ञानी स क्षेमी स च पुण्यवान् । गुरोर्वचस्करो यो हि क्षेमं तस्य पदे पदे ॥७॥ पुत्र और शिष्य वही है, जो गृह की आज्ञा का पालन करता है । जो गुरु की अवहेलना करता है उस मूढ़ का कल्याण नहीं होता है । वही पण्डित, ज्ञानी, कल्याणभाजन और पुण्यवान् है, जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है । पग-पग पर उसका कल्याण होता है ॥ ६-७ ॥ सर्वेषामाश्रमाणां च प्रधानः पुण्यवान्गृही । स्त्रीपुत्रपौत्रयुक्तं च मन्दिरं तपसः फलम् ॥८॥ सभी आश्रमों में पुण्यवान् गृही श्रेष्ठ कहा गया है । क्योंकि उसके तप के फलस्वरूप उसका गृह स्त्री, पुत्र और पौत्रों से सुसम्पन्न रहता है ॥ ८ ॥ पितरः पूर्वकाले च तिथिकाले च देवताः । सर्वे गृहस्थमायान्ति निपानमिव धेनवः ॥९॥ जैसे हौज में पानी पीने के लिए गायें आती हैं उसी तरह पूर्वाह में देवता और अपराहु में पितर गृहस्थ के यहाँ आते हैं ॥ ९ ॥ नित्य नैमित्तिकं काम्यं कुर्वन्ति गृहिणः सदा । इह एतत्सुखं पुण्यं स्वर्गभोगः परत्र च ॥१०॥ गृही सदा नित्य, नैमित्तिक और काम्य अनुष्ठानों को करता रहता है । जिससे वह इस लोक में पवित्र सुख और परलोक में स्वर्ग-भोग प्राप्त करता है ॥ १० ॥ जीवन्मुक्तो गृहस्थश्च स्वधर्मपरिपालकः । यशस्वी पुण्यवांश्चैव कीर्तिमान्धनवान्सुखी ॥ ११॥ स्वधर्म का तत्परता से पालन करने वाला गृहस्थ जीवन्मुक्त होता है । वह यशस्वी, पुण्यवान्, कीर्तिमान्, धनवान और सुखी भी होता है ॥ ११ ॥ यशस्वी कीर्तिमान्यो हि मृतो जीवति संततम् । यशःकीर्तिविहीनो हि जीवन्नपि मृतो हि सः ॥ १२॥ जो यशस्वी और कीर्तिमान् है वह मर जाने पर भी निरन्तर जीवित रहता है और यश एवं कीर्ति से हीन प्राणी जीवित रहने पर भी मृतक के समान है ॥ १२ ॥ ब्रह्मणो वचनं श्रुत्वा नारदो मुनिसत्तमः । उवाच विनयं भीतः शुष्ककण्ठौष्ठतालुकः ॥ १३॥ ब्रह्मा की बात सुनकर मुनिवर नारद के कंठ, ओठ और तालू सूख गये । वे भयभीत होकर विनयपूर्वक बोले- ॥ १३ ॥ नारद उवाच एकदा वाग्विरोधेन चोभयोस्तातपुत्रयोः । हानिर्बभूव दैवेन महती वाऽयशस्करी ॥ १४॥ नारद ने कहा---एक बार वाग्विरोध के फलस्वरूप ही पुत्र-पिता दोनों की बहुत बड़ी और निन्दनीय हानि हुई है ॥ १४ ॥ मया प्राप्य च त्वच्छापाद्गान्धर्वं शौद्रमेव च । जन्म कर्म च मच्छापात्त्वमपूज्यो भवे भव ॥ १५॥ बभूव शापो मुक्तो मे काले ते भविता विधे । दोषाय कल्पते शश्वद्विरोधो न गुणाय च ॥ १६॥ आपके शाप के कारण गन्धर्व-कुल और शूद्र-कुल में मेरा जन्म-कर्म हुआ तथा मेरे शाप से आप संसार में अपूज्य हो गये । विधे ! बहुत काल के उपरान्त मुझे आपके शाप से मुक्ति मिली है इसीलिए कहा जाता है कि- (आपस का) विरोध निरन्तर दोष ही उत्पन्न करता है न कि गुण ॥ १५-१६ ॥ स पिता स गुरुर्बन्धुः स पुत्रः स अधीश्वरः । यः श्रीकृष्णपादपद्मे दृढां भक्तिं च कारयेत् ॥ १७॥ जो भगवान् श्रीकृष्ण के चरणकमल में दृढ़ भक्ति उत्पन्न कराये, वही पिता, गुरु, बन्धु, पुत्र और अधीश्वर है ॥ १७ ॥ असद्वर्त्मनि चाज्ञानाद्गच्छन्ति यदि बालकाः । निवर्तयति तानेव स पिता करुणानिधिः ॥ १८॥ यदि बालकः अज्ञानवश असन्मार्ग में जाता है तो करुणानिधान पिता उसे उस मार्ग से लौटाता है ॥ १८ ॥ कारयित्वा कृष्णपादे भक्तित्यागं च यः पिता । अन्यस्मिन्विषये पुत्रं स किं हन्त प्रवर्तयेत् ॥ १९॥ दारग्रहो हि दुःखाय केवलं न सुखाय च । तपःस्वर्गभक्तिमुक्तिकर्मणां व्यवधायकः ॥२०॥ भगवान् श्रीकृष्ण के चरण'कमल की भक्ति का त्याग कराकर पुत्र को अन्य विषयों में प्रवृत्त कराने वाला पिता कुत्सित पिता है । दारा (स्त्री) ग्रहण करना केवल दुःखदायी होता है, सुखकारक नहीं । वह तप, स्वर्ग, भुक्ति एवं मुक्ति के कमों में व्यवधायक है ॥ १९-२० ॥ योषितस्त्रिविधा ब्रह्मन्गृहिणां मूढचेतसाम् । साध्वी भोग्या च कुलटास्ताः सर्वाःस्वार्थतत्पराः ॥२१॥ ब्रह्मन् ! मूढचेता गृहस्थों के यहाँ तीन प्रकार की साध्वी, भोग्या और कुलटा स्त्रियाँ होती हैं । ये सभी स्वार्थपरायण होती हैं ॥ २१ ॥ परलोकभिया साध्वी तथेह यशसाऽऽत्मनः । कामस्तेहाच्च कुरुते भर्तुः सेवां च संततम् ॥२२॥ साध्वी परलोक के भय से और अपने यश के लिए तथा कामानुराग वश भी निरन्तर पति की सेवा करती हैं ॥ २२ ॥ भोग्या भोगार्थिनी शश्वत्कामस्तेहेन केवलम् । कुरुते कान्तसेवां च न च भोगीदृते क्षणम् ॥२३॥ भोगार्थिनी भोग्या केवल भोग के लिए कामानुरागवश कान्त की सेवा करती है । और किसी हेतु से वह क्षण भर भी सेवा नहीं करती ॥ २३ ॥ वस्त्रालंकारसंभोगसुस्निग्धाहारमुत्तमम् । यावत्प्राप्नोति सा भोग्या तावच्च वशगा प्रिया ॥२४॥ वह जब तक वस्त्र, आभूषण, सम्भोग और अत्यन्त स्निग्ध एवं उत्तम पदार्थ पाती है तभी तक वह पति के अधीन रहकर प्यारी बनी रहती है ॥ २४ ॥ कुलाङ्गारसमा नारी कुलटा कुलनाशिनो । कपटात्कुरुते सेवां स्वामिनो न च भक्तितः ॥२५॥ सदा पुंयोगमाशंसुर्मनसा मदनातुरा । आहारादधिकं जारं प्रार्थयन्ती नवं नवम् ॥२६॥ कुलटा स्त्री कुल में अंगार के समान है तथा कुलनाशिनी है । वह पति की सेवा सदैव कपटपूर्वक करती है, भक्तिपूर्वक कभी नहीं । वह सदा कामातुर रहकर पुरुष-संयोग चाहती रहती है । आहार से अधिक नये-नये जार पुरुष को चाहती है ॥ २५-२६ ॥ जारार्थे स्वपतिं तात हन्तुमिच्छति पुंश्चली । तस्यां यो विश्वसेन्मूढो जीवनं तस्य निष्फलम् ॥२७॥ तात ! जार के निमित्त यह पुंश्चली अपने पति की हत्या कर देती है । इसलिए जो मूर्ख उसमें विश्वास रखता है, उसका जीवन व्यर्थ है ॥ २७ ॥ कथिता योषितः सर्वा उत्तमाधममध्यमाः । स्वात्मारामा विजानन्ति मनस्तासां न पण्डिताः ॥२८॥ इस प्रकार मैंने उत्तम अधम और मध्यम स्त्रियों को बता दिया है । इनके मनोभाव को स्वात्माराम (अपने आप में रमण करने वाले योगी) ही जान सकते हैं, पंडित नहीं ॥ २८ ॥ हृदयं क्षुरधाराभं शरत्पद्मोत्सवं मुखम् । सुधासमं सुमधुरं वचनं स्वार्थसिद्धये ॥२९॥ उनका हृदय क्षुर की धार के समान (तीक्ष्ण) और मुख शारदीय कमल के समान (कोमल) होता है । वह अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए अमृत समान अत्यन्त मधुर वाणी बोलती है ॥ २९ ॥ प्रकोपे विषतुल्यं च विश्वासे सर्वनाशनम् । दुर्ज्ञेयं तदभिप्रायं निगूढं कर्म केवलम् ॥३०॥ कोप करने पर विष के समान उनके मुख से दुःसह वचन निकलता है । उनकी बातों पर विश्वास करने से सर्वनाश हो जाता है । उनके अभिप्राय को समझना बहुत कठिन है । केवल उनका कर्म अत्यन्त निगूढ होता है ॥ ३० ॥ सदा तासामविनयः प्रबलं साहसं परम् । दोषोत्कर्षश्छलोत्कर्षः शश्वन्माया दुरत्यया ॥३१॥ उन लोगों में सदा अविनयभाव (उद्दण्डता) प्रबल और पराकाष्ठा का साहस, दोषों और कपटों का उत्कर्ष तथा निरन्तर दुरत्यय (कठिनता से पार की जाने वाली) माया होती है ॥ ३१ ॥ पुंसश्चाष्टगुणः कामः शश्वत्कामो जगद्गुरो । आहारो द्विगुणो नित्यं नैष्ठुर्यं च चतुर्गुणम् ॥३२॥ जगद्गुरो ! इनमें पुरुषों से आठ गना अधिक काम निरन्तर बना रहता है और आहार की मात्रा दुगुनी तथा निष्ठुरता चौगुनी होती है ॥ ३२ ॥ कोपः पुंसः षड्गुणश्च व्यवसायश्च निश्चितम् । यत्रेमे दोषनिवहाः काऽऽस्था तत्र पितामह ॥३३॥ का क्रीडा किं सुखं पुंसो विण्मूत्रमलवेश्मनि । तेजः प्रणष्टं संभोगे दिवाऽऽलापे यशःक्षयः ॥३४॥ पुरुष से छह गुना अधिक कोप तथा उद्योग होता है । पितामह ! जिसमें इतने दोषसमूह वर्तमान रहते हैं, उस पर आस्था क्या होगी ? मलमूत्रभाण्डागार रूप स्त्री-शरीर से पुरुष को क्या सुख मिलेगा और क्या मनोविनोद होगा ? उससे सम्भोग करने पर तेज का क्षय होता है और दिन में बातचीत करने से यश का नाश होता है ॥ ३३-३४ ॥ धनक्षयोऽतिप्रीतौ चाप्यासक्तौ च वपुःक्षयः । साहित्ये पौरुषं नष्टं कलहे माननाशनम् । सर्वनाशश्च विश्वासे ब्रह्मन्नारीषु किं सुखम् ॥३५॥ उससे अति प्रीति करने पर धन का नाश, अत्यन्त आसक्त होने पर शरीर का नाश, संयोग करने से पौरुष-नाश, कलह करने से माननाश और विश्वास करने से सर्वनाश होता है । अतएव ब्रह्मन् ! स्त्रियों से क्या सुख मिल सकता है ? ॥ ३५ ॥ यावद्धनी च तेजस्वी सश्रीको योग्यतापरः । पुमान्नारीं वशीकर्तुं समर्थस्तावदेव हि ॥३६॥ जब तक मनुष्य धनी, तेजस्वी, श्रीसम्पन्न और योग्य है तभी तक वह स्त्रियों को वशीभूत रखने में समर्थ होता है ॥ ३६ ॥ रोगिणं निर्धनं वृद्धं योषिद्वै प्रेक्षतेऽप्रियम् । लोकाचारभयात्तस्मै ददात्याहारमल्पकम् ॥३७॥ स्त्रियाँ रोगी निर्धन और वृद्ध पति को प्रेम से नहीं देखती हैं, केवल लोकाचार के भय से उसे थोड़ा थैमोजन दे देता है ॥ ३७ ॥ इत्येवं कथितं सर्वं ब्रह्मन्नात्मागमो यथा । सर्वं जानासि सर्वज्ञ स्वात्मारामेश्वरो भवान् ॥३८॥ अनुग्रहं कुरु विभो विदायं देहि सांप्रतम् । कृष्णभक्तिं प्रार्थयामि त्वयि कल्पतरोः परे ॥३९॥ प्रान ! इस प्रकार मैन अपने पोष के आसार सब कुछ बता दिया । सर्वस ! आप सब कुछ जानते हैं । क्योंकि आप आत्माराम पुरुषों के अधीश्वर हैं । अब मुझे बिदा दें । विभो ! मेरे ऊपर कृपा करें । आप कल्पवृक्ष से भी बढ़कर हैं । मैं आपसे श्रीकृष्ण-भक्ति की याचना करता हूँ ॥ ३८-३९ ॥ इत्युक्त्वा नारदस्तत्र धृत्वा तातपदाम्बुजम् । आज्ञां ययाचे पितरं गन्तु तपसि मङ्गले ॥४०॥ इतना कहकर नारद ने पिता ब्रह्मा के चरण-कमलों को पकड़कर संगलमय तप के निमित्त जाने के लिये उनसे आज्ञा मांगी ॥ ४० ॥ कृताञ्जलिपुटो भूत्वा भक्तिनम्रात्मकंधरः । कृत्वा प्रदक्षिणं नत्वा ब्रह्माणं गन्तुमुद्यतः ॥४१॥ उपरान्त वे हाथ जोड़कर भक्ति से ग्रीवा झुकाकर ब्रह्मा की प्रदक्षिणा और नमस्कार करके (तपस्यार्थ) जाने को उद्यत हो गये ॥ ४१ ॥ गच्छन्तं तनयं दृष्ट्वा विधाता जगतां मुने । रुरोदोच्चैर्मुक्तकण्ठं महासांसारिको यथा ॥४२॥ मुने ! पुत्र को तप के हेतु जाते हुए देखकर जगत् के विधाता ब्रह्मा, महासंसारी (अज्ञानी) प्राणी की भांति फूट-फूट कर रोने लगे ॥ ४२ ॥ करे धृत्वा समालिङ्ग्य चुचुम्ब च पुनः पुनः । चिरं वक्षसि कृत्वा च वासयामास जानुनि ॥४३॥ अनन्तर उनका हाथ पकड़ कर आलिंगन और बार-बार चुम्बन करके वक्षःस्थल से चिपका कर देर तक घुटनों पर बैठाये रहे । ॥ ४३ ॥ स्वात्मारामेश्वरो ब्रह्मा योगीन्द्राणां गुरोर्गुरुः । भेदं सोढुं न शक्तोऽभूद्विच्छेदो दुःसहो नृणाम् ॥४४॥ स्वात्मारामों (योगी पुरुषों) के ईश्वर और योगीन्द्रों के गुरु के गुरु होते हुए भी ब्रह्मा उनका वियोग सहन करने में समर्थ न हो सके । क्योंकि वियोग मनुष्यों के लिए दुःसद्द होता है । ॥ ४४ ॥ कातरः पुत्रभेदेन मोहितो विष्णुमायया । शोकार्तो वक्तुमारेभे सुतं संबोध्य शौनक ॥४५॥ शौनक ! भगवान् विष्णु की माया से मोहित होने के कारण पुत्र-वियोग-जन्य दुःख से कातर और शोकार्त्त होकर (ब्रह्मा) पुत्र को सम्बोधित करके कहने लगे ॥ ४५ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे ब्रह्मनारदसंवादो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥२३॥ श्री ब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में ब्रह्म-नारद-संवाद नामक तेईसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २३ ॥ |