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ब्रह्मवैवर्तपुराणम् प्रथमं ब्रह्मखण्डम् - चतुर्विंशोऽध्यायः ब्रह्मनारदोक्तसंसारसुखासुखवर्णनम्
ब्रह्मा द्वारा नारद को गृहस्थ-धर्म का उपदेश - श्रीब्रह्मोवाच त्वं गच्छ तपसे वत्स किं मे संसारकर्मणि । अहं यास्यामि गोलोकं विज्ञातुं कृष्णमीश्वरम् ॥ १॥ ब्रह्मा बोले-वत्स ! तुम तप करने के लिए चले जाओ । मुझे भी इस संसार-सृष्टि से क्या (प्रयोजन) है ? मैं भगवान् कृष्ण को जानने के लिए गोलोक जाऊँगा ॥ १ ॥ सनकश्च सनन्दश्च तृतीयश्च सनातनः । सनत्कुमारो वैरागी चतुर्थः पुत्र एव च ॥२॥ यती हंसी चारुणिश्च वोढुः पञ्चशिखस्तथा । पुत्रास्तपस्विनः सर्वे किं मे संसारकर्मणि ॥३॥ क्योंकि सनक, सनन्दन, सनातन और चौथा पुत्र सनत्कुमार-ये सब विरागी हो गये । यति, हंसी, आरुणि, वोढु, पञ्चशिख आदि पुत्र भी तपस्वी हो गये । तो मुझे इस संसार की सृष्टि से क्या (प्रयोजन) है ॥ २-३ ॥ वचस्करो मरीचिर्म अङ्गिराश्च भृगुस्तथा । रुचिरत्रिः कर्दमश्च प्रचेताश्च क्रतुर्मनुः ॥४॥ वसिष्ठो वशगः शश्वत्सर्वेषु च सुतेषु च । अन्येऽविवेकिनोऽसाध्याः किं ते संसारकर्मणि ॥५॥ मेरी बात मानने वाले मरीचि, अंगिरा, भृग, रुचि, अत्रि, कर्दम, प्रचेता ऋतु और मनु ये मेरे आज्ञापालक हैं । इन सब पुत्रों में अधिक आज्ञापालक वशिष्ठ है जो सदा मेरे अधीन रहता है । उपर्युक्त पुत्रों के सिवा अन्य सब के सब अविवेकी तथा मेरी आज्ञा से बाहर हैं । ऐसी दशा में मेरा संसार की सृष्टि से क्या प्रयोजन है ? ॥ ४-५ ॥ निबोध वत्स वक्ष्यामि वेदोक्तं वचनं शुभम् । पारम्पर्यक्रमपरं चतुर्वर्गफलप्रदम् ॥६॥ वत्स ! सुनो, मैं तुम्हें वेदोक्त मंगलमय वचन सुना रहा हूँ । वह वचन परम्पराक्रम से पालित होता आ रहा है तथा धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष रूप चारों पुरुषार्थों को देने वाला है ॥ ६ ॥ धर्मार्थकाममोक्षांश्च सर्वे वाञ्छन्ति पण्डिताः । वेदप्रणिहितानेतान्सभासु मुनिशंसितान् ॥७॥ वेदों में लिखित और सभाओं में मुनियों द्वारा प्रशंसित धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को सभी विद्वान् चाहते हैं ॥ ७ ॥ वेदप्रणिहितो धर्मो ह्यधर्मस्तद्विपर्ययः । आदौ विप्रो यज्ञसूत्रं परिधाय सुखं सुखी ॥८॥ समधीत्य ततो वेदान्ददाति गुरुदक्षिणाम् । ततः प्रकृष्टकुलजां सुविनीतां समुद्वहेत् ॥९॥ वेद में जिसका विधान है, वह धर्म है और जिसका निषेध है वह अधर्म है । ब्राह्मण सर्वप्रथम सुखपूर्वक यज्ञोपवीत धारण कर वेदों का अध्ययन करे, पश्चात् गुरुदक्षिणा प्रदान करे । इसके बाद किसी उत्तम कुल की अत्यन्त विनीत कन्या का पाणिग्रहण (विवाह) करे ॥ ८-९ ॥ सा साध्वी कुलजा या च पतिसेवासु तत्परा । सद्वंशे दुर्विनीता च संभवेन्न कदाचन । आकरे पद्मरागाणां जन्म काचमणेः कुतः ॥१०॥ उत्तम कुल में उत्पन्न नारी पतिव्रता तथा सदैव पति-सेवा में तत्पर रहती है । कुल की स्त्री कभी दुविनीता नहीं होती है । पद्मराग मणि की खान में काचणि कसे उत्पन्न हो सकती है ? ॥ १० ॥ असद्वंशप्रसूता या पित्रोर्दोषेण नारद । दुर्विनीता च सा दुष्टा स्वतन्त्रा सर्वकर्मसु ॥ ११॥ नारद ! नीच कुल में उत्पन्न स्त्री ही माता-पिता के दोष से दुविनीता (उद्धतस्वभावा), दुष्ट और सभी कर्म करने में स्वतन्त्र होती है ॥ ११ ॥ न वत्स दुष्टाः सर्वाश्च योषितः कमलाकलाः । स्वर्वेश्यांशाश्च कुलटा असद्वंशसमुद्भवाः ॥१२॥ वत्स ! सभी स्त्रियाँ दुष्टा नहीं होती हैं । क्योंकि वे लक्ष्मी की कलायें हैं । जो अप्सराओं के अंश से तथा नीच कुल में उत्पन्न होती हैं, वे ही स्त्रियाँ कुलटा हुआ करती हैं ॥ १२ ॥ निर्गुणं स्वामिनं साध्वी सेवते च प्रशंसति । न सेवते च कुलटा प्रियं निन्दति सद्गुणम् ॥ १३॥ पतिव्रता स्त्री गुणहीन पति की भी सेवा और प्रशंसा करती है, किन्तु कुलटा स्त्री सदगुणी पति की भी सेवा नहीं करती है, अपितु उसके सद्गुणों की निन्दा ही करती है ॥ १३ ॥ साधुः सद्वंशजां कन्यां प्रयत्नेन परिग्रहेत् । तस्यां पुत्रान्समुत्पाद्य वृद्धस्तु तपसे व्रजेत् ॥ १४॥ इसीलिए साधुप्रकृति के पुरुष प्रयत्नपूर्वक सत्कुलीना कन्या के साथ विवाह कर उससे पुत्रोत्पादन करते हैं और वृद्ध होने पर तपस्या के लिए चले जाते हैं ॥ १४ ॥ वरं हुतवहे वासः सर्पवक्त्रे च कण्टके । एतेभ्यो दुःखदो वासः स्त्रिया दुर्मुखया सह ॥ १५॥ अग्नि, सर्प के मुख और काँटे पर निवास करना अच्छा है किन्तु मुख से दुर्वचन निकालने वाली स्त्री के साथ रहना कदापि अच्छा नहीं है, वह इन अग्नि, सर्प और कंटक से भी अधिक दुःखदायिनी होती है । ॥ १५ ॥ मत्तोऽधीतस्त्वया वेदो मह्यं च गुरुदक्षिणाम् । पुत्र देहीदमेवेह कुरु दारपरिग्रहम् ॥१६॥ वत्स त्वं कुलजातां च पूर्वपत्नीं च मालतीम् । विवाहं कुरु कल्याण कल्याणे च दिनेऽनघ ॥१७॥ पुत्र ! मुझसे तुमने वेदाध्ययन किया है, अतः मुझे यही गुरुदक्षिणा प्रदान करो–'तुम विवाह कर लो । ' वत्स ! तुम्हारी पूर्वपत्नी कुलीना मालती ने पुनः जन्म ग्रहण किया है । निष्पाप ! किसी शुभ दिन में उसके साथ विवाह करो ॥ १६-१७ ॥ मनुवंशोद्भवस्येह सृञ्जयस्य गृहे सती । त्वत्कृते जन्म लब्ध्वा च कुरुते भारते तपः ॥१८॥ मनुवंश में उत्पन्न राजा सृञ्जय के घर में जन्म लेकर वह सती तुम्हें पाने के लिए भारतवर्ष में तप कर रही है ॥ १८ ॥ गृह्णिष्व परमां रत्नमालां च कमलाकलाम् । भारते न भवेद्व्यर्थं जनानां तपसः फलम् ॥ १९॥ इस समय उसका नाम रत्नमाला है । वह लक्ष्मी की कला है । तुम उसे ग्रहण करो । क्योंकि भारतवर्ष में मनुष्यों के तप का फल व्यर्थ नहीं होता है । ॥ १९ ॥ आदौ भवेद्गृही लोको वानप्रस्थस्ततः परम् । ततस्तपस्वी मोक्षाय क्रम एष श्रुतौ श्रुतः ॥२०॥ मनुष्य सर्वप्रथम गृहस्थ, अनन्तर वानप्रस्थ और उसके पश्चात् मोक्ष के लिए तपस्वी (संन्यासी) हो—ऐसा क्रम वेदों में सुना गया है ॥ २० ॥ वैष्णवानां हरेरर्चा तपस्या च श्रुतौ श्रुता । वैष्णव त्वं गृहे तिष्ठ कुरु कृष्णपदार्चनम् ॥२१॥ वेदों में कहा गया है कि भगवान् की अर्चना करना ही वैष्णवों की तपस्या है ॥ २१ ॥ अन्तर्बाह्ये हरिर्यस्य तस्य किं तपसा सुत ॥२२॥ अतः वैष्णव ! तुम घर में रहो और भगवान् श्रीकृष्ण के चरण-कमल की अर्चना करो । पुत्र ! जिसके भीतर और बाहर विष्णु विराजमान हैं, उसे तप करने की क्या आवश्यकता है ॥ २२ ॥ नान्तर्बाह्ये हरिर्यस्य तस्य किं तपसा फलम् । तपसा हरिराराध्यो नान्यः कश्चन विद्यते ॥२३॥ निष्पाप ! जिसके भीतर-बाहर हरि नहीं हैं उसे भी तप करने से क्या लाभ हो सकता है ? क्योंकि तप द्वारा विष्णु की ही अर्चना की जाती है अन्य की नहीं ॥ २३ ॥ यत्र तत्र कृतं कृष्णसेवनं परमं तपः । वत्स मद्वचनेनैव गृहे स्थित्वा हरिं भज ॥२४॥ पुत्र ! जहाँ-तहाँ कहीं भी रहकर की हुई श्रीकृष्ण की सेवा सर्वोत्तम तप है । अतः तुम मेरी बात मानकर घर रहो और भगवान् को भजो ॥ २४ ॥ गृही भव मुनिश्रेष्ठ गृहीणां सर्वदा सुखम् । कामिन्यां सुखसंभोगः स्वर्गभोगसमो मतः ॥२५॥ मुनिश्रेष्ठ ! गृही बनो, गृहस्थों को सर्बदा सुख मिलता है । कामिनी का सुख-सम्भोग स्वर्गभोग के समान है ॥ २५ ॥ तद्दर्शनमुपस्पर्शं वाञ्छन्त्येव मुमुक्षवः । सर्वस्पर्शसुखात्स्त्रीणामुपस्पर्शसुखं वरम् ॥२६॥ मुमुक्षु पुरुष भी उसका दर्शन और स्पर्शन चाहते हैं । सभी के स्पर्श-सुख से स्त्री का स्पर्श-सुख श्रेष्ठ कहा गया है ॥ २६ ॥ ततः सुखतमे पुत्रदर्शनस्पर्शने मुने । सर्वेभ्यः प्रेयसी कान्ता प्रिया तेन प्रकीर्तिता ॥२७॥ मुने ! उससे अधिक सुखदायक पुत्रदर्शन और उसका स्पर्शन होता है । सबसे अधिक प्रिय पत्नी होती है । इसलिए उसे 'प्रिया' कहा गया है ॥ २७ ॥ पुत्रप्रयोजना कान्ता शतकान्ताप्रियः सुतः । नास्ति पुत्रात्परो बन्धुर्नास्ति पुत्रात्परः प्रियः ॥२८॥ पुत्ररूप प्रयोजन सम्पन्न करने के लिए स्त्री की आवश्यकता होती है और सैकड़ों स्त्रियों से भी अधिक प्रिय पुत्र होता है । पुत्र से बढ़ कर बन्धु और प्रिय कोई नहीं है ॥ २८ ॥ सर्वेभ्यो जयमन्विच्छेत्पुत्रादेकात्पराजयम् । न चाऽऽत्मनोऽप्रियोऽर्थश्च तस्मादपि सुतः प्रियः ॥२९॥ सबसे जीतने की इच्छा करे । एकमात्र पुत्र से ही पराजय की कामना करे । कोई भी प्रिय पदार्थ अपने लिए नहीं (पुत्र के लिए) रखा जाता है, इसलिए पुत्र प्रिय होता है ॥ २९ ॥ अतः प्रियतमे पुत्रे न्यसेदात्मपरं धनम् । इत्येवमुक्त्वा स ब्रह्मा विरराम च शौनक । उवाच वचनं तातं नारदो ज्ञानिनां वरः ॥३०॥ अतः प्रियतम पुत्र को अपना श्रेष्ठ धन भी सौंप देना चाहिए । शौनक ! इतना कह कर ब्रह्मा चुप हो गये । अनन्तर ज्ञानिश्रेष्ठ नारद ने अपने पिता से कहा ॥ ३० ॥ नारद उवाच स्वयं विज्ञाय सर्वार्थं स्वपुत्रं वेददर्शने । प्रवर्तयत्यसन्मार्गे स दयालुः कथं पिता ॥३१॥ नारद बोले जो स्वयं वेदों और दर्शनों को जानकर अपने पुत्र को निकृष्ट मार्ग में लगाता है वह पिता दयालु कैसे कहा जा सकता है ? ॥ ३१ ॥ जलबुद्बुदवत्सर्वं संसारमतिनश्वरम् । जलरेखा यथा मिथ्या तथा ब्रह्मञ्जगत्त्रयम् ॥३२॥ ब्रह्मन् ! यह समस्त संसार जल के बुलबुले के समान अत्यन्त नाशशील और जल-रेखा की भांति मिथ्या है ॥ ३२ ॥ विहाय हरिदास्यं च विषये यन्मनश्चलम् । दुर्लभं मानवं जन्म मा भूत्तन्निष्फलं क्वचित् ॥३३॥ हरिदास्य को छोड़कर इस चञ्चल मन को विषय-वासना में नहीं लगाना चाहिए । क्योंकि यह मानव-जन्म दुर्लभ है, अतः यह कहीं निष्फल न हो जाये ॥ ३३ ॥ का वा कस्य प्रिया पुत्रो बन्धुः को वा भवार्णवे । कर्मोर्मिभिर्योजना च तदपायो वियोजना ॥३४॥ इस संसार-सागर में कौन किसकी प्रिया, कौन पुत्र और कौन बन्धु है । कर्मों की तरंगों द्वारा सबका संयोग होता है और कर्मों के नाश से ये एक-दूसरे से बिछुड़ जाते हैं ॥ ३४ ॥ सुकर्म कारयेद्यो हि तन्मित्रं स पिता गुरुः । दुर्बुद्धिं जनयेद्यो हि स रिपुः स्यात्कथं पिता ॥३५॥ जो सुकर्म कराता है, वही मित्र, पिता और गुरु है । और जो दुर्बुद्धि उत्पन्न कराता है, वह पिता नहीं शत्रु है ॥ ३५ ॥ इत्येवं कथितं तात वेदबीजं यथागमम् । ध्रुवं तथाऽपि कर्तव्यं तवाऽऽज्ञापरिपालनम् ॥३६॥ तात ! इस प्रकार मैंने शास्त्र के अनुसार वेद का बीज (सारतत्त्व) कहा है । यद्यपि यह ध्रुव सत्य है तथापि मुझे आपकी आज्ञा का पालन करना चाहिए ॥ ३६ ॥ आदौ यास्यामि भगवन्नरनारायणाश्रमम् । नारायणकथां श्रुत्वा करिष्ये दारसंग्रहम् ॥३७॥ भगवन् ! पहले मैं नरनारायण के आश्रम में जाऊँगा । वहाँ नारायण की वार्ता सुनने के पश्चात् दारपरिग्रह (विवाह) करूँगा ॥ ३७ ॥ इत्येवमुक्त्वा स मुनिर्विरराम पितुः पुरः । पुष्पवृष्टिस्तदुपरि तत्क्षणेन बभूव ह ॥३८॥ इतना कह कर नारद मुनि पिता के सम्मुख चुप हो गये । उसी क्षण उनके ऊपर पुष्पों की वृष्टि हुई ॥ ३८ ॥ क्षणं पितुः पुरः स्थित्वा नारदो मुनिसत्तमः । उवाच च पुनर्वेदं वचनं मङ्गलप्रदम् ॥३९॥ मुनिश्रेष्ठ नारद थोड़ी देर पिता के सामने खड़े रहकर पुनः मंगलप्रद वचन बोले ॥ ३९ ॥ नारद उवाच देहि मे कृष्णमन्त्रं च यन्मनोवाञ्छितं मम । तत्संबन्धि च यज्ज्ञानं यत्र तद्गुणवर्णनम् ॥४०॥ नारद बोले- मुझे भगवान् श्रीकृष्ण का मंत्र प्रदान कीजिये, जो मेरे मन को अत्यन्त अभीष्ट है । श्रीकृष्ण मंत्र संबंधी जो ज्ञान है तथा जिसमें उनके गुणों का वर्णन है, वह सब भी मुझे बताइए ॥ ४० ॥ ततः पश्चात्करिष्यामि त्वत्प्रीत्या दारसंग्रहम् । मानसे परिपूर्णे च कार्यं कर्तुं पुमान्सुखी ॥४१॥ उसके अनन्तर आपकी प्रसन्नता के लिए मैं विवाह करूँगा । क्योंकि अभीष्ट कार्य की सिद्धि होने पर ही मनुष्य सुखी होकर अन्य कार्यों में प्रवृत्त होता है ॥ ४१ ॥ नारदस्य वचः श्रुत्वा प्रहृष्टः कमलोद्भवः । उवाच पुनरेवेदं पुत्रं ज्ञानविदां वरः ॥४२॥ ज्ञानवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्रह्मा नारद की बातें सुनकर बड़े प्रसन्न हुए और फिर पुत्र से बोले ॥ ४२ ॥ ब्रह्मोवाच पत्युर्मन्त्रं पितुर्मन्त्रं न गृह्णीयाद्विचक्षणः । विविक्ताश्रमिणां चैव न मन्त्रः सुखदायकः ॥४३॥ ब्रह्मा ने कहा-बुद्धिमान व्यक्ति पिता और पति से मंत्र न ले । संन्यासियों से मंत्र लेना भी सुखदायक नहीं होता है ॥ ४३ ॥ निषेकाल्लभ्यते मन्त्रो गुरुर्भर्ता च कामिनी । विद्या सुखं भयं दुःखं पुरुषैः स्वेच्छया न च ॥४४॥ मनुष्य जन्म-कर्मानुसार मंत्र गुरु, स्वामी, स्त्री, विद्या, सुख, भय तथा दुःख प्राप्त करता है । इन्हें वह स्वेच्छा से प्राप्त नहीं कर सकता ॥ ४४ ॥ महेश्वरस्तव गुरुः प्राक्तनो नः पुरातनः । गच्छ वत्स शिवं शान्तं शिवदं ज्ञानिनां गुरुम् ॥४५॥ वत्स ! महेश्वर तुम्हारे पुरातन गुरु हैं और हमारे भी । अतः उन्हीं शिव के पास जाओ, जो शान्त, कल्याणप्रद और ज्ञानियों के गुरु हैं ॥ ४५ ॥ तत एव भवान्मन्त्रं ज्ञानं लब्ध्वा पुरातनात् । नारायणकथां श्रुत्वा शीघ्रमागच्छ मद्गृहम् ॥४६॥ उन्हीं प्राचीन गुरु से मन्त्र लेकर नारायण की कथा-वार्ता सुनो और शीघ्र मेरे घर लौट आओ ॥ ४६ ॥ इत्युक्त्वा जगतां धाता विरराम च शौनक । प्रणम्य पितरं भक्त्या शिवलोकं ययौ मुनिः ॥४७॥ शौनक ! जगत् के विधाता (ब्रह्मा) इतना कहकर चुप हो गये और नारद मुनि भी भक्तिपूर्वक पिता को प्रणाम करके शिवलोक को चले गये ॥ ४७ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे सौतिशौनकसंवादे ब्रह्मखण्डे ब्रह्मनारदोक्तसंसारसुखासुखवर्णनं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः ॥२४॥ श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के ब्रह्मखण्ड में ब्रह्म-नारद-संवाद-प्रकरण में संसार के सुख-दुःख वर्णन नामक चौबीसवाँ अध्याय समाप्त ॥ २४ ॥ |